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Channel: ज्ञान दर्पण
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आज तक कोई मामू बचा है भांजों से ?

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जब से भांजे की करतूत से पूर्व रेलमंत्री पवन कुमार बंसल की लूटिया डूबी और उनकी दौड़ती रेल अचानक रुक गयी और वे रेलमंत्री से पूर्व रेलमंत्री हो गये तब से आज तक समाचार पत्रों, वेब साइट्स व सोशियल साइट्स पर मामा भांजे की केमिस्ट्री पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है लोग मामा भांजे की इस नई जुगल जोड़ी द्वारा खिलाये गुल पर चट्खारे व चुटकियाँ लेकर सोशियल साइट्स पर मजे ले रहे है|

पूर्व रेलमंत्री बंसल ने अपने भांजे पर ऐतबार कर कमाई में हिस्सेदार बनाया पर भांजा विश्वास करने लायक नहीं निकला और बेचारे मामू फंस गये अब देखिये ना इस भांजे की जगह कोई और होता तो मामू मैडम के आगे साफ़ कह देते कि मैं तो इस सत्ता के दलाल को जनता तक नहीं पर बेचारे क्या करे मैडम के आगे बहुत कहा- “मेरे अपनों ने विश्वासघात कर पीठ पर वार किया दिया|” फिर भी मैडम ज्यादा दिन नहीं पसीजी रही और बेचारे मामू को रेल की जंजीर खिंच बीच रास्ते में उतार फैंका|

मामा भांजे के रिश्तों व उनके बीच हुई घटनाओं के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है कंस-कृष्ण, दुर्योधन-शकुनी आदि आदि फिर भी पढ़े लिखे बंसल ने भांजे पर भरोसा किया| राजस्थान में तो भांजे को लेकर एक कहावत तक प्राचीन काल से चली आ रही है-

जाट, जवांई, भाणजा, रैबारी, सुनार |
कदै न हुसी आपणों, कर देखो व्यवहार ||

अब भांजे के अलावा अन्य लोगों को इस कहावत में किस सन्दर्भ के तहत शामिल किया है इस पर तो मैं चर्चा नहीं करूँगा लेकिन बंसल मामू व उसके भांजे के मामले को देखा जाय तो यह कहावत भांजों पर सटीक बैठती है| यदि पूर्व रेलमंत्री ने अपने जीवन में कभी यह कहावत सुनी होती या स्कूल में पढ़ी होती तो बेचारे आज रेल के इंजन में बैठे सीटी बजा रहे होते पर बुरा हो उन आधुनिक विद्यालयों का जहाँ ऐसी कहावतें पिछड़ों की निशानी समझ पढ़ाई नहीं जाती|

वैसे देश की राजधानी में भांजे की वजह से बंसल मामू ही परेशान नहीं हुए है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भांजों से कई किसान मामू भी दुखी हुए है या दुखी होने की संभावना से डरे सहमें आतंकित बैठे है| जब से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आस-पास की जमीनों के भाव बेतहासा बढ़ें और सरकार ने बेटी का पिता की जमीन में हक़ वाला कानून बनाया है तब से बेचारे यहाँ के मामू लोग भांजों से बहुत आशंकित व आतंकित रहते है| जब भी पिता की सम्पत्ति का बंटवारा होता है बहन तो अपने भाई भतीजों की खातिर अपने पिता की सम्पत्ति पर अपना हक़ उनके हक़ में त्यागने को तैयार रहती है पर भांजे अपनी माँ को ऐसा करने नहीं देते कहते है- करोड़ों का मुआवजा मिलते ही मामू तो साइकिल से सीधे टोयटा फोर्चुनर में आ जायेगा तब हम क्या बाइक पर ही धक्के खाते घूमते रहेंगे ?
और माँ को पिता की सम्पत्ति में हिस्सा लेने को मजबूर कर देते है जो सीधे मामू लोगों की जेब को ढीली कर देती है|

यही नहीं जहाँ ये सम्पत्ति वाला झमेला नहीं होता वहां भी मामू लोग भांजों से दुखी व डरे सहमे ही रहते है भांजा दूध पी पीकर जैसे जैसे बड़ा होता है उसकी उम्र व शरीर की बढ़त देख मामू भी उसकी शादी के मौके पर भात आदि पर होने वाले खर्च बारे सोच सोच कर दुबला हो सहमा सहमा दिखाई देता और भांजे की शादी पर होने वाले खर्च के लिए धन बचाने को बेचारा अपनी इच्छाएँ व खर्चों में कटौती कर मन ही मन दुखी रहता है|

इस तरह प्रचीनकाल से वर्तमान तक मामू लोग भांजों से दुखी है तो पूर्व मंत्री जी आप भी अपना दिल छोटा ना कीजिये और अपने आपको मत कोसिये कि- क्यों मैं भांजे के चक्कर में पड़ गया ?

जब हर मामू भांजों से नहीं बच सका और नहीं बच सकता तो आप कैसे बच सकते थे ?
मजे की बात है कि हर पीड़ित मामू खुद किसी मामू का भांजा है और हर भांजा खुद किसी का मामू |

युग-पुरुष भैरोंसिंह शेखावत : तृतीय पूण्य तिथि पर शत शत नमन

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तृतीय पूण्य तिथि के अवसर पर राजस्थान के लोकप्रिय जननायक स्व. भैरोंसिंह जी को शत शत नमन |

देश के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व.श्री भैरोंसिंह शेखावत जो राजस्थान के जन मानस में बाबोसा के नाम से परिद्ध है का जन्म राजपुताना में शेखावाटी जनपद के खाचरियाबास ठिकाने के एक साधारण राजपूत कृषक परिवार में २३ अक्तूबर १९२३ धनतेरस के दिन श्री देवीसिंह शेखावत की धर्मपत्नी श्रीमती बन्ने कँवर की कोख से हुआ था| वे अपने चार भाइयों व चार बहनों में ज्येष्ठ थे| भैरोंसिंह जी की माता चुरू जिले के “सहनाली बड़ी” गांव की थी|

स्व.भैरोंसिंह जी के पिता देवीसिंह जी रूढ़ीवाद विरोधी व सामाजिक समता के पक्षधर व अनुशासन प्रिय थे यही गुण भैरों सिंह जी को विरासत में मिले| स्व. श्री भैरोंसिंह जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के साथ रहते हुए सवाई माधोपुर जिले के बिछीदाना गांव में हुई तत्पश्चात उन्हें जयपुर के पास जोबनेर कस्बे के एंग्लोवैदिक स्कूल में पढने भेजा गया| जोबनेर व खाचरियाबास गांव के मध्य लगभग ३० किलोमीटर की दूरी है उस वक्त बस आदि की कोई सुविधा नहीं थी अत: भैरोंसिंह जी को जोबनेर व खाचरियाबास के मध्य छात्र जीवन में कई बार पैदल आना जाना पड़ता था| जोबनेर से हाई स्कूल शिक्षा पास कर वर्ष १९४१ ई. में उन्हें जयपुर के महाराजा कालेज में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया| जहाँ शिक्षा ग्रहण के साथ साथ उन्होंने कई नाटकों में भी भाग लिया|
पढाई के समय गांव आने पर भैरोंसिंह जी अपने हाथों कृषि कार्य भी करते थे जिसके बारे में श्री सौभाग्य सिंह जी लिखते है-
हलधर बण हांकियो, सूड़ काटियो खेत |
क्यारां में पाणत करी,कड़व डूचड़ी सेत ||
कूप सींच पय काढियो, करी लावणी फेर |
किल्यो बण बारयो बणया, दिया घास रा ढेर||
सिट्टी डूच खलियान में, गाठौ पण गाह्योह|
करसण हाथां करण सूं, खेत विज्ञान आयोह||
चिड़स झेल वारा लियण,समझयो सदा सुकाम|
इण विध करसण आप कर, पूरी मन री हांम||

हल रो चोट्यो हाथ में, कड़यां बिजोल्यो बाँध
बीज्या मोठ'र बाजरो, सीध आवड़ी साथ||
हल हांकै करसण करै, चारै गाडर गाय|
ले भालो घोडै चढे, क्षत्री खोड़ न खाय ||


3 जुलाई १९४१ को जोधपुर रियासत के बुचकला गांव के ठाकुर कल्याण सिंह राठौड़ की सबसे छोटी पुत्री सूरजकँवर के साथ आपका विवाह हुआ| बुचकला गांव जयपुर जोधपुर रेल मार्ग पर पीपाड़ रोड़ रेल्वे स्टेशन के पास है अत: आपकी बारात खाचरियाबास से ऊँटों व बैलगाड़ियों से जोबनेर पहुँच वहां से रेल मार्ग द्वारा पीपाड़रोड़ उतर वापस बैल गाड़ियों व ऊँटों पर सवार होकर बुचकला गांव पहुंची थी गांव के बाहर अडूणिया बेरा के पीपल के पेड़ के नीचे ठहरी थी|
बैल गाड़ियों व ऊँटों पर गयी इस बारात का वर्णन श्री सौभाग्य सिंह जी ने अपने काव्य में इस तरह किया -

चढ्या सांझरा चाव चित, करहल मुहरी खींच |
पांच घोड़ला ऊंट दस, जानी दो पच्चीस ||
सिंधु माड मल्लार संग, जांगड़ीयां रो ठाठ |
ढाण टोरड़ा ट्राट अस, बैली बहती वाट ||


१९४२ ई. में उनके पिता के देहांत के बाद परिवार के निर्वहन के लिए आपने सीकर ठिकाणे के पुलिस विभाग में असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर की नौकरी ज्वाइन करली पर यह पुलिस की नौकरी आपको ज्यादा दिन रास नहीं आई कारण आपका झुकाव राजनीति की और था|

और आखिर सन १९५२ के चुनाव में आपके भाई बिशन सिंह जी की सलाह पर लाल कृष्ण आडवाणी ने आपको दांता रामगढ़ से जनसंघ के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतारा गया| उस वक्त जनसंघ के पास दांता रामगढ़ के लिए कोई उपयुक्त प्रत्याशी भी नहीं था| इस चुनाव में आपके सामने आपके ही परम मित्र राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार व इतिहासकार श्री सौभाग्य सिंह शेखावत रामराज्य परिषद् से उम्मीदवार थे पर उनका नामांकन रद्द होने से आपको बहुत फायदा हुआ| सौभाग्य सिंह जी का नामांकन रद्द होने के बाद वे अपने मित्र भैरोसिंह जी के चुनाव प्रचार में जुट गये|


भगतपुरा स्थित वह ऐतिहासिक स्थान जहाँ से भैरोंसिंह जी ने पहला चुनाव प्रचार अभियान शुरू किया| पिछले दिनों इस ऐतिहासिक स्थल को देखने पहुंचे अभिमन्यु राजवी
भगतपुरा गांव में सौभाग्य सिंह जी के घर के आगे बनी कोटड़ी में नीम के पेड़ के नीचे चुनाव प्रचार की रणनीति पर चर्चा हेतु आप-पास के गांव वालों के साथ मीटिंग हुई और वहीँ से ऊंट की सवारी कर चुनाव अभियान की शुरुआत की गई| इस चुनाव अभियान की शुरुआत को सौभाग्य सिंह जी ने अपने काव्य में कुछ यूँ संजोया-

गांव भगतपुरै रात रुक, चरा ऊंट नै चार |
झारो कर दही रोटियाँ, चलै चुनाव प्रचार ||
सिद्ध संत आणंद परम, ब्रह्म ग्यान बीहार |
मिलै अचाणक आय पथ, हुये, ऊंट असवार ||

मुहरी पकडै महामहिम, मन हुलसित हुसियार |
लार ऊंट सौभागसी, चल्यौ देत टिचकार ||
वचन दियो सिद्ध पुरस विजै, सुण्यो सेठ बाजार |
आपै इज दौड़ण लगे, चुनाव काम प्रचार ||

पैदल ऊझड़ गैलियां, सीध ताक कई बार |
फदकण छलागां कूदता, कियौ चुणाव प्रचार ||
एक सांझ अहड़ी बणी, ब्यालू बखत विचार |
गाँव गनेड़ा हाट ले, खाया खोपरा चार ||

गाँव गुनाडां गुलाल उड़ा, गुंजा गयण जैकार |
विधान सभा में जा बड़े, खोलै विपख्ख द्वार ||

सौभाग्य सिंह जी बताते है कि इस चुनाव में भैरोंसिंह जी उनके साथ कभी ऊँटों पर तो कभी पैदल ही खेतों के बीच बिना रास्ते ही किसी गांव की दिशा में सीध में चलकर वहां पहुँच प्रचार करते थे| जिस गांव में रात होती उसी गांव में जो मिलता खा पीकर सो जाते| वे कहते है एक बार तो गनेड़ा नामक गांव में रात को सिर्फ खोपरे खाकर ही भूख शांत करनी पड़ी थी|

इस तरह बिना संसाधनों के अपनी मेहनत के बल पर चुनाव प्रचार कर भैरों सिंह जी यह चुनाव २८३३ वोटों से जीत कर राजस्थान की प्रथम विधानसभा के विधायक बने|

इस चुनावी जीत के बाद भैरों सिंह जी ने राजनीति में पीछे मुड़कर नहीं देखा वे राजस्थान विधान सभा में दस बार विधायक, तीन बार मुख्यमंत्री और तीन बार नेता प्रतिपक्ष रहे| १९७४ से १९७७ तक आपराज्य सभा के सदस्य भी रहे और 19 अगस्त २००२ से २१ जुलाई २००७ तक आप देश के महामहिम उप राष्ट्रपति रहे|

आपने अपने पहले ही मुख्यमंत्रित्व काल में राजस्थान के विकास हेतु अंत्योदय योजना (काम के बदले अनाज योजना) बना लागू की जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ तक ने प्रसंशा की| इस योजना की प्रसिद्धि इस बात से जाहिर होती है कि तत्कालीन विश्व बैंक अध्यक्ष रोबर्ट मैक्नमारा ने आपकी इस योजना की सराहना करते हुए आपको भारत रोक्फेलर कहा|

हमनें भी बचपन में पहली बार अपने गांव में इस योजना के तहत सरकारी काम देखे इसके पहले का कोई सरकारी कार्य का चिन्ह मैंने अपने गांव में नहीं देखा था| पंचायतों को भी आपने गांवों के विकास हेतु बहुत अधिकार दिये आपके द्वारा दिए अधिकारों के बाद ही पंचायतों की प्रसांगिकता बढ़ी| आपसे पहले पंचायतों को सिर्फ पांच सौ रूपये तक की योजनाएं हाथ में लेने का अधिकार था जिसे बढाकर आपने पचास हजार किया और प्रत्येक पंचायत समिति के लिए निर्माण कार्यों की सीमा दस लाख रूपये तक बढाई| जिससे ग्राम पंचायतें गांवों के विकास करने में सक्षम हुई|

८४ वर्ष की आयु में आपको कैंसर का दंश झेलना पड़ा जिसका विभिन्न अस्पतालों में उपचार करवाने के बावजूद आप स्वस्थ नहीं हो पाये और आखिर १५ मई २०१० को जयपुर में आपका निधन हो गया| 

स्व.श्री भैरोंसिंह जी शेखावत (बाबोसा), पूर्व उपराष्ट्रपति की आज तृतीय पूण्य तिथि है इस अवसर पर समृति स्थल, विद्याधर नगर जयपुर पर आज शायं ५.३० बजे से 6.३० बजे के बीच प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया है यदि आप जयपुर या आस-पास है अपने प्रिय नेता बाबोसा को श्रधान्जली देने प्रार्थना सभा में जरुर पधारें|

कट्टरवाद : यत्र तत्र सर्वत्र

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सदियों से संसार में अनेक वाद चलते आये है, समय समय पर पुराने वाद को पछाड़ते हुए नए वादों का प्रादुर्भाव होता आया है ये वाद राजनीति, धर्म, भक्ति सहित सभी सामाजिक क्रियाकलापों में बनते बिगड़ते रहे है| वर्तमान में भी हमारे देश सहित दुनियां में कई वाद मौजूद है जैसे- पूंजीवाद, समाजवाद, गांधीवाद, दक्षिणपंथ वाद, मार्क्सवाद, दलितवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, नक्सलवाद, मानवाधिकारवाद आदि आदि ढेरों नाम गिनाये जा सकते है|

इन वादों के ज्यादातर अनुयायी या समर्थक अपने अपने वाद का कट्टरता से पालन करते और अपने अपने वाद को श्रेष्ठ मानते हुए दुसरे वाद समर्थक पर अपना वाद थोपने के चक्कर में क्रियाशील रहते है| जब तक कोई वादी अपने वाद की खूबियाँ गिनाते हुए उसे श्रेष्ठ बताये तब तक तो विवाद नहीं होता पर जब कोई वादी दुसरे के वाद की आलोचना करते हुए उसे निम्न साबित करने की कोशिशें करता है तो सम्बंधित वाद समर्थक उसका विरोध करते है इसी विरोध व अपने वाद का कठोरता से पालन करने को आलोचना करने वाला कट्टरवाद की संज्ञा दे देता है| और फिर कट्टरवाद की आलोचना शुरू हो जाती है|

मजे की बात है कि सभी वादों में अपने अपने तरीके का कट्टरवाद पूरी तरह से मौजूद है पर किसी भी वादी को अपने वाद में मौजूद कट्टरपन दिखाई नहीं देता उसे तो बस अर्जुन को चिड़ियाँ की आंख नजर आने की तरह दुसरे के वाद में कट्टरपन नजर आता है और वह उस कट्टरवाद की आलोचना करता नहीं थकता|

अब देखिये ना हमारे देश के मार्क्सवादियों, लेनिंवादियों, माओवादियों, नक्सलवादियों को अपने भीतर का कट्टरवाद नजर नहीं आता पर धार्मिक कट्टरवादी, कट्टर पूंजीवादी, कट्टर समाजवादी उनके निशाने पर रहते है| देश के कट्टर राष्ट्रवादियों को अपने भीतर का कट्टरपन नजर आने के बजाय दुसरे का धार्मिक कट्टरपन नजर आता है तो धार्मिक और जातिय कट्टरवादियों को राष्ट्रवादियों में कट्टरवाद नजर आता है|

कुल मिलाकर देश में मौजूद हर वाद में कट्टरवाद घुसा हुआ है और भ्रष्टाचार की तरह सर्वत्र व्याप्त है| पर हमें अपने कट्टरवाद की बजाय सिर्फ और सिर्फ दुसरे का कट्टरपन नजर आता है और हम उसके कट्टरवाद को खत्म करने के लिए उतावले रहते है|

काश देश का हर नागरिक अपने अन्दर व्याप्त कट्टरवाद बाहर निकाल फैंके तभी देश को इस कट्टरवाद से निजात मिल सकती है क्योंकि यही कट्टरवाद आज अनेकता में एकता वाले देश का सबसे बड़ा दुश्मन है|

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एक श्रमिक हड़ताल

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उस दिन यादव जी घर पहुंचे तो बहुत रोष में थे, पूछने पर बताने लगे कि- वे आज कारखाने में हड़ताल करने बैठे तो कारखाना प्रबंधन ने हड़ताली श्रमिकों को हमेशा के लिए कारखाने में घुसने पर प्रतिबंधित कर दिया|

हड़ताल का कारण पूछने पर यादव जी बताने लगे- पुरानी मशीनों पर एक मशीन पर एक श्रमिक नियुक्त था अब नई तकनीकि की मशीने आ गयी है, ऐसी तीन तीन मशीनों को एक अकुशल व अस्थाई श्रमिक चला लेता है, उसे लालच होता कि इस तरह मेहनत देख प्रबंधन उसे स्थाई कर देगा| अस्थाई श्रमिकों की कार्यकुशलता देख अब प्रबंधन चाहता है कि पुराने कुशल श्रमिक भी तीन तीन मशीनें संभालें जिससे कारखाने को फायदा हो| बस यही बात पुराने श्रमिकों को पसंद नहीं और उन्होंने हड़ताल कर दी|

हमने यादव जी से कहा- नई तकनीक की मशीनों पर उतनी मेहनत नहीं है यदि तीन मशीनें एक कुशल श्रमिक की देख रेख में चल सकती है तो उन्हें चलाने में पुराने स्थाई श्रमिकों को आपत्ति नहीं होनी चाहिये| इससे तो आपका कारखाना तरक्की ही करेगा|

हमारी बात पर यादव जी भड़कते हुए बोले- मुझे पता था शेखावत जी ! आप प्रबंधन का ही पक्ष लेंगे|

खैर...प्रबंधन द्वारा उन हड़ताली श्रमिकों के कारखाने में घुसने पर प्रतिबंध लगाते ही श्रमिक संगठन ने आंदोलन तो करना ही था सो हड़ताली श्रमिक कारखाने के आगे एक तंबू गाड़ धरने पर बैठ गये| यादव जी के घर अक्सर कई हड़ताली श्रमिक व श्रमिक नेता आते व अब तक हुई कार्यवाही व भावी रणनीति की चर्चा करते जिसे हम भी बिना उसमें दखल दिए चुपचाप सुनते रहते| यादव जी भी हड़ताल के दौरान चलने वाली कार्यवाही की चर्चा अक्सर मुझसे सांझा कर लिया किया करते थे|

एक दिन आते ही बताने लगे- आज श्रम निरीक्षक आया था हमें आश्वस्त करके गया है कि वह प्रबंधन को सबक सीखा देगा और श्रमिकों को न्याय दिलवाकर ही रहेगा| बहुत ईमानदार व्यक्ति है श्रम निरीक्षक|

हमने कहा- यादव जी! काहे का ईमानदार है ? हाँ ज्यादा जोर से इसलिए बोल रहा है ताकि कारखाना प्रबंधन से मिलने वाली नोटों की गड्डी का भार थोड़ा बढ़ जाये|

उस दिन तो यादव जी को हमारी बात बुरी लगी पर कुछ दिन बाद यादव जी ने हमें आकर बताया- शेखावत जी ! आप सही कह रहे थे, वो निरीक्षक तो बिक गया| खैर...हम भी कम नहीं श्रम आयुक्त के पास गए थे वह बहुत अच्छी महिला है उसनें हमें बड़े ध्यान सुना और वादा भी किया कि- मैं आपको आपका हक़ दिलवा दूंगी|

यादव जी की बात पर हमें हंसी आ गयी और हमने कहा- यादव जी ! न तो ये श्रम आयुक्त आपके काम आयेगी और ना ही वे यूनियन वाले कोमरेड आपके काम आयेंगे, यदि प्रबंधन से कोई समझौता हो सकता है तो प्रबंधन को थोड़ा हड़काकर समझौता कर लीजिये और अपनी रोजी-रोटी चलाईये, इसी में श्रमिकों का व कारखाने का भला है|

पर हमारी बात उनके कहाँ समझ आने वाली थी उल्टा हमें वे श्रमिक विरोधी समझने लगे| यूनियन वाले कोमरेडों के खिलाफ तो वे और उनके साथी सुनने को राजी ही नहीं थे|

खैर...एक दिन श्रम आयुक्त के बारे में भी उन्हें पता चल गया कि वह भी प्रबंधन के हाथों मैनेज हो चुकी है| श्रम आयुक्त के मैनेज होने के पता चलने पर हड़ताली श्रमिकों में एक ने जो श्रम मंत्री जी के संसदीय क्षेत्र के रहने वाला था, अपनी बाहें चढ़ा ली कि- अब मैं देखूंगा इस श्रम आयुक्त को| आज ही अपने क्षेत्र के सांसद जो श्रम मंत्री है के पास जाकर इसकी शिकायत कर इसे दण्डित कराऊंगा| मंत्री जी हमारे सांसद है और मेरी उन तक पहुँच है|

वह श्रमिक मंत्री जी के बंगले पहुँच मंत्री जी से मिला व श्रम आयुक्त की शिकायत की| मंत्री जी ने अपने पी.ए. को इसकी जाँच करने का जिम्मा दे दिया व उस श्रमिक को आगे से पी.ए. से सम्पर्क में रहने की हिदायत दे दी| दो चार रोज जब मंत्री जी के पी.ए. से उक्त श्रमिक ने सम्पर्क किया तो पी.ए. ने बताया कि उक्त श्रम आयुक्त महिला उसकी धर्म बहन है, अत: उस पर किसी कार्यवाही की बात वे भूल जाये मैं कुछ नहीं करने दूंगा और आगे से आपको मंत्री जी से मिलने भी नहीं दूंगा|

इस तरह कई महीने बीत गये, श्रमिकों को अब श्रम न्यायालय के निर्णय की ही आस थी कि एक दिन यादव जी मिले तो बड़े रोष में थे बोले- शेखावत जी ! आप सही कह रहे थे श्रम अधिकारी तो सारे भ्रष्ट निकले सिर्फ कोर्ट का आसरा था पर वहां भी हमारे नेता से कारखाना प्रबंधन से मोटे नोट झटकने के बाद यूनियन वाले कोमरेडों ने सलाहकार बन ऐसी ऐसी गलतियाँ करायी कि- अब ये केश हम कोर्ट में भी जीत ही नहीं सकते| ये कोमरेड भी बिकाऊ निकले|

हमने यादव जी को कहा- हमने तो आपको पहले ही कह दिया था सब बिकेंगे खैर...अब भी यदि प्रबंधन से कहीं कोई समझौता हो सकता है तो आप लोगों को कर लेना चाहिये|

आखिर प्रबंधन और हड़ताली कर्मचारियों के बीच आठ दस महीने की हड़ताल के बाद प्रबंधन की शर्तों पर समझौता हुआ और कुछ श्रमिकों को छोड़ बाकी को कारखाने में वापस काम पर रखा गया|

इस घटना के बाद मेरी यह धारणा और पुख्ता हुई कि- श्रमिकों का हितैषी कोई नहीं ना यूनियन नेता, ना श्रम अधिकारी, ना कारखाना मालिक|
हाँ श्रमिक व प्रबंधन आपसी समझ और विश्वास के साथ एक दुसरे की समस्याएँ समझ काम करते रहें तो दोनों पक्षों का ही भला है|

नोट :- यहाँ कहानी हड़ताली श्रमिकों से हुई बातें व उनके आपसी विचार-विमर्श व आपस में सूचनाएं सांझा करते हुए जो चर्चा अक्सर मुझे सुनने को मिलती थी उसी के आधार पर है|

हमारा मैट्रो राष्ट्रीय अख़बार की नजर में ताऊ.इन ब्लॉग

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हिंदी ब्लॉग जगत में अपने अनोखे हास्य व्यंग्य व मजेदार लेखन के लिए प्रसिद्ध ताऊ रामपुरियाके ब्लॉग ताऊ.इनपर कल दिनांक २५ मई २०१३ को राष्ट्रीय हिंदी दैनिक समाचार पत्र हमारा मैट्रोमें एक लेख छपा| जो हुबहू आपके पढने के लिए यहाँ प्रस्तुत है|

हमारा मैट्रो राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र दिल्ली, गौतमबुद्ध नगर, लखनऊ, देहरादून, पटना, जयपुर और छत्तीसगढ़ के सरगुजा से नियमित प्रकाशित होता है| ताऊ.इन पर लिखा यह लेख हमारा मैट्रोसमाचार पत्र की वेब साईटपर उपलब्ध ईपेपर डाउनलोडकर पृष्ठ संख्या चार पर पढ़ा जा सकता है|
ताऊ डाट इन : इंटरनेट पर एक अनोखा हिंदी ब्लॉग
हमारा मैट्रो टीम
इन्टरनेट की दुनियां में हिंदी ब्लॉग जगत का अपना एक अलग ही महत्त्व है। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग अलग प्रतिभा वाले लोग आज अपनी मातृभाषा हिंदी में अपने ब्लॉगस पर बहुत कुछ लिख रहे है कोई कविता, कोई गजल, कोई कहानी, कोई ताजातरीन खबर, कोई स्वास्थ्य से सम्बंधित जानकारी, कोई अपनी विशेषज्ञता वाला तकनीकि ज्ञान के बारे में लिख रहा है तो धर्म पर, कोई अपनी समर्थित राजनैतिक पार्टी का प्रचार कर रहा है तो कोई अपने देश की समस्याओं और राजनीति पर अपने विचार व्यक्त कर रहा है, कोई अपना यात्रा संस्मरण लिख रहा है तो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध करवा अपना ब्लोगिंग धर्म निभा रहा है। इस तरह लोग इंटरनेट पर मौजूद इस ब्लोगिंग रूपी प्लेटफार्म का पूरा सदुपयोग कर रहे है|

पर इन सब विषयों के हिंदी ब्लॉगस के बीच पी.सी.रामपुरिया (मुद्गल) जिन्होंने हिंदी ब्लॉग जगत में अपना नाम ताऊ रामपुरियारखा हुआ है जो हरियाणा व राजस्थान सीमा पर राजस्थान के रामपुरा गांव के मूल निवासी है और वर्तमान में इंदोर रहते है का हिंदी ब्लॉग ताऊ डाट इनअपने आप में एक अनूठा ब्लॉग है। इस ब्लॉग के माध्यम से ताऊ रामपुरियाका मकसद सिर्फ जिंदादिल लोगों से जीवंत संवाद बनाये रखते हुए लोगों को भागदौड़ वाली व्यस्त जिंदगी में हँसना हँसाना है इस बारे में ताऊ रामपुरिया खुद अपने ब्लॉग पर अपने परिचय में लिखते है-
"लेखन मेरा पेशा नही है। थोडा बहुत गाँव की भाषा में सोच लेता हूँ, कुछ पुरानी और वर्तमान घटनाओं को अपने आतंरिक सोच की भाषा हरयाणवी में लिखने की कोशीश करता हूँ। वैसे जिंदगी को हल्के फुल्के अंदाज मे लेने वालों से अच्छी पटती है। गम तो यो ही बहुत हैं। हंसो और हंसाओं, यही अपना ध्येय वाक्य है। हमारे यहाँ एक पान की दूकान पर तख्ती टंगी है, जिसे हम रोज देखते हैं। उस पर लिखा है - कृपया यहाँ ज्ञान ना बांटे, यहाँ सभी ज्ञानी हैं। बस इसे पढ़ कर हमें अपनी औकात याद आ जाती है। और हम अपने पायजामे में ही रहते हैं। एवं किसी को भी हमारा अमूल्य ज्ञान प्रदान नही करते हैं। ब्लागिंग का मेरा उद्देश्य चंद उन जिंदा दिल लोगों से संवाद का एक तरीका है जिनकी याद मात्र से रोम रोम खुशी से भर जाता है। और ऐसे लोगो की उपस्थिति मुझे ऐसी लगती है जैसे ईश्वर ही मेरे पास चल कर आ गया हो।"

हालाँकि अपने परिचय में ताऊ ने साफ लिख रखा है कि - "हम ज्ञान नहीं बांटते पर ताऊ का लिखा किस्सा पढने वाले को पढने के बाद पता चलता है की ताऊ हंसाने वाले किस्सों में गूढ़ व्यंग्य के साथ गूढ़ ज्ञान भी बाँट गया यही लेखन की विलक्षण प्रतिभा के धनी ताऊ की लेखन शैली का कमाल है।"

ताऊ रामपुरियालोगों के मनोरंजन के लिए जितने किस्से लिखते है वह खुद पर, खुद का मजाक उड़ाते हुए लिखते है। यही नहीं ताऊ ने अपने लेखों में कई पात्र भी बना रखे है इनमे एक रामप्यारी नाम की बिल्ली तो रामप्यारे नाम का एक गधा भी है खुद ताऊ अपनी किसी भी फोटो में राजस्थानी पगड़ी पहने बन्दर का चेहरा लगाकर रखता है। अपने किस्सों में ताऊ कभी डाक्टर बनकर क्लिनिक खोलता है और रामप्यारी से मरीजों का कैट स्केन करवाता है तो कभी ताऊ रामप्यारे को ताऊ टीवी का एंकर बना किस्से लिख लोगों को हंसाने का प्रयास करता है। अपने किस्सों में ताऊ लूटेरा, डकैत, बेईमान भ्रष्ट नेता, व्यापारी सब कुछ बन अपने ऊपर हास्य किस्से बना ऐसे लोगों की कार्यशैली पर सहज और सरल भाषा में करारा व्यंग्य लिखता है जिसे पढ़कर पता चलता है कि ताऊ मौजूदा घटनाओं को सरल व सहज भाषा में हास्य, व्यंग्य के रूप में दिलचस्प तरीके से सहेजने में माहिर है।

इन हास्य किस्सों के अलावा ताऊ ने हास्य हास्य में ही एक समय ज्ञानवर्धक पहेली श्रंखला चला हिंदी ब्लॉग जगत में अच्छी ख्याति पाई। पहेली व पहेली के उतर वाली पोस्ट व अन्य अनेकों पोस्ट्स के अंत में ताऊ ने लोगों को हंसाने के लिए एक ताऊ का खूंटा “इब खूंटै पै पढो” नामक कालम में लिखे किस्से पढ़कर पाठक बिना हँसे रह ही नहीं सकते।

अपने हास्य व्यंग्य किस्सों के पात्र ताऊ के बारे में ताऊ रामपुरियाने ऐसी धारणा बना दी कि जो हर काम में एक्सपर्ट हो, बेहतरीन हो वही ताऊ है यानी ताऊत्व को प्राप्त व्यक्ति हर क्षेत्र व हर कार्य में सफल रहता है । ताऊ रामपुरियाने अपने पात्र ताऊ से किस्सों में बेशक चोरी, डकैती, बेईमानी, जालसाजी सब करायी पर उन्होंने हर बार हर किस्से के आखिर में ताऊ का भोलापन व उनके अन्दर की मानवता को जरुर उजागर किया जो अक्सर गांव के भोले भाले लोगों के मन में होती है और यही ताऊ रामपुरिया की लेखनी का कमाल है कि- वे एक भोले भाले पात्र ताऊ से बुरे काम करवाते हुए बेईमानों, लुटेरों व भ्रष्टों पर सहज व्यंग्य कर उनकी पोल खोलते है। साथ ही महिला सशक्तिकरण को दर्शाते हुए ताऊ अपने लगभग किस्सों में ताई के हाथों लट्ठ जरुर खाता है एक ताई ही है जिसके आगे ताऊ का ताऊत्व नहीं चलता।

ताऊ रामपुरिया सिर्फ हास्य व्यंग्य के साथ कविता आदि अनेक विधाओं पर लिख डालते है कई बार साहित्यकारों पर व्यंग्य करते हुए वे जो शब्द व वाक्य लिख डालते है उन्हें पढ़कर कोई भी उन्हें उच्च कोटि का साहित्यकार माने बिना नहीं रह सकता।
ताऊ रामपुरिया की ताऊगिरी की चर्चा करते हुए दिल्ली के ब्लॉगलेखक डा. टी.एस़़ दराल लिखते है- "ताऊ के नाम से प्रसिद्द श्री पी सी रामपुरियाका हास्य विनोद, ब्लॉगिंग को दिलचस्प बना रखा है। ताऊ कविता नहीं करते लेकिन उनकी कल्पना शक्ति किसी बड़े कवि से कम नहीं है। अक्सर लोग हैरानी में पड़ जाते हैं कि ताऊ के पास ऐसे खुरापाती आइडियाज आखिर आते कहाँ से हैं? हिंदी ब्लॉगजगत में जब भी ताऊ का नाम आता है, मन में मौज मस्ती की जैसे धारा प्रवाहित होने लगती है। ताऊ की ब्लॉग पहेलियाँ सभी ब्लॉगर्स का ऐसा मानसिक व्यायाम करा देती थी जैसे कोई ८१ खानों वाला क्रॉसवर्ड पजल करता है। एक चिकित्सक की दृष्टि से देखें तो यह एक्षरसाइज करने वालों को एल्जिमर्स डिसीज होने का खतरा कम से कम रहता है।"

शायद यही कारण है कि एक ब्लॉग पर अलग अलग विधाओं पर लिखने के चलते एक बार तो हिंदी ब्लोगिंग में यह धारणा भी बन गई कि ताऊ ब्लॉग पर एक नहीं कई लेखक मिलकर लिखते है और इस धारणा पर व्यंग्य करते हुए खुद ताऊ रामपुरिया ने ताऊ कौन ? नामक एक लेख लिख ताऊ नाम को एक पहेली ही बना दिया और कई हिंदी ब्लॉगर इस पहेली को सुलझाने में वर्षों लगे रहे आज भी गाहे बगाहे किसी ब्लॉग पर ताऊ कौन सम्बंधित लेख पढने को मिल ही जाता है।

ताऊ कौन ? पहेली को सुलझाते हुए एक लेख में ताऊ रामपुरियाअसली ताऊ का परिचय देते हुए एक कहानी के माध्यम से ताऊ पात्र को रामायण कालीन बता उसे भगवान् राम व माता सीता के प्रिय बन्दर के रूप में प्रचारित कर फिर मौज लेने में लगे।

कुल मिलाकर अपने ब्लॉगको माध्यम बना ताऊ रामपुरियाखुद मौज लेने के साथ साथ लोगों को हंसाने का व जिंदादिल लोगों से अपने तरीके से संवाद स्थापित करने में सफल रहे है।

पेड़ की शूल

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रामप्रसाद पिछले २ सालों से प्रदेश गए पुत्र की राह देख रहा था । क्या-क्या सपने संजोये थे उसने। गाँव के महाजन से विदेश भेजने के लिए उसने अपनी जमीं तक गिरवी रख दी थी। ताकि उसके बच्चे को तंगहाली के दिन न देखने पड़े। खुद रात दिन अपने खून को जलाकर महाजन के कर्ज का सूद हर महीने देता था। "लाला बस कुछ दिनों की ही बात है फिर मेरा लड़का तुम्हारी पाई-पाई चूका देगा, देखना ?
"वह बड़े इत्मिनान से कहता ।

एक दिन घर के सामने नीम के पेड़ की छाँव में बैठा चिलम पी रहा था कि दूर से डाकिया आता दिखाई दिया। मन ही मन उत्सुकता जगी। प्रदेश से बेटे का शायद मनीआर्डर आया होगा। वह आशान्वित दृष्टि को डाकिये पर गडाए हुए था। डाकिये ने नजदीक आकर कहा भाई रामप्रसाद पत्र आया है।

"भाई जरा पढ़ कर सुना दो" रामप्रसाद ने उत्सुकता वश डाकिये से कहा।
बापू - अम्मा को चरण स्पर्श,
में यहाँ कुशल -पूर्वक हूँ, मेरी तरफ से आप किसी प्रकार की चिंता नहीं करे। वो क्या है न बापू मुझे लिखने में संकोच हो रहा है मुझे यहाँ एक सस्ता घर मिल रहा था सो खरीद लिया। इसलिए आप को पैसे नहीं भेज पाया। इसलिए तुम इसे अन्यथा न लेकर समझने की कोशिश करोगे। तुम्हारी बहु ने कहा की नया घर खरीद लेते है, जिससे रोज-रोज का किराया का झन्झट भी नहीं रहेगा । उसके बाद बापू व् अम्मा को भी यहीं पर बुला लेंगे। इसलिए आप ८-१० महीने पैसों का इंतजाम और कर लेना। उसके बाद में महाजन के पैसे चूका कर आपको यहीं पर बुला लूँगा ।

अपना व् अम्मा का ख्याल रखना ।
आपका पुत्र
राजू

पत्र को सुनकर रामप्रसाद का शरीर शिथिल पड़ गया, वह शुन्य में टकटकी लगाये काफी देर तक देखता रहा। जैसे जलती हुई आग में किसी ने पानी के मटके उड़ेल दिए हो। डाकिये ने झकझोरा "अरे भाई कहाँ खो गए रामप्रसाद ?"

नहीं भाई कहीं नहीं बस यूँ ही बच्चे की जरा याद आ गयी। डाकिया जा चुका था। रामप्रसाद की पत्नी गले की असाध्य बीमारी से पीड़ित थी। रामप्रसाद छप्पर के नीचे खाट को डालते हुए सोच रहा था कि- पत्नी से क्या कहूँ जिसकी दवा भी ख़त्म होने को है। "अजी सुनते हो! क्या लिखा है लल्ला ने ?, पैसे भेज रहा है न ?" अन्दर से पत्नी की आवाज ने उसकी तन्द्रा को तोड़ा।

रामप्रसाद गहरी साँस छोड़ते हुए खाट पर बैठ गया। और सोचने लगा "क्या बेटे का मकान खरीदना अपनी अम्मा की बीमारी के इलाज से ज्यादा जरुरी था ? क्या गाँव के महाजन का कर्ज चुकाना व् घर-खर्च भेजना से ज्यादा जरुरी शहर का मकान खरीदना था ?

अब वह कल महाजन को क्या जवाब देगा ?
कल पत्नी की दवा कहाँ से ल़ा पायेगा ?

आज उसे अपनी परवरिश में स्वार्थ की बू आ रही थी। अपने खून से सींच-सींच कर बड़े किये हुई पोधे की शूल उसके ह्रदय में रह रह क रचुभ रही थी।

उसने सामने से जा रहे स्कूल के मास्टर जी को आवाज लगाई और पुत्र के नाम पत्र लिखने को कहा।

"हम यंहा पर मजे में हैं बेटा, महाजन का कर्ज भी चुका दिया है। तुम आराम से रहना व् बहु का ख्याल रखना। मकान लेकर तुमने अच्छा किया तुम्हारी अम्मा का इलाज तो ८-१० महिना बाद करवा लेंगे। तब तक में कुछ व्यवस्था करता हूँ।

मास्टर जी किक्रत्व्यविमूढ़ व् हेरत से उसे देख रहे थे। उम्र से कहीं ज्यादा माथे पर गरीबी की रेखाओं के आस -पास पसीने की बुँदे चमकती हुई आत्मग्लानी को प्रदशित कर रही थी। हाथ में लाठी व् कंधे पर धोती डालकर निढाल सा वह महाजन से अपनी जमीं का सौदा करने चल पड़ा था।
ताकि कर्ज के साथ -साथ बचे हुए पैसे से अपनी औरत का इलाज करवा सके।

लेखक : गजेन्द्र सिंह शेखावत

इंटरनेट खरीददारी : छूट कूपन का लाभ उठायें

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यदि आप इंटरनेट पर ऑनलाइन खरीददारी करते है तो छूट कूपन का लाभ जरुर उठायें, पर प्रश्न यह है कि ये छूट कूपन मिलते कहाँ है ? और प्रयोग कैसे किये जातें ?

दरअसल इन्टरनेट पर ऑनलाइन व्यवसाय करने वाले लगभग स्टोर अपनी वेब साईट पर उत्पाद बेचने के लिए छूट कूपन जारी करते है या उनके द्वारा दूसरी अधिकृत डीलर टाईप वेब साईट होती है जो उसी उत्पाद को छूट के साथ सस्ते में बेचती है | पर इन सब बातों की जानकारी उस सम्बंधित वेब साईट पर नहीं होती और उनके द्वारा छूट कूपन जारी होने के बावजूद हम उसका फायदा नहीं उठा सकते |

अक्सर कई स्टोर अपनी वेब साईट पर उत्पादों पर छूट पेश करती है और उन पेशकश के लिए सम्बंधित वेब साईट पर एक अलग पेज भी बना होता है फिर भी जो लोग इस संबंध में नहीं जानते वे इस तरह की छूट पेशकश का फायदा नहीं उठा सकते| इंटरनेट पर काफी समय व्यतीत करने व अक्सर ऑनलाइन खरीददारी करने के बावजूद एक बार मेरी खरीद के बारे में ब्लॉग लेखक कुन्नूसिंह से बात हुई तब पता चला कि उस खरीद में छूट पेशकश थी जिसका मैं फायदा नहीं उठा सका, आखिर कुन्नू सिंह से मुझे इस तकनीक का पता चला कि इंटरनेट की दुनियां में बहुत सी ऐसी वेब साइट्स भी है जो विभिन्न कम्पनियों द्वारा ऑनलाइन बेचे जाने वाले उत्पादों पर छूट पेशकश की जानकारी देती है|

हम किसी भी वेब साईट से कोई भी वस्तु खरीदने से पहले छूट पेशकश की जानकारी देने वाली वेब साईट पर छूट पेशकश की जानकारी व वहां से छूट कूपन कोड लेकर अपनी खरीददारी पर बचत कर सकते है| एक बार इंटरनेट पर विचरण करते हुए मुझे ऐसे ही विभिन्न वेब साइट्स द्वारा छूट पेशकश की जानकारी देने वाली एक वेब साईट www.cuponation.inमिली|

इस वेब साईट पर कई ऑनलाइन स्टोर्स द्वारा उत्पादों पर छूट की पेशकश के कूपन कोड आसानी से उपलब्ध है जिनका मैं अक्सर प्रयोग कर ऑनलाइन खरीद पर बचत करता रहता हूँ| इस तरह की जानकारी की सेवा देने वाली अन्य वेब साइट्स से ये वेब साईट मुझे बहुत अच्छी लगी| इस वेब साईट पर Yebhi.com, Bhaap.com, Flipkart.com, Sanapdeal.com, Naaptol.com, Godaddy.com, Jobang.com, Tradus.com, Jet Airways, Makemytrip.com babyoye.com, Myntra.com, Officeyes.com आदि सैंकड़ों ऑनलाइन स्टोर्स के विभिन्न उत्पादों यथा- इलेक्ट्रोनिक्स सामान, कपड़े, जूते, मोबाइल फोन, ज्वैलरी, बच्चों का सामान, सौन्दर्य प्रसाधन, कैमरे, खेलकूद का सामान, डोमेन नेम, यात्रा टिकट, रेस्टोरेंट आदि पर छूट पेशकश के कूपन की पूरी जानकारी मिलती है|

यदि आप भी ऑनलाइन खरीददारी करते रहते है तो पर छूट कूपन कोड लेकर अपनी बचत करें|

आईये चर्चा करते है इस वेब साईट से कूपन कोड कैसे प्राप्त किये जा सकते है ? और छूट कैसे प्राप्त की जा सकती है ?

1- सबसे पहले www.cuponation.inपर चटका लगाकर इस वेब साईट पर जायें|

2- आपको जिस श्रेणी (कैटेगरी) के उत्पाद खरीदने है उसकी श्रेणी चुने|

3- अपने पसंद व जरुरत के उत्पाद की श्रेणी चुनते ही उस श्रेणी के उत्पादों पर छूट पेशकश की पूरी जानकारी सहित छूट कूपन कोड के लिए View Code या View Deal लिखा होता है|

4- View Code या View Deal पर क्लिक करते ही एक पॉप अप खुलता है जिसमें कूपन कोड सहित आपके लिए छूट एक्टिवेट होने का सन्देश लिखा होता है|

5- आपके द्वारा View Code या View Deal पर क्लिक करते ही एक अलग विंडो में सम्बंधित उत्पाद बेचने वाले स्टोर की वेब साईट एक पॉप अप द्वारा छूट कूपन कोड की जानकारी के बाद स्वत: खुल जाती है जहाँ आप अपने पसंद का उत्पाद कार्ट में जोड़ते हुए उस छूट कूपन कोड का प्रयोग कर अपनी खरीद पर बचत कर सकते है|

कमलेश चौहान का आने वाला उपन्यास : सात जन्मों के बाद

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वर्ष २००८ के मध्य सोशियल साईटस पर लांस एंजेलिस केलिफोर्निया रहने वाली कमलेश चौहानसे मुलाकात हुई| सोशियल साईटस पर आपसी बातचीत और विचार विमर्श के बाद कमलेश जी को ज्ञान दर्पण.कॉम के बारे में पता चला और उसके बाद वे ज्ञान दर्पण ब्लॉग की नियमित पाठक बन गयी साथ ही अपनी कई रचनाएँ भी ज्ञान दर्पण पर प्रकाशित करने हेतु भेजी|

वर्ष २००९ में एक दिन अचानक कमलेश चौहान का हिंदी में लिखा उपन्यास "सात समन्दर पार"कोरियर से मिला जिसे पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई ये जानकर कि देश से बाहर रहने के बावजूद कमलेश चौहान अपनी मातृभूमि व मातृभाषा से पुरे मनोयोग से जुडी है| पढने के बाद “सात समन्दर पार” उपन्यास की समीक्षा भी ज्ञान दर्पण.कॉम पर लिखी गयी| इसके बाद २०११ में फिर कमलेश चौहान का लिखा उपन्यास "सात फेरों का धोखा"मिला| जिसमें विदेशों में बसे भारतियों की तीन पीढ़ियों की सोच का अंतर व भारतियों द्वारा अपनी पुत्रियों के लिए विदेश में बसे दुल्हों की चाहत और इस चाहत की आड़ में उपजी समस्याओं का विवरण पढने को मिला| साथ ही अक्तूबर २०११ में इसी उपन्यास के विमोचन के लिए हिंदी भवन में आयोजित समारोह में पहली बार आभासी दुनियां की अपनी मित्र कमलेश चौहान से प्रत्यक्ष मिलना हुआ| इस समारोह में ज्यादातर कमलेश चौहान के आभासी दुनियां (वर्चुअल वर्ल्ड) के माध्यम से जुड़े लोग शामिल थे जो प्रत्यक्ष आपस में पहली बार मिल रहे थे|

पिछले वर्ष एक दिन अचानक कमलेश चौहान का फोन आया कि -"मुझे राजस्थान में परिजनों व रिश्तेदारों को जिन नामों से संबोधित किया जाता है उनकी जानकारी चाहिये, मैं राजस्थान के राजपूत पात्रों को लेकर एक उपन्यास लिखना शुरू कर रही हूँ "सात जन्मों के बाद"| फोन पर वार्ता होने के बाद मैंने कमलेश चौहान को इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी लिखकर मेल द्वारा प्रेषित कर दी साथ ही अनुरोध भी किया कि- "आप जो भी लिखे मुझे भेजते जाये| चूँकि आप राजस्थान में रही नहीं है इसलिए आप अपने उपन्यास की मुख्य थीम जिसमें आपको पात्रों के साथ राजस्थानी संस्कृति खासकर राजपूत संस्कृति दिखानी है के साथ पूरा न्याय करने में आपको बहुत दिक्कत आयेंगी, आपकी यह दिक्कत मैं आपका लिखा पढ़कर सुझाव दे संशोधित करवा दूर करवा सकता हूँ| क्योंकि मैं इसी संस्कृति में पला बढ़ा हूँ राजपूत संस्कृति मेरे रोम रोम में रची बसी है|"

कमलेश चौहान को भी मेरी यह बात पसंद आई वे बोली- "मुझे इस बात का पहले ही अंदाज था और मैंने तय भी कर रखा था कि इस विषय पर आपकी सहायता जरुर लुंगी|"

और उसके बाद कमलेश चौहानने अपने उपन्यास के राजस्थान से सम्बंधित चेप्टर लिखकर मुझे भेजने शुरू किये जिनमें मुझे कोई ज्यादा संशोधन नहीं करने पड़े सिर्फ कुछ राजपूत रीति-रिवाजों के वर्णन के अलावा| मुझे ख़ुशी है कि कमलेश चौहान जो भारत से दूर रही है ने अपने लेखन में राजपूत संस्कृति के प्रति पूरा न्याय करने की कोशिश की है|
इस उपन्यास के माध्यम से कमलेश चौहान ने राजपूत संस्कृति के स्थापित मूल्यों को सही रूप में उन लोगों के सामने लाने का एक शानदार प्रयास किया है जिनके सामने छद्म सेकुलर, पंडावादी तत्वों व राजपूत विरोधी ताकतों ने राजपूत संस्कृति और राजपूतों द्वारा सामाजिक उत्पीड़न व शोषण की झूंठी कहानियां घड़कर दुनियां के सामने इस वीर, दयालु, परमार्थ के लिए जीने वाली, देश पर संकट के वक्त हरावल में रह अपने शीश कटा बलिदान देने वाली महान कौम को वोट बैंक की राजनीति व अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में बदनाम कर रखा है और सामंतवाद के नाम पर आम राजपूत पर निशाना साधा जा रहा है|

कमलेश चौहान का यह आने वाला उपन्यास देश से दूर रहने व पाश्चात्य संस्कृति में डूबे उन भारतीय लोगों को जो अपने देश व अपनी संस्कृति से दूर हो चुकें या फिर अपनी संस्कृति को रूढ़ीवाद व पिछड़ेपन की निशानी समझ छोड़ चुके को व उनकी आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति से परिचय करने में बहुत सहायक होगा| साथ ही दुनियां भर में विरोधियों के षड्यंत्रकारी दुष्प्रचार को जबाब देते हुए लोगों के सामने राजपूत संस्कृति का उज्जवल पक्ष प्रस्तुत करने में सहायक होगा|

कमलेश चौहान के इस उपन्यास “सात जन्मों के बाद” में प्रयुक्त कविताओं व उपन्यास की विषय वस्तु को सुनकर प्रभावित हो उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक कलाकार दरवान नैथवल (दर्मी) ने उपन्यास की सभी कविताओं को स्वरबद्ध कर ऑडियो एल्बम बनायें है और जल्द वे इस उपन्यास की थीम पर आधारित इन कविताएँ का वीडियो एल्बम भी तैयार कर बाजार में उतारने वाले है|

मैं आशा करता हूँ कमलेश चौहान का यह उपन्यास “सात जन्मों के बाद”जल्द प्रकाशित होकर बाजार में आये|

कमलेश चौहान के दो उपन्यास “सात फेरों का धोखा” और “सात समन्दर पार” के हिंदी व अंग्रेजी संस्करण विदेशों में काफी लोकप्रिय रहे है इन दोनों भाषाओँ के अलावा अन्य भाषाओँ में भी इन पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित हुए है|

ताऊ कौन ? पहेली में उलझी फेसबुक

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हिंदी ब्लॉग जगत में अपने अनोखे हास्य व्यंग्य व मजेदार लेखन के लिए प्रसिद्ध ब्लॉग “ताऊ डॉट इन”के लेखक ताऊशुरू से ही हिंदी ब्लॉग जगत के लिये पहेली रहें है कि – आखिर ये ताऊ है कौन ?

हिंदी ब्लॉग जगत के लगभग सभी सक्रीय ब्लॉगर्स को ताऊ के बारे में जानने की हमेशा जिज्ञासा रही है कि कौन है ताऊ ? कैसा दिखता होगा ताऊ ? क्योंकि आज तक किसी ने ताऊ की फोटो तक नहीं देखी, बस ब्लॉग प्रोफाइल पर मनुष्य शरीरधारी बंदर की पगड़ी पहने फोटो लगी है और ताऊ दावा भी करता है कि यह फोटो उसकी ही है पर ब्लॉगर्स है कि मानने को ही तैयार नहीं कि ये बंदर के मुंह वाली फोटो ताऊ की हो सकती है| यदि ताऊ की इस फोटो और यह फोटो अपनी होने के ताऊ के दावे के बारे में अमेरिका वालों को पता चल जाये तो वे ताऊ पर शोध कार्य शुरू करदें|

खैर...अमेरिका ताऊ पर शोध करे या ना करे, हिंदी ब्लॉग जगत के कई वरिष्ट ब्लॉग लेखकों यथा समीरलाल “समीर”ने ताऊ कौन है आखिर?? , सतीश सक्सेनाने ब्लाग जगत की बेहतरीन सख्शियत - ताऊ रामपुरिया , अरविंद मिश्रने मेरे प्यारे ताऊ !एवम ताऊ के शोले में टंकी का सीन,ज्ञानदत्त पांडे ने यह ताऊ कौन है?,डा.टी. एस. दराल , ने ताऊगिरी का इस्तेमाल करते हुये जिंदगी के तनाव घटायें, ब्लॉग लेखिका सुमन जीने ताऊ डाट इन,अमितने ताऊ ताऊ ताऊ ताऊ... और केवल ताऊ आदि कई ब्लॉग लेखकों ने ताऊ कौन ? पर जरुर शोध करने की कोशिशें की व अपने अपने ब्लॉगस पर शोध पोस्टें भी लिखी|

अन्य ब्लॉग लेखकों की देखा देखी खुद ताऊ ने भी बहती गंगा में हाथ धोने वाली स्टाइल में “ताऊ कौन ?” पहेली सुलझाने की कोशिश करते हुए समय समय पर कई शोध पोस्टेंलिखी फिर भी ताऊ कौन पहेली कभी सुलझी नहीं, उल्टा उलझती ही गयी| लोग मानने को तैयार ही नहीं कि कोई एक व्यक्ति आखिर इतनी विधाओं पर हर बार अलग-अलग शैली में कैसे लिख सकता है ? कई ब्लॉग लेखकों ने आशंका जताई कि हो सकता है ताऊ नाम की कई व्यक्तियों की कोई टीम हो जो मिलजुल कर लिखती हो|

खैर...ब्लॉग जगत तो इस पहेली में उलझा ही था, पर लोगों की फोटो देखकर उसे तपाक से पहचानने वाली फेसबुक भी कुछ दिन पहले “ताऊ कौन ?” पहेली में उलझी दिखी|

हुआ ये कि पिछले दिनों हमारा मेट्रो राष्ट्रीय हिंदी दैनिक समाचार पत्र में ताऊ ब्लॉग के बारे में छपा एक लेख मैंने ज्ञान दर्पण.कॉम पर लिखा जिसमें ताऊ के फोटो के साथ डा.दराल का फोटो सहित जिक्र था| जब इस लेख का लिंक मैंने फेसबुक वाल पर लगाया तो फेसबुक ने पोस्ट में लगी फोटो से डा.दराल की फोटो को ताऊ की फोटो समझ झटक लिया और लिंक के साथ चस्पा कर दिया| मैंने कई बार लिंक लगाकर देखने की कोशिश की पर हर बार फेसबुक डा.दराल को ताऊ समझ उनकी ही फोटो चस्पा करने में लगी रही|

 आखिर हमनें भी मान लिया कि लगता है हिंदी ब्लॉग जगत की तरह फेसबुक भी ताऊ की ताऊगिरी को लेकर कन्फ्यूजिया गयी और डा. दराल को ही ताऊ समझने लगी|
जो भी हो दोनों में से एक बात तो है कि- या तो फेसबुक ताऊ को लेकर कन्फ्यूजिया गयी या फिर डा. दराल ही ताऊ है :)
ये तो ठीक वैसी ही बात हुई जैसे- एक गांव में हाथी को न पहचानने के बाद बुझागर ने हाथी के बारे में गांव वालों को बताया-कै तो चाँद रो चंद्रोलियो हुसी या बैतो (चलता हुआ) सुरजी तूय ग्यो हुसी|

क्या है जोधा अकबर सीरियल विवाद ?

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Zee TV पर प्रसारित होने जा रहे एकता कपूर की कम्पनी बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित धारावाहिक जोधा अकबर के खिलाफ क्षत्रिय समाज में काफी रोष है और देश भर के क्षत्रिय संगठन श्री राजपूत करणी सेना की अगुवाई में इस धारावाहिक को रोकने के लिए आंदोलनरत है| एक तरफ सोशियल साइट्स पर राजपूत नवयुवकों द्वारा सीरियल के खिलाफ आवाज मुखर हो रही है वहीँ करणी सेना द्वारा इस सीरियल को रोकने के लिए शुरू किया गया अभियान देश की राजधानी दिल्ली तक पहुँच गया| और दो दिन पहले Zee TV के नोयडा स्थित कार्यालय के बाहर देशभर से आये एक हजार कार्यकर्ताओं ने इस धारावाहिक को रोकने के लिए Zee TV पर दबाव बनाने के लिए प्रदर्शन किया|

इससे पहले राजपुताना संघ व करणी सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा Zee TV पर इस धारावाहिक के प्रसारण को रोकने के लिए इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन के अधिकारीयों को शिकायती ईमेल भेजे व अधिकारीयों से मिलकर इसके विरोध में लिखित शिकायत देते हुए इस धारावाहिक के प्रसारण को रोकने का अनुरोध किया|


Zee TV प्रबंधन ने IBF अधिकारीयों से मिले नोटिस व विभिन्न क्षत्रिय संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा भेजे गए विरोध ईमेल्स को पढने व क्षत्रिय संगठनों द्वारा 5 जून को Zee TV कार्यालय पर प्रदर्शन करने का कार्यक्रम घोषित करने के बाद इस मुद्दे पर संवेदनशीलता बरतते हुए क्षत्रिय संगठनों के प्रतिनिधियों से वार्ता कर विवाद सुलझाने हेतु तथ्य समझने की कोशिश की| और इसी के तहत Zee TV प्रबंधन टीम के अजय भंवरकर, सुचिता पद्मनाभन व पुरुषोतम आदि के साथ क्षत्रिय संगठनों के प्रतिनिधि व नेता लोकेन्द्र सिंह कालवी, रतन सिंह भगतपुरा, नारायण सिंह दिवराला, राजेंद्र सिंह बसेठ, भंवर सिंह रेटा, यु.एस. राणा, पूर्व विधायक वी.पी.सिंह, नन्द सिंह झाला IBF के दफ्तर में IBF के अधिकारीयों के सामने वार्ता हुई, जिसमें लोकेन्द्र सिंह कालवी ने आईने अकबरी, जहाँगीरनामा व विभिन्न प्राचीन इतिहास पुस्तकों के ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए तथ्यों के आधार पर साबित किया कि जोधा नाम की अकबर के कोई बीबी नहीं थी, और न ही किसी इतिहास पुस्तक में जोधा नाम की अकबर किसी पत्नी का जिक्र तो फिर किसी फिल्म या धारावाहिक का नाम जोधा अकबर रखना इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश करने का कुत्सित षड्यंत्र क्यों ? कालवी ने Zee TV टीम को बताया कि यदि आप पुरानी इतिहास की किताबें नहीं पढ़ सकते तो कम से कम NCERT की ही किताबें पढ़ लीजिये जो सरकारी मान्यता प्राप्त है और बच्चों को स्कूली शिक्षा में पढाई जाती है उनमें भी जोधा नाम की अकबर की किसी बेगम का जिक्र नहीं है|

Zee TV प्रबंधन टीम कालवी द्वारा उपलब्ध कराये तथ्यों से प्रभावित हुई और उन्होंने वे सभी ऐतिहासिक संदर्भ बालाजी टेलीफिल्म्स को दिखाकर उनसे वार्ता कर इस मुद्दे को सुलझाने के प्रयास करने का वायदा किया साथ ही क्षत्रिय नेताओं के साथ बालाजी टेलीफिल्म्स प्रबंधन के साथ भी वार्ता कराने की इच्छा जाहिर की|

क्षत्रिय नेताओं को कहना था कि वे सारे सबूत दे चुके है कि अकबर के जोधा नाम की कोई पत्नी नहीं थी, हाँ जोधा नाम की जोधपुर के राजा उदयसिंह की एक दासी पुत्री जिसका नाम मनमती था कि शादी जहाँगीर से हुई थी जिसे जोधपुर की होने के चलते जोधा या जोधा बाई कहा गया जो अकबर की पुत्रवधू थी| अत: एक पुत्रवधू का नाम ससुर के साथ जोड़कर दिखाना इतिहास को तोड़ने मरोड़ने के अलावा सामाजिक मूल्यों के विपरीत भी है| अत: वार्ता करने का कोई फायदा नहीं बल्कि वार्ता करने के बजाय धारावाहिक का नाम बदला जाय या फिर इसका प्रसारण ही रोक दिया जाय|

ज्ञात हो कुछ वर्ष पहले आशुतोष गोवरिकर ने भी जोधा अकबर के नाम से फिल्म बनायीं थी तब उसका भी देशभर में विरोध हुआ था और देश की चार राज्य सरकारों ने अपने अपने राज्य में उसका प्रदर्शन बंद कर दिया था जहाँ न्यायायल के आदेश के बाद ही प्रदर्शित हो सकी पर राजस्थान में करणी सेना के सशक्त विरोध के चलते यह फिल्म आज तक राजस्थान के किसी भी छविगृह में प्रदर्शित नहीं हुई|

सोशियल साइट्स पर चर्चा के दौरान देखा गया कि बहुत से लोगों को जिनमें कई बुद्दिजीवी भी है को यह विवाद झूंठा लगा क्योंकि मुगले आजम फिल्म के बाद आम आदमी के मन में यह धारणा गहरे से बैठ गयी कि- जोधा नाम की आमेर की राजकुमारी की शादी अकबर के साथ हुई थी जो सरासर गलत है| मुगले आजम फिल्म के समय भी राजस्थान विश्व विद्यालय के एक इतिहास प्रोफ़ेसर आर.एस भार्गव ने जोधा नाम पर सवाल उठाते हुए विरोध किया था, इस विषय पर उनका एक शोध लेख भी अजमेर से निकलने वाले एक समाचार पत्र “न्याय” में छपा था पर सूचना तकनीकि के अभाव में उनका विरोध ज्यादा लोगों के सामने नहीं आ पाया जिन्हें पता भी चला उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया कि- क्या फर्क पड़ता है ? फिल्म तो मनोरंजन के लिए ही है| पर मनोरंजन वाली उसी फिल्म ने अपनी एक छोटी सी गलती के चलते आज इतिहास में भ्रम पैदा कर दिया|

यही नहीं बुद्धिजीवियों का एक ख़ास वर्ग पूर्वाग्रह के चलते यह भ्रम फ़ैलाने में भी लगा है कि- जोधा अकबर का विरोध कर राजपूत अपने अतीत में किये पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहें है उन्हें मैं साफ़ बता देना चाहता हूँ कि- राजपूत मुस्लिम विवाह संबंध बराबरी के आधार पर मुगलों के आने से पहले ही शुरू हो गए थे उस वक्त आज की तरह दोनों धर्मों के अनुयायियों में किसी भी तरह का साम्प्रदायिक मतभेद व विद्वेष नहीं था| इस संबंध में विस्तार से कभी बाद में चर्चा करूंगा|

आमेर की जिस राजकुमारी की शादी अकबर के साथ होना माना गया है इतिहास में उसका नाम हरका बाई लिखा गया है, खुद जहाँगीर ने अपनी पुस्तक जहाँगीर नामा (तजुक ए जहांगीरी) में अपनी माँ का नाम हरका बाई लिखा है| हालाँकि इतिहासकारों के अनुसार हरका के भी आमेर के राजा की पुत्री होने के बारे में विवाद है| बहुत से इतिहासकार हरका को राजा भारमल की एक पारसी दासी की पुत्री मानते है|

आमेर की इस राजकुमारी हरका के विवाह पर “अकबर ए महुरियत” में स्पष्ट रूप से लिखा है,"ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں" ( हमें राजपुत विवाह पर संदेह है क्योंकि राजभवन में किसी की आँखों में आँसु नहीं था तथा ना ही हिन्दु गोद भराई की रस्म हुई थी )|” जबकि कोई भी माता-पिता अपनी पुत्री के विदा होते समय आँख में आंसू नहीं रोक सकते।
तजुक ए जहांगीरी जिसमें जहांगीर की आत्मकथा है उसमें जोधा बाई का उल्लेख नहीं है।
अरब की कई सारी किताबों में ऐसा वर्णित है "ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس" ( हमें यकिन नहीं है इस निकाह पर )
ईरान के " Malik National Museum and Library" की किताबों में भारतीय मुगलों का दासी से निकाह का उल्लेख मिलता है।

हिस्ट्री के प्रोफेसर राजेंद्र सिंह खंगरोट का कहना है,'फैशन के लिए इतिहास के तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। जोधा बाई का अकबर से कभी विवाह नहीं हुआ। इसके उलट अकबर के बेटे जहांगीर के साथ जोधा की शादी हुई थी। इस बात के भी कई संदर्भ मौजूद हैं कि जोधपुर के राजा मोटा राजा उदय सिंह की बेटी मनमती, जिनकी शादी जहांगीर के साथ हुई थी, जोधपुर की होने के कारण उनका नाम जोधा बाई पड़ा था। जहांगीरनामा में भी इसका जिक्र है। लेकिन इसे शर्मनाक ही कहा जाएगा कि जोधा का नाम उनके ससुर के साथ जोड़कर दिखाया जाता है। अगर फिल्में और सीरियल बनाने वालों के पास जानकारी नहीं है तो वे एनसीईआरटी की किताब पढ़ सकते हैं।“

नोट : इस विषय पर जल्द ही विभिन्न इतिहासकारों द्वारा अपनी इतिहास पुस्तकों में दी गयी जानकारियों के सन्दर्भ पुस्तक का लेखक सहित नाम, पृष्ठ संख्या सहित एक लेख ज्ञान दर्पण पर प्रकाशित किया जायेगा ताकि आम व्यक्ति इस विवाद की सच्चाई से रूबरू हो सके|

मोदी पर सटीक बैठती है ये राजस्थानी कहावत

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राजस्थान में एक कहावत है “खीरां आई खिचड़ी अर टिल्लो आयो टच्च” मतलब खिचड़ी पकते ही टिल्ला खाने के लिए झटके से मौके पर आ गया| इस कहावत में टिल्ला शब्द ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त किया गया है जो काम के वक्त तो इधर-उधर होते है पर उनकी नजर हमेशा फायदे को ताकती रहती है दूसरों द्वारा किये काम का जब फल मिलने का अवसर आता है तब वे मौके पर काम करने वालों से पहले हाजिर होते है|

भाजपा में मोदी-आडवाणी के बीच आजकल चल रहा प्र.म. पद के उम्मीदवार की रस्सा कस्सी वाला खेल देखते हुए मुझे यह कहावत मोदी पर सटीक बैठती दिखती है|

अब देखिये ना दो सीटों पर सिमटी भाजपा को आडवाणी ने अपनी मेहनत के बल पर सत्ता के शिखर तक पहुंचाकर एक कुशल संगठनकर्ता का परिचय दिया था, यही नहीं भाजपा को उस उंचाई पर पहुँचाने के चक्कर में आडवाणी ने अपने ऊपर घोर साम्प्रदायिक होने का ठप्पा भी लगवाया, जो वर्षों से उनके साथ चिपका हुआ है और बेचारे ने जब तब इस साम्प्रदायिक ठप्पे को हटाने की कोशिश की भी तो सबसे ज्यादा आलोचना भाजपा समर्थकों से ही झेलनी पड़ी| जब जिन्ना की मजार पर प्रोटोकॉल के तहत शीश नवाते हुए अनुभवी आडवाणी ने एक तीर से तीन शिकार करने की कोशिश की तो तब भी मंद बुद्धि भाजपा कार्यकर्ताओं ने बिना उनके बयान का भावार्थ व उनकी मंशा समझे कांग्रेस की चाल में फंस कर उनकी आलोचना शुरू कर दी थी|
जबकि कोई भी आसानी से समझ सकता था कि- आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ कर एक तरह से पाकिस्तानी शासकों व नेताओं पर एक व्यंग्य बाण छोड़ा था कि- जिस जिन्ना ने धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान की परिकल्पना की थी वो आप लोगों ने हवा में उड़ा दी और पाक को एक साम्प्रदायिक देश बना दिया| साथ ही जिन्ना की तारीफ कर आडवाणी ने मुसलमानों को अपने विचारों में उनके प्रति बदलाव का सन्देश देने की कोशिश के साथ कांग्रेस को भी घेरने की कोशिश की कि देश के बंटवारे के वक्त ऐसा क्या हुआ था कि एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति को एक अलग देश की मांग करनी पड़ी? पर उनके भावार्थ किसी ने समझने की कोशिश ही नहीं की|

खैर....मूल बात कहावत पर चल रही थी कि आडवाणी ने अपनी मेहनत, लगन व कुशल संगठन क्षमता के बल पर भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया पर उस वक्त अटलबिहारी वाजपेयी जो उनके वरिष्ठ थे साथ ही गठबंधन दलों में स्वीकार्य भी थे को आडवाणी ने बिना अपनी महत्वाकांक्षा प्रदशित किये वाजपेयी के लिए मैदान छोड़ दिया और उनके सहयोगी बने रहे| आज जब उनके वरिष्ठ वाजपेयी जी राजनीति से रिटायर हो चुके है और गठबंधन दलों में आडवाणी की स्वीकार्यता बन चुकी है तब अचानक जिस तरह पकी खिचड़ी को खाने टिल्ला मौके पर आ धमकता है ठीक उसी तरह आज जब कांग्रेस के खिलाफ जनता के रोष को देखते हुए दुबारा भाजपा की सत्ता के नजदीक पहुँचने की संभावनाएं बन रही है, राष्ट्रीय स्तर पर बिना किसी प्रदर्शन के सिर्फ गुजरात विकास के प्रदर्शन को लेकर प्र.मंत्री पद के लिए मोदी अपने कुछ भाड़े के सोशियल साइट्स वर्कर्स व कुछ कट्टरपंथी युवकों के साथ माहौल बनाकर टिल्ले की तरह आ धमके है|

जबकि हकीकत यह है कि गुजरात मुख्यमंत्री की कुर्सी भी जब मोदी को टिल्ले की तरह मिली थी तब भी गुजरात विकसित था, विकास के लिए जरुरी आधारभूत ढांचा वहां उपलब्ध था, हाँ इस विकास को मोदी ने गति दी उसके लिए वे प्रशंसा के पात्र है| मैं यह भी मानता हूँ कि इन वर्षों में यदि मोदी की जगह कांग्रेस सरकार होती तो अब तक गुजरात का विकास भी रसातल में पहुँच चूका होता|

गुजरात विकास का पूरा श्रेय भी यदि मोदी को दे दिया जाय तो भी इसका मतलब यह नहीं कि कुछ कट्टरपंथी व कुछ हजार भाड़े के सोसियल साइट्स वर्कर्स युवकों द्वारा मोदी के पक्ष में चलाये अभियान के चलते पार्टी के एक ऐसे वरिष्ठ नेता जिसनें पार्टी संगठन के लिए अपना जीवन लगा दिया हो और पार्टी को आज सत्ता की दावेदार बना दिया हो, को दरकिनार कर ऐसे व्यक्ति को पार्टी का नेतृत्व सौंप दिया जाये जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई राजनैतिक उपलब्धि ना हो|

मेरे नगमें मेरी नज्में

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वोह सुनहरी दोपहर, वोह छुक छुक चलती गाड़ी का रुक रुक कर चलना
तुम्हारी प्यारी सी उंगलियों से लिखे संदेशे का मेरे फ़ोन पर सवाल भेजना

तुम क्या सोचते हो मै तुम्हारी, उन बेताबियों की दोपहर को भूल चुकी हूँ
तुम क्या जाने मेरे हसीन साथी, तेरी खुबसूरत शाम को गीतों में ढाल चुकी हूँ

बज उठेंगे वीणा के तार तार महक जायेगा सारा आलम फिर कोई किसी के प्यार में
मेरी नज्मो में सुनेगा तेरा नाम सारा जहान खिल उठेंगे मुरझाये फूल भी वादियों में

मैं वो गीत हूँ जो आज तक कोई कवि अपनी रचना में ना रच सका
मैं वो अधखिला फुल हूँ जो कभी बहारों के आने पर भी ना खिल सका

आकर तुमसे दूर न खबर है तन बदन की, ना होश है मुझे अपने उड़ते दामन का
जुबान खामोश है, रात की स्याही से, ले कलम लिखती हूँ गीत कोई तेरे नाम का


लेखिका : कमलेश चौहान ( गौरी)
कापी राईट @कमलेश चौहान ( गौरी)

जान - चढण को बखत (बारात रवाना होने का वक्त)

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राजस्थान में 80- व् 90 के दशक तक बारातों का आनंद कुछ अलग तरह का होता था। उस समय बरातों का समय भी अलग था तो बाराती भी अलग श्रेणी के लोग होते थे। उस समय में बच्चों का बरातों में जाना एक तरह से वर्जित ही था। घर के मुखिया व बड़े, बुजुर्ग ही अमूमन बरातों में जाते थे। महिलाओं की उस समय बारात में जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

जैसा की आजकल बारात के खाने पर विभिन्न तरह के पकवानों से लगी स्टालें लगायी जाती है वे उस समय नहीं होती थी, परन्तु मनुहार व् प्यार से परोसे गए "नुक्ती, नमकीन, लड्डू, पेठे, चक्की आदि मिठाई" में ही इससे कही अधिक आनंद आता था ।

आज भी बचपन में देखा "जान -चढ़ण रो बखत" उस समय का एक दृश्य मानस- पटल पर अंकित है जिसे मायड़ भाषा में उकेरने का प्रयास किया है ।
---जान -चढण को बखत ----

जद जान – बरातां रात न ही चढ्या करती ।
जानेत्यां न जान की त्यारी दिन में ही करनी पड़ती ।।

"ठाकरसाब जान म पधारो", नाई बुलावो देतो ।
बड़ा - बुढा ने साथ लेज्याबा, को भाव सब में रहतो ।।

टाबर जान में कांई करसी , मुख्य या बात होती ।
मारवाड़ में रात ने जास्यां, पड़ गो दूर बहुत ही ।।

मोटर को हॉर्न सुन , टाबर झु-झुर रोता ।
कोई का छोटा भाई - भतीजा, कोई दादा का पोता ।।
सामान की सम्भ्लावनी देता, ध्यान राखज्यो थेला को ।
बिस्तर - चादर बांध दी है, खाणो-दाणो गेला को ।।

घरां की रुखाली खातर, रुखालो छोड र जाता ।
मोटर माय बैठ इष्ट देव को, जैकारो लगवाता ।।

जान -चढ़ी का गीत लुगायां, छतां पे रुल -रुल गाती ।
कुवे पर जा दरोगण, दोघड भर के ल्याती।।

भाई प्रसंगा -सगा अंदर में, ”बन्ना” छत पे सारा।
बोनट कनै बिन्द बैठतो, सारे भायला - प्यारा ।।

उण बखत को स्वाद, "गजू", अब तो बिगड़ को सारों ।
न्यारी-न्यारी मोटर सबकी, न्यारो सब को ढारो ।।

न्यारो सब को ढारो, मनमानी अपणी चलावे ।
बुढा- बुजुर्गां नै छोड़ घरां न, बायाँ सागैं जावे ।।

लेखक : गजेन्द्र सिंह शेखावत


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जोधा-अकबर : कहाँ से शुरू हुआ भ्रम और विवाद ?

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गोवरिकर की फिल्म जोधा-अकबर को श्री राजपूत करणी सेना ने इतिहास के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए विरोध कर राजस्थान के किसी सिनेमाघर में आजतक प्रदर्शित नहीं होने दी| यह विवाद अभी ठीक से शांत ही नहीं हुआ था कि एकता कपूर की बालाजी टेलीफिल्म्स ने इसी विषय जोधा-अकबर पर सीरियल बना जी टीवी पर प्रसारित करने की घोषणा व तैयारी करली| जी. टीवी पर इस सीरियल के प्रोमो देखने के बाद देशभर के राजपूत संगठनों में इस सीरियल को लेकर रोष भड़क गया, इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन में शिकायत के बाद फाउंडेशन के अधिकारीयों व राजपूत संगठनों के प्रतिनिधियों से इस मुद्दे पर चर्चा हुई व जी. टीवी टीम ने राजपूत संगठनों द्वारा व्यक्त रोष व ऐतिहासिक तथ्य बालाजी टेलीफिल्म्स को देने के बाद बालाजी टेलीफिल्म्स विवाद को सुलझाने के बजाय उल्टा जी टीवी को हड़काने लगी कि आप उन्हें कैसा सीरियल बनाना है पर राय देने वाले कौन होते है ?

बालाजी टेलीफिल्म्स को जोधा का अकबर की बेगम नहीं होने के प्रमाणिक ऐतिहासिक संदर्भ देने के बावजूद बालाजी टेलीफिल्म्स सीरियल में झूंठा इतिहास दिखाने पर तुली है|

जबकि इतिहास में कहीं भी जोधाबाई का अकबर की पत्नी के रूप में उल्लेख नहीं है| कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य या ऐतिहासिक स्रोत भी इस बारे में कोई संकेत नहीं देता है कि “जोधाबाई-अकबर की पत्नी थी|” प्रश्न उठता है कि इस विवाद की शुरुआत कहाँ से हुआ ? और पुरे ऐतिहासिक साक्ष्य मिलने के बावजूद फ़िल्मकार इस गलती को सुधारने में रूचि क्यों नहीं लेते ? हम इस पर दृष्टिपात करें –

अग्रवाल स्नातकोतर महाविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष और प्रिंसिपल प्रो. राजेंद्र सिंह खंगारोत इस संबंध में लिखते है :--

“इस सब की शुरुआत हुई कर्नल जेम्स टॉड की पुस्तक “एनल्स एंड एंटीकिव्टीज ऑफ़ राजस्थान” से| इस पुस्तक के भाग 2 में उन्होंने लिखा- “जोधाबाई के अकबर विवाह के कारण शाही परिवार का संबंध जोधपुर से स्थापित हुआ|” (पृष्ठ ९६५) यहाँ टॉड ने उल्लेख किया है कि- “ये जोधाबाई जोधपुर की जोधाबाई है न कि आमेर की|” (पृष्ठ ९६५) पर इसी पुस्तक में पुस्तक के संपादक विलियम कुक ने “आईने ए अकबरी” पृष्ठ ६१९ का सन्दर्भ देते हुए तोड़ के आशय को स्पष्ट किया है| कुक लिखते है- “जोधाबाई के बारे में कुछ संदेह हो सकता है परन्तु यह स्पष्ट है कि वह जहाँगीर की पत्नी थी, अकबर की नहीं|” (पृष्ठ ९६५)

अन्यत्र कर्नल जेम्स टॉड ने “जोधाबाई को जोधपुर के मोटाराजा उदयसिंह की पुत्री बताया है|” (एनल्स एंड एंटीकिव्टीज ऑफ़ राजस्थान, अंक 1 (पृष्ठ 389), इसी पृष्ठ पर फुटनोटों में कुक ने स्पष्ट किया है- “शाहजहाँ की माँ जोधबाई का विशाल मकबरा आगरा के पास सिकन्दर में अवस्थित है और निकट ही अकबर के अवशेष भी जमीदोज किये गये है| जोधबाई एक संबोधन है जिसका मतलब है “जोधपुर की बेटी|” उनकी पहचान के संबंध में कुछ संदेह उत्पन्न हो सकते है लेकिन यह निर्विवाद है कि वे उदयसिंह की पुत्री और जहाँगीर की पत्नी थी|” (आईने ए अकबरी पृष्ठ ६१९)

इस निष्कर्ष के साथ कि जोधाबाई शाहजहाँ की माँ थी; यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि वह जहाँगीर की ही पत्नी थी| “जोध” शब्द मूलतः जोधपुर का प्रारंभिक शब्दांश ही प्रतीत होता है| कुक ने यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि जोधबाई “जोधपुर की बेटी” के रूप में प्रचलित अभिधा (नाम) का ही पर्याय है|

फिल्म “मुग़ल ए आजम” में फ़िल्मकार ने टॉड के मत से प्रेरणा लेकर जोधाबाई को अकबर की पत्नी बताया| फिल्म के पटकथा लेखक ने फुटनोटों के रूप में कुक के दिए स्पष्टीकरणों को नजर अंदाज कर दिया, साथ ही निर्माता और निर्देशक ने भी ऐतिहासिक तथ्यों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया|

फिल्मांकन की दृष्टि से यह फिल्म इतनी भव्य थी कि जिसने भी इस फिल्म को देखा सभी ने जोधाबाई को अकबर की पत्नी के रूप में स्वीकारा| जिसने भी इस तथ्य के विरुद्ध कोई विचार या सत्य व्यक्त करने का प्रयास करना चाहा उन्हें व्यर्थ सिद्ध कर दिया गया| इससे सिद्ध होता है कि सिनेमा- चाहे वह सही हो या गलत- किस हद तक आम आदमी के मस्तिष्क को प्रभावित करता है|

इतिहास केवल और केवल तथ्यों पर ही आधारित होता है| किसी को भी तथ्यों को बदलने का अधिकार नहीं है और न ही ये बदले जाने चाहिये| इतिहास में दर्ज प्रत्येक घटना भी तथ्यों पर आधारित होती है और यह तथ्य अपरिवर्तनीय होते है| जो बदल सकता है वह है उस घटना की केवल विश्लेषणात्मक व्याख्या| उदाहरण के लिए पानीपत का प्रथम युद्ध २१ अप्रैल १५२६ को लड़ा गया और बेनजीर भुट्टो की हत्या २७ दिसम्बर २००७ में हुई- ये तथ्य है; कैसे, कब, कहाँ, किसने, और क्यों ? –ये विश्लेषण के विषय हो सकते है|

दिग्भ्रमित गाइड फतेहपुर सीकरी स्थित जोधाबाई के महल को अकबर-जोधा संबंधों की पुष्टि के एक और तर्क के रूप में प्रस्तुत करते है और उस महल को अकबर की पत्नि जोधाबाई का महल बताते है जबकि वी.एस. भार्गव इसे स्पष्ट करते हुए कहते है कि –“अनभिज्ञ गाइडों द्वारा फतेहपुर सीकरी स्थित महल को जोधाबाई- जो कि उनके अनुसार अकबर की बेगम थी का महल बताने से पर्यटकों के मध्य एक गलत परम्परा पड़ी, परन्तु समकालीन इतिहास इस परम्परा की पुष्टि नहीं करता| इसीलिए भारत के इतिहास की इस प्रमुख समस्या के समाधान हेतु इसे नकारना उचित होगा|” (देखें- “मारवाड़ एंड द मुग़ल एम्परर्स” पृष्ठ 59)

सतीश चन्द्र ने अपनी पुस्तक “मीडिवल इंडिया” में फतेहपुर सीकरी के उस महल के बारे में वर्णन करते हुए कहा है- “हरम के महलों में से एक महल को जोधाबाई का महल” कहा गया जबकि जोधाबाई उसकी पुत्रवधू थी, पत्नी नहीं|” (पृष्ठ 436)

सामान्य रूप से लेखन करने वाले लेखकों और इतिहास के प्रबुद्ध विद्वानों में पर्याप्त अंतर होता है| साधारण तौर पर, लिखने वाले “मुग़ल ए आजम” या “अनारकली” जैसी फिल्मों से कथ्य ग्रहण कर सकते है परन्तु इतिहास के विद्वान् प्राथमिक और प्रमाणिक तथ्यों का अनुसंधान कर ही अपनी लेखनी को लिपिबद्ध करेंगे| कुछ इत्तेफकिया लेखकों द्वारा भ्रमवश जोधाबाई को अकबर की पत्नी बताने की गलती द्वारा अथवा कुछ सरकारी अधिकारीयों द्वारा लिखित “कॉफी टेबल” पुस्तकों द्वारा या टूरिस्ट गाइडों द्वारा इसी भ्रमित पथ का राही बनने के बावजूद प्रमाणिक ऐतिहासिक तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता|

सामयिक या ऐतिहासिक फिल्में सिनेमा का अत्यावश्यक हिस्सा है और होनी भी चाहिये परन्तु उपयुक्त शोध के बिना ये फ़िल्में निरर्थक हो जाती है| सामान्य व्यक्तियों के अवचेतन पर सिनेमा का गहरा प्रभाव होता है| जैसा कि पहले भी कहा गया है इतिहास सिर्फ और सिर्फ तथ्यों पर आधारित होता है, कल्पना पर नहीं| हाँ ! ऐतिहासिक तथ्यों के दिग्दर्शन हेतु वेशभूषा, आभूषण तथा तत्कालीन वातावरण को कल्पना के उपयुक्त सांचों में ढाला जा सकता है|

सिनेमाई, साहित्यिक, काव्यात्मक, कलात्मक अधिकारों में छूट लेना ठीक हो सकता है परन्तु क्या हमें इतिहास को बदलने का अधिकार है ?

क्या हम अपना स्वयं का नया इतिहास सृजित करने की छूट ले सकते है ? क्या “मुगले ए आजम” में हुई गलती को दोहराया जाना चाहिये ? क्या दो गलतियाँ मिलकर “एक सही” का निर्माण कर सकती है ? कदापि नहीं, निश्चित तौर पर नहीं| इन्हें समय के साथ सुधारना ही होगा|”

Jodhaa Akbar controversy, protest against jodha-akbar film and serial, karni sena, lokendra singh kalvi

नहीं सुलझा जोधा-अकबर सीरियल विवाद

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Zee TV पर कल से प्रसारित होने जा रहे धारावाहिक जोधा अकबर पर देशभर के क्षत्रिय समाज में रोष है और देशभर से जगह जगह इस धारावाहिक के विरोध प्रदर्शनों की ख़बरें आ रही है| राजस्थान के बड़े केबल ऑपरेटर्स ने भी श्री राजपूत करणी सेना की अपील पर इस सीरियल को अपने अपने केबल नेटवर्क पर न दिखाने का आश्वासन है साथ ही राजस्थान के कई बड़े केबल ऑपरेटर्स ने Zee TV से भी अपील की है कि जन भावनाओं को आहत व इतिहास से छेड़छाड़ करने वाले इस सीरियल को ना दिखाये|

क्षत्रिय समाज के रोषपूर्ण विरोध को देखते हुए Zee TV प्रबंधन ने संवेदशीलता का परिचय देते हुए पहले भी इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन के दफ्तर में क्षत्रिय नेताओं के साथ एक बैठक कर उनका पक्ष सुना और बालाजी टेलीफिल्म्स को बताया पर बालाजी टेलीफिल्म्स ने इस मामले में कोई रुची नहीं ली पर देशभर में विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए आखिर बालाजी टेलीफिल्म्स ने भी इस मुद्दे की संवेदनशीलता समझी और आज क्षत्रिय समाज के नेताओं को दिल्ली में वार्ता के लिए आमंत्रित कर उनका पक्ष सुना व सीरियल के इतिहास पर अपना पक्ष भी रखा| बैठक का प्रतिनिधित्व करने के लिए बालाजी टेलीफिल्म्स की और से एकता कपूर के पिता जितेन्द्र खुद विशेष तौर से मुंबई से दिल्ली आये|

बैठक में क्षत्रिय समाज की और इतिहासकार प्रो.प्रहलाद सिंह ने जोधा के बारे में ऐतिहासिक तथ्य पेश करते हुए बताया कि अकबर के जोधा नाम की कोई बीबी नहीं थी, जिसे आप जोधा कह रहे है उसका नाम हरखा था|

बालाजी टेलीफिल्म्स की और से ड़ा. बोधित्सव ने अपना पक्ष रखते हुए कुछ इतिहास पुस्तकें प्रस्तुत की जिनमें अकबर की पत्नी का नाम जोधा अंकित था| पर वे पुस्तकें कुछ वर्ष पहली की ही प्रकाशित है साथ ही जिन लेखकों ने लिखी है उनकी इतिहासकारों में कोई मान्यता नहीं है| ये लगभग पुस्तकें मुगले आजम फिल्म के बाद की लिखी गयी है जिनमें मुगले आजम से प्रेरित होकर अकबर की पत्नी का नाम हरखा की जगह जोधा लिखा गया है| अत: इन पुस्तकों की विश्वसनीयता व प्रमाणिकता को ठुकराते हुए क्षत्रिय प्रतिनिधियों ने इन पुस्तकों को झूंठ को पुलिंदा बताते हुए उनके शोध को हास्यास्पद बताया कि वे खुद अकबर के सामने उसके काल में लिखी अबुल फजल द्वारा लिखी पुस्तक आईने अकबरी, अकबर नामा, जहाँगीर के काल में लिखी जहाँगीर नामा पुस्तकों को अपने शोध में शामिल नहीं किया और कल के छिछोरे पूर्वाग्रह से ग्रसित लेखकों की किताबों पर भरोसा कर रहे है|

आपसी वार्ता में Zee TV टीम व बालाजी टेलीफिल्म्स के जितेन्द्र ने क्षत्रिय प्रतिनिधियों द्वारा दिए गये ऐतिहासिक साक्ष्यों को प्रमाणिक मानते हुए स्वीकार भी किया कि ये मुगले आजम फिल्म के वक्त गलती हुई है पर चूँकि मुगले आजम की प्रसिद्धि के बाद आम जनता में अकबर की बीबी का नाम जोधा चढ़ गया इसलिए अब कोई फ़िल्मकार इससे बाहर निकलने को राजी नहीं| साथ ही जितेन्द्र ने क्षत्रिय प्रतिनिधियों को आश्वस्त भी किया कि वे इस सीरियल की स्टोरी में व आगे भी कोई सीरियल बनायेंगे तो क्षत्रिय समाज की भावनाएं किसी तरह आहत ना हो इसका पूरा ध्यान रखेंगे| साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे शुरू से ही राजपूत संस्कृति व राजपूत समाज को बहुत आदर से देखते है और उनके मन में राजपूतों के शौर्य, ईमानदारी, वचनबद्धता, देशभक्ति आदि के लिए असीम आदर है|

लेकिन सीरियल के नाम बदलने व उसे बंद करने में उन्होंने असमर्थता जताते हुए कहा कि सीरियल बनाने से पहले उन्होंने इस पर पूरा शोध करवाया पर अफ़सोस कि उन्हें जो इतिहास पुस्तकें मिली उनमें अकबर की बीबी का नाम जोधाबाई ही लिखा हुआ है व यदि उन्हें जोधा-अकबर फिल्म के विवाद का भी पता होता तो वे इसे शुरू करने से बचते| पर चूँकि अब वे इसमें काफी आगे बढ़ चुके है अत: पीछे लौटना उनके लिए मुश्किल है पर वे कोशिश करेंगे कि सीरियल में किसी भी तरह किसी की भावनाएं आहत ना हो|

जी टीवी टीम ने भी राजपूत समाज के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने की अपनी प्रतिबद्धता जताई पर सीरियल के मामले में साफ़ किया कि वे व्यापारिक अनुबंध के चलते इसे प्रसारित करने को मजबूर है पर राजपूत समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए सीरियल के साथ इसका ऐतिहासिक तथ्यों से कोई लेना देना नहीं का या समाज चाहे वैसा डिस्क्लेमर चला सकते है व वे चलाएंगे भी|साथ ही Zee TV टीम ने अपने समाचारों में व अलग कार्यक्रम बना इस मुद्दे पर क्षत्रिय प्रतिनिधियों व इतिहासकारों द्वारा पेश साक्ष्यों पर चर्चा कर इस मामले में सही सन्देश व ऐतिहासिक साक्ष्य जनता तक पहुँचाने पर जोर दिया व इसकी व्यवस्था करने का खुद जिम्मा लिया|

लेकिन क्षत्रिय प्रतिनिधियों व नेताओं ने साफ कह दिया कि वे सीरियल में अकबर के साथ जोधा नाम जोड़ने के किसी भी कृत्य को स्वीकार नहीं करेंगे और उनका विरोध जारी रहेगा साथ ही न्यायालय में भी वे इस सीरियल को रोकने के लिए याचिका दायर करेंगे| हालाँकि इस सीरियल को रोकने हेतु जयपुर व जोधपुर उच्च न्यायालय में दो याचिकाएं दायर कर दी गयी है|
इस वार्ता में करणी सेना के संस्थापक लोकेन्द्र सिंह कालवी के साथ रतन सिंह शेखावत, राजेंद्र सिंह नरुका, गणपत सिंह राठौड़, प्रहलाद सिंह व कुलदीप तोमर थे, वहीँ बालाजी टेलीफिल्म्स की टीम में एकता कपूर के पिता जितेन्द्र के साथ डा. बोधित्सव व उनके क़ानूनी सलाहकार थे| Zee TV टीम में एक्सिक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट आलोक गोविल, अजय भंवरकर, एडिटर वासिन्द्र मिश्रा, भरत कुमार रांका, पुरुषोतम आदि उपस्थित थे|


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सामंतवाद : आलोचना का असर कहाँ ?

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देश की आजादी समय देशी रियासतों का भारत में विलय के बाद देश भर से सामंती राज्य का खात्मा हो गया और राजा, महाराजाओं, नबाबों, जागीरदारों सहित सभी सामंत ख़ास से आम आदमी हो गये, देश के संविधान ने उन्हें भी आम आदमी के बराबर अधिकार दिए और इसी अधिकार का उपयोग करते हुए कई राजा-महाराजा, सामंत चुनाव मैदान में उतरे और अपने शासन में जनता के साथ रखे अच्छे व्यवहार के चलते भारी मतों से जीत कर संसद व विधानसभाओं में भी पहुंचे और आज भी पहुँच रहे है|

उनकी जनता में लोकप्रियता को देख तत्कालीन राजनैतिक पार्टियों ने सामंतवाद पर तीखा हमला बोला, सामंती शासन में जनता के शोषण की कुछ सच्ची पर ज्यादातर झूंठी कहानियां बना उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर उन्हें चुनावों में हराने की कोशिशे की गयी और इसमें राजनेता काफी सफल भी रहे| हाँ जो पूर्व सामंत जिस किसी राजनैतिक दल में घुस गया वो उस दल को कभी सामंती नहीं लगा| जो पूर्व सामंत अपने क्षेत्र में चुनाव जीत सकता था उसे हर राजनैतिक दल चाव से अपने दल में शामिल करने के लिये तैयार रहते थे और अब भी रहते है| मतलब चुनाव जीतने वाले पूर्व सामंत परिवार से किसी दल को कोई परहेज नहीं पर हाँ सामंतवाद को कोसना उनकी फैशन है जो मौका मिलते ही हर राजनेता गला फाड़ गरियाता रहता है|

मीडिया में भी कई एंकर टीवी स्टूडियो में बैठ सामंतवाद को गरियाकर अपना गला अक्सर साफ़ करते देखे जा सकते है, दो चार किताबें पढ़ अपने आपको बुद्धिजीवी समझने वाले लोग भी सोशियल साइट्स पर सामंतवाद को गरियाकर अपनी बुद्धिमता सिद्ध करने हेतु अक्सर तड़फते देखे जा सकते है|

पर जब इन्हीं मीडिया, राजनेताओं व बुद्धिजीवियों को जब कभी उन्हीं किसी पूर्व सामंत परिवार के सदस्यों से मिलने का मौका मिलता है तो ये बड़े शौक से उनके साथ फोटो खिंचवाकर अपने आपको धन्य समझते है और अपने ड्राइंगरूम में उस फोटो को सजा, घर आने वाले मेहमानों पर रुतबा जमाते है कि देखा- उनके फलां पूर्व नरेश से संबंध है| हर राजनैतिक दल भी पूर्व सामंत परिवार को अपने दल में शामिल करने के लिए लालायित रहता है तो वहीँ मीडिया वाले भी उनके पारिवारिक कार्यक्रमों तक को कवर करने के लिए आगे पीछे घूमते रहते है|

मतलब कुल मिलाकर किसी को किसी पूर्व सामंत परिवार से कोई गिला-शिकवा नहीं और न ही सामंतवाद को कोसने या गरियाने पर किसी पूर्व सामंत को किसी तरह की शिकायत रहती है|

किसी के द्वारा सामंतवाद को गरियाने पर कोई भी पूर्व सामंत उसकी खिलाफत नहीं करता पर आम राजपूत आलोचना करने वाले के सामने सामंतवाद का पक्ष लेकर तुरंत खड़ा हो जाता है और अपने ऊपर सामंतवादी का ठप्पा लगवा लेता है, मेरे साथ भी अक्सर होता है जब सामंतवाद के खिलाफ दुष्प्रचार का मैं जबाब देता हूँ तो लोग मुझे तुरंत सामंतवादी घोषित कर देते है, पर कभी किसी ने सोचा है कि मेरे जैसा साधारण किसान राजपूत परिवार में जन्मा व्यक्ति व आम राजपूत सामंतवाद के नाम पर किये जाने वाले दुष्प्रचार के खिलाफ क्यों उठ खड़े होते है ?

१७ जून २०१३ को जोधा-अकबर सीरियल विवाद पर बहस करते हुए जब मैंने फिल्मों में पूर्व सामंतों द्वारा शोषण की मनगढ़ंत कहानियां दिखाने, राजनीतिज्ञों, मीडिया आदि द्वारा सामंतवाद के नाम पर गरियाने व दुष्प्रचार करने के साइड इफेक्ट का आम राजपूत पर पड़ने वाले असर पर प्रकाश डाला तो सुनकर जी टीवी टीम सहित अभिनेता जीतेन्द्र भी अचम्भित हो गए, हकीकत सुनकर उन्हें भी एक झटका सा लगा और उन्होंने भी माना कि यदि ऐसा है तो यह दुष्प्रचार रुकना चाहिये|

दरअसल जब भी सामंती शोषण की बात चलती है तो आम जनता के बीच या जिस वर्ग को शोषित बताया जाता है उसके सामने सामंत परिवार ना होकर आम राजपूत होता है चूँकि पूर्व सामंतों से आम राजपूत का एक ही व्यक्ति के वंशज होने के नाते खून का रिश्ता है अत: वह आम वर्ग जिसे पढाया जाता कि आपका सामंतों ने शोषण किया तो वह आम राजपूत को ही सामंत मानकर अपना शोषणकर्ता समझ बैठता है और उसका विरोधी बन जाता है, इस विरोध का सीधा असर आम राजपूत पर तब होता है जब उसे किसी सरकारी दफ्तर में कोई काम होता है तो वहां आरक्षण प्राप्त बैठा अधिकारी, कर्मचारी इसी पूर्वाग्रह के चलते उस आम राजपूत की फाइल को दबा देता है, उसका काम नहीं करता, उसे बदले की भावना से परेशान करता है, उस कार्य का वह बदला लेने की कोशिश करता है जिसका वह जिम्मेदार ही नहीं|

राजस्थान के एक क्षेत्र विशेष में तो आम राजपूत के खिलाफ यह बदले की कार्यवाही कुछ ज्यादा ही चलती है पिछले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाएँ भी सामने आई कि किसी राजपूत युवक को गाड़ी से रौंदकर मार डालना थाने में एक्सीडेंट दर्ज होता है तो किसी राजपूत युवक की गाड़ी के असली एक्सीडेंट में किसी मौत पर हत्या का मुकदमा दर्ज होता है|

ऐसे कई मामले सामने आये कि किसी पीड़ित राजपूत की थाने में बैठा विरोधी जातिवादी थानेदार रिपोर्ट तक दर्ज, तब तक नहीं करता जब तक राजपूत समाज के सामाजिक संगठन थाने का घेराव आदि नहीं करते|

और यही सबसे बड़ा कारण है कि जब भी कोई नेता, मीडिया एंकर या कथित बुद्धिजीवी सामंतवाद को कोसता है, गरियाता है तो एक आम राजपूत जो खुद कभी सामंती काल में आर्थिक, भावनात्मक रूप से शोषित होता था उसी सामंतवाद के पक्ष में सीना तानकर खड़ा हो जाता है क्योंकि उसे पता है इस दुष्प्रचार का सीधा असर उसी पर पड़ने वाला है|

सामंतों के साथ खून का रिश्ता होने के बावजूद लगान आदि आम राजपूत को भी आम नागरिकों की तरह ही देना होता था साथ ही जब राज्य पर संकट आता तब सामंत आम राजपूत को अपने खून के रिश्ते का वास्ता देकर युद्ध के लिए बुला लेते थे जिसका न तो उन्हें कोई वेतन मिलता था न कोई और लाभ, हाँ ! कभी कोई शहीद हो जाता तो सिर कटाई के बदले उसके वंशज को कुछ जमीन जरुर हासिल हो जाती थी, वह भी आजादी के बाद सरकार ने कानून पास करके उनसे छीनकर भूमिहीनों को बाँट दी| मतलब साफ है सामंतीकाल में आम राजपूत का आर्थिक शोषण के साथ जातिय भावनात्मक शोषण भी होता था जबकि अन्य लोगों का यदि कहीं शोषण हुआ भी है तो वो सिर्फ आर्थिक वो भी सिर्फ लगान के नाम पर, जिस लगान पर हर शासक का हक़ होता है, आज भी सरकारें विभिन्न नामों से जनता से कर वसूलती है तो उसे शोषण का नाम तो नहीं दिया जा सकता|
आजादी के बाद अन्य जातियां तो सामंतवाद से निजात पा गयी पर राजपूत जाति सामंतवाद के खिलाफ प्रचार का दुष्परिणाम आज भी भुगत रही है|

प्रदूषण का बढ़ता दायरा और भोजन में घुलता जहर

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बढ़ते प्रदूषण की चर्चा चलते ही औद्योगिक नगरों के बड़े बड़े कारखानों में लगी चिमनियों से निकलता काला धुंवा और आस-पास के क्षेत्र में उस धुंए से निकलती जहरीली गैसें व घरों पर बरसती बारीख राख, कारखानों के नालों से निकलता रसायन युक्त जहरीला प्रदूषित जल, जहरीले सीवरेज के बदबूदार नाले, सड़कों पर गाड़ी, मोटरों के पों पों हार्न व धड़धड़ाते इंजन की कान फाड़ती आवाजें और उनके साइलेंसर से निकलती जहरीली गैसें, कच्ची बस्तियों में सड़ांध मारती नालियाँ और जगह जगह पोलीथिन युक्त लगे कूड़े के ढेरों वाले प्रदूषित महानगरों का दृश्य आँखों के आगे घुमने लगता है|

वहीँ दूसरी और जब हमारी नजर गावों के कोलाहल से दूर शांत वातावरण पर जाती है तो हम सोचते है कि कम से कम गांव तो प्रदूषण से मुक्त है क्योंकि वहां सड़ांध मारती न तो नालियां है और ना ही धुंए उगलते कारखाने| पर जब हमें इन शांत व प्रत्यक्ष प्रदूषण से मुक्त दिखाई देने वाले गावों की असलियत पता चलती है तो हम सोचने को मजबूर हो जाते कि यदि यही हाल रहा तो देश के नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करना भी भविष्य में मुश्किल हो जायेगा|

आखिर ऐसा क्या हो रहा है गांवों में जो प्रदूषण मुक्त दीखते हुए भी अप्रत्यक्ष तौर पर बीमारियाँ फ़ैलाने में लगे है---

आज गांवों में किसान फसल की अच्छी उपज लेने के लिए यूरिया, डीएपी आदि के साथ बड़ी मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग कर रहें है जो जाने अनजाने में खाद्य सामग्रियों में धीमा जहर फैला रहे है| साथ ही इन कीटनाशकों के अँधाधुन प्रयोग से पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है| आज मैं अपने गांव की ही बात करूँ तो कुछ वर्षों पहले गांव में मोरों (मयूर) की अच्छी तादात हुआ करती थी पर आज मोर (मयूर) देखने को भी नहीं मिलते, कारण किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग और रसायन युक्त बोये गए बीजों को खाकर मोर बीमार होकर मर गये| गांव के खेतों में बरसात के दिनों में पहले मतीरे खूब हुआ करते है पर अब यूरिया के इस्तेमाल के बाद प्रदूषित हुई भूमि पर मतिरा अपने आप गलने लगता है|

आज इन कीटनाशकों का असर मोरों व अन्य पक्षियों व जीवों पर हुआ है कल को यही असर मानव पर होगा और होगा ही नहीं, हो ही रहा है पिछले माह राजस्थान पत्रिका में किसानों द्वारा यूरिया व कीटनाशकों के बहुतायत से इस्तेमाल व नहरों में आने वाले रसायन युक्त प्रदूषित पानी की सिंचाई पर छपी एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के श्री गंगानगर और हनुमानगढ़ क्षेत्र के साथ ही लगते पंजाब के कई जिलों में फसलों व सब्जियों में इन कीटनाशकों व यूरिया आदि के इस्तेमाल का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब के अबोहर भटिंडा से बीकानेर के बीच चलने वाली बीकानेर एक्सप्रेस संख्या 54504-5 रेलगाड़ी में प्रतिदिन औसतन 600 कैंसर रोगी बीकानेर के अस्पताल में ईलाज के लिए यात्रा करते है| इस रेलगाड़ी के यात्रियों में सबसे ज्यादा यात्री आपको कैसर रोगी या कैंसर रोगियों से मिलने आने जाने वाले उनके परिजन, रिश्तेदार आदि ही मिलेंगे, इसी वजह से इस रेलगाड़ी का स्थानीय नाम ही कैंसर एक्सप्रेस पड़ गया| स्थानीय लोग इस रेलगाड़ी को कैंसर एक्सप्रेस के नाम से ही पुकारते है|

राजस्थान पत्रिका के अनुसार श्री गंगानगर जिले की सादुलशहर तहसील के एक गांव “मुन्नीवाली” में कैंसर के इतने रोगी है कि उस गांव में हर माह एक दो कैंसर रोगी की मौत होती है| यह गांव आज कैंसर गांव के नाम से ही जाना जाता है और इस गांव में कैंसर फैलने का मुख्य कारण वहां आने वाली नहर में पंजाब के औद्योगिक कारखानों से निकलने वाला रासायनिक प्रदूषित जल मिला होता है जिसे पीने व उसकी सिंचाई से उपजी सब्जियां खाने से आम आदमी अनजाने में कैंसर के रोग की चपेट में आ रहा है|

आज ज्यादातर शहरों के आस-पास के गांवों में कारखानों व सीवरेज से निकले प्रदूषित जल के नालों से सिंचाई कर सब्जियां उगाई जाती है जो लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है| प्रदूषित पानी से सब्जियों की खेती करने वालों को भी पता होता है कि ये बीमारियाँ फैलाएगी अत: वे खुद इन सब्जियां का उपभोग नहीं करते पर थोड़ा सा धन कमाने के लालच में दूसरों को मौत के मुंह में धकेल रहे है| उसका एक बहुत पुराना उदाहरण मुझे याद आ रहा है-

बात लगभग 1992-93 के की है जोधपुर के बासनी औद्योगिक क्षेत्र के कपड़ा छपाई कारखानों से निकला प्रदूषित जल जोजरी नदी में जाता था जिसका स्थानीय किसान अक्सर विरोध करते थे पर उस वक्त कोई दो तीन वर्ष से किसानों का प्रदूषित पानी को लेकर कोई विरोध नहीं हो रहा था, इस बीच खबर मिली कि आजकल किसान इस प्रदूषित पानी से अपने अपने खेतों में सिंचाई के लिए आपस में लड़ते है| यह खबर मिलने पर जोधपुर के एक केमिस्ट लोढ़ा जी को लेकर कुछ कपड़ा कारखाना मालिक जोजरी नदी के किनारे खेतों में गए तो देखा खेतों में प्रदूषित पानी से गेंहू की फसल लहलहा रही थी| केमिस्ट लोढ़ा ने पानी का पीएच टेस्ट किया तो वह न्यूटल मिला जिसे देख केमिस्ट लोढ़ा को समझते देर नहीं लगी कि ये प्रदूषित पानी न्यूटल क्यों है, दरअसल कपड़ा छपाई से निकले कारखानों के पानी में सोडियम सिलीकेट की मात्रा अधिक होने से पानी का पीएच एल्कलाइन मीडियम होता है| उस काल में जोधपुर में स्टील के कारखाने भी बहुत लगे थे जिनसे निकलने वाले जल का मीडियम एसीटिक होता है जब एसीटिक व अल्क्लाइन मिलते है तो पीएच न्यूटल हो जाता है|

हालाँकि प्रदूषित जल न्यूटल तो था पर उसमें मिले रसायन तो उसमें मौजूद रहते ही है और उनका असर जमीन सहित फसल में जरुर पहुँचता है| पर फसल में रसायनों के असर के बावजूद वहां के किसान बेख़ौफ़ उस प्रदूषित जल से सिंचाई कर फसलें पैदा कर रहे थे| केमिस्ट लोढ़ा ने किसानों से बात की तो किसान बताने लगे कि-“वे इस प्रदूषित जल से उपजी फसल खुद नहीं खाते बल्कि इसे वे मंडी में बेच आते है|

मतलब साफ कि भले कोई मरता है तो मरे हमें तो अपने मुनाफे से मतलब है| और यही हो रहा है दूध बेचने वाला भैंस को इंजेक्शन लगा ज्यादा दूध निकाल मुनाफा कमाने में लगा है, सब्जियां बेचने वाला वही इंजेक्शन सब्जियां में लगा ज्यादा उपज लेकर मुनाफा कमाने में लगा है और खाने वाले इन सबसे अनजान या मज़बूरी में ये सब खाद्य पदार्थ धीमें जहर के रूप में खाते हुए रोगग्रस्त हुए जा रहे है|

ऐ बावरी, अपनी मुहब्बत का क्या नाम रखा है ?

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अक्सर लोग पूछते है मुझसे , ऐ बावरी, अपनी मुहब्बत का क्या नाम रखा है।
गज़ब ! कैसे जान गया जमाना , तेरे नाम को मैंने अपनी नज्मो में छिपा रखा है।

अजीब ! एक तुम थे जिसने गुनगुनायी थी मेरे संग संग राहो में दिलकश ग़ज़ल।
दे गयी थी राहत मेरे सोजे दिल को कितने सुहाने थे तेरे साथ जो बीते वोह मंज़र।


तेरे शहर की मस्त बहती नदियां मुझे आज भी तेरे अहसास की गहराईया दे जाती है।
कच्चे धागों का यह बन्धन , मेरी रूहे जान भी तेरी गली की हवा में मदहोश रहती है।

लेखिका: कमलेश चौहान (गौरी) : Copy Right at ( Saat Janam Ke Baad)

चितौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर (विडियो सुनें)

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विस्मृति बता रही है- यह तो रानी पद्मावती का महल है | इतिहास की बालू रेत पर किसी के पदचिन्ह उभरते हुए दिखाई दे रहे है| समय की झीनी खेह के पीछे दूर से कहीं आत्म-बलिदान का उत्सर्ग की महान परम्परा का कोई कारवां आ रहा है| उस कारवां के आगे चंडी नाच रही है| तलवारों की खनखनाहट और वीरों की हुंकारे ताल दे रही है| विकराल रोद्र रूप धारण कर भी वह कितनी सुंदर है| कैसी अद्वितीय रणचंडी है| पुरातन सत्य बढ़ा आ रहा है| कितना मंगलमय है| कितना सुंदर है| कितना भव्य है|

हाँ ! यह रानी पद्मावती के महल है-चारों और जल से घिरे हुए पत्थरों ने रो-रो कर आंसओं के सरोवर में गाथाओ को घेर लिया है | दुःख दर्द और वेदना पिघल-पिघल कर पानी हो गई थी अब सुख-सुख कर फ़िर पत्थर हो रही है | जल के बिच खड़े हुए यह महल ऐसे लग रहें है, जैसे वियोगी मुमुक्ष बनकर जल समाधी के लिए तत्पर हो रहे रहे हों,अथवा सृष्टि के दर्पण में अपने सोंदर्य के पानी को मिला कर योगाभ्यास कर रहें हों | यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी; जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ?
सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था |

अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |

कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी | शत्रु-सेना प्रश्न करती है -

" यह धुआं कैसा उठ रहा है ?"

दुर्ग ने उत्तर दिया -" मूर्खो ! बल के मद से इतरा कर जिस भौतिक वैभव के लिए तुम्हारी कामनाएं है, वही धूम्र-मय यह संसार है, जो अनित्य है | पीड़ित मिट गए पर सबल से सबल आततायी भी शेष न रह पायें है ? जिनके सुख, स्वतंत्रता और स्वाधीनता के साथ आज तुम खिलवाड़ करना चाहते हो, अमरलोक में इन्ही के खेल तुम्हारी बर्बरता पर व्यंग्य से मुस्करायेंगे |"



स्व. तनसिंह जी, बाड़मेरद्वारा लिखित और ब्लॉ. ललित शर्मा जी के सीजी रेडियोद्वारा आवाज रिकार्डेड




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TV सीरियल्स में इतिहास से छेड़छाड़ TRP के लिए तो नहीं ??

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आजकल फिल्मों व टेलीविजन धारावाहिकों में विवाद पैदा कर टीआरपी बढाने की होड़ सी लगी है, निर्माता निर्देशक जानता है कि जैसे उसके सीरियल या फिल्म पर किसी तरह का विवाद होगा उसकी टीआरपी बढ़ेगी और यह उनकी कमाई के लिये जरुरी है|

टीआरपी बढाने की इसी शगल के तहत बालाजी टेलीफिल्म्स ने जोधा-अकबर के नाम से सीरियल बनाया है जो जी टीवी पर चल रहा है| बालाजी टेलीफिल्म्स को पता था कि गोवरिकर की फिल्म जोधा-अकबर का राजस्थान सहित देश के अन्य भू-भागों में रहने वाले राजपूतों ने विरोध किया था और उस फिल्म को राजस्थान में श्री राजपूत करणी सेना ने उग्र प्रदर्शन कर आज तक किसी सिनेमाघर में नहीं लगने दिया| अत: इसी विरोध का टीआरपी में फायदा उठाने के लिए जानबूझकर बालाजी टेलीफिल्म्स ने जोधा-अकबर के नाम से सीरियल बनाया और जैसा उन्होंने सोचा वही हुआ, देश भर के राजपूत समाज की भावनाएं आहत हुई और समाज का युवावर्ग सड़कों पर आया, राजपूत युवाओं के इस विरोध को भी जी टीवी ने सीरियल की टीआरपी बढाने हेतु अपने चैनल पर प्रमुखता दे भुनाने की कोशिश की|

राजपूत समाज के नेताओं ब प्रबुद्धजनों ने जी टीवी सहित बालाजी टेलीफिल्म्स को वे सभी ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध कराये जिनमें कहीं नहीं लिखा कि जोधा नाम की अकबर की कोई पत्नि थी, इन तथ्यों के जबाब में बालाजी टेलीफिल्म्स वाले कहते अहि कि उन्होंने अकबर पर दो वर्ष शोध किया है, अब उनका शोध किस दिशा में था उसकी बानगी का उदाहरण देखिये कि उन्होंने अकबर पर शोध के लिए "अकबरनामा", "आईने अकबरी" जो अकबर के काल में खुद अकबर ने लिखवाई को नहीं पढ़ा, अकबर के बेटे जहाँगीर ने अपनी तुजुके जहाँगीरी व जहाँगीरनामा में अपनी माँ का नाम जोधा नहीं हरखा लिखा है पर बालाजी वाले उसकी नहीं मान रहे बल्कि सन 1968 के बाद मुगले आजम फिल्म से प्रभावित कुछ अनाम लेखकों की लिखी उल्टी सीधी किताबें अपने शोध के तहत दिखाते है ऐसे लेखकों की किताबें जिन्हें कोई नहीं जानता और ना ही वे कोई प्रमाणिक इतिहासकार है| इतिहासकारों के साथ भारत सरकार भी मानती है कि अकबर की किसी बीबी का नाम जोधा बाई नहीं था फिर भी बालाजी टेलीफिल्म्स में बेशर्मी की हद पार करते हुए यह सीरियल जारी रखा उन्हें पता था कि फिल्म का प्रदर्शन सिनेमाघरों में रोका जा सकता है पर टीवी पर प्रदर्शन कोई कैसे रोकेगा?

आखिर राजपूत समाज को इस सीरियल में ऐतिहासिक छेड़छाड़ से रोकने हेतु कोर्ट में याचिकाएं दाखिल करनी पड़ी अब मामला कोर्ट में है और ये सब जानते है कि कोर्ट में तारीख पर तारीख लेकर मामले को कितना भी लटकाया जा सकता है| जब तक कोर्ट का फैसला आयेगा तब तक सीरियल पूरा हो चूका होगा|

यह विवाद अभी सुलझा ही नहीं कि महाराणा प्रताप पर चल रहे धारावाहिक के निर्माता ने भी यही राह पकड़ महाराणा प्रताप के इतिहास से छेड़छाड़ कर दिखाना शुरू कर दिया, उसे भी पता है कि इतिहास से छेड़छाड़ करते ही राजपूत समाज इसका विरोध करेगा और उसकी टीआरपी बढ़ेगी| और बेशर्मी से मेवाड़ के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करना शुरू कर दिया, महाराणा प्रताप सीरियल के निर्माता निर्देशक ने उदयसिंह के शासनकाल के दौरान एक ऐसे जौहर की कल्पना की है, जो इतिहास में कहीं मौजूद नहीं है। मेवाड़ में जो तीन जौहर हुए हैं, उनकी काफी जानकारी मौजूद है, लेकिन सीरियल निर्माता यह चौथा जौहर कहां से उठा लाया, पता नहीं। यह इतिहास से खिलवाड़ नहीं तो और क्या है ?

धारावाहिक में महाराणा का जन्म चितौड़ में दिखाया जा रहा है जबकि उनका जन्म कुम्भलगढ़ में हुआ था, आज एक विद्यार्थी स्कूल में पढ़कर आता है कि महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ दुर्ग में जन्में थे और घर आकर सीरियल में देखता है कि वे चितौड़ के किले में जन्में थे| युद्ध के बाद उदयसिंह की रानियों के मुस्लिम सैनिकों द्वारा हाथ पकड़ते दिखाया गया जबकि कभी ऐसी नौबत ही नहीं आई और ऐसी नौबत आने से पहले सबको पता है कि राजपूत नारियां जौहर कर अपने आपको अग्नि में समर्पित कर दिया करती थी| पर सीरियल के इतिहासकार सलाहकार प्रो. राणावत कहते कि “मुगल सैनिक का रनिवास में घुसना एक ड्रामेटिक इफेक्ट है।“

अब इन भौंदुओं को कौन समझाये कि इतिहास दिखाते समय ड्रामेटिक इफ़ेक्ट. नहीं सही ऐतिहासिक तथ्य दिखाये जाते है और आपको यदि मनोरंजन के लिए ये ड्रामेटिक इफ़ेक्ट दिखाने हो तो फिर सीरियल के पात्र ऐतिहासिक ना रखकर काल्पनिक रखो, फिर किसी को तुम्हारे ड्रामेटिक इफ़ेक्ट पर कोई ऐतराज नहीं होगा|

पिछले दिनों बालाजी टेलीफिल्म्स व जी टीवी प्रबंधन टीम के साथ समाज के गणमान्य लोगों की चर्चा में मैं भी शामिल था, चर्चा में बालाजी टेलीफिल्म्स की और से अभिनेता जीतेन्द्र खुद मौजूद थे और उनका कहना था कि ये सब तो मनोरंजन के लिए है मैंने उन्हें उसी वक्त यही कहा कि फिर आप ऐतिहासिक पात्रों के नाम रखना छोड़ दीजिये किसी को आपत्ति नहीं पर उन पर इस बात का कोई असर नहीं हुआ उन्हें तो सिर्फ यही नजर आ रहा था कि हमने इस सीरियल पर दो वर्ष का समय लगाया है, बहुत सारा धन खर्च किया है, कई कम्पनियों से विज्ञापन के कोंटेक्ट कर लिए है अब नाम कैसे बदलें ?

मतलब सबको अपने अपने व्यवसाय की पड़ी है भाड़ में जाये देश का इतिहास ! और हाँ इतिहास को जानबूझकर छेड़छाड़ कर, तोड़ मरोड़कर भी पेश करेंगे ताकि जिनकी भावनाएं आहत हो वे विरोध करे और उस विरोध को वे टीआरपी के लिए भुनाये|

वर्तमान मामले देखने से तो यही लग रहा है कि ये सब टीआरपी बढ़ा व्यवसाय चमकाने के हथकंडे बन गये है|

हाल ही जोधा-अकबर सीरियल के विरोध में सक्रीय कई राजपूत युवाओं का आक्रोश व उद्वेलित मन देख कर कोई भी सहज अंदाजा लगा सकता कि - यदि इसी तरह टीआरपी के चक्कर में फिल्म वाले अपने व्यवसायिक हितों के लिए समाज की जातिय भावनाओं पर चोट कर उनका स्वाभिमान आहत करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब राजपूत युवाओं में सामाजिक स्वाभिमान को बचाने के लिए कई शेरसिंह राणा पैदा होंगे और फूलन की तरह कई फिल्म हस्तियाँ निशाना बनेगी|
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