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मातृभक्त स्वाभिमानी योद्धा महाराज सुल्तान सिंह जी बीकानेर

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महाराज सुल्तान सिंह जी बीकानेर के महाराजा गजसिंह जी के पुत्र थे जो अप्रेल 1758 में महाराज गजसिंह जी की महारानी अखै कँवर देवड़ी जी के गर्भ से जन्में थे, महारानी अखै कँवर देवड़ी जी सिरोही के राव मानसिंह दुर्जनसिंघोत की पुत्री थी|

महाराज सुल्तान सिंह जी की शादी भादवा बदी 8 वि.स.1840 (अगस्त 1783) को देरावर के भाटी जैतसिंह जी की पुत्री राजकंवर देरावारी के साथ संपन्न हुई| व दूसरी शादी रानी फूल कँवर के साथ हुई, रानी फूलकंवर ठाकुर गुमान सिंह जी पुत्री व रेवासा के ठाकुर बैरिसाल सिंह जी या पृथ्वी सिंह जी शाहपुरा की पोत्री थी|

महाराज कुमार सुल्तान सिंह जी के दो पुत्र गुमान सिंह, अखैसिंह व तीन पुत्रियाँ पद्म कँवर, सरदार कँवर व फतेहकँवर हुई जिनमें पद्म कँवर का विवाह मेवाड़ के महाराणा भीम सिंह जी के साथ वि.स.1856 (1779ई.) में हुआ| सन 1827 ई. में रानी पद्म कँवर ने उदयपुर की प्रसिद्ध पिछोला झील पर पद्मेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया और अपने पति की मृत्यु के उपरांत चैत बदी 14 वि.स.1885 (30 मार्च 1828) को उनकी चिता पर सती हो गयी| राजकुमारी सरदार कँवर का विवाह राजा केसरी सिंह जी बनेड़ा के साथ हुआ|

एक बार अपने पिता महाराज गजसिंह जी के आदेश पर महाराज कुमार सुल्तान सिंह जी को अपने बड़े भाई राजकुमार राजसिंह जी को हिरासत में लेकर कैद करना पड़ा जिन्हें बाद में महाराज गजसिंह जी के आदेश पर कुछ समय बाद रिहा किया गया| महाराज गजसिंह जी की मृत्यु के बाद वि.स. 1843 सन 1787 ई. में राजकुमार राज सिंह जी का बीकानेर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक हुआ| पिता महाराज गजसिंह जी के दाह संस्कार के बाद महाराज सुल्तान सिंह जी अपने भाईयों अजब सिंह व मोहकम सिंह के साथ बीकानेर छोड़ जैसलमेर, जोधपुर, जयपुर आदि जगह चले गए|

महाराज सुल्तान सिंह जी के जाने के बाद व राजसिंह जी के राज्याभिषेक के बाद बीकानेर राजघराने में राजगद्दी के लिये षड्यंत्र चलने लगे| महाराज गजसिंह की एक रानी के मन में कैकयी की तरह अपने पुत्र सूरत सिंह को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठाने की हसरतों ने जन्म ले लिया और महाराज उसने राजसिंह जी से गद्दी छीन अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने हेतु षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए और महाराज राजसिंह जी के राज्याभिषेक के एक वर्ष के भीतर ही उनको खाने में विष देकर उनकी हत्या कर दी गयी|

राज सिंह जी की हत्या के बाद उनके उनके नाबालिग पुत्र प्रतापसिंह का बीकानेर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया| राजसिंह जी की षड्यंत्र पूर्वक हत्या के बाद महाराज सुल्तान सिंह जी बीकानेर आये| और उनके पुत्र के राज्याभिषेक होने व सूरत सिंह द्वारा उनका संरक्षक बनने के बाद महाराज सुल्तान सिंह जी वापस देशनोक करणी माता के दर्शन करने के बाद नागौर होते हुए उदयपुर चले गए| महाराज सुल्तान सिंह जी देवी करणी माता के अनन्य भक्त थे|

महाराज सुल्तान सिंह जी के वापस चले जाने के बाद सूरत सिंह बालक महाराज प्रताप सिंह के संरक्षक बन राजकार्य चलाने लगे, पूरी शासन व्यवस्था उनके हाथों में थी फिर भी माँ बेटा को संतुष्टि नहीं हुई, वे बालक महाराज को मारने के षड्यंत्र रचते रहे, उन्हें पता था कि बालक महाराज की हत्या के बाद बीकानेर के सामंतगण उन्हें राजा के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे, सो सूरत सिंह ने बीकानेर रियासत के कई सामंतों को धन, जमीन आदि देकर अपने पक्ष में कर लिया उसके बावजूद कोई सामंत बालक महाराज का वध करने के पक्ष में नहीं था| साथ ही बालक महाराज की एक भुआ बालक महाराज के खिलाफ किये जा सकने वाले षड्यंत्रों के प्रति पूरी सचेत थी और वह हर वक्त बालक महाराज की सुरक्षा के लिये छाया की तरह उनके साथ रहती थी|

सूरत सिंह जानते थे कि जब तक अपनी उस बहन को वे अलग नहीं कर देंगे तब तक बालक महाराज की हत्या नहीं की जा सकती| अत: सूरत सिंह ने अपनी उस बहन का विवाह कर उसे बालक महाराज से दूर करने का षड्यंत्र रचा, बालक महाराज की बुआ ने अपने विवाह का यह कह कर अपने भाई सूरत सिंह से विरोध किया कि उसके विवाह के बाद आप लोग बालक महाराज की हत्या कर देंगे अत: वे अपने भतीजे बालक महाराज प्रताप सिंह के जीवन रक्षा के लिये जिंदगीभर विवाह नहीं करेंगी| पर सूरत सिंह द्वारा ऐसा नहीं करने का वचन दे आश्वस्त करने पर उन्होंने अपना विवाह करना स्वीकार कर लिया, और उनके विवाह के बाद मौका पाकर क्रूर सूरत सिंह ने अपने बड़े भाई के पुत्र बालक महाराज प्रताप सिंह का गला रेत कर हत्या कर दी और राव बीका की पवित्र राजगद्दी पर खुद का राज्याभिषेक करा उसे अपवित्र कर दिया|

सूरत सिंह द्वारा इस तरह षड्यंत्र द्वारा राजगद्दी हथियाने व अपने भाई राजसिंह जी व उनके पुत्र प्रताप सिंह की हत्या का बदला लेने व सूरत सिंह को उसके किये का दंड देने महाराज सुल्तान सिंह जी अपने भाई महाराज अजब सिंह जी को साथ लेकर वापस आये और भाटी राजपूतों की सहायता लेकर सूरत सिंह पर आक्रमण किया| इस युद्ध में सुल्तान सिंह जी के काफी सैनिक हताहत हुए और सूरत सिंह के सैनिकों द्वारा घिर जाने पर महाराज सुल्तान सिंह जी को युद्ध के मैदान से वापस होना पड़ा और वे कोटा की ओर चले गए|

कुछ ही समय बाद महाराज सुल्तान सिंह जी को पता चला कि भाटियों ने हांसी के आईरिश राजा जार्ज थॉमस की सहायता से वापस भटनेर जीत लिया तब वे वापस बीकानेर आये और भाटी राजपूतों व जार्ज थॉमस से सैनिक सहायता लेकर बीकानेर किले को घेर युद्ध की घोषण कर दी| इस बार महाराज सुल्तान सिंह जी की सेना बीकानेर से बड़ी व ज्यादा ताकतवर थी| जिसे देख कुटिल सूरत सिंह ने फिर जार्ज थॉमस को अपनी और करने के लिए 2 लाख रूपये भेजे, पर जार्ज थॉमस ने रूपये लेने के बाद भी सूरत सिंह को कहला भेजा कि वह यहाँ से तभी जाएगा जब महाराज सुल्तान सिंह जी अपने भाई राजसिंह जी, उनके पुत्र महाराज प्रताप सिंह जी की हत्या व बीकानेर की राजगद्दी को अपवित्र करने वाले सूरत सिंह की हत्या कर बदला ले लेंगे|

आखिर महाराज सूरत सिंह ने अपने प्राण बचाने हेतु महाराज सुल्तान सिंह जी की माता राजमाता देवड़ी जी के आगे जाकर अपने प्राणों की याचना की कि वे सुल्तान सिंह जी से कहे कि वे युद्ध त्याग कर शांति स्थापना करे| पहली बार महाराज सूरत सिंह ने राजमाता से कहा कि- यदि परिवार में एक भाई दुसरे भाई को मारेगा, महाराजा गज सिंह जी का एक पुत्र दुसरे पुत्र की हत्या करेगा| क्या यह उचित है?

तब राजमाता ने भावनात्मक रूप से द्रवित हो महाराज सुल्तान सिंह जी के नाम युद्ध ख़त्म कर बीकानेर लौट आने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिख महाराज सूरत सिंह को दिया|

जिसे महाराज सुल्तान सिंह जी के कैम्प के पास ऊँची आवाज में पढ़कर उन्हें सुनाया गया| अपनी माता का युद्ध बंद करने हेतु भावनात्मक संदेश पाकर अपने हाथ में आ रहे बीकानेर राज्य का मोह त्याग महाराज सुल्तान सिंह जी ने युद्ध बंद करने का निर्णय लिया और भाटी राजपूतों व जार्ज थॉमस को अपनी सहायता के लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उन्हें अपने अपने ठिकानों हेतु लौटा दिया और खुद कोटा की और चल पड़े|

कोटा राज्य की और जाते समय उनके शिविर के पास एक दिन एक सिंह ने एक गाय पर हमला किया, उसे देखते ही महाराज सुल्तान सिंह जी बिना हथियार लिए गाय को बचाने हेतु सिंह से भीड़ गए और उन्होंने निहत्थे ही सिंह को मार गिराया पर सिंह के साथ लड़ाई में वे खुद इतने घायल हो गए थे कि अपने शिविर में आने के बाद उनकी मृत्यु हो गयी| इस तरह मातृभक्त महाराज सुल्तान सिंह जी एक गाय की रक्षा करते हुए 58 वर्ष की आयु में वि.स. 1815 में देवलोक सिधार गये|

बीकानेर के इतिहास में विभिन्न इतिहासकारों ने महाराज सुल्तान सिंह जी का कोटा की और प्रस्तान करना तो लिखा पर उसके बाद उनकी कोई जानकारी नहीं थी| पिछले दिनों महाराज सुल्तान सिंह जी एक वंशज राजकुमार अभिमन्यु सिंह राजवीबीकानेर राज्य के इतिहास का अध्ययन कर रहे थे, अपने पूर्वज सुल्तान सिंह जी के प्रकरण को पढ़ते हुए अभिमन्यु सिंह राजवी के मन जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि आखिर महाराज सुल्तान सिंह जी कोटा राज्य में कहाँ रहे ? उनकी मृत्यु कहाँ हुई ? उनका कोटा राज्य में कोई स्मारक है या नहीं ?

और अपनी इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए अभिमन्यु सिंह राजवीने बीकानेर के इतिहास की कई पुस्तकें छान मारी व बीकानेर रियासत की वंशावली आदि का रिकार्ड रखने वाले बही भाटों, बडवाओं आदि से मिलकर महाराज सुल्तान सिंह जी से संबंधित जानकारियां जमा की जिनमें यह तय हो गया कि उनकी मृत्यु कोटा के पास देवरी नामक स्थान पर हुई है, पता करने पर पूर्व कोटा राज्य में देवरी नाम के पांच गांव मिले, अभिमन्यु सिंह राजवीने इन पाँचों गांवों सहित कोटा के आस-पास अपने संपर्कों के जरिये कई स्मारकों व छतरियों की जानकारी इक्कठा की| आखिर बारां जिले में किशनगंज के पास एक गांव देवरी शाहबाद की एक पुरानी छतरी पर जय करणी माता अंकित लिखा पाया गया| चूँकि बीकानेर रियासत की करणी माता कुलदेवी है और महाराज सुल्तान सिंह जी करणी माता के अनन्य भक्त थे अत: उसी छतरी पर ध्यान केन्द्रित कर आगे की खोज की गयी| इस खोज में एक पत्थर पर उत्कीर्ण मूर्ति मिली जिसके पीछे महाराज सुल्तान सिंह जी के बारे में पूरी जानकारी लिखी मिली| इस तरह यह साफ़ हुआ कि उक्त छतरी महाराज सुल्तान सिंह जी की ही है, जो वहां दाहसंस्कार करने के बाद उनकी स्मृति में बनायीं गई है|

इस तरह एक इतिहास पुरुष के निर्वाण स्थल को उसके एक योग्य, जिज्ञासु व बुद्धिमान वंशज ने अपने शोध व लगन से ढूंढ निकला|

महाराज सुल्तान सिंह जी के वंशज -

महाराज सुल्तान सिंह जी – महाराज गुमान सिंह जी – महाराज पन्ने सिंह जी - महाराज जयसिंह जी – महाराज बहादुर सिंह जी – महाराज अमर सिंह जी (राजवी अमर सिंह जी – पूर्व जस्टिस) - महाराज नरपत सिंह जी (नरपत सिंह जी राजवी – पूर्व मंत्री राजस्थान) - राजकुमार अभिमन्यु सिंह राजवी (अभिमन्यु सिंह राजवी देश के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व.भैरों सिंह जी के दोहिते है)|

महाराज सुल्तान सिंह जी के संबंध में ज्ञान दर्पण.कॉम को ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध कराने हेतु श्री अभिमन्यु सिंह राजवी का हार्दिक आभार

ककराना गांव का उपेक्षित प्राचीन "लक्ष्मण मंदिर"

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ककराना गाँव के मंदिरों में सबसे प्राचीन लक्ष्मण जी का मंदिर बताते है। हालाँकि इस मंदिर की स्थापना का कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। शायद शेखावतों का उदयपुरवाटी से निकलने के बाद ही इस मंदिर का निर्माण हुआ होगा। झुंझार सिंह गुढा के पुत्र गुमान सिंह जी को ककराना, नेवरी, किशोरपुरा गाँव जागीर के रूप में मिला था। शायद उसी दौरान या उसके बाद उनके वंशजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया होगा।

मंदिर को बनाने में बढ़िया किस्म का चुना पत्थर का प्रयोग किया गया था। इस मंदिर की ऊंचाई भी इतनी अधिक की गयी कि तत्कालीन समय में नीचे बसे हुए गाँव में आसानी से इसके स्वरुप के दर्शन हो जाते थे। मंदिर ककराना के ह्रदय स्थल मुख्य बाजार में स्थापित है। मजबूत बड़े व् विस्तृत आसार, बड़ा मंडप, मंदिर में गर्भ गृह के पास भवन, तिबारे, नीचे बड़े तहखाने बने हुए है। "लक्ष्मण धणी" के गर्भ गृह के सामने ही हनुमान जी का मंदिर है। मंदिर के गर्भ गृह के चहुँ और परिक्रमा बनी हुई है। मंदिर की बनावट को देखकर उन्मुख्त भाव से मद खर्च का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

भगवन राम, राधा -कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवोँ के मंदिर तो प्रायः हर जगह दृष्टिगोचर हो जाते है। परन्तु लक्ष्मण जी जिनके बिना भगवान राम की कल्पना भी नहीं की सकती। जो कदम - कदम पर श्री राम प्रभु की परछाई बने रहे ऐसे त्यागी महापुरुष के मंदिर बहुत कम देखने को मिलेंगे। लक्ष्मण जी अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते है। प्रभु श्रीरामजी को ज्ञान और लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतिक कहा गया है। बगैर लक्ष्मण के राम का चरित्र कहीं उभरता ही नहीं। तुलसीदास ने राम की कीर्तिध्वजा का डंडा लक्ष्मण को माना है।

इस ऐतिहासिक मंदिर का उल्लेख उदयपुरवाटी के प्रमुख मंदिरो की श्रेणी में आता है ।तत्कालीन समय में किसी कवि ने इसका बखान अपने दोहे में कुछ इस प्रकार से किया है -

गोपीनाथ गुढा को ठाकर(भगवान) ,चुतुर्भुज चिराना को।
मालखेत सबको ठाकर ,लक्ष्मन जी ककराना को ।।


जागीरी के समय मंदिर के भोग व् दीपदान के लिए राजपूत जागीरदारों के द्वारा लगभग ३०० बीघा उपजाऊ भूमि प्रदान किया गया था। जैसा की रियासत काल के समय में मंदिरों के निर्माण के साथ ही मंदिर की पूजा व् देखरेख के लिए मंदिर के नाम भूमि दान की जाती थी। इसका हेतु यह था की मंदिर की पूजा अर्चना व् देखभाल उस भूमि से उपार्जित आय से भविष्य में होती रहे । मंदिर की पूजा शुरू से ही स्वामी परिवारों के अधीन रही है।

स्वामी परिवार ही इस भूमि पर काश्त करते थे व् मंदिर की पूजा बारी बारी से सँभालते रहे है ।
काफी समय से रखरखाव पर खर्च नहीं करने से मंदिर धीरे धीरे जर्जर होता जा रहा है। नीचे से दीवारें कमजोर पड़ने लग गयी है। जगह जगह से पलस्तर उखड़ने लग गयाहै ।

इतना समृद्ध होते हुए भी आज मंदिर भवन उपेक्षा का शिकार हो रहा है। वर्तमान में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति की सामर्थ्य नहीं है की इस विशाल मंदिर की मरम्मत करवा सके। इसलिए सर्वसमाज को आगे आकर व् प्रवासी बंधुओं के सहयोग से इस मंदिर का पुन: उद्दार करने के बारे में सोचने की नितांत आवशयकता है ।

लेखक : गजेंद्र सिंह ककराना

आधुनिक परिवार

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''माम'' अपनी तो ''डैड'' अपनी ''मायावी'' दुनिया में मस्त हैं ..!
''संताने'' अपने अपने महंगे गैजेट्स में अस्त-व्यस्त हैं ...!!

उनको नहीं मतलब संताने क्या गुल खिला रही हैं ..!
किस से कर रही हैं डेटिंग और किसे घर बुला रही हैं..!!

दादा-दादी तो अब ऐसे कम ही घरों में नजर आते हैं..!
आते भी हैं तो ये सब देख देख कोने में पड़े कराहते हैं ..!!

''डैड'' बस माया देकर अपना कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं..!
मस्ती में अपनी खलल ना पड़े इसलिए नाजायज मांगे भी पुरी करते हैं ..!!

''माम'' की तो पूछो ही मत उसकी हर रोज ''किटी'' होती है ..!
किसी भी वक्त इनको देखो कई किलो मेकअप में ''लिपटी'' होती है...!!

ऐसे परिवारों के बच्चे ''कूल ड्यूड'' और ''हॉट बेबज'' होते हैं..!
उनकी उलटी कारस्तानियाँ देख देख के बड़े बुजुर्ग रोते हैं ..!!

अगर देना चाहते हो अपनी संतान को अच्छे और ऊँचे संस्कार..!
''अमित''की मानो और बदलो पहले अपना आचार-विचार और व्यवहार..!!
साथ बिठा के संतानों को दिखाइये अपने देश के महान लोगों के उच्च विचार..!!!

लेखक :-
''भड़ास-रस'' ©कुंवर अमित सिंह

महाकवि दुरसा आढ़ा

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मारवाड़ राज्य के धुंधल गांव के एक सीरवी किसान के खेत में एक बालश्रमिक फसल में सिंचाई कर रहा था पर उस बालक से सिंचाई में प्रयुक्त हो रही रेत की कच्ची नाली टूटने से नाली के दोनों और फैला पानी रुक नहीं पाया तब किसान ने उस बाल श्रमिक पर क्रोधित होकर क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए उसे टूटी नाली में लिटा दिया और उस पर मिट्टी डालकर पानी का फैलाव रोक अपनी फसल की सिंचाई करने लगा|

उसी वक्त उस क्षेत्र के बगड़ी नामक ठिकाने के सामंत ठाकुर प्रतापसिंह आखेट खेलते हुए अपने घोड़ों को पानी पिलाने हेतु उस किसान के खेत में स्थित कुँए पर आये तब उनकी नजर खेत की नाली में मिटटी में दबे उस युवक पर पड़ी तो वे चौंके और उसे मिटटी से निकलवाकर अपने साथ सोजत ले आये व उसकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की| यहीं उस बालक का जीवन एक नई दिशा की और बढ़ने लगा और कालांतर में वही युवक पढ़ लिखकर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमता व अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर राजस्थान का एक परम तेजस्वी कवि के रूप में विख्यात हुआ, तथा जिस तरह से उस कवि को उस वक्त कविता के नाम पर जितना धन, यश, और सम्मान मिला उसे देखते हुए राजस्थान के इतिहासकार, साहित्यकार, कवि उस तेजस्वी कवि के महत्व की तुलना हिंदी के कवि भूषण से करते हुए उसे भूषण से भी बढ़कर बतातें है|

जी हाँ ! मैं बात कर रहा हूँ जसोल- मालाणी के पास आढ़ा नामक गांव में चारण जाति की आढ़ा शाखा के मेहा जी चारण के घर १५३५ ई. में जन्में महाकवि दुरसा आढ़ा की| दुरसा आढ़ा जब छ: वर्ष के थे तब ही उनके पिता ने सन्यास ले लिए था अत: पिता की अनुपस्थिति में घर चलाने हेतु बचपन में ही उन्हें मजबूरी में एक किसान के खेत में बालश्रमिक के तौर के पर कार्य करना पड़ा जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चूका हूँ|

दुरसा जब पढ़ लिखकर योग्य हो गए तो वे सिर्फ एक श्रेष्ठ कवि ही नहीं थे, उनकी तलवार भी उनकी कलम की तरह ही वीरता की धनी थी, उनकी बुद्धिमता को देखते हुए बगड़ी के सामंत ठाकुर प्रताप सिंह ने उन्हें अपना प्रधान सलाहकार व सेनापति नियुक्त किया व पुरस्कार स्वरूप धुंधाला व नातलकुड़ी नामक दो गांवों की जागीर भी प्रदान की|

ई.सन १५८३ में एक बार अकबर ने सिरोही के राव सुरताणसिंह के खिलाफ जगमाल सिसोदिया (मेवाड़) के पक्ष में सेना भेजी, मारवाड़ राज्य की सेना ने भी जगमाल के पक्ष में सुरताण सिंह के खिलाफ चढ़ाई की उस सेना में बगड़ी ठाकुर प्रतापसिंह भी दुरसा आढ़ा सहित युद्ध में भाग लेने गए| आबू के पास दताणी नामक स्थान पर दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ जिसमें अपने युद्ध कौशल को प्रदर्शित करते हुए दुरसा आढ़ा घायल हो गये, संध्या समय जब सुरताण अपने सामंतों सहित युद्ध भूमि का जायजा लेते हुए अपने घायल सैनिकों को संभाल रहा था तभी उसके सैनिकों को घायलावस्था में दुरसा मिला वे उसे मारने ही वाले थे कि दुरसा ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह एक चारण है और प्रमाण के तौर पर उसनें तुरंत उस युद्ध में वीरता दिखा वीरगति को प्राप्त हुए योद्धा समरा देवड़ा की प्रशंसा में एक दोहा सुना डाला|

राव सुरताणसिंह ने उसके दोहे से प्रसन्न हो और चारण जाति का पता चलने पर घायल दुरसा को तुरंत अपने साथ डोली में डाल सिरोही ले आये और उनके घावों की चिकित्सा कराई, ठीक होने पर राव सुरताणसिंह ने दुरसा की प्रतिभा देखते हुए अपने यहाँ ही रोक लिया उन्हें अपने किले का पोलपात बनाने के साथ ही एक करोड़पसाव का इनाम देने के साथ पेशुआ, जांखर, ऊड वा साल नामक गाँव दिए| उसके बाद दुरसा सिरोही में ही रहे|

महाकवि दुरसा ने तत्कालीन मुग़ल शासकों की राजनैतिक चालों को समझ लिया था और वे अपनी कविताओं के माध्यम से शाही तख़्त को खरी खोटी सुनाने से कभी नहीं चुकते थे| राजस्थान में राष्ट्र-जननी का अभिनव संदेश घर घर पहुँचाने हेतु उन्होंने यात्राएं की उसी यात्रा में जब वे मेवाड़ पहुंचे तो महाराणा अमर सिंह ने बड़ी पोल तक खुद आकर दुरसा का भव्य स्वागत किया| राजस्थान का सामंतवर्ग दुरसा आढ़ा की नैसर्गिक काव्य प्रतिभा के साथ उनकी वीरता पर भी समान रूप से मुग्ध था यही कारण था कि राजस्थान के राजा महाराजा उनका दुरसा का समान रूप से आदर करते थे|

राजाओं द्वारा प्राप्त पुरस्कार को यदि काव्य-कसौटी माना जाय तो इतिहासकार कहते है कि दुरसा जैसा कवि अन्यत्र दुष्प्राप्य है| महाकवि दुरसा के स्फुट छंदों में दृढ़ता, सत्यप्रियता एवं निर्भीकता का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है| स्फुट छंदों व प्रयाप्त मात्रा में उपलब्ध फुटकर रचनाओं के अलावा दुरसा द्वारा रचित तीन ग्रंथों का उल्लेख प्राय: किया जाता है- “विरुद छहतरी, किरतार बावनी और श्री कुमार अज्जाजी नी भूचर मोरी नी गजगत|”

कवि दुरसा ने दो विवाह किये थे और अपनी छोटी पत्नी से उन्हें विशेष प्रेम था| दोनों पत्नियों से उन्हें चार पुत्र- भारमल, जगमाल, सादुल और किसना प्राप्त हुए| बुढापे में उनके जेष्ठ पुत्र ने उनसे संपत्ति को लेकर विवाद किया तब उन्होंने कहा- एक तरफ मैं हूँ दूसरी और मेरी संपत्ति, जिसको जो लेना हो ले ले| यह सून पहली पत्नी से उत्पन्न सबसे बड़े पुत्र भारमल ने उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया, बची खुची संपत्ति के साथ छोटी पत्नी के बेटे किसना ने पिता के साथ रहना स्वीकारा अत: दुरसा अपनी वृद्धावस्था में मेवाड़ महाराणा द्वारा दिये गांव पांचेटिया में अपने अंतिम दिन व्यतीत करते हुए १६५५ ई. में स्वर्गवासी हो गये|

अचलगढ़ के एक देवालय में कवि दुरसा आढ़ा की एक पीतल की मूर्ति भी स्थापित है जिस पर १६२८ ई. का एक लेख उत्कीर्ण है| किसी कवि की पीतल की मूर्ति का निर्माण की जानकारी इससे पूर्व कभी नहीं मिली|

महाकवि दुरसा की नजर में घोर अंधकार से परिपूर्ण अकबर के शासन में जब सब राजा ऊँघने लग गए किन्तु जगत का दाता राणा प्रताप पहरे पर जाग रहा था| राणा प्रताप के प्रण, पराक्रम व पुरुषार्थ पर मुग्ध कवि ने लिखा-
अकबर घोर अंधार, उंघाणा हींदू अवर|
जागै जगदातार, पोहरै राण प्रतापसी||


सिरोही के राव सुरताणसिंह की प्रशंसा में –
सवर महाभड़ मेरवड़, तो उभा वरियाम|
सीरोही सुरताण सूं, कुंण चाहै संग्राम ||


आगरा के शाही दरबार में एक मदमस्त हाथी को कटार से मारने वाले वीर रतनसिंह राठौड़ (जोधा) की प्रशंसा में कवि ने कहा-
हुकळ पोळी उरड़ियों हाथी, निछ्टी भीड़ निराळी |
रतन पहाड़ तणे सिर रोपी, धूहड़िया धाराळी ||
पांचू बहंता पोखे, सांई दरगाह सीधे|
सिधुर तणों भृसुंडे सुजड़ी, जड़ी अभनमे जोधे||
देस महेस अंजसिया दोन्यौ, रोद खत्री ध्रम रीधो|
बोहिज गयंद वखाणे आंणे, डांणे लागे दीधो ||


बेबाक अभिव्यक्ति के धनी कवि करणीदान कविया

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नरेश जयसिंह व जोधपुर के महाराजा अभय सिंह तीर्थ यात्रा पर पुष्कर पधारे थे, दोनों राजा पुष्कर मिले और अपना सामूहिक दरबार सजाया, दरबार में पुष्कर में उपस्थित दोनों के राज्यों के अलावा राजस्थान के अन्य राज्यों से तीर्थ यात्रा पर आये सामंतगण शामिल थे, दरबार में कई चारण कवि, ब्राह्मण आदि भी उपस्थित थे, दोनों राजाओं के चारण कवि अपने अपने राजा की प्रशंसा में कविताएँ, दोहे, सौरठे सुना रहे थे, तभी वहां एक कवि पहुंचे जो निर्भीकता से अपनी बात कहने के लिए जाने जाते थे| महाराजा अभयसिंह जी ने कवि का स्वागत करते कहा – बारहठ जी ! पवित्र पुष्कर राज जैसे तीर्थ स्थल पर हम दोनों राजा आपसे एक ऐसी कविता सुनने को उत्सुक है जो अक्षरश: सत्य हो और एक ही छंद में हम दोनों का नाम भी हो|

जोधपुर महाराजा का आशय था कि एक ही छंद में दोनों राजाओं की प्रशंसा हो पर जब निर्भीक कवि ने अपनी ओजस्वी वाणी में दोनों राजवंशों के सत्य कृत्य पर छंद सुनाया तो दोनों नरेशों की मर्यादा तार तार हो गयी-


पत जैपर जोधांण पत, दोनों थाप उथाप|
कुरम मारयो डीकरो, कमधज मारयो बाप ||


(छंद में कुरम शब्द जयपुर राजवंश के कुशवाह वंश व कमधज जोधपुर राजघराने के राठौड़ वंश के लिए प्रयुक्त किया गया है)
इस दोहे को सुनते ही जयपुर नरेश जयसिंह जी ने तो बात को हंसकर टाल दिया पर जोधपुर नरेश कवि की बेबाक अभिव्यक्ति सून बुरा मान गये और उनका हाथ सीधा तलवार की मुठ पर गया| अपने गुस्से पर काबू करते हुए जोधपुर महाराजा ने कवि को तुरंत वहां से चले जाने का कहते हुये कहा- “बारहठ जी आपकी जगह कोई और होता तो उसका सिर काट डालता अत: आप यहाँ से तुरंत खिसक लीजिये और मुझे दुबारा कभी मुंह ना दिखाना|”

कवि ने प्रत्युतर दिया कि- “यदि मुझमे गुण होंगे तो आप खुद मुझे बुलाकर मेरा मुंह देखेंगे|”

इस तरह एक चारण कवि ने जिनके लिए अक्सर कुछ लेखक चापलूस, राजाओं की प्रशंसा मात्र करने वाले कवि होने का आरोप लगाते है ने सिद्ध कर दिया कि चारण कवि कभी भी सत्य बात कहने से नहीं चुकते थे| वे बेबाक होते थे, राजपूत राजा भी चारण कवियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा आदर करते थे|

जोधपुर के महाराजा अभयसिंह का गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां से अहमदाबाद में युद्ध हुआ और जोधपुर की सेना ने अप्रतिम बहादुरी दिखाते हुए सूबेदार को परास्त कर दिया, उपरोक्त बेबाक कवि भी उस युद्ध में योद्धा की तरह शामिल थे उन्होंने देखा सूबेदार कायर की भांति युद्ध से विमुख हो रहा है तो उसे अपनी ओजस्वी वाणी से एक कविता सुना कायर सूबेदार के हृदय में साहस का संचार कर युद्ध भूमि में ला खड़ा किया| इस युद्ध का कवि ने अपनी अनुपम कृति “सूरजप्रकास” में सांगोपांग वर्णन किया है| कवि की यह कृति राजस्थानी भाषा में महाकाव्य की अनुपम कृति है|

कवि की इस कृति के बारे में जब जोधपुर महाराजा अभयसिंह को पता चला तो उन्होंने कवि को बुलाकर युद्ध वर्णन सुनाने के लिए कहा| कवि ने एक कनात लगवाई और उसके एक तरफ राजा बैठे, दूसरी तरफ कवि ने बैठकर युद्ध का वर्णन काव्य में सुनाया| कनात इसलिए लगाई ताकि मुंह ना दिखाने की राजा की आज्ञा का पालन हो सके| कवि के मुंह से युद्ध वर्णन सून राजा उछल पड़े और कनात के दूसरी और आकर कवि को गले लगा लिया और पुरस्कृत किया|

इस तरह कवि ने अपना कहा कि- “मुझमे गुण होंगे तो आप मेरा मुंह जरुर देखेंगे|” सत्य कर दिखाया|

जानते है ये बेबाक व ओजस्वी कवि कौन थे ?

जी हाँ ! मैं बात कर रहा हूँ १६८५ ई. के आस पास आमेर राज्य के एक गांव डोगरी के चारणों की कविया शाखा के विजयराम चारण की पत्नी इतियाबाई के गर्भ से जन्में कवि करणीदान कविया की| कहते है डोगरी गांव के निकट ही पहाड़ी की एक कन्दरा में एक साधू रहते थे एक दिन उनके सेवक की घोड़ी मर गयी जो सेवक को अपने प्राणों से भी प्रिय थी| उसका दुःख दूर करने हेतु साधू उसे ले डोगरी के ठाकुर के घर आया आया और ठाकुर से एक घोड़ी अपने सेवक के लिए मांगी परन्तु ठाकुर ने घोड़ी के लिए मना कर दिया| इस बात से नाराज हो साधू ने ठाकुर को श्राप दिया कि उसके सभी घोड़े घोड़ियाँ मर जायेंगे| करणीदान पास खड़े खड़े ये सब सून रहे थे, वे झट से वहां से जाते हुए साधू के पीछे हो लिए और आगे जाकर हाथ जोड़तेहुए कहा- महात्मा आपके सेवक के लिए मैं अपनी घोड़ी भेंट करता हूँ|

महात्मा ने खुश होते हुए आशीर्वाद दिया और कहा- “जा बच्चा ! आज से तूं खूब फलेगा फूलेगा| इसी समय यह गांव छोड़कर कहीं चला जा तुझे आज ही तेरी ही घोड़ी के रंग वाला घोड़ा भी मिल जायेगा|”

महात्मा की बात सून करणीदान घोड़ी उनके सेवक को दे खुद भेंसे पर बैठकर गांव छोड़ चल पड़े| रास्ते में आने वाले एक गांव के ठाकुर ने उनका भैंसे पर बैठे भैरव रूप देख टोका और अपना घोड़ा भेंट कर दिया जिसका रंग उसी घोड़ी जैसा था जो वे भेंट कर आये थे| भेंट में मिले घोड़े पर बैठ वे चलते चलते खंगारोत राजपूतों के ठिकाने आये जहाँ तत्कालीन ठाकुर सुल्तानसिंह ने उनकी काव्य प्रतिभा परख आवभगत की, रथ घोड़े व नौकर चाकर दे सम्मानित किया| यही से उनके जीवन ने नवदिशा प्राप्त की|यही से राजस्थान में उनकी काव्य प्रतिभा का संचरण हुआ और वे उतरोतर यश व उपहार पाते गए|

१७०० ई. के आस पास करणीदान आमेर आ गए, जहाँ उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, डिंगल-पिंगल, ज्योतिष, संगीत, वेदांत आदि के अध्ययन के साथ योग सीखा| आमेर के बाद करणीदान शाहपुरा गए, वहां से डूंगरपुर नरेश शिवसिंह के पास आये, दोनों जगह इन्हें काव्य रचना पर लाखपसाव तक पुरस्कार मिले| उदयपुर के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय और जगत सिंह की इन पर विशेष कृपा थी| जोधपुर महाराजा अभयसिंह के अनुरोध पर करणीदान जोधपुर आ गए, जहाँ आपने अपनी काव्य प्रतिभा के साथ अपनी तलवार का जौहर दिखाते हुए अपनी शूरवीरता का भी परिचय दिया|

कवि करणीदान कविया का अंतिम समय किशनगढ़ में व्यतीत हुआ और यही इनकी १७८० ई. के आस पास जीवन लीला समाप्त हुई| जहाँ इनकी याद में एक छतरी बनी हुई है|

कवि करणीदान के लिखे चार ग्रंथ उपलब्ध होते है- सूरजप्रकास, विरदसिंणगार, यतीरासा और अभयभूषण| इनका लिखा ७५०० छंदों वाला सूरजप्रकास वृहद् ग्रंथ है जिसके कुछ अंश “बंगाल रायल एशियाटिक सोसायटी” ने छापें है| राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ने भी सीताराम लालस द्वारा सम्पादित इस ग्रंथ को चार भागों में प्रकाशित किया है|

करणीदान के अप्रकाशित ग्रंथ “यतीरासा” के बारे में कहा जाता है कि एक बार किशनगढ़ के राजा बिडदसिंह ने काठियावाड़ में विवाह करने का विचार किया, उस वक्त वहां यतियों का पाखंड चरम पर था| उसी के मध्यनजर उनकी रानियों के आग्रह पर कवि ने यह ग्रंथ लिखा था जिसमें जैन श्रावकों का भंडाफोड़ किया गया था, जातिप्रथा की कठोर भर्त्सना करते हुए कवि ने अपने ग्रंथ में वाह्यचारों की धज्जियां उड़ाई थी| जैन यतियों के कुकर्मों को उजागर करते हुए उनकी निंदा करने वाले इस ग्रंथ को पढने के बाद बिडदसिंह ने विवाह का विचार भी त्याग दिया था| आखिर एक जैन यती ने आकर उनकी निंदा करने वाले इस ग्रंथ का प्रसार न करने का कवि से आग्रह किया| कवि ने भी उन्हें सांत्वना देते हुए इस ग्रंथ को प्रकाश में ना लाने की प्रतिज्ञा की व वचन दिया|


नोट: लेख में सभी ऐतिहासिक तथ्य ड़ा.मोहनलाल जिज्ञासु द्वारा लिखित पुस्तक “चारण साहित्य का इतिहास” नामक पुस्तक से लिए गए है| ड़ा. मोहनलाल जिज्ञासु का इतने सटीक ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध कराने हेतु हार्दिक आभार|

समानता की सोच को निगल गया आरक्षण

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देश की आजादी के बाद देश के राजनेताओं ने आजादी पूर्व सामंती शासन में कथित जातिय भेदभाव व असमानता को दूर कर देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार व अवसर देने हेतु लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई| साथ ही पूर्व शासन काल में जातिय भेदभाव के शिकार पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने के अवसर देने के लिए देश में आरक्षण व्यवस्था की| जो निसंदेह तारीफे काबिल थी (यदि समय के साथ उसमें बदलाव किये जाते या वह एक यह व्यवस्था एक निश्चित समय के लिए की जाती)| आखिर पिछड़े वर्गों को नौकरियों में आरक्षण दे आर्थिक रूप से सुदृढ़ कर ही समानता का अवसर दिया जा सकता था| लेकिन हमारे नेताओं व कर्णधारों ने जिस समानता के लिए आरक्षण की व्यवस्था की आज वही आरक्षण व्यवस्था देश के नागरिकों के समानता के अधिकार को निगल असामनता को बढाने के साथ साथ जातिय संघर्ष व भेदभाव को बढ़ाने का कारक बन लोकतांत्रिक मूल्यों का उपहास उड़ा रही है| एक और इस व्यवस्था का आर्थिक रूप से सुदृढ़ और अयोग्य लोग फायदा उठा रहे है वहीं दूसरी और कथित गरीब स्वर्ण योग्यता के बावजूद सरकारी नौकरियां से वंचित हो रहे है|

इस असमानता के कुछ शानदार उदाहरणों की चर्चा करें तो पायेंगे कि राजस्थान के सबसे ज्यादा चढ़ावा पाने वाले १६ मंदिरों की गिनती में आने वाले श्रीनाथ जी के मंदिर के पुजारी के वंशज जातिय आधार पर आरक्षण प्राप्त करने के अधिकारी है पर एक गरीब ब्राह्मण आर्थिक आधार पर आरक्षण का कहीं अधिकारी नहीं|

राजस्थान के १९ राजाओं में में से १६ राजा राजपूत जाति के थे अत: हमारे देश के कर्णधारों ने यह मानते हुए कि राजस्थान के सभी ५० लाख राजपूतों ने राज किया है अत: वे किसी भी तरह के आरक्षण के अधिकारी नहीं है| जबकि राजस्थान के ही दो पूर्व राज्यों धोलपुर व भरतपुर के राजपरिवार आरक्षण में शामिल है| ये ही क्यों देश में वर्तमान में सतारूढ़ मंत्री, सांसद, विधायक लोग जिनका शासन में सीधा दखल रहता है के वंशज जातिय आधार पर आरक्षण के अधिकारी है, देश के पूर्व राष्ट्रपति की पोती ने सरकारी नौकरी में आरक्षण पाया, पर जिस जाति के सिर्फ १६ परिवारों ने राज किया उस जाति के गरीब को आरक्षण व्यवस्था में यह कह कर दूर कर दिया गया कि इस जाति ने राज किया था| तो क्या देश के उपरोक्त पूर्व राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति रहते देश पर शासन नहीं किया ?

इस तरह की व्यवस्था क्या लोकतंत्र में नागरिकों के समानता के अधिकार के विरूद्ध में नहीं ? क्या इस तरह की व्यवस्था जो देश के नागरिकों को समानता के मूलभूत अधिकार से वंचित कर लोकतंत्र की भावनाओं के खिलाफ नहीं ? आजादी के इतने वर्षों बाद तक इस व्यवस्था को कायम रखना क्या आजादी पूर्व शासन में असमानता का बदला लेने के लिए तो नहीं ?

एक तरफ हमारे राजनेता, कथित समाज सुधारक जातिय समानता व जातिवाद ख़त्म करने की बड़ी बड़ी बातें करते है, सेमिनारों, सभाओं में भाषण झाड़ते है और आरक्षण का समर्थन कर जातिवाद को बढ़ावा देते है| पिछड़ी या दलित जातियां एक तरफ जाति व्यवस्था से त्रस्त है और जातिय समानता के ख्वाब देखती है वही आरक्षण रूपी मलाई चाटने के चक्कर में जातिवाद से चिपकी पड़ी है और इस व्यवस्था की और कोई आँख उठाकर ना देखे इसलिए इसे बचाने को वोट बैंक बनी हुई है|

ऐसे में जब तक आरक्षण व्यवस्था कायम है जातिवाद ख़त्म कर समानता की बातें करना बेमानी है, ढोंग है, छलावा है, दोगलापन है|


Anti Reservation,

भारतीय शक्ति दल का राजनैतिक शंखनाद

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ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाओं का नाम ही क्रांति है| राजनैतिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टायें राजनैतिक क्रांति और सामाजिक परिवर्तनकारी ध्येय के लिए की जाने वाली चेष्टायें सामाजिक क्रांति कहलाती है|

राजनैतिक क्रांति तक पहुंचना और समाज को उसके लिए तैयार करना सरल कार्य नहीं है| राजनैतिक क्रांति से पूर्व सामाजिक क्रांति आवश्यक है और सामाजिक क्रांति के पूर्व भी विचार क्रांति आवश्यक है| अतएव विचार क्रांति राजनैतिक क्रांति का प्रथम सोपान है| जो व्यक्ति दोनों अवस्थाओं को पार किये बिना ही राजनैतिक क्रांति का प्रयास करते है, उनकी असफलता निश्चित समझी जानी चाहिये|

सामाजिक ध्येय की प्राप्ति के पूर्व सामाजिक जीवन को अनुकूल सांचे में ढालना आवश्यक है| सामाजिक जीवन को नए सांचे में ढालने का तात्पर्य है पुराने संस्कारों की भूमिका पर नये सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना| नये सामाजिक संस्कारों के निर्माण के पूर्व सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है| दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया का नाम ही विचार अथवा दार्शनिक क्रांति है| अतएव किसी भी प्रकार की सामाजिक क्रांति का आव्हान करने से पूर्व हमें अपने दृष्टिकोण को सब दिशाओं से हटाकर केवल एक ही केंद्र की और लगा देना चाहिये और वह केंद्र है हमारा ध्येय| राजनैतिक ध्येय के रूप में क्षात्र-धर्म का पालन करने के सिद्धांत को प्रभावशाली और व्यावहारिक बनाने के लिए राज्य सत्ता की प्राप्ति आवश्यक है| सबसे पहले राज्य सत्ता की प्राप्ति के लिए जो कार्य करना है वह है केवल राजपूत जाति के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना| प्रत्येक राजपूत को प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक कार्य करते समय केवलमात्र यही ध्यान रखना है कि शासन करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसीलिये प्रत्येक संभव वैध उपाय द्वारा राज्य सत्ता पर अधिपत्य करना है| इस प्रकार के दृष्टिकोण के निर्माण की प्रक्रिया का नाम ही विचार क्रांति है| कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस दिन सम्पूर्ण जाति की विचारधारा में इस प्रकार का मह्त्त्वशाली परिवर्तन आ जायेगा, उसी दिन विचार क्रांति पूरी होकर सामाजिक और राजनैतिक क्रांति के लिए अपने आप मार्ग खुल जायेगा| इस समय केवल मात्र अपने दृष्टिकोण को इस ध्येय की और लगाने की आवश्यकता है|

स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील के इन्हीं विचारों को व्यवहार लाते हुये क्षत्रिय समाज के पुराने संस्कारों की भूमिका पर वर्तमान पुरुषार्थी वर्गों को साथ लेकर वर्तमान समयानुकूल नये सामाजिक संस्कारों का निर्माण कर क्षत्रिय समाज में सामाजिक, राजनैतिक क्रांति लाने के उद्देश्य से निर्वाणी अखाड़े के श्रीमहंत राजऋषि मधुसुदन जी महाराज के आदेनुसार श्री राजेंद्र सिंह बसेठ ने रावत युगप्रदीप सिंह जी हम्मीरगढ़, प्रख्यात समाज सेवी यु.एस.राणा, सचिन सिंह गौड़, डा. सिकरवार, जयपाल सिंह गिरासे, झाला साहब, राजपाल चौहान, गणपत सिंह राठौड़ आदि के साथ सालभर पहले वैचारिक क्रांति की श्री क्षत्रिय वीर ज्योति के नाम से शुरुआत की| और धीरे धीरे क्षत्रिय वीर ज्योति की इस वैचारिक क्रांति से देशभर के सैंकड़ों युवा जुड़ते चले गए|

स्व.आयुवानसिंह जीव समाजसेवी श्री देवीसिंह जी महार के विचारों से ओतप्रोत श्री बसेठ ने सामाजिक क्रांति के साथ साथ क्षात्र धर्म का मुख्य राजनैतिक ध्येय भी समझा श्री बसेठ कहते है कि- आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक ध्येय की पूर्ति के लिए राजनैतिक ध्येय मुख्य है| अत: अपना ध्येय केंद्र में रखते हुए श्री बसेठ ने शुरू में वैचारिक क्रांति हेतु समय समय पर सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के साथ विचार विमर्श का दौर शुरू करते हुए अपनी राजनैतिक विचारधारा व एजेंडा समझाना शुरू किया, शुरू में विचार विमर्श के दौरान कई कार्यकर्ताओं को लगा कि श्री क्षत्रिय वीर ज्योति की ये योजनाएं और वैचारिक सोच मात्र हवा हवाई है, सिर्फ एक कमरे में बैठ पुरे भारतवर्ष पर राज्य करने की योजना इतने स्थापित राजनैतिक दलों के साथ प्रतिस्पर्धा कर कैसे फलीभूत हो सकती है? पर राजेंद्र सिंह जी ने क्षत्रिय वीर ज्योति के इस मिशन को बिना फल की आशा किये वैचारिक तौर पर अपने साथियों के सहयोग से जारी रखा| इसी बीच इस वैचारिक क्रांति के दौर में श्री क्षत्रिय वीर ज्योति से कई लेखक, बुद्धिजीवी, राजनेता, सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ता जुड़ते गये और वैचारिक क्रांति धीरे धीरे धरातल पर अपना रूप लेने लगी व धरातल पर फैलने को सतत प्रयत्नशील हो गयी|

इसी बीच इस वैचारिक क्रांति ने राजनैतिक क्रांति को आगे बढाने हेतु प्रख्यात समाजसेवी यु.एस.राणा, सचिन सिंह गौड़आदि के सद्प्रयासों के बल पर “भारतीय शक्ति दल” के रूप में पेशे से सर्जन और उतरप्रदेश के बिजनौर जनपद से विधायक रह चुके डा.वी.पी सिंह की अध्यक्षता में एक राजनैतिक दल ने जन्म लिया| साथ ही इसी वैचारिक क्रांति से प्रेरणा पाकर सर्वप्रथम राजस्थान विधानसभा चुनावों हेतु अलवर जिले की बानसूर विधानसभा क्षेत्र से राजपूत समाज ने अपने साथ रह रहे अन्य समुदायों के साथ मिलकर रमेश सिंह शेखावत चुनाव मैदान में उतरने का आदेश दिया जिसे सिरोधार्य करते हुए रमेश सिंह चुनाव मैदान में आ डटे, और क्षत्रिय वीर ज्योति के राजनैतिक मिशन को आगे बढाने हेतु पहल की, रमेश सिंह शेखावत के साथ ही श्री क्षत्रिय वीर ज्योति मिशन के शुरुआती चरण से साथ जुड़े बच्चू सिंह बसेठ ने भी समाज के आग्रह पर अलवर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की हामी भरी| क्षत्रिय वीर ज्योति का राजस्थान विधान सभा में अपनी विचारधारा के दस कार्यकर्ताओं को चुनाव मैदान में उतारने व विभिन्न दलों से चुनाव लड़ रहे वैचारिक समानता रखने वाले उम्मीदवारों को समर्थन देने की रणनीति बनाई है और इसके लिए सतत प्रयास जारी है और जो अब भारतीय शक्ति दल के रूप में आगे बढ़ रहे है|

इस वैचारिक क्रांति की शुरुआत में जहाँ क्षत्रिय वीर ज्योति के कुछ कार्यकर्त्ता आपस में दिल्ली में बैठ विचार विमर्श करते थे वही आज इस मिशन में भारतीय शक्ति दल, करणी सेना, क्षत्रिय सेना, राजपूत सेना, राजपुताना समाज दिल्ली, राजपूत युवा परिषद्, जय राजपुताना संघ, अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा, युवा राजपूत विकास समिति हरियाणा, अजगर (अहीर,जाट,गुर्जर,राजपूत) संगठन आदि दर्जनों सामाजिक संगठन शामिल हो कदम मिला रहे है| और देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्षत्रिय वीर ज्योति के मंथन शिविरों का आयोजन होने लगा है|

6 अक्टूबर २०१३ को भारतीय शक्ति दलकी दिल्ली के कोंसीटीट्युशनल क्लब में हुई सभा में उपरोक्त सभी संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लेकर शक्ति दल को समर्थन दिया| इन संगठनों के अलावा उतरप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा से बड़ी संख्या में आये लोगों ने भाग लिया वहीँ हरियाणा के प्रभावी सामाजिक कार्यकर्त्ता और चर्चित दलित हितैषी वेदपाल सिंह तंवर ने पार्टी को हरियाणा में मजबूत करने की जिम्मेदारी ली| इस तरह एक छोटे स्तर पर शुरू की गयी वैचारिक क्रांति का हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली व उतरप्रदेश तक प्रसार होने हेतु धरातल तैयार हो गया|

सभा में राजपूत संगठनों की उपस्थिति पर पार्टी को जातिय पार्टी समझने की आशंका निवारण करते हुए पार्टी की महिला प्रमुखकुंवरानी निशाकंवरने अपने संबोधन में कहा- कि ये पार्टी सभी की है और सिर्फ एक क्षत्रिय समाज ही ऐसा है जो सभी वर्गों को साथ लेकर चलने में सक्षम है, क्षत्रिय शासन के समय पुरुषार्थी वर्ग की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए निशाकंवर ने कहा कि समाज में कोई दलित नहीं, कोई छोड़ा बड़ा नहीं, सभी हमारे भाई है जिन्हें हम भूल गये अब जरुरत है उन्हें वापस गले लगाने की| भारतीय शक्ति दल द्वारा किसी पार्टी विशेष के वोट बैंक में सेंध लगाने की आशंकाओं के जबाब में कुंवरानीने साफ़ किया कि उनकी पार्टी किसी पार्टी के वोट नहीं काटेगी बल्कि अब तक जो लोग राजनीति को गंदी समझ वोट देने घरों से नहीं निकलते वे हमारे चरित्रवान व सक्षम उम्मीदवारों को वोट देने स्वत: घरो से बाहर आयेंगे और हमारी कार्य प्रणाली व राजनैतिक प्रशासनिक सोच देख लोग धीरे धीरे अपने आप हमारी पार्टी से जुड़ेंगे|

सभा में पार्टीके राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.वी.पी.सिंह ने पार्टी की विचारधारा व राजनैतिक एजेंडा पर चर्चा करते हुए अपनी पार्टी के मुख्य छ: उद्देशों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया कि उनकी पार्टी वैज्ञानिक तरीके से शासन चलायेगी| पार्टी की सोच भी विज्ञान आधारित होगी जो सब के हित में सबसे भले के लिए हो|

सभा में राजेन्द्रसिंह बसेठ, राजपूत युवा परिषद् अध्यक्ष उम्मेदसिंह करीरी, रांकपा के राष्ट्रीय महासचिव झाला साहब, हरियाणा के प्रभावी नेता व सामाजिक कार्यकर्त्ता वेदपाल तंवर, मध्यप्रदेश से आये ड़ा. सिकरवार, युवा राजपूत विकास समिति हरियाणा के अध्यक्ष व युवा नेता विनोद पाली, अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के बजरंग सिंह तंवर, अजगर (अहीर,जाट,गुर्जर,राजपूत) संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्नल अतर सिंह सहित सभा की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय देशभक्त नागरिक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा.जयेंद्र जड़ेजा ने अपनी ओजस्वी वाणी से संबोधित किया और अलवर के योगिराज संत योगेन्द्र सिंह जी ने आशीर्वचन दिये|


Bhartiy Shakti Dal, Kshtriy Veer Jyoti, Rajput Yuva Parishad, karni sena, vedpal tanwar, dr.v.p.singh, ajgar

अख़बारों के नाम पर गोरखधन्धा

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भारत में NGO (स्वयंसेवी संगठन) बनाकर राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विभिन्न सरकारी योजनाओं के नाम पर धन उठाकर घपले करने के बारे में तो आप जानते ही है, जैसे अभी कुछ माह पहले ही देश के एक केन्द्रीय मंत्री के NGO ने विकलांगों के कल्याण के नाम पर सरकारी बजट उठा घपला किया था| पर क्या आप जानते है ? इन एनजीओ वीरों की तरह ही हमारे महान लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ जो लोकतंत्र के प्रहरी कहे जाते है, प्रेस वाले भी फर्जी अख़बार निकाल सरकारी विज्ञापन के नाम पर सरकार से धन प्राप्त कर सरकारी खजाने को चुना लगाने में पीछे नहीं है|

अभी तक प्रेस द्वारा भ्रष्ट तरीके अपनाकर धन कमाने के मामले में लोगों की नजर पेड न्यूज और पत्रकारों, संपादकों, अख़बार मालिकों द्वारा काले धंधे करने वाले, भ्रष्ट अधिकारीयों को धमकाकर धन वसूलने पर ही रही है जिसका ताजा उदाहरण पीछे हमने जी टीवी व जिंदल प्रकरण में देखा था|

पर फर्जी अखबार छपने व उनमें सरकारी विज्ञापनों के नाम पर सरकारी खजाने को चुना लगाने की बात कम ही लोग जानते है| आईये आज चर्चा करते है इस तरीके पर जिसे प्रयोग कर हमारे लोकतंत्र के कथित प्रहरी हमारी गाढ़ी कमाई पर अधिकारीयों, राजनेताओं से मिलकर डाका डालते है....

कैसे पंजीकृत होता है अख़बार

भारत में कोई भी व्यक्ति RNI नामक सरकारी विभाग में आवेदन कर अपना अख़बार निकाल सकता है इसके लिए उसे किसी अनुभव आदि की कोई आवश्यकता नहीं| इसके लिए RNI की वेब साईट पर यहाँ क्लिक कर फॉर्म डाउनलोडकर उसे भरकर अपने जिले के डीएम से सत्यापित कर आवेदन भेज अख़बार पंजीकृत कराया जाता है, इस आवेदन में आवेदन कर्ता को तीन चार नाम देने होते है जिनमें पहले से पंजीकृत नहीं हुआ नाम RNI आवेदनकर्ता के नाम पंजीकृत कर देती है उसके बाद आवेदनकर्ता को एक और आवेदन यहाँ से डाउनलोड करभेजना होता है| यह प्रक्रिया पूरी कर भारत का कोई भी नागरिक RNI द्वारा जारी नियमावली (गाइडलाइन) का पालन करते हुए अपना अख़बार निकाल सकता है|

फिर फर्जी कैसे हुआ अख़बार

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा RNI द्वारा जारी नियमावली का पालन हर अख़बार के संपादक को करना पड़ता है, अख़बार भी नियमानुसार पंजीकृत होता है तो प्रश्न उठता है कि फिर अख़बार फर्जी कैसे हुआ ?
चूँकि RNI ने अख़बारों के लिए गाइडलाइन बना रखी है जिसे तोड़ना कोई मुद्दा नहीं है बल्कि RNI की इसी गाइड लाइन की आड़ में सिर्फ अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ा-चढ़ा कर झूंठी दर्शाकर इस फर्जीवाड़े को अंजाम दिया जाता है| चूँकि किसी भी अख़बार की प्रसार संख्या की निगरानी का कोई ऐसा सिस्टम नहीं है कि जिसके माध्यम से अख़बार की प्रसार संख्या प्रमाणित की जा सके| अत: ज्यादातर अख़बार फाइलों में निकलते है और बिना छपे ही या सिर्फ फाइल कॉपी छप कर सरकारी विज्ञापन रूपी मलाई पर हाथ साफ़ कर सरकारी खजाने को चुना लगाते है|

पंजीकृत अख़बारों की संख्या पर एक नजर

दिल्ली में कुल 14607अख़बार पंजीकृत है, 974 ऐसे है जिन्हें टाइटल मिल चुका है और वे पंजीकरण की लाइन में है जिनमें से इस वर्ष 604 अख़बार पंजीकृत को लाइन में है| राजस्थान में 6448 अख़बारपंजीकृत है, 966 लाइन में लगे है जिनमें अख़बार इस वर्ष 458 पंजीकृत होने को लाइन में है जिन्हें अख़बार का नाम मिल चुका है| निम्न लिंक परक्लिक कर अन्य राज्यों में भी अख़बारों की संख्या, कौन सा अख़बार कब पंजीकृत हुआ, संपादक कौन है आदि की जानकारी ली जा सकती है| RNI की वेब साईट पर पंजीकृत अख़बारों की संख्या देखकर आप इस गोरखधंधे की गहराई भांप सकते है| बड़े अख़बार राष्ट्रीय अंक के साथ हर शहर में कई कई छोटे बड़े अख़बार निकालते है जो सब विज्ञापन रूपी मलाई के औजार है| कैसे मिलते है सरकारी विज्ञापन

सरकारी विज्ञापन हासिल करने के लिए किसी भी अख़बार का भारत सरकार के DAVPविभाग में पंजीकृत होना आवश्यक है DAVP विभाग अख़बार निकलना शुरू होने के अट्ठारह महीने बाद पंजीकृत होने का आवेदन स्वीकार करता है इस आवेदन के साथ अट्ठारह महीने की अख़बार की प्रतियाँ भी लगती है, साथ ही पंजीकृत होने के बाद भी अख़बार की प्रकाशित ८०% प्रतियाँ व पीडीऍफ़ फाइल्स नियमित रूप से इस विभाग में जमा होना आवश्यक है, जो हर अख़बार वाला नियमित डाक से या एक साथ कई प्रतियाँ जमा करा आता है| किसी भी अख़बार की प्रति के पृष्ठ का आकार, पृष्ठ संख्या, प्रसार संख्या आदि के आधार पर DAVP सरकारी विज्ञापन की दर निर्धारित करता है| जो भविष्य में अख़बार को मिले सरकारी विज्ञापन के बदले मिलती है|
DAVP से पंजीकृत होने के बाद प्रत्येक अख़बार को केंद्र सरकार से वर्ष में चार विज्ञापन बिना किसी प्रतिस्पर्धा या भेदभाव के मिलने तय है जैसे २ अक्टूबर, स्वतंत्रता दिवस आदि आदि| इनके अलावा राज्य सरकार से विज्ञापन प्राप्त करने के लिए अख़बार को सम्बंधित राज्य सरकार के सूचना और जन सम्पर्क निदेशालय से पंजीकृत करवा लिए जा सकते है| दोनों जगहों पंजीकृत होने के अलावा विभिन्न सरकारी विभागों में भी पंजीकृत करा विज्ञापन लिए जाते है| विभिन्न सरकारी विभागों, राज्य सरकारों, मंत्रालयों आदि में विज्ञापन हासिल करने के लिए जिसकी जितनी पैठ, सेटिंग होगी वह विज्ञापन लाने में उतना ही सफल होगा|

कैसे छपती है अख़बारों की फाइल कॉपी

इस तरह के फाइल कॉपी अख़बार ज्यादातर साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक निकाले जाते है, जिन्हें छापने की हर शहर में सुविधा उपलब्ध है, अख़बारों में काम करने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर थोड़ा सा शुल्क लेकर इंटरनेट से जरुरत की खबरे कॉपी कर अख़बार की पीडीऍफ़ फाइल बना देते है जिसके द्वारा किसी भी प्रिंटिंग प्रेस से अख़बार की छपाई करवाई जा सकती है| फाइल कॉपी के लिए विभिन्न सरकारी कार्यालयों में जमा कराने हेतु प्रति अंक १० प्रति छापी जाती है जो अमूमन 300 से 500 रूपये तक में छप जाती है, इस तरह की फाइल कॉपी छापने वाले एक ही पीडीऍफ़ फाइल में सिर्फ हेडर पर अख़बार का नाम आदि बदल कई अखबार छाप देते है जिससे उनका प्रिंटिंग खर्च कम आने के साथ साथ पीडीऍफ़ बनवाने का खर्च भी बच जाता है| इस तरह एक साप्ताहिक अखबार निकालने के लिए लगभग 2000रु. मासिक खर्च, पाक्षिक लगभग 1000रु. या कम खर्च में अख़बार निकल जाता है| जो सरकारी विज्ञापनों से प्राप्त होने वाली रकम का एक बहुत छोटा हिस्सा है|

प्रसार संख्या की प्रमाणिकता का आंकलन

RNI व राज्य के सूचना व जन सम्पर्क विभाग द्वारा किसी भी अख़बार की प्रसार संख्या की प्रमाणिकता जांचने के लिए अख़बार छपने में प्रयुक्त हुए कागज, प्रिंटिंग प्रेस का बिल और चार्टड अकाउंटेंट का प्रमाण पत्र आदि मांगे जाते है जो इस तरह का काम करने वाले लगभग लोग फर्जी बनवाकर दे देते है|

कौन करते है ऐसे फर्जीवाड़े ? और क्या फायदा है इस फर्जीवाड़े का

इस तरह के फर्जीवाड़े ज्यादातर विभिन्न अख़बारों से जुड़े पत्रकार व पत्रकारिता से जुड़े लोग करते है| किसी भी पत्रकार को सरकारी सुविधाएँ तभी मिलती है जब वह सरकार द्वारा अधिस्वीकृत पत्रकार हो| और हर अख़बार में अधिस्वीकृत करने वाले पत्रकारों हेतु संख्या बहुत सीमित होती है, जिस संख्या का फायदा अख़बार मालिक अपने खास लोगों या खास पत्रकारों के नाम पर ही उठाते है, अत: ज्यादातर पत्रकार सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होते और उन्हें सरकारी सुविधाएँ नहीं मिलती| अत: जानकर पत्रकार अपने नाम से साप्ताहिक, पाक्षिक अख़बार पंजीकृत करा प्रत्येक अंक की दस फाइल प्रतियाँ छपवा अपने व अपने परिजनों या खास लोगों को सरकारी मान्यता प्राप्त (अधिस्वीकृत) पत्रकार का दर्जा दिलवा सरकारी सुविधाओं, योजनाओ का लाभ उठाते रहते है| आखिर प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के प्रधान जस्टिस काटजू के अनुसार अधिस्वीकृत पत्रकार को सरकार की और से विभिन्न तरह की ३७ सुविधाएँ मिलती है जिनमें सस्ते आवास, भूखण्ड, बसों में मुफ्त यात्रा तक शामिल है|

आपको भी पत्रकार बनकर रौब गांठना हो, सरकारी बसों में मुफ्त सफ़र करना हो, सस्ते भूखंड या आवास हथियाने हो, रेल, हवाई जहाज आदि में कम खर्च में यात्राएं करनी हो तो आप भी आज ही अपना एक अख़बार पंजीकृत करायें और ऊपर लिखे फार्मूले से मुफ्त का चन्दन घिस फायदा उठायें|



जोधा अकबर सीरियल मामला : थूक कर चाट गयी एकता कपूर और निहायत झूंठा निकला जी टीवी

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जोधा अकबर सीरियल के प्रदर्शित होने से पहले ही देश के कई जागरूक राजपूत युवाओं ने इस सीरियल का विरोध किया, जय राजपुताना संघ के भंवर सिंह खंगारोत ने इस मामले में मेरे से ऐतिहासिक जानकारी पर चर्चा कर इस सीरियल के खिलाफ IBF में शिकायती ईमेल भिजवाये व कुलदीप तोमर, यूएस राणा आदि दिल्ली के सामाजिक नेताओं के साथ IBF में इस सीरियल के खिलाफ ज्ञापन दिया|

उधर राजस्थान में पहले भी जोधा अकबर के नाम पर बनी फिल्म का राजस्थान में प्रदर्शन रोकने वाले अग्रणी संगठन राजपूत करणी सेना ने भी इस सीरियल को रोकने हेतु कमर कस रखी थी और जयपुर में करणी सेना ने इसके खिलाफ आन्दोलन का आगाज कर दिया था| साथ ही देश भर के राजपूत संगठनों में इस सीरियल के खिलाफ उग्र रोष था जिसे जी टीवी के नोयडा ऑफिस, चंडीगढ़, यूपी, मुंबई हरियाणाके विभिन्न शहरों में हुए प्रदर्शनों में साफ़ देखा गया| हरियाणा में तो कई जगह पुलिस व प्रदर्शनकारियों में लाठी भाटा जंग तक हुई कई प्रदर्शनकारी घायल भी हुए| यही नहीं इन प्रदर्शनों की आंच हरियाणा के वेदपाल तंवरव विभिन्न संगठनों के नेतृत्व में संसद भवन का घेराव करने जा रही भीड़ पर भी पुलिसिया लाठीचार्ज का कहर बरपा|
इसी दौरान विरोध को देखते हुए जी टीवी ने IBF के अधिकारीयों के सामने विभिन्न राजपूत संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ दिनांक 5 जून 2013 को IBF के ऑफिस में वार्ता की| करणी सेना के संस्थापक लोकेन्द्र सिंह कालवी ने विस्तार से ऐतिहासिक जानकारी देते हुए जी टीवी को बताया कि जोधा नाम की अकबर की कोई बीबी नहीं थी अत: इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाय| कालवी ने इस सम्बन्ध में देश के माने हुए इतिहासकारों की पुस्तकों के संदर्भ भी जी टीवी को बताये| जी टीवी प्रबंधन टीम के एक्सिक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट आलोक गोविल ने साफ़ किया कि उन्होंने इस सीरियल के लिए बालाजी टेलीफिल्म्स प्रसारित करने के लिये समय मात्र आवंटित किया है, जी टीवी का इसके निर्माण व इसकी कहानी से कोई लेना देना नहीं| जी टीवी ने राजपूत समाज के साथ रहने का वायदा करते हुए उनकी आपत्ति बालाजी टेलीफिल्म्स तक पहुँचाने की बात कही| वार्ता में राजेन्द्र सिंह बसेठ, कुलदीप तोमर, यूएस राणा, झाला साहब, डा.वीपी. सिंह आदि शामिल थे|

उसके बाद दिनांक 17 जून 2013 को सीरियल शुरू करने के एक दिन पहले गुडगांव के होटल ओबेराय में फिर लोकेन्द्र सिंह कालवी के नेतृत्व में राजपूत समाज के विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ जी टीवी व बालाजी टेलीफिल्म्स की प्रबंधन टीम ने इस पर चर्चा की| बालाजी टेलीफिल्म्स की और से एकता कपूर के पिता अभिनेता जितेन्द्र ने खुद भाग लिया| इस चर्चा में भी जी टीवी प्रबंधन टीम ने यही कहा कि यह मुद्दा बालाजी टेलीफिल्म्स का है वह जो चाहे सीरियल में बदलाव करे या रोके हम इससे कोई मतलब नहीं, जी टीवी ने सिर्फ प्रसारण के लिए समय आवंटित किया है जिसका बालाजी टेलीफिल्म्स कैसा भी उपयोग करे| साथ ही जी टीवी की और से मुंबई से आये भरत रांका ने राजपूत समाज का साथ देने की मीठी मीठी बातें कर राजपूत ब्राह्मण जातियों के आपसी संबंधों का हवाला देते हुए उपस्थित राजपूत जन प्रतिनिधियों की जातिय भावनाओं का दोहन करने की भी नापाक कोशिश की|
खैर ये वार्ता भी विफलहुई| इस वार्ता में जी टीवी ने सीरियल से पहले एक डिस्क्लेमर चलाने की चर्चा छेड़ी व एक डिस्क्लेमर बना सुनाया जिसे वहां उपस्थित प्रतिनिधियों ने सिरे से खारिज कर दिया पर फिर भी जी टीवी ने बेशर्मी की हदें पार करते हुए दुसरे दिन ही बताना शुरू कर दिया कि यह डिस्क्लेमर राजपूत समाज की सहमती से दिखाया जा रहा है| जो एकदम झूंठ था| क्योंकि उपरोक्त दोनों चर्चाओं में ज्ञान दर्पण.कॉम की और से मैं स्वयं वहां मौजूद था जो चर्चा हुई वो मेरे सामने हुई|

आखिर राजपूत समाज के विरोध को दरकिनार कर सीरियल का प्रसारण शुरू कर दिया गया| कई जगह उसके विरोध में उग्र प्रदर्शन हुए, लाठी चार्ज हुए, कई राजपूत युवाओं पर मुकदमें दायर किये| इस बीच करणी सेना के लोकेन्द्र सिंह कालवी व जोधपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति लक्ष्मण सिंह राठौड़ ने राजस्थान हाई कोर्ट में इस सीरियल के खिलाफ जन हित याचिका दायर की| करणी सेना जानती थी कि सीरियल को दबंगई से रोकना नामुमकिन है अत: करणी सेना ने रणनीति बनायीं और एकता कपूर की आने वाली एक फिल्म “वंश अपोन ए टाइम्स मुंबई दुबारा” की लॉन्चिंग तक चुप बैठे रहना मुनासिब समझा| करणी सेना की इस रणनीतिक चुप्पी को लेकर सोसियल साइट्स पर कई सवाल उठे, कई फेसबुक बयान वीरों, कथित राष्ट्रवादियों ने करणी सेना पर बिकने के आरोप लगाये| हालाँकि ये आरोपी किसी प्रदर्शन में शामिल नहीं हुए सिर्फ फेसबुक पर की-बोर्ड ठोकते हुए अपनी वीरता दिखाते रहे|

आखिर बालाजी टेलीफिल्म्स की फिल्म “वंश अपोन ए टाइम्स मुंबई दुबारा” को प्रदर्शित करने का समय आया तो करणी सेना ने राजस्थान में इसके प्रदर्शन को रोकने की चेतावनी दी व सिनेमाघरों से एकता कपूर की इस फिल्म को ना दिखाने का अनुरोध किया| पर कुछ सिनेमाघर प्रशासनिक सहयोग के भरोसे फिल्म प्रदर्शित करने पर आमादा थे जिसके विरोध में करणी सैनिकों ने ऐसे सिनेमाघर के पर्दे फाड़ उन्हें फिल्म नहीं दिखाने को मजबूर कर दिया| फिल्म के प्रदर्शन के पहले दिन करणी सैनिकों की इस कार्यवाही से घबरा बालाजी टेलीफिल्म्स की पूरी टीम जिसमें एकता कपूर, उसके माता पिता अपनी पूरी टीम लेकर जयपुर करणी सेना से वार्ता करने आये| करणी सेना ने मीडिया के सामने वार्ता करने का प्रस्ताव रखा ताकि किसी को संदेह करने का कोई मौका ना मिले व जो भी वार्ता हो उसे देश की पूरी जनता देखे| वार्ता में मीडिया के सामने एकता कपूर ने करणी सेना की सभी मांगे मानते हुए राजपूत समाज की भावनाएं आहत करने के लिए माफ़ी मांगीजो देश के विभिन्न टीवी चैनलों पर दिखाई गयी| एकता कपूर ने सीरियल का नाम बदलने, राजपूत शब्द हटाने आदि कई शर्तों को मानते हुए यहाँ तक कहा कि सीरियल का मालिक जी टीवी है यदि वह उसके बदलाव नहीं मानेगा तो बालाजी टेलीफिल्म्स अपने आपको इसके निर्माण से अलग कर लेगा|

सभी मांगे मीडिया के सामने मानने के बाद करणी सेना ने बालाजी टेलीफिल्म्स की फिल्म का विरोध स्थगित कर दिया| और बालाजी टेलीफिल्म्स की फिल्म का प्रदर्शन हो गया|


मीडिया के कैमरों के सामने मांगे मानते हुए एकता कपूर

पर आज एकता कपूर के उस वादे को कई दिन ही नहीं कई महीने हो गए पर न तो सीरियल का नाम बदला ना उसमें कोई बदलाव हुआ| बालाजी टेलीफिल्म्स को उसका वायदा याद दिलाने पर वे जी टीवी के साथ हुआ ईमेल पत्राचार दिखा देते है| जी टीवी वाले जो शुरू से कह रहे थे कि वे राजपूत समाज के हितैषी है और साथ है और सीरियल का मालिक बालाजी टेलीफिल्म्स को बता रही थे, आज बालाजी टेलीफिल्म्स सीरियल को जी टीवी के मालिकाना वाला बताने के बाद गोलमोल जबाब देने में लगा है| उसके भरत रांका जैसे ब्राह्मण जो होटल ओबेराय में ब्राह्मण राजपूत संबंधों का हवाला देते हुए राजपूत समाज को मनाने में लगे थे आज बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा गेंद उनके पाले में डाल देने के बाद बगलें झांकते हुए फोन पर जबाब देने से बचते हुए दिखाई दे रहे है| IBF ऑफिस में व होटल ओबेराय की वार्ता में जी टीवी वाले सीरियल का मालिक बालाजी को बता रहे थे| होटल ओबेराय में तो बालाजी टेलीफिल्म्स ने भी मना नहीं किया कि वे सीरियल के मालिक नहीं, पर जब फिल्म के चक्कर में बालाजी टेलीफिल्म्स फंसी तब से सीरियल का मालिक जी टीवी को बताते हुये गेंद उनके पाले में ढकलने पर उतर आये|

यदि सीरियल मालिक जी टीवी को भी मान लिया जाय तो एकता कपूर ने मीडिया के कैमरों के सामने वायदा किया था कि यदि जी टीवी इसका नाम बदलने की अनुमति नहीं देगा तो वह निर्माण से हट जायेंगी, पर अपने वादे के विपरीत आजतक बालाजी टेलीफिल्म्स ने सीरियल का निर्माण चालू रखा है|

मतलब साफ़ है धंधे व धन कमाने के लिए एकता कपूर थूक कर भी चाट सकती है जैसे इस मामले में उसने थूक कर चाटा, साथ ही जी टीवी चैनल वाले भी धंधे के लिए कितनी भी बड़ी व कैसी भी झूंठ बोल सकते है इनके कोई दीन-इमान नहीं, इस मामले में इनकी झूंठ देखने के बाद मैं आसानी से कह सकता हूँ कि जिंदल मामले में ये जी टीवी वाले जरुर दोषी होंगे, धन के लिए ये लोग कुछ भी कर सकते है| इनसे बड़ा इस देश में कोई झूंठा और मक्कार नहीं|

इस वायदा खिलाफी पर ज्ञान दर्पण से बातचीत में करणी सेना संयोजक श्यामप्रताप सिंहने बताया कि- एकता कपूर ने झूंठ बोल एक फिल्म तो चला ली पर उसे आगे भी फ़िल्में चलानी है, यह उसकी कोई आखिरी फिल्म तो नहीं, अब जब भी एकता कपूर की कोई फिल्म आयेगी उसे राजस्थान में नहीं चलने दिया जायेगा, वही क्षत्रिय वीर ज्योति हरियाणा में वेदपाल तंवर के साथ मिलकर एकता की कोई फिल्म हरियाणा में नहीं चलने देने की रणनीति पहले ही बना चुकी है, तो मुंबई में महाराणा प्रताप बटालियन के प्रेसीडेंट और मुंबई के दबंग राजपूत नेता ठाकुर अजय सिंह सेंगर भी मुंबई में एकता कपूर की फिल्मों का विरोध करने को तैयार बैठे है|

आखिर इन संगठनों की रणनीति भी सही है पैसों की भूखी एकता कपूर की कमाई पर चोट कर ही उसे सबक सिखाया जा सकता है|

फेसबुक पर बयानवीरों द्वारों लगाये आरोपों के जबाब में करणी सेना संयोजककहते है- आरोप तो जितेन्द्र के साथ पहली बैठक में लगने लगे थे यदि आरोपों के अनुसार करणी सेना की कोई सेटिंग होती तो उसके बाद करणी सेना क्यों एकता की फिल्म रोकने पर अड़ती और अब जब एकता कपूर अपने वादे से हट गई तो उसकी आने वाली फिल्म के प्रदर्शन को रोक कर फिर करणी सेना इन फेसबुक बयानवीरों के आरोपों को झुटला देंगी|

मजदुर का हितैषी कोई नहीं

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उस दिन यादव जी घर पहुंचे तो बहुत रोष थे, पूछने पर बताने लगे कि- वे आज कारखाने में हड़ताल करने बैठे तो कारखाना प्रबंधन ने हड़ताली श्रमिकों को हमेशा के लिए कारखाने में घुसने पर प्रतिबंधित कर दिया|

हड़ताल का कारण पूछने पर यादव जी बताने लगे- पुरानी मशीनों पर प्रति एक मशीन पर एक श्रमिक नियुक्त था अब नई तकनीकि की मशीने आ गयी है ऐसी तीन तीन मशीनों को एक अकुशल व अस्थाई श्रमिक चला लेता है उसे लालच होता कि इस तरह मेहनत देख प्रबंधन उसे स्थाई कर देगा| अस्थाई श्रमिकों की कार्यकुशलता देख अब प्रबंधन चाहता है कि पुराने कुशल श्रमिक भी तीन तीन मशीनें संभालें जिससे कारखाने को फायदा हो| बस यही बात पुराने श्रमिकों को पसंद नहीं और उन्होंने हड़ताल कर दी| हमने यादव जी से कहा- नई तकनीक की मशीनों पर उतनी मेहनत नहीं है यदि तीन मशीनें एक कुशल श्रमिक की देख रेख में चल सकती है तो उन्हें चलाने में पुराने स्थाई श्रमिकों को आपत्ति नहीं होनी चाहिये|

हमारी बात पर यादव जी भड़कते हुए बोले- मुझे पता था शेखावत जी ! आप प्रबंधन का ही पक्ष लेंगे|

खैर...प्रबंधन ने उन हड़ताली श्रमिकों के कारखाने में घुसने पर प्रतिबंध लगाते ही श्रमिक संगठन ने आंदोलन तो करना ही था सो हड़ताली श्रमिक कारखाने के आगे एक तंबू गाड़ धरने पर बैठ गये| यादव जी के घर अक्सर कई हड़ताली श्रमिक व श्रमिक नेता आते व अब तक हुई कार्यवाही व भावी रणनीति की चर्चा करते जिसे हम भी बिना उसमें दखल दिए चुपचाप सुनते रहते| यादव जी भी हड़ताल के दौरान चलने वाली कार्यवाही की चर्चा अक्सर मुझसे सांझा किया करते थे|

एक दिन आते ही बताने लगे- आज श्रम निरीक्षक आया था हमें आश्वस्त करके गया है कि वह प्रबंधन को सबक सीखा देगा और श्रमिकों को न्याय दिलवाकर ही रहेगा| बहुत ईमानदार व्यक्ति है श्रम निरीक्षक|

हमने कहा- यादव जी! काहे का ईमानदार है ? हाँ ज्यादा जोर से इसलिए बोल रहा है ताकि कारखाना प्रबंधन से मिलने वाली नोटों की गड्डी का भार थोड़ा बढ़ जाये|

उस दिन तो यादव जी को हमारी बात बुरी लगी पर कुछ दिन बाद यादव जी ने हमें आकर बताया- शेखावत जी ! आप सही कह रहे थे वो निरीक्षक तो बिक गया| खैर...हम भी कम नहीं श्रम आयुक्त के पास गए थे वह बहुत अच्छी महिला है उसनें हमें बड़े ध्यान सुना और वादा भी किया कि- मैं आपको आपका हक़ दिलवा दूंगी|

यादव जी की बात पर हमें हंसी आ गयी और हमने कहा- यादव जी ! न तो ये श्रम आयुक्त आपके काम आयेगी और ना ही वे यूनियन वाले कोमरेड आपके काम आयेंगे, यदि प्रबंधन से कोई समझौता हो सकता है तो कर लीजिये और अपनी रोजी-रोटी चलाईये|

पर हमारी बात उनके कहाँ समझ आने वाली थी उल्टा हमें वे श्रमिक विरोधी समझने लगे| यूनियन वाले कोमरेडों के खिलाफ तो वे और उनके साथी सुनने को राजी ही नहीं थे|

खैर...एक दिन श्रम आयुक्त के बारे में भी उन्हें पता चल गया कि वह भी प्रबंधन के हाथों मैनेज हो चुकी है| श्रम आयुक्त के मैनेज होने के पता चलने पर हड़ताली श्रमिकों में एक ने जो श्रम मंत्री जी के संसदीय क्षेत्र के रहने वाला था ने अपनी बाहें चढ़ा ली कि- अब मैं देखूंगा इस श्रम आयुक्त को| आज ही अपने क्षेत्र के सांसद जो श्रम मंत्री है के पास जाकर इसकी शिकायत कर इसे दण्डित कराऊंगा| मंत्री जी हमारे सांसद है और मेरी उनसे सीधे जान पहचान है|

वह श्रमिक मंत्री जी के बंगले पहुँच मंत्री जी से मिला व श्रम आयुक्त की शिकायत की| मंत्री जी ने अपने पीए को इसकी जाँच करने का जिम्मा दे दिया व उस श्रमिक को आगे से पीए से सम्पर्क में रहने की हिदायत दे दी| दो चार रोज जब मंत्री जी के पीए से उक्त श्रमिक ने सम्पर्क किया तो पीए ने बताया कि उक्त श्रम आयुक्त महिला उसकी धर्म बहन है अत: उस पर किसी कार्यवाही की बात वे भूल जाये, मैं उसके खिलाफ कुछ भी नहीं करने दूंगा और आगे से आपको मंत्री जी से मिलने भी नहीं दूंगा| इस तरह कई महीने बीत गये, श्रमिकों को अब श्रम न्यायालय के निर्णय की ही आस थी कि एक दिन यादव जी मिले तो बड़े रोष में थे बोले- शेखावत जी ! आप सही कह रहे थे श्रम अधिकारी आदि तो सारे भ्रष्ट निकले सिर्फ कोर्ट का आसरा था पर वहां भी हमारे नेता से कारखाना प्रबंधन से मोटे नोट झटकने के बाद यूनियन वाले कोमरेडों ने सलाहकार बन ऐसी ऐसी गलतियाँ करायी कि- अब ये केश हम कोर्ट में जीत ही नहीं सकते| ये कोमरेड भी बिकाऊ निकले|

हमने यादव जी को कहा- हमने तो आपको पहले ही कह दिया था सब बिकेंगे खैर...अब भी यदि प्रबंधन से कहीं कोई समझौता हो सकता है तो लोगों को कर लेना चाहिये|

आखिर प्रबंधन और हड़ताली कर्मचारियों के बीच आठ दस महीने की हड़ताल के बाद प्रबंधन की शर्तों पर समझौता हुआ और कुछ श्रमिकों को छोड़ बाकी को कारखाने में वापस काम पर रखा गया|

इस घटना के बाद मेरा यह विचार और पुख्ता हुआ कि श्रमिकों का हितैषी कोई नहीं ना यूनियन नेता, ना श्रम अधिकारी और ना ही नियोक्ता| हाँ श्रमिक व प्रबंधन आपसी समझ और विश्वास के साथ एक दुसरे की समस्याएँ समझ काम करते रहें तो दोनों पक्षों का ही भला है|

नोट : हड़ताली श्रमिकों से हुई बातें व उनके आपमें हुए विचार-विमर्श व आपस में सूचनाएं सांझा करते सुने तथ्यों पर आधारित|

राजस्थान भाजपा से क्यों छिटक रहे है राजपूत युवा ?

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राजस्थान में विधानसभा चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है, जिन्हें टिकट मिल गई वे अपने प्रचार में लगे तो जिन्हें नहीं मिली वे टिकट के जुगाड़ में लगे है|

राजनैतिक दलों द्वारा जातीय मतों की संख्या को आधार बनाकर टिकट देने के चलते विभिन्न जातीय सामाजिक संगठन अपने अपने चहेतों को टिकट दिलाने के लिए दलों पर दबाव बना रहे तो वहीँ राजनैतिक दल व उनके प्रत्याशी भी इन जातीय संगठनों द्वारा अपने अपने पक्ष में प्रचार करवा उनके द्वारा मतदाता की जातीय भावना का दोहन करते हुए उनके मत हासिल करने में जुटे है|

ऐसे में कई संगठन या उनके कर्ताधर्ता चुनावी फायदा उठाने को सक्रीय है, ऐसे लोगों ने आचार संहिता व चुनाव आयोग के डर के मारे एक नया तरीका “राजनैतिक जागरूकता सम्मलेन” के रूप में खोज निकाला है| हर जाति के लोग अपने पसंदीदा उम्मीदवार के लिए बिना उसका नाम लिये ऐसे आयोजन करते है, और इशारों इशारों में सबको संदेश दे देते है कि आखिर वोट किसको देना है, वे किसके लिए यहाँ आये है|

पर कई बार इस तरह के संगठनों के कृत्य उन पार्टियों के लिए उल्टे साबित हो जाते है जो पार्टियाँ उन संगठनों को अपने पक्ष में मैनेज करती है| क्योंकि संचार माध्यमों व सोशियल मीडिया के आने के बाद ऐसे तत्वों की पोल बड़ी आसानी से खुलने लगी है लोग समझने लगे है कि- कौन सामाजिक संगठन हितैषी है और कौन समाज सेवा के नाम पर अपनी दूकान चला उनकी जातीय भावना का दोहन कर समाज का ठेकेदार बना घूम रहा है| ऐसे तत्वों के कुकृत्यों को बेनकाब करने में युवा वर्ग सोशियल मीडिया का भरपूर फायदा उठाते हुए इन तत्वों के बारे में सूचनाएं सांझा करते देखा जा सकता है|

राजस्थान के राजपूत समाज के भी एक अग्रणी सामाजिक संगठन के शीर्ष लोगों ने प्रताप फाउंडेशन के नाम से ऐसी ही जातीय भावनाओं का भाजपा के पक्ष में दोहन कर एक दुकान सजा रखी है| इसके संगठन के लोग भाजपा नेता वसुंधरा राजे की नजर में अपने आपको राजपूत समाज का सर्वमान्य संगठन साबित कर भरोसा दिला चुके है कि- राज्य का राजपूत मतदाता अपना मत उनके कहने पर ही देता है| इस कार्य में इस संगठन की भाजपा में स्थापित कुछ राजनेता सहायता में जुटे है, ये तथाकथित नेता इस संगठन के जरिये भाजपा में किसी राजपूत युवा को आगे नहीं बढ़ने देते ताकि पार्टी में जातीय आधार पर मिलने वाले कोटे पर वे अपना वर्चस्व कायम रख सके| इस संगठन के लोग राज्य की सभी 200 सीटों पर राजपूत समाज में “राजनैतिक जागरूकता” फ़ैलाने के नाम बैठकें ले रहे है शुरू में ये सीधा भाजपा की पैरवी करते थे, पर सोशियल मीडिया में अपने खिलाफ युवाओं का रोष देखकर आजकल ये शातिर लोग अपनी बैठकों में भाजपा का सीधा नाम लेने से बचने लगे है, और बातों ही बातों में साफ कर देते है कि- भाजपा को वोट देना ही समाज हित में है|

भाजपा से सांठ-गांठ किये या तनखैया बने ये तत्व एक तरफ इस चुनाव में समाज हित की बात करते है, अपने जातीय उम्मदीवारों की संख्या बढाने की बात करते है, अपने आपको राजनैतिक निष्पक्ष दर्शाने के लिए समाज के दो तीन कांग्रेसी नेताओं के समर्थन भी बात भी करते है पर युवाओं की नजर में इनकी पोल तब खुली जब राजपूत समाज के वे युवा जो पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ निर्दलीय या बसपा जैसे छोटे दलों से चुनाव लड़ रहे थे और वे सीधी टक्कर में भी थे, के खिलाफ इन तत्वों ने भाजपा को फायदा पहुंचाया व इन स्वजातीय उम्मीदवारों को हराने के लिए हथकंडे अपनाये|

पिछले चुनावों में इन तत्वों की हरकतें व कृत्य से राजपूत समाज का जागरूक युवा इनकी दुकानदारी की सभी चालें समझ गए और इस चुनाव में वे सोशियल मीडिया के माध्यम में इनके खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने में जुट गये| सोशियल साईट फेसबुक पर देखा है, कई युवा छद्म नाम धारण कर इनके खिलाफ भड़ास निकाल रहे है तो कोई निर्भीकता से खुले रूप में इनका खुल कर विरोध कर रहे है|

भाजपा सोच रही है ये संगठन उसके वोट बढ़ा रहा है पर उसे पता ही नहीं कि इन तत्वों की हकीकत समाज का युवा वर्ग समझ चुका है और भाजपा के पारम्परिक वोट बैंक रहे उस युवा को अब लगने लगा है कि – उपरोक्त कथित समाज के ठेकेदारों ने तो उसके वोट का भाजपा से पहले ही सौदा कर रखा है ऐसी हालत में उसका भाजपा से मोह भंग होता जा रहा है| यही कारण है कि फेसबुक पर राजपूत युवाओं में मध्य हो रही चुनावी बहसों में पढने को मिलता है कि- “मोदी को जितायेंगे, वसुंधरा को हरायेंगे|”

सोशियल साइट्स पर समाज के इन ठेकेदारों के खिलाफ युवाओं के रोष को सीधा सीधा भाजपा को नुकसान के रूप में भुगतना पड़ेगा और मजे की बात कि- यह पुरा नुकसान भाजपा के खुद के खर्चे पर हो रहा है क्योंकि 200 विधानसभा क्षेत्रों में ये संगठन जो बैठकें कर रहा है उसकी फंडिंग तो भाजपा को करनी ही पड़ रही होगी, साथ ही समाज के ये ठेकेदार भी मुफ्त में तो भाजपा के लिए काम करने से रहेंगे, क्योंकि वे भी यह दुकान कुछ पाने को ही चला रहे है|

काश भाजपा के जिम्मेदार नेता इन सामाजिक ठेकेदारों की वजह से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में समझे और ऐसे तत्वों से दूर रहे| ये स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी आवश्यक है और भाजपा के हित में भी!!

दुष्प्रचार का शिकार : जयचंद

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किसी भी धोखेबाज, देशद्रोही या गद्दार के लिए जयचंद नाम मुहावरे की तरह प्रयोग किया जाता है| साहित्यिक रचनाएँ हो, कवियों की काव्य रचनाएँ हो या देशवासियों के आम बोलचाल की भाषा में धोखेबाज, गद्दार, घर के भेदी, देशद्रोही को जयचंद की तुरंत उपमा दे दी जाती है| बेशक उपमा देने वाला व्यक्ति जयचंद के बारे में कुछ जानता तक नहीं हो, यही क्यों ? खुद जयचंद के वंशज बिना जाने कि वे भी उस जयचंद के ही वंशज है जिस जयचंद को पृथ्वीराज गौरी के युद्ध में साहित्यकारों, कवियों आदि ने देशद्रोही घोषित पृथ्वीराज की हार का ठीकरा झूंठ ही उसके सिर पर फोड़ दिया, जाने अनजाने सुनी सुनाई बातों के आधार पर देशद्रोही ठहरा देते है और अपने आपको उसका वंशज समझ हीनभावना से ग्रसित होते है|

जयचंद पर आरोप है कि उसनें गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने हेतु बुलाया और सैनिक सहायता दी लेकिन समकालीन इतिहासों व पृथ्वीराज रासो में कहीं कोई उल्लेख नहीं कि गौरी को जयचंद ने बुलाया और सहायता दी| फिर भी जयचंद को झूंठा बदनाम किया गया उसे गद्दार, देशद्रोही की संज्ञा दी गई जिसे एक वीर ऐतिहासिक पुरुष के साथ न्याय कतई नहीं कहा जा सकता है|

आईये पृथ्वीराज की हार के कुछ कारणों व उस वक्त उसके साथ गद्दारी करने वालों व्यक्तियों के ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालते है जो साबित करते है कि जयचंद ने कोई गद्दारी नहीं की, कोई देशद्रोह नहीं किया| दरअसल पृथ्वीराज और जयचंद की पुरानी दुश्मनी थी, दोनों के मध्य युद्ध भी हो चुके थे फिर भी पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता से शादी के बाद वह जयचंद का दामाद बन चुका था और यदि जयचंद पृथ्वीराज को मारना चाहता तो संयोगिता हरण के समय कन्नोज की सेना से घिरे पृथ्वीराज को जयचंद आसानी से मार सकता था, पर उसनें पृथ्वीराज को संयोगिता के साथ घोड़े पर बैठे देख, सुरक्षित रास्ता दे जाने दिया और उसके बाद अपने पुरोहित दिल्ली भेजे जिन्होंने विधि-विधान से पृथ्वीराज-संयोगिता का विवाह संपन्न कराया|

तराइन के दुसरे युद्ध में चूँकि पृथ्वीराज ने जयचंद से किसी भी तरह की सहायता नहीं मांगी थी अत: जयचंद उस युद्ध में तटस्थ था, वैसे भी पृथ्वीराज उस युद्ध में इतने आत्मविश्वास में थे कि जब गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव ने सैनिक सहायता का प्रस्ताव भेजा तो पृथ्वीराज ने उसकी जरुरत ही नहीं समझी और संदेश भिजवा दिया कि गौरी को तो वह अकेला ही काफी है| ऐसी परिस्थितियों में पृथ्वीराज द्वारा जयचंद से सहायता मांगने का तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता|

फिर कौन थे वे देशद्रोही और गद्दार जिन्होंने गौरी को बुलाया ?

पृथ्वीराज रासो के उदयपुर संस्करण में गौरी को ख़ुफ़िया सूचनाएं देकर बुलाने वाले गद्दारों के नाम थे- नियानंद खत्री, प्रतापसिंह जैन, माधोभट्ट तथा धर्मयान कायस्थ जो तंवरों के कवि व अधिकारी थे| पंडित चंद्रशेखर पाठक अपनी पुस्तक “पृथ्वीराज” में माधोभट्ट व धर्मयान आदि को गौरी के भेजे जासूस बताया है जो किसी तरह पृथ्वीराज के दरबार में घुस गए थे और वहां से दिल्ली की सभी गोपनीय ख़बरें गौरी तक भिजवाते थे|

जब संयोगिता हरण के समय पृथ्वीराज के ज्यादातर शक्तिशाली सामंत जयचंद की सेना से पृथ्वीराज को बचाने हेतु युद्ध करते हुए मारे गए जिससे उसकी क्षीण शक्ति की सूचना इन गद्दारों ने गौरी तक भिजवा उसे बुलावा भेजा पर गौरी को इनकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ सो उसनें फकीरों के भेष में अपने जासूस भेज सूचनाओं की पुष्टि करा भरोसा होने पर पृथ्वीराज पर आक्रमण किया|

जम्मू के राजा विजयराज जिसका कई इतिहासकारों ने हाहुलिराय व नरसिंहदेव नाम भी लिखा है, हम्मीर महाकाव्य के अनुसार “घटैक” राज्य के राजा ने गौरी की युद्ध में सहायता की| घटैक राज्य जम्मू को कहा गया है| पृथ्वीराज रासो में भी जम्मू के राजा का गौरी के पक्ष में युद्ध में आना लिखा है, रासो में इसका नाम हाहुलिराय लिखा है जो युद्ध में चामुण्डराय के हाथों मारा गया था| तबकाते नासिरी के अनुसार- कश्मीर की हिन्दू सेना गौरी के साथ युद्ध में पृथ्वीराज के खिलाफ लड़ी थी|

इतिहासकारों के अनुसार पृथ्वीराज का सेनापति स्कन्ध भी पृथ्वीराज से असंतुष्ट था जब गौरी ने पृथ्वीराज को मारने के बाद अजमेर का राज्य पृथ्वीराज के बेटे गोविन्दराज को देकर अपने अधीन राजा बना दिया था तब स्कन्ध ने पृथ्वीराज के भाई हरिराज को लेकर अजमेर पर आक्रमण किया और उसके बाद जब गोविन्दराज रणथम्भोर चला गया तब भी स्कन्ध ने हरिराज के साथ मिलकर उसका पीछा किया तब पृथ्वीराज के बेटे गोविन्दराज की कुतुबुद्दीन ऐबक ने सहायता की थी| अत: सेनापति स्कन्ध का असंतुष्ट होना भी पृथ्वीराज की हार का कारण हो सकता है और उसका नाम भी गद्दारों की सूची में होना चाहिये था|

राजस्थान के जाने माने इतिहासकार देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक “सम्राट पृथ्वीराज चौहान” में लिखते है प्रारंभ में गौरी का इरादा था- पृथ्वीराज को अपने अधीन राजा बना दूँ तथा उसने पृथ्वीराज को कैद से मुक्त भी कर दिया था, ऐसा ताजुल मासिरी में लिखा है| शायद गौरी ने इतने बड़े साम्राज्य पर नियंत्रण करने में स्वयं को असमर्थ महसूस किया हो| यह बात इससे सिद्ध होती है कि गौरी ने प्रारंभ में जो सिक्का (मुद्रा) निकाला वह चौहान शैली का था| जिस पर एक तरफ अश्वारोही और पृथ्वीराज देव अंकित था तथा पृष्ठ भाग में बैठा हुआ बैल और लेख “श्री महमद साम” दिया है|

प्रबंध चिंतामणि, प्रबंध संग्रह और ताजुल मासिरी के अनुसार पृथ्वीराज के एक मंत्री प्रतापसिंह पुष्पकरणा ने गौरी को सूचना दी कि पृथ्वीराज मुसलमानों का घोर विरोधी है और नफरत करता है| ताजुल मासिरी लिखता है- अजमेर में पृथ्वीराज को कैद से गौरी ने छोड़ दिया था किन्तु इस्लाम के प्रति घृणा तथा किसी संभावित षड्यंत्र की आशंका हो जाने पर गौरी ने अजमेर में ही पृथ्वीराज का तलवार से सिर कटवा दिया था| हम्मीर महाकाव्य में भी पृथ्वीराज का अजमेर में ही मारा जाना लिखा है|

युद्ध के दौरान घटी घटनाओं व विभिन्न इतिहास पुस्तकों में पृथ्वीराज की हार के कारणों के उपरोक्त तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध और उसमें हार के प्रति जयचंद की कोई भूमिका नहीं थी| उसे तो मुफ्त में ही पृथ्वीराज से दुश्मनी होने के चलते बदनाम कर दिया गया| जो उस ऐतिहासिक पात्र के साथ अन्याय है|

पृथ्वीराज गौरी की दुश्मनी का असली का कारण

सोने की चिड़िया के रूप में ख्याति प्राप्त भारत में धन प्राप्ति के चक्कर में विदेशी लुटरों के आक्रमण सतत चलते रहे है गौरी को भी धन लिप्सा थी कि भारत में अथाह धन है जिसे लूटकर मालामाल हुआ जा सकता है, अत: भारत पर आक्रमण करने का उसका पहला इरादा यह भी समझा जा सकता है, फिर भी सवाल उठता है कि उसनें पृथ्वीराज चौहान जैसे शक्तिशाली सम्राट से सीधी टक्कर क्यों ली| जबकि वह छोटे-छोटे अनेक राज्यों को आसानी से लूटकर अपना खजाना भर सकता था|

पंडित चंद्रशेखर पाठक की “पृथ्वीराज” नामक अपनी पुस्तक के अनुसार – पृथ्वीराज ने शिकार खेलने के लिए नागौर के पास वन में डेरा डाल रखा था तब वहां गौरी का एक चचेरा भाई “मीर हुसैन” चित्ररेखा नाम की एक वेश्या के साथ आया| यह वेश्या सुन्दरता के साथ अति गुणवती थी, वीणा बजाने व गायन में वह पारंगत थी| गौरी ने उसकी सुंदरता के अलावा उसके गुण नहीं देखे पर मीर हुसैन उसे उसके गुणों के चलते चाहने लगा अत: वह उसे साथ लेकर गजनी से भाग आया| नागौर के पास शिकार खेल रहे पृथ्वीराज से जब मीर हुसैन में सब कुछ बता शरण मांगी तब उस उदारमना हिन्दू सम्राट ने अपने सामंतों से सलाह मशविरा किया और शरणागत की रक्षा का क्षत्रिय धर्म निभाते हुए उसे शरण तो दी ही साथ ही उसे अपने दरबार में अपने दाहिनी और बैठाने का सम्मान भी बख्शा, यही नहीं पृथ्वीराज ने मीर हुसैन को हांसी व हिसार के परगने भी जागीर में दिये|

इन सब की सूचना धर्मयान कायस्थ और माधोभट्ट के जरिये गौरी तक पहुंची तब गौरी ने संदेशवाहक भेजकर मीर हुसैन व चित्ररेखा को उनके हवाले करने का संदेश भेजा जिसे पृथ्वीराज व उसके सामंतों में शरणागत की रक्षा का अपना धर्म समझते हुए ठुकरा दिया|
चंदरबरदाई के अनुसार पृथ्वीराज- गौरी के आपसी बैर का मुख्य कारण यही था|


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अब विकलांगों व मांगलिकों के लिए अलग वैवाहिक वेबसाईट

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शादी ब्याह जैसे रिश्ते प्राचीन काल से ही परिजनों, रिश्तेदारों व मित्रों द्वारा सुझाये जाते रहे है, आज भी ज्यादातर रिश्ते अपने निकट सम्बन्धियों, मित्रों आदि द्वारा सुझाये आधार पर ही ज्यादा होते है, गांवों में तो आज भी रिश्ते होना इसी नेटवर्क पर निर्भर है|

पर शहरों में यह स्थिति बदली है रिश्तेदारों, मित्रों द्वारा रिश्तों हेतु सुझाये जाने वाले कार्य के बाद रिश्ते कराने वाली कई एजेंसियां अस्तित्व में आई, जो तकनीकि के दौर में वैवाहिक वेबसाइट्स में बदल गई| आज देश भर में अनगिनत वैवाहिक वेबसाइट्स लोगों को जीवन साथी चुनने की कुछ फीस के बदले सुविधा उपलब्ध करा रही है तो कई सामाजिक संगठन व सामजिक कार्यकर्त्ता अपने अपने समाज को विशेष सुविधा उपलब्ध कराने हेतु अपने अपने समाज की अलग वैवाहिक वेबसाइट्स उपलब्ध करा अपना सामाजिक कर्तव्य निभा रहे है| इस तरह सामाजिक वैवाहिक वेबसाइट्स से लोगों को भी वर-वधु तलाशने में आसानी रहती है| राजपूत समाज के लिए वैवाहिक वेब साईट जोगसंजोग.कॉमचलाने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता और लेखक श्री मगसिंह राठौड़ बताते है कि- उनकी वेबसाईट पर आने वाले ज्यादातर शहरी शादी.कॉम जैसे बड़ी वेबसाइट्स पर अपना समय व धन खर्च कर आते है और थोड़े ही दिनों में वे www.jogsanjog.comपर अपने बच्चों के लिए मनपसंद वर-वधु तलाशने में सफल रहते है|

ऐसा नहीं कि इंटरनेट पर बड़ी वैवाहिक वेबसाइट्स के इतर सिर्फ जातीय आधार पर ही वैवाहिक वेबसाईटस उपलब्ध है, बल्कि विकलांगों व मांगलिक लोगों के लिए भी अलग अलग वेबसाइट्स मौजूद है जहाँ उन्हें अपने पसंद के जीवन साथी चुनने की सुविधा उपलब्ध है|

मांगलिकशादी.कॉमके नाम से वेबसाईट चलाने वाले जितेन्द्र शेखावतबताते कि- उनके पास मिलने जुलने वालों के अक्सर मांगलिक लड़कों-लड़कियों के रिश्ते बताने हेतु अनुरोध आते थे, अब जितने अनुरोध आते उनका सबका नाम पता याद रखना भी दुरह कार्य तो था सो उन्होंने मांगलिक बच्चों के अभिभावकों की परेशानी दूर करने हेतु एक ऐसी वैवाहिक वेबसाईट की आवश्यकता समझी जिसमें सिर्फ मांगलिक बच्चों का पंजीकरण हो ताकि मांगलिक वर-वधु तलाशने हेतु इनके अभिभावकों को ज्यादा खोज ना करने पड़े| इसी उद्देश्य से जितेन्द्र शेखावत ने सिर्फ मांगलिक बच्चों के लिए www.manglikshaadi.com के नाम से वैवाहिक वेबसाईट की शुरुआत कर दी जिसे जितेन्द्र शेखावत ने अपने सामाजिक सरोकारों रूपी कर्तव्य को समझते हुए मुफ्त रखा है| यही कारण है कि मांगलिकशादी.कॉम पर कोई पंजीकरण फीस नहीं वसूली जाती|

जितेन्द्र शेखावत का यह सामाजिक कार्य देख उनके मित्र विकलांगों की दशा पर चिंतित रहने वाले विक्रम मेहता को भी प्रेरणा मिली कि एक ऐसी वैवाहिक वेबसाईट भी होनी चाहिये जहाँ सिर्फ और सिर्फ शादी करने के इच्छुक विकलांग अपना मुफ्त में पंजीकरण करा अपने लिए जीवन साथी चुनने की सुविधा का फायदा उठे सके| और विक्रम मेहता ने इसी प्रेरणा को कार्यरूप देते हुए www.viklangshaadi.comवैवाहिक वेबसाईट शुरू कर दी जो अपना काम मुस्तैदी से करने में तल्लीन है|

गीत- गाओ टाबरों

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गीत- गाओ टाबरों

थारा मुलकबा सुं देश हरख सी
थे ही तो हो आगला टेशन
जमाना रे साथ करो खूब फैशन
पण याद राखो बुजुर्गा री बातां
बे मुस्किल घडी री रातां
जोबन रो मद भी चढ़सी
कुटुंब कबीलो भी बढसी
प्रणय कि भूलभुलइया में
प्रियतमा कि आकृष्ट सय्या में
भूल मत जाज्यो ज्ञान री सीख
मत छोड़ज्यो पुरखां का पगां री लीक
थे ही घर, गांव, परिवार ,राष्ट्र री अनमोल थाती हो
जीवन रूपी दीया री, बिन जळी बाती हो||
लेखक : गजेन्द्र सिंह शेखावत

टाबर - बच्चे, मुलकबा - हँसना, हरख - ख़ुशी

ऐसे फैलती है इतिहास संबंधी भ्रांतियां

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वर्ष 1895, पंजाब में जन्में दीवान जरमनी दास कपूरथला और पटियाला रियासतों में लगभग 50 वर्ष तक मिनिस्टर व दीवान पद पर रहे| इस पद पर रहते हुए जरमनी दास इन रियासतों की रानियों व महाराजाओं के प्रेम और रोमांस के निजी देश-विदेश के दौरों में साथ रहे और उनकी रंगीन जिन्दगी को उन्होंने करीब से देखा| इन पूर्व रियासतों के रनिवासों के अन्तरंग तथा गुप्त से गुप्त रहस्यों को उन्होंने अपनी निजी जानकारी तथा अनुभवों के आधार पर कलम बद्ध कर “महारानी” नामक पुस्तक लिखी, जिसे हिंदी पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है| पुस्तक में लेखक ने महाराजाओं के भोग-विलासपूर्ण जिन्दगी के किस्सों के साथ ही अपने पति महाराजाओं द्वारा अवहेलित महारानियों द्वारा अपनी यौन-पिपासा शांत करने के लिए किये जाने वाले उपायों का रोचक चित्रण किया है|
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है पुस्तक में लिखी कहानियां लेखक ने अपनी निजी जानकारी व अनुभवों के आधार पर लिखी है जिनको उन्होंने अपनी आँखों से देखा है या उन घटनाओं में वे खुद सांझेदार रहे है साथ ही उन महारानियों या महाराजाओं के भोग-विलास के लिए उन्होंने इंतजाम किये है, सो उन्हें किसी भी तरह से गलत व झूंठ ठहराना कतई उचित नहीं है, उनके लिखे तथ्यों पर सिर्फ उन्हीं लोगों को हक़ है जिनके बारे में लेखक ने इस पुस्तक में लिखा है|

पर इसी पुस्तक के पृष्ठ स. १३६ पर राजस्थान की रानियों के उच्च चरित्र व ऊँचे नैतिक मूल्यों व ऊँची भावनाओं की तारीफ़ करते हुए “सती तथा जौहर” प्रकरण पर चर्चा करते हुए जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह का बीच युद्ध से लौटने पर उनकी रानी द्वारा किले के दरवाजे नहीं खोलने की घटना का जिक्र किया| ऐतिहासिक तौर पर उन्होंने इस घटना का जिक्र करके कोई गलती नहीं की पर विद्वान लेखक ने इस घटना को लिखते हुए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ सरासर अन्याय कर डाला| उन्होंने लिखा –

“महाराजा जसवंतसिंह राठौर अपने तीस हजार राजपूत वीरों को लेकर फ़्रांसिसी सेनाओं के साथ युद्ध करने गया था| यद्यपि राजपूतों ने पूरी-पूरी बहादुरी दिखाई और जहाँ तक उनका वश चला, वे लड़े भी परन्तु आखिर में हुआ यह कि शत्रु-सेनाओं ने हर और से घेरा डाल लिया| इस घेराव से बचने के लिए महाराजा जसवंतसिंह राठौर अपने बचे बीस हजार राजपूतों को लेकर सूर्य निकलने से पहले ही अपनी राजधानी वापस पहुँच गया| महाराजा की पत्नी उदयपुर के महाराजा राणा की पुत्री थी| जब उसने देखा कि महाराजा युद्ध-क्षेत्र से पीठ दिखाकर लौटा है, तो उसने आदेश दे दिया कि- महल के द्वार बंद कर दिए जाएं|
उन्हीं दिनों बर्नियर नामक फ़्रांसिसी यात्री-लेखक भी वहां मौजूद थे| बर्नियर के कथनानुसार महारानी ने महल के द्वार बंद करने का आदेश जिस क्रोध में भरकर दिया था, उसका वर्णन करना कठिन है| महारानी के चेहरे पर जो भाव उस वक्त व्यक्त हो रहे थे उसे देखकर बर्नियर को निश्चित रूप से यही लगा होगा जो उसने लिखा :”महाराणा राणा की पुत्री अपने पति महाराजा जसवंतसिंह को युद्ध हारकर लौटते देखना भी नहीं चाहती थी, क्योंकि वह समझती थी कि ऐसा व्यक्ति न तो उसका पति होने के योग्य है और न ही राणा का दामाद होने के|”

विद्वान लेखक ने इस घटना को जिस तरह से उस काल की राजपूत वीरांगनाओं के नैतिक और वीरोचित मूल्यों को दर्शाने हेतु इस घटना का जिक्र किया उस पर उसकी मंशा पर किसी भी तरह का शक नहीं किया जा सकता| उसकी भावनाएं एक तरह से इन वीरांगनाओं को सच्ची श्रद्धांजली ही है पर लेखक ने इस घटना में जो ऐतिहासिक तथ्य दिए वे बिल्कुल कपोल कल्पित है| सही ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार उपरोक्त घटना इस प्रकार घटी है :-

“महाराज जसवंत सिंह जिस तरह से वीर पुरूष थे ठीक उसी तरह उनकी हाड़ी रानी जो बूंदी के शासक शत्रुशाल हाड़ा की पुत्री थी भी अपनी आन-बाण की पक्की थी | १६५७ ई. में शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर उसके पुत्रों ने दिल्ली की बादशाहत के लिए विद्रोह कर दिया अतः उनमे एक पुत्र औरंगजेब का विद्रोह दबाने हेतु शाजहाँ ने जसवंत सिंह को मुग़ल सेनापति कासिम खां सहित भेजा | उज्जेन से १५ मील दूर धनपत के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन धूर्त और कूटनीति में माहिर औरंगजेब की कूटनीति के चलते मुग़ल सेना के सेनापति कासिम खां सहित १५ अन्य मुग़ल अमीर भी औरंगजेब से मिल गए | अतः राजपूत सरदारों ने शाही सेना के मुस्लिम अफसरों के औरंगजेब से मिलने व मराठा सैनिको के भी भाग जाने के मध्य नजर युद्ध की भयंकरता व परिस्थितियों को देखकर ज्यादा घायल हो चुके महाराज जसवंत सिंह जी को न चाहते हुए भी जबरजस्ती घोडे पर बिठा ६०० राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर रवाना कर दिया और उनके स्थान पर रतलाम नरेश रतन सिंह को अपना नायक नियुक्त कर औरंगजेब के साथ युद्ध कर सभी ने वीर गति प्राप्त की |इस युद्ध में औरग्जेब की विजय हुयी |

महाराजा जसवंत सिंह जी के जोधपुर पहुँचने की ख़बर जब किलेदारों ने महारानी जसवंतदे को दे महाराज के स्वागत की तैयारियों का अनुरोध किया लेकिन महारानी ने किलेदारों को किले के दरवाजे बंद करने के आदेश दे जसवंत सिंह को कहला भेजा कि युद्ध से हारकर जीवित आए राजा के लिए किले में कोई जगह नही होती साथ अपनी सास राजमाता से कहा कि आपके पुत्र ने यदि युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया होता तो मुझे गर्व होता और में अपने आप को धन्य समझती | लेकिन आपके पुत्र ने तो पुरे राठौड़ वंश के साथ-साथ मेरे हाड़ा वंश को भी कलंकित कर दिया | आख़िर महाराजा द्वारा रानी को विश्वास दिलाने के बाद कि मै युद्ध से कायर की तरह भाग कर नही आया बल्कि मै तो सैन्य-संसाधन जुटाने आया हूँ तब रानी ने किले के दरवाजे खुलवाये | लेकिन तब भी रानी ने महाराजा को चाँदी के बर्तनों की बजाय लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा और महाराजा द्वारा कारण पूछने पर रानी ने व्यंग्य किया कि - कहीं बर्तनों के टकराने की आवाज को आप तलवारों की खनखनाहट समझ डर न जाए इसलिए आपको लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा गया है | रानी के आन-बान युक्त व्यंग्य बाण रूपी शब्द सुनकर महाराज को अपनी रानी पर बड़ा गर्व हुआ|”

इस तरह सही ऐतिहासिक तथ्यों को देखा जाय तो लेखक ने पूरी घटना के ऐतिहासिक तथ्यों को कपोलकल्पित बना लिखा डाला क्योंकि महाराजा जसवंतसिंह का युद्ध फ़्रांसिसी सेना से नहीं औरंगजेब के साथ हुआ था और यह युद्ध उज्जेन के पास हुआ था जहाँ से रातों रात जोधपुर पहुंचना मुनासिब नहीं था| लेखक ने लिखा बीस हजार सैनिको के साथ जसवंतसिंह वापस आये जबकि इतिहासकारों के अनुसार सिर्फ ६०० सैनिक युद्ध में बचे थे| जिस रानी को राणा की पुत्री लिखा गया वह बूंदी के शासक शत्रुशाल हाड़ा की पुत्री थी जिसका नाम जसवंतदे था|

दीवान जरमनी दास की तरह ही बहुत से लेखक बिना किसी दुर्भावना के पर बिना सही ऐतिहासिक तथ्य जाने व शोध किये गलत तथ्यों को लेकर लिख देते है और फिर इनका लिखा पढ़ लोग आगे उद्धरण देते लिखते रहते है जब तीन चार बार कोई झूंठ लिख दिया जाता है तब लोग उसे ही सच्च मनाने लग जाते है जैसे जोधा-अकबर मामले में ऐसे किसी लेखक की गलत जानकारी पढ़ मुगले आजम, अनारकली फिल्म बन गयी अब फिल्मकारों को सही तथ्य बताने के बावजूद वे यह जानते हुए कि वे जो कर रहे है वह गलत है पर जो नाम मुगले आजम व अनारकली में प्रिसद्ध हो गया उसे छोड़ना नहीं चाहते और इस तरह ऐसे चलताऊ लेखकों के कारण इतिहास विकृत हो जाता है, और तरह तरह की ऐतिहासिक भ्रांतियां फैलती है|
जोधा-अकबर सीरियल पर बालाजी टेलीफिल्म्स के साथ चर्चा में अभिनेता जितेन्द्र के साथ आये उसके स्क्रिप्ट राईटर ड़ा. बोधित्सव ने कुछ ऐसे ही टुच्चे लेखकों की मुगले आजम और अनारकली फिल्म आने के बाद उसने प्रेरित होकर लिखी पुस्तकें दिखाते हुए कहा कि- उसने तो इन पुस्तकों के आधार पर कहानी लिखी है|


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वीर शिरोमणि महाराव शेखा : पुस्तक समीक्षा

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गोविन्दसिंह मुण्डियावासद्वारा लिखित और श्री क्षत्रिय राजा रायसल संस्थान, खंडेला व श्री राजपूत सभा दांता-रामगढ (सीकर) द्वारा प्रकाशित पुस्तक “वीर शिरोमणि महाराव शेखा” में पूर्व में प्रकाशित इतिहास- ग्रंथो के आधार पर शेखावत वंश व शेखावाटी राज्य प्रवर्तक राव शेखाजी के जीवन चरित्र व कुछ्वाह वंश के साथ शेखावत वंश और राज्यों, जागीरों की जानकारी संजोने का प्रशंसनीय कार्य किया है| जिसकी भूरी भूरी प्रशंसा इतिहासकार डा.हुकुमसिंह भाटी, रघुनाथसिंह जी कालीपहाड़ी के साथ ही राजस्थानी साहित्य संस्थान के विद्वान साहित्यकार डा.उदयवीर शर्मा ने भी अपने संदेशों में की है|

पुस्तक में क्षत्रियों के ३६ राजवंशों की सूची के साथ कछवाह वंश के राजपूतों की प्रमुख शाखाओं का जानकारीपरक वर्णन व सूर्यवंश के राजा विवस्वान से लेकर शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक राव शेखाजी व उनके उनके बाद की कुछ पीढ़ियों की वंशावली दी गयी है| कछवाहों के राजस्थान प्रदेश में प्रवेश व आमेर पर कछवाह राज्य की स्थापना की संक्षिप्त जानकारी के बाद राव शेखाजी के जन्म, बाल्यकाल में ही राज्यारोहण, राज्य-विस्तार, अमरसर बसा अपनी राजधानी बनाना, पारिवारिक टिकाई राज्य आमेर के साथ विवाद, संघर्ष के बाद आमेर से स्वतंत्रता प्राप्ति, अफगानिस्तान से आये पन्नी पठानों के दल को सर्वधर्म-सदभाव और धर्म-निरपेक्षता का परिचय देते हुए अपने राज्य में बसाना और अपनी सेना में उनकी नियुक्ति कर अपनी ताकत बढ़ाना व शेखाजी के घाटवा युद्ध और उसमें विजय के उपरांत उनकी मृत्यु संबंधी ऐतिहासिक जानकारी का विस्तार से वर्णन किया है|

लेखक ने पुस्तक में शेखाजी की रानियों, पुत्रों व पुत्रों से उत्पन्न शेखावत वंश की शाखाओं व उपशाखाओं के वर्णन के साथ शेखावाटी में शेखावतों की विभिन्न जागीरों, ठिकानों व राज्यों की जानकारी व शेखावत द्वारा आबाद गांव और उनमें निवास करने वालों शेखावत वंश की शाखाओं के वर्गीकरण के आधार पर गावों की सूची लिखी गई है|
लेखक ने शेखावाटी में निवास करने वाले कछवाह वंश की शेखावत शाखा के अलावा अन्य शाखाओं की भी संक्षिप्त जानकारी के साथ जागीरदारी व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है|

कुलमिलाकर लेखक शेखावाटी की शासक जाति शेखावत राजपूतों का संक्षिप्त पर पूरा इतिहास अपनी पुस्तक में समेटने कर पाठकों के लिए सम्पूर्ण शेखावत वंश का इतिहास एक पुस्तक में उपलब्ध कराने में कामयाब रहा है| राजस्थान के मूर्धन्य साहित्यकार, इतिहासकार डा. उदयवीर शर्मा के अनुसार यह पुस्तक- वीरवर वीर शिरोमणि महाराव शेखाजी का यह परिचय हमें गर्व और गौरव की अनुभूति करायेगा और नवयुवकों एवं शोधार्थियों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा|

लेखक परिचय :

शेखावाटी के ग्राम मुण्डियावास के ठा. श्री मोहनसिंह जी (रिसालदार) के घर जन्में कृषि कार्य करने वाले गोविन्दसिंहकी बचपन से ही ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, शोधपरक अध्ययन और लेखन में रूचि रही है|
मरू भारती, संघ शक्ति, राजपूत एकता, कैवाय संदेश, ख्यात शोध पत्रिका, वरदा आदि अनेक पत्रिकाओं में अनेक शोध लेख प्रकाशित होने के साथ ही लेखक की अब तक दो पुस्तकें “वीर शिरोमणि महाराव शेखाजी” व “लाडाणी शेखावत” प्रकाशित हो चुकी है| साथ ही गिरधर जी का इतिहास, मेड़तिया राठौड़, रावजी के शेखावतों का गौरवमयी इतिहास, बाबा रामदेव, कछवाहों की कुलदेवी श्री जमुवाय माता, महेश्वरी वंश प्रकाश, चौहानों का इतिहास, सम्राट पृथ्वीराज चौहान व राजपूत वंशावली प्रकाशन के लिए इंतजार में तैयार है|

लेखक को २ जुलाई २००८ को खाटू श्यामजी में राजा रायसल जी की जयंती पर आयोजित समारोह में पूर्व राष्ट्रपति स्व.भैरोंसिंह जी शेखावत ने सम्मानित किया| १३ अगस्त २००८ को वीर दुर्गादास स्मृति समिति ने दुर्गादास की २७० वीं जयंती पर सम्मानित किया गया| १२ अप्रेल २००९ को महाराव शेखाजी पुस्तक के लिए राजा रायसल संस्थान व राजपूत सभा दांतारामगढ़ द्वारा आयोजित समारोह में जोधपुर विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति डा. लोकेश शेखावत ने सम्मानित किया और पूर्व उद्योग मंत्री श्री नरपत सिंह जी राजवीऔर विधायक प्रतापसिंह खाचरियावासके हाथों भी लेखक सम्मानित हो चुके है|

लेखक से इतिहास की पुस्तकें उनके फोन न. 099 50 794617 पर सम्पर्क कर रियायती दर पर डाक द्वारा मंगवाई जा सकती है|


एक ने झटके से दुपट्टे के तार निकाले तो दुसरे ने घोड़े को हाथ से उठा लिया

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राव विरमदेव के स्वर्गवास होने के बाद राव जयमल मेड़ता का शासक बना, चूँकि जयमल को बचपन से ही जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के मन में मेड़ता के खिलाफ घृणा का पता था, साथ ही जयमल राव मालदेव की अपने से दस गुना बड़ी सेना का कई बार मुकाबला कर चुका था अत: उसे विश्वास था कि मालदेव मौका मिलते ही मेड़ता पर आक्रमण अवश्य करेगा सो उसनें शुरू से सैनिक तैयारियां जारी रखी और अपने सीमित संसधानों के अनुरूप सेना तैयार की| हालाँकि जोधपुर राज्य के सामने उसके पास संसाधन क्षीण थे|

आखिर संवत १६१० में राव मालदेव विशाल सेना के साथ मेड़ता पर आक्रमण हेतु अग्रसर हुआ| जयमल चूँकि जोधपुर की विशाल सेनाएं अपने पिता के राज्यकाल में देख चुका था, उसे पता था कि जोधपुर के आगे उसकी शक्ति कुछ भी नहीं| सो उसनें बीकानेर से सहायता लेने के साथ ही मालदेव से संधि कर युद्ध रोकने की कोशिश की, चूँकि सेनाओं में दोनों और के सैनिक व सामंत सभी आपसी निकट संबंधी ही थे सो जयमल नहीं चाहता था कि निकट संबंधी या भाई आपस में लड़े मरे, सो उसनें मालदेव के एक सेनापति पृथ्वीराज जैतावत को संदेश भेजकर संधि की बात की व भाईचारा कायम रखते हुए युद्ध बंद करने हेतु अपने दो सामंत अखैराज भादा व चांदराज जोधावत को अपना दूत बना मालदेव के शिविर में भेजा|

जयमल के दूतों ने मालदेव से युद्ध रोकने की विनती करते हुए कहा जयमल का संदेश दिया कि–“ हम आप ही के छोटे भाई है और आपकी सेवा चाकरी करने के लिए तैयार है सो हमसे युद्ध नहीं करे|”

राव मालदेव ने बड़े अहम् भाव से दूतों से कहा – “अब तो हम जयमल से मेड़ता छिनेंगे|”

दूत अखैराज ने कहा- “मेड़ता कौन लेता है और कौन देता है, जिसने आपको जोधपुर दिया उसी ने हमको मेड़ता दिया|”

इस पर राव मालदेव ने व्यंग्य से कहा – “जयमल के सामंत निर्बल है|”

चूँकि दोनों दूत अखैराज व चांदराज जयमल के प्रमुख सामंत थे सो राव मालदेव का व्यंग्य बाण दोनों के दिलों को भेद गया और वे गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ खड़े हुए| गुस्से से उठते हुए अखैराज ने राव मालदेव के सामने अपने गले में बंधा हुआ दुपट्टा हाथ में ले ऐसा जोर से झटका कि उसके तार-तार बिखर गये| अखैराज द्वारा अपना दम दिखाने के बाद सामंत चांदराज ने गुस्से से लाल पीले होते हुए पास ही खड़े एक घोड़े की काठी के तंग पकड़कर घोड़े को ऊपर उठा अपना बल प्रदर्शित किया| और दोनों वहां से चले आये|

मुंहता नैणसी अपनी ख्यात में लिखता है कि- दोनों के चले जाने बाद राव मालदेव ने अपने सामंतों से दुपट्टे के झटके लगवाये पर कोई सामंत झटका मार कर दुपट्टे के तार नहीं निकाल सका|

इस तरह जयमल द्वारा की गई शांति की कोशिश विफल हुई, दोनों के मध्य युद्ध हुआ, मेड़तीयों ने संख्या बल में कम होने के बावजूद इतना भीषण युद्ध किया कि जोधपुर की सेना को पीछे हटना पड़ा और राव मालदेव को जान बचाने हेतु युद्ध भूमि से खिसकना पड़ा|

काश ऐसे महाबली योद्धा छोटे छोटे मामलों को लेकर आपस में ना उलझते तो आज देश का इतिहास और वर्तमान अलग ही होता !!

बढ़ने लगा फेसबुक से फेस टू फेस रूबरू का दौर

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फेसबुक अब सिर्फ वर्चुअल दुनियां तक सीमित नहीं रही, फेसबुक मित्र-मंडलियां अब विभिन्न मौकों व मुद्दों को लेकर आयोजित कार्यक्रमों में फेस टू फेस रूबरू होकर फेसबुक मित्रता को धरातल पर उतार रहे है| विभिन्न शहरों, कस्बों में फेसबुक मित्रों द्वारा राजनैतिक, सामाजिक मुद्दे या जन-समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाने की खबरे अक्सर अख़बारों में पढने को मिलती है| इसी कड़ी में फेसबुक पर उपस्थित मित्रों का एक समूह “आजाद देश के गुलाम” के सदस्य राजस्थान के डीडवाना शहर में दीपावली मिलन समारोह के बहाने फेस टू फेस मिलने को १० नवम्बर को दोपहर एक बजे इकट्ठा हो रहे है| इस आयोजन में दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के जयपुर सहित विभिन्न शहरों व डीडवाना के आस-पास के गांवों में निवास करने वाले इस फेसबुक समूह के सैंकड़ों सदस्य शामिल होंगे| कार्यक्रम में समूह के सदस्यों के साथ कई सामाजिक कार्यकर्त्ता व ब्लॉग लेखक भी उपस्थित रहेंगे|

दीपावली मिलन के साथ ही इस समूह के सदस्य राजनीति में युवाओं की भागीदारी व राजनैतिक पार्टियों द्वारा युवाओं को प्रतिनिधित्त्व देने के नाम पर कोरी बयानबाजी जैसे जवलंत मुद्दे के साथ चुनावों के समय सक्रीय होने वाले विभिन्न जातीय संगठनों की भूमिका, उनके सक्रीय होने के पीछे के कारणों, अपने निजी फायदे के लिए समाज के लोगों को इन संगठनों द्वारा बरगला अपने हित में जातीय भावनाओं का दोहन करने हेतु अपनाये जाने हथकंडों पर चर्चा के साथ ही चुनावों के दौरान स्वार्थी सामाजिक संगठनों द्वारा की जाने वाली सामाजिक ठेकेदारी के खिलाफ जनजागरण कार्यक्रम की रुपरेखा आदि विषयों पर गहन मंथन किया जायेगा| डीडवाना के बाद इस समूह के सदस्य जयपुर में एक मिलन कार्यक्रम रख संगठित हो अपने कार्य को धरातल पर साकार करने की योजना भी बना रहे है|

रिछपाल सिंह कविया : परिचय

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वर्ष १९८५ के लगभग लोसल कस्बे में भाजपा की एक सभा थी जिसे संबोधित करने के लिए भाजपा के एक बड़े नेता ललित किशोर चतुर्वेदी को आना था, सभा शुरू हो चुकी है थी और स्थानीय सभी नेता मंच से अपनी अपनी बात जनता के सामने रख चुके थे तभी दूरभाष पर आयोजकों को सूचना मिली कि नेता जी एक ढेढ़ घंटे देरी से आयेंगे जिसका पता हमें मंच संचालक द्वारा की गयी उदघोषणा से चला| यह सूचना मिलने लोसल कस्बे के सभी नेता अपना भाषण दे चुके थे सो सभा में सीकर से पहुंचे भाजपा युवा मोर्चा के युवा नेता रिछपाल सिंह कविया को आयोजकों द्वारा यह कह कर माइक पकड़ा दिया गया कि- जब तब नेताजी आयें तब तक जनता को रोके रखने के लिए यह माइक आपको ही संभालना है|

रिछपाल सिंह कविया ने यह चुनौती स्वीकार करते हुए अपने भाषण में एशियाड खेलों पर सरकार द्वारा मनोरंजन के नाम पर किये खर्च और यदि उतनी ही राशी से विकास कार्यों पर सरकार द्वारा खर्च की जाती तो उससे कितना विकास हो सकता था, कितने किलोमीटर सड़कें बनाई जा सकती थी, कितने किलोमीटर बिजली की लाइन बिछा, कितने नलकूपों पर बिजली कनेक्शन दे कितनी कृषि उपज बढ़ा, कृषक परिवारों की प्रति व्यक्ति आय कितनी बढाई जा सकती थी पर विस्तार से व जोशीले शब्दों में प्रकाश डाला| गांवों से आये कृषक उनके अर्थशास्त्री आंकड़े बड़े मनोयोग से एकटक सुनते रहे| उनकी भाषा हर किसान समझ रहा था|

उनके लंबे भाषण के बीच ही बड़े नेता जी पहुंचे और माइक पकड़ अपनी संघ वाली भाषा में भाषण झाड़ना शुरू किया, कुछ ही देर में गांवों से आये किसान यह कहते हुए उठ जाने लगे कि - “इस नेता से तो वो छोरा ही अच्छा और काम की बोल रहा था|” और देखते ही देखते चतुर्वेदी जी के भाषण ख़त्म करने से पहले काफी भीड़ छंट गयी थी|

२३ फरवरी १९५९ में सीकर के पास संतोषपुरा गांव में चारण जाति की कविया शाखा के चारण जी.एस. कविया के घर रिछपाल सिंह कविया का जन्म हुआ| सीकर से ही पोलिटिकल साइंस से पोस्ट ग्रेजुएट कविया स्कूली दिनों से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़ छात्र राजनीति में सक्रीय हो गए| एबीवीपी में सीकर के नगर मंत्री से लेकर आप प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य रहे| बाद में आपने भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश मंत्री की जिम्मेदारी निभाई व वर्ष १९८३से १९९३ तक आप भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे| और वर्ष १९९३ से अब तक आप भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य है|

वर्ष १९९३ व १९९८ के राजस्थान विधानसभा में धोद क्षेत्र में आपने अल्प साधनों से सिर्फ कार्यकर्ताओं के बूते चुनाव लड़कर अच्छा प्रदर्शन किया पर धोद विधान सभा क्षेत्र में जातीय समीकरण आप के पक्ष में न होने के चलते दोनों ही चुनाव जीतने में असफल रहे|

चारण जाति में जन्में कविया को बोलने की कला जन्म-जात विरासत में मिली है, आज भी यदि कई- कई घंटे किसी विषय बोलने पड़े तो वे श्रोताओं को अपनी ओजस्वी वाणी व शानदार लहजे में बोलते हुए बांधे रखने की क्षमता रखते है| सीधा सादा जीवन जीने वाले, मृदुभाषी और अपने क्षेत्र के हर व्यक्ति से बिना छोटे-बड़े का भेदभाव किये व्यक्तिगत सम्पर्क रखने वाले कविया ने वर्ष १९८६ में शेरे राजस्थान स्व.भैरोंसिंह जी शेखावत और किसान नेता नाथूराम जी मिर्धा द्वारा प्रदेश में आहूत किसान आन्दोलन का सीकर जिले में १० दिन तक सफल संचालन किया, अपने क्षेत्र से दूर सवाई माधोपुर में भी आपने एक सीमेंट फैक्टी के श्रमिकों के हित में आवाज उठाकर उन्हें न्याय दिलाया यही नहीं आपातकाल सहित आपने विभिन्न आंदोलनों में 6 बार जेल यात्रा भी की| १९८४ से आप राजस्थान प्रदेश ही नहीं देश के विभिन्न क्षत्रों की राजनीति में निरंतर सक्रीय है| पूर्व राष्ट्रपति स्व.भैरोंसिंह जी शेखावत अपने मुख्यमंत्री काल से आपके आत्मीय व्यवहार रखते थे|

पिछले दिनों सीकर में हुई मुलाकात के समय कविया जी चीन सीमा विवाद मामले पर भारत सरकार के रुख से बड़े विचलित थे, नीचे विडियो में पेश है उसी मामले में व्यक्त उनके संक्षिप्त विचार :-



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औरंगजेब की तलवार जो न कर सकी ...

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भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज को परास्त कर राजपूत शासन का पतन करने के समय से ही राजपूत शासकों का मुस्लिम शासकों के साथ संघर्ष अंग्रेजों के आने तक निर्बाध रूप से चलता रहा| मुगलों से संधियाँ करने के बाद भी विभिन्न राजपूत राजा अपने स्वाभिमान की रक्षा व स्वतंत्रता के लिए समय समय पर अपनी अपनी अल्प शक्तियों के सहारे ही संघर्ष करते रहे| राजस्थान में विभिन्न राजपूत राज्यों में हुए जौहर और शाका इसके प्रमाण है कि मुगलों से संधियाँ होने के बावजूद राजपूत शासकों ने अपने स्वाभिमान और सम्मान से कभी समझौता नहीं किया था| यदि किया होता तो ये जौहर शाके इतिहास में दर्ज नहीं होते|

हिन्दू राजाओं व मुस्लिम शासकों के मध्य आपसी लड़ाइयों की एक लम्बी खुनी श्रंखला के बाद भी हिन्दू-मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिक आधार पर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, न कोई साम्प्रदायिक आधार पर दोनों समुदायों के बीच मन-मुटाव या विद्वेष ही था| जितने युद्ध हुए वे सभी साम्राज्यवादी नीति, आपसी राजनैतिक मामलों व झगड़ों के चलते हुए| यही कारण था कि हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर के साथ युद्ध में महाराणा प्रताप की हिन्दू सेना का सेनापति हाकिम खान सूर जो एक अफगानी मुस्लिम पठान था तो मुस्लिम बादशाह अकबर की सेना का संचालन एक हिन्दू राजकुमार मानसिंह के हाथ में था|

यही नहीं और भी ऐसे बहुत से उदाहरण है जहाँ हिन्दू राजाओं और मुस्लिम शासकों के बीच झगड़े का कारण मुस्लिम व्यक्तियों को हिन्दू राजाओं द्वारा शरण देकर उनकी रक्षा करना था| इतिहास में ऐसे कई युद्धों का वर्णन है जो सिर्फ मुस्लिमों को शरण देने की बात पर हुए| जिनके कुछ उदाहरण निम्न है-

१-भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित करने वाले शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमण का कारण ही इतिहास में खोजेंगे तो पायेंगे गौरी की धन लिप्सा के साथ साथ इन युद्धों का कारण पृथ्वीराज द्वारा गौरी के एक विद्रोही मुस्लिम को शरण देना था| पंडित चंद्रशेखर पाठक की “पृथ्वीराज” नामक इतिहास पुस्तक के अनुसार – पृथ्वीराज ने शिकार खेलने के लिए नागौर के पास वन में डेरा डाल रखा था तब वहां गौरी का एक चचेरा भाई “मीर हुसैन” चित्ररेखा नाम की एक वेश्या के साथ आया| यह वेश्या सुन्दरता के साथ अति गुणवती थी, वीणा बजाने व गायन में वह पारंगत थी| गौरी ने उसकी सुंदरता के अलावा उसके गुण नहीं देखे पर मीर हुसैन उसे उसके गुणों के चलते चाहने लगा अत: वह उसे साथ लेकर गजनी से भाग आया| नागौर के पास शिकार खेल रहे पृथ्वीराज से जब मीर हुसैन में सब कुछ बता शरण मांगी तब उस उदारमना हिन्दू सम्राट ने अपने सामंतों से सलाह मशविरा किया और शरणागत की रक्षा का क्षत्रिय धर्म निभाते हुए उसे शरण तो दी ही साथ ही उसे अपने दरबार में अपने दाहिनी और बैठाने का सम्मान भी बख्शा, यही नहीं पृथ्वीराज ने मीर हुसैन को हांसी व हिसार के परगने भी जागीर में दिये|

इन सब की सूचना धर्मयान कायस्थ और माधोभट्ट के जरिये गौरी तक पहुंची तब गौरी ने संदेशवाहक भेजकर मीर हुसैन व चित्ररेखा को उनके हवाले करने का संदेश भेजा जिसे पृथ्वीराज व उसके सामंतों में शरणागत की रक्षा का अपना धर्म समझते हुए ठुकरा दिया|
चंदरबरदाई के अनुसार पृथ्वीराज- गौरी के आपसी बैर का मुख्य कारण यही था|

२-रणथंभोर के इतिहास प्रसिद्ध वीर योद्धा हम्मीरदेव चौहान व अल्लाउद्दीन खिलजी के मध्य जो युद्ध युवा उसके पीछे भी हम्मीरदेव द्वारा अल्लाउद्दीन के बागी मुस्लिम सेनानायक मुहम्मद शाह को शरण देना मुख्य कारण था| हम्मीरदेव द्वारा अल्लाउद्दीन की सेना के बागी मुहम्मद शाह को शरण देने के बाद अल्लाउद्दीन ने हम्मीरदेव के पास दूत भेजकर अपने इन बागियों को उसे सुपुर्द करने का अनुरोध किया था, जिसे शरणागत की रक्षा करने का क्षत्रिय का कर्तव्य व धर्म समझ हम्मीरदेव ने ठुकरा दिया| नतीजा इतिहास में आपके सामने है एक मुस्लिम शरणागत की जान बचाने हेतु हम्मीरदेव को अपना राज्य, अपना परिवार, अपनी जान की कीमत देकर चुकाना पड़ा| यदि उस काल में उसके मन में थोड़ा सा भी सांप्रदायिक विद्वेष होता तो शायद वह एक मुस्लिम के लिए इतनी बड़ी कीमत नहीं चुकाता|

३-मेड़ता का शासक जयमल मेड़तिया जिसकी वीरता इतिहास में सवर्णों अक्षरों में अंकित है, एक ऐसा वीर जिसने युद्ध में शाही सेना के खिलाफ अकबर के मानस पटल पर अपनी वीरता की ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उसकी वीरता से प्रभावित हो अकबर ने अपने उस विरोधी को सम्मान देने हेतु हाथी पर उसकी बहुत बड़ी प्रतिमा बनवाई थी| जिसका कई विदेशी पर्यटकों ने औरंगजेब के समय तक देखने का अपनी पुस्तकों में जिक्र किया है|

चितौड़ पर अकबर के इस आक्रमण का कारण भी अकबर के एक बागी मुस्लिम सेनापति सर्फुद्दीन को जयमल द्वारा मेड़ता में शरण देना था| जयमल व जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के बीच वैमनस्य था, हालाँकि जयमल ने अपनी और से संधि करने की भरपूर कोशिशें की पर उस से दस गुना बड़ी सेना रखने वाले मालदेव ने उसकी एक नहीं सुनी| और मेड़ता पर कई बार आक्रमण कर जयमल से मेड़ता छीन लिया था| उसके बाद जयमल को अकबर की सहायता से ही मेड़ता का राज्य वापस मिला| अकबर ने जब जयमल की सहायतार्थ जो सेना भेजी उसका सेनापति सर्फुद्दीन था| मेड़ता वापस मिलने के बाद जयमल के सर्फुद्दीन से व्यक्तिगत संबध बन गए अत: जब सर्फुद्दीन ने अकबर से बगावत की तब जयमल में उसे शरण दे दी है व अकबर की चेतावनी के बाद भी उसने अपनी शरण में आये सर्फुद्दीन को वापस नहीं सौंपा|

नतीजा अकबर की विशाल सेना ने मेड़ता पर आक्रमण कर जयमल को निकाल दिया| मेड़ता छूटने के बाद जयमल चितौड़ चले गए जहाँ मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने उन्हें बदनोर की जागीर देकर सम्मान पूर्वक अपने पास रख लिया जो अकबर को बुरा लगा और जयमल को सम्मान देने की सजा का दंड देने अकबर ने खुद सेना ले चितौड़ पर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में जयमल अकबर की सेना से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया और अकबर की चितौड़ पर विजय हुई| यही नहीं नागौर से सर्फुद्दीन को सुरक्षित मेड़ता लाने के प्रयासों में जयमल के पुत्र कुंवर सार्दुल को रास्ते में शाही सेना की टुकड़ी से भिडंत होने पर अपनी जान गंवानी पड़ी थी|

इस तरह एक मुस्लिम को शरण देने के चलते जयमल को मेड़ता के राज्य सहित अपनी प्राणों की आहुति देनी पड़ी और चितौड़ के महाराणा उदयसिंह ने चितौड़ का राज्य खोया वहीँ चितौड़ की जनता को कत्लेआम का सामना करना पड़ा| सिर्फ एक मुस्लिम शरणागत की रक्षा के लिए|

उपरोक्त उदाहरणों से साफ़ है कि उस काल में भले ही मुग़ल शासकों ने हिन्दुओं के साथ कितना भी धार्मिक भेदभाव किया हो फिर भी दोनों ही तरफ के लोगों में धार्मिक तौर पर कोई मतभेद व विद्वेष नहीं था| इतिहासकार डा.रामप्रसाद दाधीच अपनी पुस्तक “महाराजा मानसिंह (जोधपुर) व्यक्तित्व एवं कृतित्व में लिखते है –“ साम्प्रदायिकता की दृष्टि से समाज में शांति व्याप्त थी| हिन्दू-मुसलमानों में कोई प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं था| जातीय दृष्टि से भी यों तो शांति ही थी किन्तु राज्य सत्ता के मोह के कारण मारवाड़ में भंडारी, सिंघवी, मेहता, कायस्थ, ब्राह्मण आदि में परस्पर ईर्ष्या और द्वेष का तनाव रहता था|” लेखक के अनुसार साफ़ जाहिर है कि मुस्लिम व राजपूत शासकों के बीच संघर्ष के बावजूद आम जनता के दोनों वर्गों में साम्प्रदायिक आधार पर कोई वैमनस्य नहीं था|

औरंगजेब जैसे धर्मांध शासक की तलवार जो नहीं कर सकी वह हमारे देश की आजादी के समय धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे व उसके बाद छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं ने वोट बैंक बनाने के चक्कर में बिना तलवार के ही कर दिखाया|
जिसे दोनों धर्मों में मौजूद कट्टरपंथी पंडावादी ताकतें अपने अपने स्वार्थों के चलते आपसी अविश्वास की खाई को चोड़ा कर बढाने में लगी है, जो निश्चित ही चिंतनीय और देश की एकता, अखंडता के लिए घातक है|
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