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घूरने के खिलाफ कठोर कानून के बाद

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पिछले दिनों दिल्ली में हुए सामूहिक दुष्कर्म के बाद युवाओं का सड़कों पर दिखा गुस्सा और बलात्कार के लिए कठोर दंड की मांग के बाद सरकार ने आखिर बलात्कारियों को कठोर दंड देने के प्रावधान वाला विधेयक पास कर दिया| सरकार के इस कदम को महिला सशक्तिकरण के लिए अभियान चलाने वाले व दिल्ली में मोमबत्ती मार्च निकालने वाली मोमबत्ती ब्रिगेड अपनी जीत मान सकती है|

कल इसी विधेयक पर सर्वदलीय बैठक में चर्चा के दौरान यादव बंधुओं ने इस विधेयक में महिलाओं को घूरने व उनका पीछा करने को रोकने वाले प्रावधानों के खिलाफ जो तर्क दिए वे मीडिया व लोगों को अजीब लगे| मिडिया के साथ ही सोशियल साईटस पर भी यादवों बंधुओं के इन तर्कों का मजाक उड़ाया गया| पर मैं समझता हूँ कि उनकी चिंताएं अजीब नहीं बल्कि इस कानून का दुरूपयोग कर इसकी आड़ में जो खेल खेले जायेंगे उनके आगे ये संभावनाएं मात्र भविष्य में घटने वाले दृश्यों का ट्रेलर मात्र है| कैसे ?..

बलात्कार के खिलाफ कड़े नियम बनवाने की जीत से प्रोत्साहित देश की पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर, आजादी ख्यालों वाली, अकेले रहना चाहने वाली, बिंदास जिन्दगी जीने वाली कुछ प्रगतिशील आधुनिक बलाएँ समाज और विभिन्न क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए इस घूरने व पीछा करने को रोकने वाले कानून को और अधिक कठोर बनाने के लिए आन्दोलन करेगी, मोमबत्ती मार्च निकालेगी, इनके इस अभियान में इन महिलाओं के दिल में जगह बनाने की चाहत लिए कई युवा खासकर JNU से निकले एक विशेष विचारधारा के छात्र इसमें अपनी क्रांति व नेतागिरी चमका राजनीति में स्थापित होने की विशेष संभावनाओं का मौका तलाशते हुए पूरा समर्थन देंगे और मान लीजिये इनकी मांगे मानते हुए सरकार घूरने के खिलाफ कानून को और अधिक कठोर बना दे तो देश में की दृश्य उत्पन्न होंगे ?

कठोर कानून बनते ही उपरोक्त कथित आधुनिक बालाएं अपने आपको सशक्त कर समाज में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए इस कानून की आड़ में जब अपने खेल खेलेगी तब दृश्य कुछ इस तरह होंगे-

कथित आधुनिक बालाएं जब भीड़ भाड़ वाली सड़कों पर वाहन लेकर निकलेगी तब उन्हें रास्ता न देने वाले को तुरंत पुलिस बुलाकर घूरने का आरोप लगाकर थाने में बंद करवा देगी, खचाखच भरी बस, ट्रेन में घुसते ही आधुनिक बालाएं सीट पर बैठे यात्रियों को धमकायेगी कि- "सीट खाली कर वरना घूरने के आरोप में बंद करवा दूंगी|" और बेचारा सीट पर बैठा यात्री बिना एक शब्द मुंह से निकाले तुरंत सीट खाली कर देगा|

कार्यालयों में भी आधुनिक बालाएं काम करेगी या नहीं उनकी मर्जी व मूढ़ पर निर्भर होगा, बेचारा बोस हमेशा डरता रहेगा - कहीं घूरने का आरोप लगा अन्दर ना करवा दे| सालाना इंक्रीमेंट के वक्त भी बोस को आधुनिकाओं से धमकी मिलेगी - "इतना वेतन बढ़ा देना नहीं तो फिर घूरने के आरोप का सामना करने के लिए तैयार रहना|"


घरों में भी इस कठोर कानून का कठोरता से फायदा उठाया जायेगा| पति, देवर, जेठ, ससुर सब बहु के आगे भीगी बिल्ली की तरह डरे सहमे रहेंगे- पता नहीं कब आधुनिक बहु किसी बात से नाराज हो जाये और घूरने के आरोप में हवालात पहुंचा दे|" वहीँ व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपनी डूबत वसूलने के लिए ऐसी आधुनिक बालाओं को नौकरी पर वसूली के लिए रखेंगे जो कर्ज के डिफाल्टर को इस कानून में फंसाने की धमकी देकर डूबत वसूल लायेगी|

पुरुषों को ब्लेकमैलिंग करने का धंधा उद्योग बन जायेगा जैसे बिहार में एक बार अपहरण उद्योग पनप गया था| देह का व्यापार करने वाली औरतें अपने ग्राहक के साथ संबंध बनाने के बाद उसे ब्लेकमेल करेगी कि- इतने रूपये दे वरना बलात्कार के आरोप में फांसी लगवा दूंगी|

राजनैतिक पार्टियों में टिकट बंटवारे के वक्त भी ये बालाएं इस कानून का अपने आपको सशक्त करने में पूरा फायदा उठायेगी| टिकट दो नहीं तो घूरने के आरोप में नेताजी हवालात में| इस तरह इस कानून की धमकी की आड़ से टिकट प्राप्त कर चुनाव जीत कर संसद में पहुँच वहां ये आधुनिकाएँ ऐसे विधेयक लायेगी जो इनको ही सशक्त करे और उसका समर्थन न करने वाले नेता को ठीक उसी तरह हवालात में पहुंचा देगी जैसे अभी हाल ही में रेल में सीट विवाद के चलते एक महिला द्वारा पूर्व सांसद को रेल से उतरवाकर थाने पहुंचा दिया गया| इस तरह इस कानून का फायदा उठाते हुए सरकार के सभी पदों पर आधुनिक बालाएं ही होगी| सड़कें, घर, कार्यालय, विधानसभा, संसद आदि क्षेत्र ही नहीं व्यावसायिक क्षेत्रों में भी घूरने के खिलाफ कठोर कानून कई संभावनाएं लेकर आयेगा| कई कम्पनियां इस कानून के नाम पर लगाये जाने वाले फर्जी आरोपों से पुरुषों को बचने के लिए कई उत्पाद जारी करेगी| बाजार में ऐसे उत्पाद रूपी कैमरे छा जायेंगे| झूंठे आरोपों से बचने के लिए पुरुष ऐसे ख़ुफ़िया कैमरों से लेश होकर चलेंगे जो दिनभर उनकी गतिविधियाँ रिकार्ड करता रहेगा और आरोप लगने के बाद उसी रिकार्डिंग को अपने बचाव में वैसे ही पेश कर बच जायेगा जैसे अभी दिल्ली पुलिस द्वारा अपने सिपाही तोमर की हत्या का आरोप लगाने पर दो लड़कों ने मेट्रो रेल के विडियो फूटेज से अपने आपको बचाया|

पुरुष ही क्यों ? आधुनिक महिलाएं भी घूरने वाले पुरुष को इस कानून से बचने का रास्ता न देने के लिए ऐसे ही कैमरे साथ लेकर चलेगी जो घूरने वालों को रिकोर्ड करता रहेगा और इस रिकोर्डिंग का उपयोग अदालत में सबूत के तौर पर पेश कर कठोर दंड दिलवा जा सकेगा| कार्यालयों में भी इस कानून के झूंठे आरोपों से बचने के लिए पुरुष कर्मचारी कार्यालयों, कारखानों में कैमरे लगाने की मांग करेंगे ताकि उनकी रिकार्डिंग दिखाकर झूंठे आरोप से बचा जा सके|

यही नहीं इस तरह अदालतों व थानों में भी घूरने वाले मामले इतने ज्यादा दर्ज हो जायेंगे कि इसके लिए विशेष थाने, जाँच दल और विशेष अदालतों का गठन करना पड़ेगा| इस कानून से बचाने वाले वकीलों के भी कई समूह उठ खड़े होंगे उनके कार्यलयों के आगे बोर्ड लगे होंगे- "घूरने के आरोप से बचाने में विशेष महारत हासिल", "एंटी घुरना ला एक्सपर्ट", "घूरने के आरोप से बरी कराने की इतने प्रतिशत गारंटी" आदि|

कई तांत्रिकों और किरपा बरसाने वाले बाबाओं की दुकाने भी बहुत खुल जायेगी, तांत्रिक इस कानून से बचाने के कई तरह के ताबिज बेचते नजर आयेंगे तो कहीं कोई बाबा ऐसी किरपा बरसाता पुरुषों को इस कानून से बचाने का दावा करता किसी टीवी चैनल पर नजर आयेगा|

कई स्कूलें व प्रशिक्षण केंद्र खुल जायेंगे जो सिखायेंगे कि- कैसे महिलाओं को घूरने के खिलाफ इस कानून से बचते हुए उन्हें घुरा जा सकता है तो कई प्रशिक्षण केंद्र महिलाओं को ये सिखाने के लिए खुल जायेंगे कि- कैसे इस कठोर कानून का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है| स्कूलों और विश्विद्यालयों में इस कानून को लेकर अलग विषय पढाया जाने लगेगा|
लेखकों व पुस्तक प्रकाशकों को भी पुस्तकें लिखने व प्रकाशित करने के लिए एक विषय मिल जायेगा| इन्हें ही क्यों जिस ब्लॉगर को जिस दिन लिखने के लिए कोई विषय नहीं मिलेगा उस दिन एक ब्लॉग पोस्ट किसी ऐसे ही मामले पर ठोक देगा|

इस तरह देश के हर क्षेत्र में आधुनिक महिलाएं आगे होगी उनका वर्चस्व होगा, तब कई महिलाएं अब तक पुरुषों द्वारा समाज पर अधिपत्य जमाये रखने का बदला लेने हेतु उनके खिलाफ ठीक वैसे ही हथकंडे अपना कर झूंठे मामलों में फंसाएगी जैसे राजस्थान में आरक्षण प्राप्त कर प्रशासन में घुसे लोग पूर्व शासक राजपूत जाति के लोगों को उनके शासन में किये कथित शोषण के बदले फंसाते देते है|
पुरुष महिलाओं के सामने जाने से भी डरने लगेंगे, शादी नाम पर भी दूर भागेंगे| परिवार बसेंगे ही नहीं और बस भी गए तो पुरुष घरों में बंधुआ नौकर की तरह काम करते नजर आयेंगे| आधुनिक महिलाओं द्वारा इस कानून के दुरूपयोग से पुरुष जगत परेशान हो त्राहि त्राहि कर उठेगा| और तब पुरुष सशक्तिकरण की मांगे उठेगी ठीक वैसे ही जैसे आज महिला सशक्तिकरण की बात उठती है|

महिलाओं द्वारा उत्पीड़न के खिलाफ तब पुरुष लामबंद हो वोट बैंक बनने लगेंगे और चुनावों में उन महिलाओं को वोट देंगे जो पुरुषों की हितचिन्तक और पुरातनपंथी विचार धारा वाली होंगी| तब कुछ महिला नेता भी पुरुषों के वोट बैंक से सत्ता के शिखर पर पहुँचने के लालच में या अपनी नेतागिरी चमकाने के लालच में पुरुष सशक्तिकरण आन्दोलन का सक्रीय समर्थन करेगी जैसे आज महिला सशक्तिकरण के लिए पुरुष समर्थन कर रहे है| पुरुषों को उन पुरातनपंथी महिलाओं को जो अपने पति को परमेश्वर मानती है का भी समर्थन मिलेगा आखिर उनके पतियों के जेल जाने के बाद उनके घर में फाका पड़ने की संभावनाएं जो बन जाएगी| यही नहीं शहरों में देह व्यापार कर सुविधाभोगी उन्मुक्त जिन्दगी जीने वाली कुछ आधुनिक महिलाऐं भी पुरुष सशक्तिकरण का समर्थन करेगी क्योंकि इस उपरोक्त कानून के साथ कठोर बलात्कार निरोधक कानून डर के चलते उनका भी धंधा बंद हो जायेगा|

आज इंडिया गेट पर महिलाओं के लिए पुरुष छात्र मोमबत्ती मार्च निकालते देखे जाते है वैसे ही तब लड़कियां पुरुषों के लिए मोमबत्ती मार्च निकालते हुए नजर आयेंगी|

जंतर-मंतर, जिलाधिकारी कार्यालयों, विधानसभाओं आदि के सामने धरना दिये तम्बुओं के बैनर पर तब सबसे ज्यादा बैनर पुरुष के खिलाफ अत्यचार रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की मांगों वाले नजर आयेंगे| तब संसद में भी बहस चलेगी और यादव बंधुओं की तरह उस वक्त कई महिलाएं ऐसे ही वक्तव्य देंगी जो अन्य महिलाओं व मिडिया को अजीब लगेगा|


गीदड़ और उसका लाइसेंस

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जंगल में एक गीदडों का जोड़ा रहता था, नर गीदड़ बहुत ही लापरवाह, आलसी, कामचोर व डींगे हांकने वाला था पुरे दिन इधर उधर दोस्तों के साथ आवारा घूमता रहता पर शिकार के लिए कभी मेहनत नहीं करता, बेचारी मादा गीदड़ ही पुरे परिवार का पेट भरने लायक शिकार का इंतजाम करती|

नर गीदड़ जब इधर उधर घूम फिर कर आता तो अक्सर मादा गीदड़ उससे पूछती – कहाँ गये थे ?

गीदड़ डींगे हांकने में तो माहिर था ही सो कहता- “फिल्म देखने शहर गया था|”

साथ नर गीदड़ मादा के आगे शहर में अपनी जान पहचान व शहर जाकर मस्ती करने की खूब डींगे हांकता| साथ ही नेताओं के साथ जान पहचान की बातें कर वह मादा गीदड़ पर रुतबा भी जमाता कि उसके शहर के बड़े नेताओं से जान पहचान है, फिल्म देखना तो वह एक भी नहीं छोड़ता और ये कहते कहते नर गीदड़ ने मादा को कई फिल्म हीरो व हीरोइनों के नाम भी बता दिए| मादा गीदड़ ने समझाया कि शहर ना जाया करें, कहीं शहर के कुत्ते पीछे पड़ गये तो चीर डालेंगे और मैं विधवा नहीं होना चाहती इसलिए मेरा व बच्चों का ख्याल रखते हुए प्लीज शहर मत जाया करो|

डींगे हांकने में माहिर नर गीदड़ बोला- “अरे शहर के कुत्ते मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, तुझे बताया ना कि मेरी शहर के नेताओं से जान पहचान है उन्होंने ने मुझे एक लाइसेंस बनाकर दिया है वो दिखाते ही सब रास्ते से हट जाते है|” और उसने मादा को एक कागद का टुकड़ा दिखाते हुए कहा- “इसलिए बेफिक्र होकर रह और मुझे शहरी नेताओं से क्रांति के गुर आदि सिखने के लिए घर के कामों से फ्री रख| कल को जंगल में जब क्रांति करनी होगी तो मोमबत्ती मार्च की अगुवाई तेरा ये गीदड़ ही करेगा|”

नर गीदड़ की डींगे सुन मादा अपने नर पर गर्व करती घर के कामों में जुट गयी, उसने दूसरी मादाओं से भी अपने नर की शहर में जान पहचान व फ़िल्में आदि देखने की बातें की तो उसकी सहेलियों ने उसे कहा- “कभी तूं भी तो उनके साथ फिल्म व शहर देख आ ताकि हम भी तेरे मुंह से फिल्मों की बातें तो सुन सके|”

फिर क्या था मादा ने शाम को नर गीदड़ के आते ही फरमाइश कर डाली कि- “कल मुझे भी शहर साथ लेकर फिल्म दिखाने चले|” नर गीदड़ ने मादा को टालने की बहुत कोशिश की पर वह मानने को राजी ही नहीं हुई आखिर गीदड़ अपनी मादा को साथ लेकर शहर की तरफ चला अपनी झूंठी शान बचाने को|

शहर के नजदीक पहुँचते ही एक कुत्तों के झुण्ड की नजर गीदड़ जोड़े पर पड़ी तो उन पर भोंकते हुए टूट पड़े उधर मादा गीदड़ तो बेफिक्र थी कि उसके नर के पास शहरी नेताओं का दिया लाइसेंस है इसलिये कुत्तों से डरकर क्यों भागना| कुत्ते पास आते ही नर गीदड़ ने मादा से कहा- “भाग नहीं तो चीर डालेंगे|”

मादा गीदड़ ने नर से कहा- “इन्हें अपना लाइसेंस क्यों नहीं दिखाते ? जल्द से लाइसेंस निकालो और इनको दिखादो|”

नर गीदड़ भागते हुए बोला- “ये अनपढ़ है ! इनको लाइसेंस दिखाने का कोई फायदा नहीं इसलिए जान बचानी है तो जंगल की और भाग|’

और दोनों ने भाग कर जान बचाई|

राजा मानसिंह जोधपुर

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Raja Man Singh, Jodhpur
जोधपुर के महाराजा मानसिंह का जन्म माघ शुक्ला ११ वि.स.१८३९, १३ फरवरी सन १७८३ को हुआ था| ये जोधपुर के तत्कालीन महाराजा विजय सिंह के पांचवे पुत्र गुमान सिंह के पुत्र थे| छ: वर्ष की छोटी आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था तथा इनके पिता भी ३० वर्ष की अल्पायु में ही चल बसे थे| माता की मृत्यु के मानसिंह का लालन-पालन उनके पितामह राजा विजय सिंह की पासवान गुलाबराय ने बड़े लाड-प्यार से किया|

राजा विजय सिंह पर पासवान गुलाबराय का बहुत ज्यादा असर था वे उसकी हर बात मानते थे, गुलाबराय चाहती थी कि राजा विजय सिंह अपने सबसे छोटे पुत्र शेरसिंह को अपना उतराधिकारी बनाये जो कि राजपूत कुल में चली आ रही परम्पराओं व नियम विरुद्ध था| और यही उतराधिकार की बात आगे चलकर जोधपुर राजघराने में बड़े बड़े षड्यंत्रों व पारिवारिक संघर्ष का कारण बनी और इसके चलते जोधपुर राजघराने के बहुत से सदस्य कालकलवित हुए|

नियमानुसार राजा विजय सिंह के बड़े बेटे के पुत्र भीमसिंह को उतराधिकार मिलना था पर गुलाबराय द्वारा शेरसिंह को उतराधिकारी बनाने की मुहीम के चलते विजय सिंह के पोत्र भीमसिंह ने उतराधिकार से वंचित रहने की आशंका के चलते महाराजा विजय सिंह की अनुपस्थिति में वि.स. १८४९ में जोधपुर किले पर कब्ज़ा कर अपने आपको जोधपुर का महाराजा घोषित कर दिया| इस स्थिति में मानसिंह अपने चाचा शेरसिंह के साथ भीमसिंह से सुरक्षित रहने के लिए जालौर किले में चले गए|

भीम सिंह के किले पर कब्ज़ा करने के बाद जोधपुर के सामंतों द्वारा विजयसिंह के बाद उसे जोधपुर की गद्दी मिलने का आश्वासन और सिवाना की जागीर मिलने के बाद किले पर कब्ज़ा छोड़ दिया|

आषाढ़ शुक्ला ३ वि.स.१८५० में विजय सिंह की मृत्यु के बाद भीमसिंह का आषाढ़ शुक्ला १२ वि.स. १८५० को पुन: जोधपुर की राजगद्दी पर राज्याभिषेक किया गया| इसके बाद मानसिंह पुन: जालौर किले में चले गए| उन्हें पालने वाली पासवान गुलाबराय की वि.स.१८४९ में ही एक षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी गयी थी|

मानसिंह के जालौर किले में जाने के बाद पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने राजा भीमसिंह को उनके खिलाफ भड़का दिया जिसके परिणाम स्वरूप भीमसिंह ने मानसिंह को मारने के लिए जालौर किले पर चढ़ाई के लिए सेना भेज दी और जोधपुर की सेना के साथ मानसिंह का लगभग बारह वर्ष तक संघर्ष चलता रहा जोधपुर की सेना द्वारा इतने लम्बे समय तक जालौर दुर्ग को घेरने के उपरांत मानसिंह सैनिक समस्या के साथ आर्थिक व खाद्य सामग्री की समस्या से लगातार झुझते रहे|

पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने अपने जीते जी जोधपुर राजपरिवार में आपसी संघर्ष को कभी ख़त्म नहीं होने दिया| दरअसल सवाईसिंह के पिता व दादा की जोधपुर के राजा विजयसिंह ने हत्या करवाई थी सो सवाईसिंह उसकी बदला अपनी छद्म कूटनीति से ले रहा था वह चाहता था कि जोधपुर राजपरिवार इसी तरह आपसी संघर्ष में नेस्तनाबूद हो जाय|

आखिर कार्तिक शुक्ला ४ वि.स. १८६० में भीमसिंह की मृत्यु हो गयी तब राजपरिवार के जीवित बचे सदस्यों में राजगद्दी का अधिकार मानसिंह का बनता था सो जोधपुर के जिस सेनापति इंद्रराज सिंघवी ने मानसिंह को मारने के लिए जालौर दुर्ग घेर रखा था ने खुद ही दुर्ग में जाकर मानसिंह को भीमसिंह की मृत्यु का समाचार देते हुए उन्हें जोधपुर किले में चलकर शासन सँभालने हेतु आमंत्रित किया|

सेनापति इंद्रराज सिंघवी व ठाकुर सवाईसिंह के बीच अच्छी मित्रता थी दोनों आपस में धर्म भाई बने हुए थे और जोधपुर की शासन व्यवस्था में दोनों का ही तब तगड़ा दखल था| सवाईसिंह के साथ इंद्रराज सिंघवी की मित्रता होने के चलते मानसिंह अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं थे उन्हें किसी षड्यंत्र की आशंका थी सो मानसिंह ने जोधपुर के तत्कालीन सबसे शक्तिशाली सामंत आउवा के ठाकुर माधोसिंह को जालौर किले में बुलवाया और अपने काव्य रूपी शब्दों से उनका मन जीत लिया और तब पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद जोधपुर किले में आकर सत्ता संभाली|

पर तभी सवाई सिंह ने एक धुंकलसिंह नामक बच्चे को यह कहकर कि भीम सिंह मरते समय इसे गर्भ में छोड़ गए थे उतराधिकार के लिए आगे कर दिया| मानसिंह ने उसकी जांच पड़ताल करवा तब यह साबित हुआ कि ये सब सवाईसिंह की चाल है| और उसके बाद मानसिंह का जोधपुर राज्य की राजगद्दी पर माघ शुक्ला ५, वि.स.१८६० में राज्याभिषेक हुआ| मानसिंह ने जोधपुर राज्य पर चालीस वर्षों तक शासन किया पर अपने पुरे शासन काल में वे कभी चैन से नहीं बैठ सके| गृह कलेश व सवाईसिंह के षड्यंत्रों के चलते हमेशा उन्हें मारने की योजनाएं बनती रहती थी कभी भोजन में जहर देकर, कभी उनके बिस्तरों में सांप, बिच्छु आदि छोड़कर| मानसिंह को इन षड्यंत्रों से हमेशा सजग रहना होता था और षड्यंत्रकारियों को पकड़ने के बाद वे उन्हें कड़ी सजा दिए करते थे इन सजाओं में जिंदा किले से फैंक देना, तोप के आगे खड़ाकर उड़ा देना, जहर पीने के लिए विवश कर देना, हाथियों के पैरो तले कुचलवा देना, आम तरीके थे| आज भी मानसिंह की कठोर व निर्दयी दंड प्रणाली के किस्से लोक कथाओं में सुनने पढने को मिल जातें है| अपने खिलाफ षड्यंत्रों में शामिल अपने कई परिजनों को भी मानसिंह ने जिंदा नहीं छोड़ा था|

व्यक्तित्व :

Raja Man Singh, Jodhpur
जैसा की ऊपर बताया जा चूका है मानसिंह अपने जीवन काल में कभी चैन से नहीं बैठ पाये| बाल्यकाल से ही गृह कलेश के चलते षड्यंत्रों व लड़ाई झगड़ों में उलझे रहे| चाहे वह जालौर दुर्ग में रहते हुए भीमसिंह द्वारा डाले घेरे में रहें हो या फिर जोधपुर के राजा बनने के बाद परिजनों, सामंतों के षड्यंत्र से बचने के संघर्ष में रहें हो उनका पूरा जीवन संघर्षमय ही रहा| और शायद इन षड्यंत्रों का ही नतीजा था कि उनकी दंड प्रक्रियाएं कठोर व निर्दयी रही| दुश्मन को नेस्तनाबूद करने के लिए मानसिंह का एक सिद्धांत था वे कहते थे कि- "दोनों हाथों को शहद में डुबोकर उन्हें तिलों में दबा दो तब जितने तिल हाथों पर चिपकेंगे उतने ही तरीकों के धोखे यदि शत्रु को मारने के लिए करने पड़े तो कम है|"

इतना होने के बावजूद राजा मानसिंह के व्यक्तित्व के इसके विपरीत एक तत्व या गुण और था जिसे जानने के बाद उनके विरोधाभासी स्वभाव का पता चलता है| कोई भी व्यक्ति भरोसा नहीं कर सकता कि इतना कठोर, निर्दयी, क्रूर शासक इतना धार्मिक, दयालु, दानी,कला व विद्याप्रेमी, उच्च कोटि का कवि साहित्यकार भी हो सकता है, राजस्थान का ऐसा कोई साहित्यकार या साहित्य में रूचि रखने वाला व्यक्ति नहीं होगा जो राजा मानसिंह के द्वारा की गयी साहित्य साधना व साहित्य के लिए किये कार्य को नहीं जानता होगा| मानसिंह ने अपने अच्छे व बुरे दोनों समय में कवियों, कलाकारों, साहित्यकारों को पूर्ण संरक्षण दिया| जालौर दुर्ग में घिरे रहने के कठिन समय में भी उनके पास उच्च कोटि के कई कवि साथ थे| यही नहीं मानसिंह खुद बहुत अच्छे कवि थे| उन्होंने हर मौके पर काव्य के माध्यम से ही अपने सुख, दुःख आदि को अभिवक्त किया|

मानसिंह ने लगभग साठ पुस्तकें लिखी, जोधपुर के किले में "पुस्तक प्रकास" नाम से पुस्तकालय की स्थापना की, कई लेखकों की रचनाओं व प्रतियों को कलमबद्ध कर सुरक्षित करवाया| "गुणीजन सभा" नाम से राजा ने एक सभा भी बना रखी थी जिसकी हर सोमवार रात्री को सभा होती थी जिसमें कवि, गायक, कलाकार, पंडित आदि सभी अपनी अपनी विद्या का प्रदर्शन करते थे साथी पंडितों के बीच शास्त्रार्थ होता था जिसमे राजा खुद भाग लेते थे|

राजा मानसिंह पर अपनी शोध पुस्तक "महाराजा मानसिंह जोधपुर" में डा.रामप्रसाद दाधीच लिखते है- " मानसिंह की प्रकृति और स्वभाव का विश्लेष्ण करते समय हमें उनके जीवन और व्यक्तित्व के स्पष्टत: दो पृथक पक्षों को स्मरण रखना पड़ेगा| उनके जीवन का एक पक्ष है- राजा और शासक के रूप में वे कठोर, निर्दय,क्रूर और कूटनीतिज्ञ दिखाई देते है| उनके शासकीय जीवन की ऐसी अनेक घटनाओं का इतिहास ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है| जिनसे यह सहसा धारणा बनती है कि जो व्यक्ति इतना अमानवीय है, वह इतना उच्च कोटि का भक्त और कवि कैसे हो सकता है?"

मानसिह के आचरण के रूप है- एक उनका प्रतिकारी हिंसक रूप और दूसरा है प्रशंसा और आभार पदर्शन का रूप| इसीलिए लोक में मानसिंह की "रीझ और खीझ" प्रसिद्ध है| जिस पर अप्रसन्न हो गए फिर उसके अस्तित्व को ही मिटा दिया और जिस पर मुग्ध हो गए उसे आकाश पर बिठा दिया"

अपने संघर्ष पूर्ण जीवन में शिक्षा ग्रहण करने के लिए परिस्थितियां अनुकूल ना होने के बावजूद मानसिंह ने ज्ञानार्जन का मोह नहीं छोड़ा, समय निकालकर उन्होंने कवियों,पंडितों आदि के साथ कई भाषाओँ व विषयों यथा- धर्म शास्त्र, कुरान, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, साहित्यशास्त्र, संगीत शास्त्र आदि का अध्ययन किया|

मानसिंह की विद्वता पर कर्नल टॉड अपनी पुस्तक Tod Volume-1- Page- 562 लिखते है- "हमारे वार्तालाप के मध्य मुझे इनकी बुद्धिमत्ता के प्रभावक प्रमाण प्राप्त हुए है| इन्हें ण केवल अपने प्रदेश का अपितु सम्पूर्ण भारत के अतीतकालीन इतिहास का सूक्ष्म ज्ञान है| इनका अध्ययन विशद है|"

Tod Volume-1- Page-561 पर कर्नल टॉड लिखता है- " मानसिंह का जीवनवृत मानवीय, सहिष्णुता, साहस और धैर्य का एक ऐसा उदाहरण है जो अन्य किसी देश और युग में कठिनाई से मिलता है किन्तु विपदाओं की निरंतर अनुभूतियों ने उसे भी निर्दयी बना दिया| उसमें सिंह का भयंकर क्रोध ही नहीं था अपितु इससे भी घातक उसकी चालाकी भी उसमें थी|"

कर्नल टॉड जैसे प्रत्यक्ष इतिहासकार जो मानसिंह से प्रत्यक्ष मिला था जिसकी मानसिंह से अच्छी मित्रता थी के उपरोक्त कथन से सिद्ध होता है कि- मानसिंह में सहिष्णुता, साहस,धैर्य आदि मानवीय गुण थे किन्तु तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियां और षड्यंत्रों ने उन्हें क्रूर बना दिया|

राजा मानसिंह ने अंत:बाह्य परिस्थितियां अपने अनुकूल न होने के बावजूद अपने स्वाभिमान को खंडित होने से बचाने के लिए उदयपुर महाराणा भीमसिंह, जयपुर नरेश जगतसिंह से पूरी टक्कर ली व कभी झुके नहीं| मानसिंह द्वारा अपने स्वाभिमान के लिए की गयी जिद के कारण ही उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहरपान करना पड़ा| अंग्रेजों से भी संधि करने के बावजूद वे कभी दबे नहीं|

धार्मिक आस्था :
मानसिंह की धर्म में गहरी आस्था थी| नाथ सम्प्रदाय के आयास देवनाथ उनके धर्म गुरु थे| मानसिंह ने जालौर किले में जोधपुर सेना द्वारा लम्बी घेराबंदी के बाद जब धन व रसद एकदम खत्म हो गयी तो निराश होकर आत्म समर्पण का निश्चय किया तब उनके धर्म गुरु देवनाथ ने उन्हें समर्पण करने से यह कहते हुए रोका कि- चार दिन रुक जाईये परिस्थितियां आपके अनुकूल होंगी|"

और चार दिन के भीतर ही जोधपुर महाराजा भीमसिंह का निधन हो गया और जोधपुर की राजगद्दी मानसिंह को मिल गयी| इसके बाद तो मानसिंह की नाथ सम्प्रदाय और अपने धर्म गुरु में आस्था अंधभक्ति के स्तर तक पहुँच गयी| जोधपुर आने के बाद मानसिंह देवदास को जोधपुर ले आये और उनके लिए महामंदिर नामक धर्मस्थल बनवाया| सत्ता का आश्रय पाकर जब नाथ धर्म गुरुओं ने जोधपुर में आतंक मचाया तब उनसे दुखी होकर जोधपुर के सामंतों ने मीरखां पिंडारी के हाथों षड्यंत्र रचकर देवदास को मरवा दिया| क्योंकि राजा मानसिंह नाथों के खिलाफ कुछ भी सुनने को राजी नहीं थे| वे उनकी अंधभक्ति में फंस चुके थे| और राज्य का बहुत सा धन नाथ योगियों पर खर्च डालते थे|

स्वतंत्र्य प्रेम :
राजा मानसिंह के देशप्रेम व स्वतंत्र्य प्रेम पर डा.रामप्रसाद दाधीच अपनी शोध पुस्तक "महाराजा मानसिंह जोधपुर' के पृष्ठ संख्या 58 पर लिखते है -" मानसिंह के व्यक्तित्व की एक विशेषता उनके स्वतंत्र्य प्रेम और देशभक्ति को लेकर भी है| भारतवर्ष में ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर वे बहुत क्षुब्ध थे| देश का चतुर्दिक राजनैतिक वातावरण ऐसा था कि वे अपनी देशभक्ति, स्वतंत्र्य प्रेम और ब्रिटिश विरोध को प्रत्यक्षत: अभिव्यक्त नहीं कर पाते थे| अपने राज्य की आंतरिक परिस्थितियों के कारण उन्हें विवश होकर अंग्रेजों से वि.स. १८६० पौष शुक्ला को संधि भी करनी पड़ी किन्तु शर्तों के ऊटपटांग होने के चलते मानसिंह ने उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया| वि.स. १८७४ में छतरसिंह के शासनकाल के समय पुन: अंग्रेजों से संधि हुई किन्तु मानसिंह ने कभी अंग्रेजों को कर नहीं चुकाया और उनके हस्तक्षेप को अपने आंतरिक शासन में कभी सहन ही नहीं किया|"

अंग्रेजों के दो बड़े शत्रु जसवंतराव होल्कर और नागपुर के अप्पाजी भोंसले को अंग्रेजों से हारने पर अंग्रेजों के विरोध के बावजूद मानसिंह ने अपने यहाँ शरण दी व सहायता दी| साथ ही वि.स. १८८८ में लार्ड विलियम बैटिक द्वारा अजमेर में आयोजित दरबार का मानसिंह ने बहिष्कार किया| अपने खिलाफ प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के चलते मानसिंह को अंग्रेजों से संधि तो करनी पड़ी पर वे जिंदगीभर अंग्रेजों को छकाते और तबाह करते रहे|

मानसिंह के स्व्तान्त्र्यप्रेम पर इतिहासकार नाथूराम खडगावत अपनी पुस्तक "Rajasthan Roles in the Struggle" में लिखते है- "पूर्व ग़दर युग में महाराजा मानसिंह ही अकेले शासक थे जिन्होंने ब्रिटिश-शक्ति के हस्तक्षेप का भयंकर प्रतिरोध किया और अपने समय के अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति करने वालों को अपना हार्दिक सहयोग दिया|"

इतिहासकारों का मानना है कि यदि मानसिंह के राज्य की आंतरिक व्यवस्था उनके अनुकूल होती और सभी सामंत-सरदार उनका साथ देते तो शायद नक्शा कुछ और ही होता| भारत के उस वक्त के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से भी मानसिंह की बहुत अच्छी मित्रता थी| मार्गशीर्ष शुक्ला १२, वि.स. १८७९ में महाराजा रणजीतसिंह ने राजा मानसिंह को एक पत्र में लिखा-

"We do not know any one else in HIndustan except your noble-self who can stand for his religion and words and for this sake we have sent this special messanger with the letter. We hope you will give us the best advice for the protection of Hindustan which will be followed upon."

परिवार :
राजा मानसिंह ने कुल तेरह विवाह किये थे साथ ही इनकी छ: उपपत्नियाँ (पासवान) भी थी| इनकी रानियों से आठ पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई जिनमें एक पुत्र छत्रसिंह व दो पुत्रियों को छोड़ सभी अल्पायु में ही कालकलवित हो गए थे| इकलौते पुत्र छत्रसिंह को भी इनके षड्यंत्रकारी सामंतों ने १७ वर्ष की आयु में ही युवराज का पद दिलवा शासन व्यवस्था उसके हाथों में दिलवा दी| और उसे कुसंग्तियों यथा नशा, विलासिता आदि में डाल दिया जिसकी वजह जल्द ही उसकी भी मृत्यु हो गयी|
षड्यंत्रों में इतने परिजनों को खोने के बाद यह राजा मानसिंह के लिए एक बड़ा आघात था |

अंतिम समय :
जीवनभर चले षड्यंत्रों में स्वजनों को खोने के बाद एक मात्र पुत्र को खोने व अपने धर्म गुरु नाथों की हत्या व गिफ्त्तारियों के बाद मानसिंह का जीवन व शासन के प्रति मोह भंग हो गया और उन्होंने सन्यास ले लिया वे विक्षिप्तों की तरह इधर उधर घुमने लगे, भोजन करना छोड़ दिया, शरीर पर राख लगा ली और जोधपुर के ही निकट पाल गांव चले गए और वहां से जालौर चले गए इसी दरमियान उन्हें बुखार रहने लगा| पोलिटिकल एजेंट लाडलो को जब यह बात पता चली तो वह उन्हें किसी तरह शासन व्यवस्था बिगड़ने की दलील देकर वापस लाया और वे जोधपुर आकर राइका बाग़ में आकर ठहर गए जहाँ से स्वस्थ्य गिरने के बाद वे मंडोर चले गए और मंडोर में ही भाद्रपद शुक्ला, ११ वि.स. १९०० को इनका निधन हो गया|

मंडोर-जोधपुर से कुछ किलोमीटर दूर मंडोर जोधपुर बसने से पहले मारवाड़ राज्य की प्राचीन राजधानी थी| आज वहां कुछ खण्डहरों के अलावा एक बहुत बड़ा बगीचा है जिसमें संग्रहालय व जोधपुर के दिवंगत नरेशों की याद में देवल (स्मारक) बने है जो दर्शनीय है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है|

अनशन वीरों के लिए काम का नुस्खा

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दिल्ली के जंतर-मंतर पर समाज सेवी अन्ना के पहले लम्बे अनशन पर उमड़े जन सैलाब और फिर सरकार द्वारा झुकते हुए लोकपाल कमेटी बनाने के बाद अनशन को सरकार को झुकाने व लोकप्रियता हासिल करने के लिये एक ब्रह्मास्त्र माना जाने लगा और लोगों के मन में अनशन प्रेम उमड़ हिलोरें लेने लगा|

अन्ना के बाद बाबा रामदेव ने भी अनशन शुरू किया जो दिल्ली पुलिस के लाठियाने के साथ खत्म हो गया| अन्ना की देखा देखी उसके कन्धों पर अनशन अनशन खेल खेलने वाले कुछ NGO वीरों ने अनशन किया पर कुछ ही दिन में उनका स्वास्थ्य ख़राब होने के चलते उनकी भूखे रहने की पोल खुल गयी और उनका अनशन टांय टांय फिस्स हो गया|

आजकल हाल ही में राजनैतिक पार्टी बना नये नेता बने एक NGO वीर ने अपनी पार्टी का जनाधार बढाने को अनशन अनशन खेल फिर चालु कर रखा है पर अनशन के पांचवे दिन बाद ही उनके सवास्थ्य को लेकर जिस तरह की ख़बरें आ रही है उनसे लग रहा है कि उनका यह अनशन अनशन खेल ज्यादा दिन तक चलने वाला नहीं है फिर जब सरकार को पता चल जाये कि आप इस अनशन युद्ध में ज्यादा से ज्यादा हफ्तेभर भी नहीं ठीक सकते तो वो भला वह क्यों झुकेगी ? और परिणाम यह होता है ऐसे कमजोर अनशन वीरों को किसी तरह अपनी इज्जत बचाते हुए अनशन खत्म करना पड़ता है|

पिछले दिनों भानगढ़ की यात्रा के दौरान भानगढ़ के किले में उगी घास के बीच एक पौधा देखने पर जो भारत के कई क्षेत्रों में पाया जाता है के बारे जानकारी देते चर्चित ब्लॉग लेखक ललित जी शर्मा ने बताया कि इस पौधे के ५० ग्राम बीजों की खीर बनाकर खा ली जाय तो हफ्ते भर तक न भूख लगती ना शौच और लघु शंका के लिए उठना पड़ता| अत: इस पौधे के इस्तेमाल से कमजोर अनशन वीर अपनी अनशन वीरता कायम रख सकते है|

ललित शर्मा जी अपने ब्लॉग पर "लोथल (લોથલ) : हड़प्पा कालीन नगर -- भाग 1"पोस्ट में इस पौधे के बारे में जानकारी देते हुए लिखते है - "इसे हमारे यहाँ (छतीसगढ़ में) स्थानीय भाषा में "चिरचिरा" और आयुर्वेद की भाषा में "अपामार्ग" कहते हैं। यह पौधा बड़े काम का है, अब इस पर नजर पड़ गयी तो चर्चा करते चलें। इस पौधे के कांटो वाले फ़ल को कूटने के बाद कोदो के दाने जैसे दाने निकलते हैं। इन 50 ग्राम दानों की खीर बनाकर खाने के बाद सप्ताह भर तक भूख प्यास नहीं लगती, शौच और लघु शंका भी नहीं होती। इसका प्रयोग हठयोगी करते हैं या नवरात्र पर शरीर पर नौ दिन तक जंवारा उगाने वाले भक्त भी। कहते हैं कि इसकी जड़ को किसी प्रसूता स्त्री की कमर में प्रसव के वक्त बांध दिया जाए तो प्रसव बिना किसी दर्द के निर्विघ्न हो जाता है। प्रसवोपरांत इस जड़ को तुरंत ही खोलना पड़ना है, अन्यथा नुकसान होने की भी आशंका रहती है, इसलिए इसका उपयोग किसी कुशल वैद्य की देख रेख में ही होना चाहिए।"

ललित जी द्वारा दी गयी यह जानकारी नए अनशन वीरों के लिए रामबाण साबित हो सकती है जो एक दो दिन से ज्यादा भूखे नहीं सकते वे इसका प्रयोग करते हुए अनशन पर कई दिन टिक कर अपने अनशन अनशन खेल को कामयाब बना सकते है|

राजस्थान के सूखे मेवे : केर, सांगरी, कुमटिया

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राजस्थान में वर्षा की कमी व सिंचाई के साधनों की कमी की वजह से हरी सब्जियों की पहले बहुत कमी रहती थी वर्षा कालीन समय में जरुर लोग घरों में लोकी,पेठा आदि उगा लिया करते थे व ग्वार, मोठ की फली आदि खेतों में हो जाया करती थी पर वर्षा काल समाप्त होने के बाद सब्जियों की भयंकर किल्लत रहती थी| हालाँकि आज सिंचाई के साधनों व यातायात के साधन बढ़ने के चलते अब पूर्व जैसी परिस्थितियां नहीं है| पर पहले सब्जियों के मामले में राजस्थानी गृहणियों को बहुत कमी झेलनी पड़ती थी|

प्रकृति ने राजस्थान में ऐसे कई पेड़ पौधे उगाकर राजस्थान वासियों की इस कमी को पूरा करने के लिए केर, सांगरी व कुमटिया आदि सूखे मेवों की उपलब्धता करा एक तरह से शानदार सौगात दी| प्रकृति की इसी खास सौगात के चलते राजस्थानवासी अपने घर आये मेहमानों के लिए खाने में सब्जियों की कमी पूरी कर “अथिति देवो भव” की परम्परा का निर्वाह करने में सफल रहे|
राजस्थान में उपलब्ध ये तीन फल ऐसे है जिन्हें सुखाकर गृहणियां सब्जी के लिए वर्ष पर्यन्त इस्तेमाल करने लायक बना इस्तेमाल करती रही है और अब भी करती है| आज इन तीनों सूखे मेवों से बनी सब्जी जिसे “पंच-कूटा” कहा जाता है, राजस्थान में शाही सब्जी की प्रतिष्ठा पा चुकी है| खास मौके हों, या किसी बढ़िया होटल का मेनू हो उसमें यह सब्जी नहीं तो मानों कुछ भी नहीं| क्या है ये तीनों सूखे मेवे ? और किन पेड़ पौधों से प्राप्त होते है ? आज इसी विषय पर चर्चा करते है-
केर :केर नाम की एक कंटीली झाड़ी रेगिस्तानी इलाकों में बहुतायत से पाई जाती है इस पर लगे छोटे छोटे बेरों के आकर के फल को ही केर कहते है| केर को वनस्पति विज्ञान में Capparis decidua कहते हैं. इसे आप चेरी ऑफ़ डेजर्ट भी कह सकते है| पंजाब आदि कई जगह इसे टिंट भी कहते है|

यह फल कडवा होता है इसलिए इसे खाने योग्य बनाने के लिए इसे मिटटी के एक बड़े मटके में पानी में नमक का घोल बनाकर उसमें इसे कई दिनों तक डुबोकर रखा जाता है जिससे इसका कड़वापन ख़त्म होकर खट्टा मीठा स्वाद हो जाता है| तत्पश्चात इसे सुखाकर वर्ष पर्यन्त इस्तेमाल हेतु संग्रह कर लिया जाता है|

इसका बिना सुखाये भी आचार व सब्जी बनाकर सेवन किया जा सकता है| राजस्थान में आचार बनाने के लिए यह लोगों की पहली पसंद है| आजकल बाजार में सुखा केर उपलब्ध रहता है|

सांगरी :खेजड़ी या खेजडे का पेड़ राजस्थान के अलावा भी देश के कई राज्यों में पाया जाता है पर इसकी महत्ता जितनी राजस्थान में समझी जाती है वह अन्य राज्यों में नहीं| खेजड़ी का पेड़ बड़ा व मजबूत होता है इसे पनपने के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है|

इस पेड़ पर लगने वाली हरी फलियों को ही सांगरी कहा जाता है| यदि इन फलियों को कच्चा तोडा ना जाय तो ये पकने के बाद खाने में बड़ी स्वादिष्ट लगती है| सुखी पकी फलियाँ जिन्हें राजस्थान वासी खोखा कहते है हवा के झोंके से अपने आप धरती पर गिरते रहते है जो बच्चों के साथ ही बकरियों का भी मनपसंद भोजन है|

खेजड़ी के पेड़ पर लगी इन्हीं फलियों रूपी सांगरियों को कच्चा तोड़कर उबालकर सुखा लिया जाता है| सुखी फलियों को सूखे केर व कुमटियों के साथ मिलाकर स्वादिष्ट शाही सब्जी तैयार की जाती है| ताजा कच्ची सांगरी से भी स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है पर उसकी उपलब्धता सिर्फ सीजन तक ही सीमित है|

कुमटिया :यह भी एक पेड़ होता है जिसकी फलियों को सुखाकर उनमें से बीज निकालकर उनका सब्जी के लिए प्रयोग किया जाता है|
प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराई गयी इन सौगातों की बदौलत राजस्थान की गृहणियां अथिति सत्कार की परम्परा निभाने व अपने घर में स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां उपलब्ध कराने में आजतक सफल रही है| इन तीनों को मिलाकर बनाई सब्जी को पंच-कुटा की सब्जी कहा जाता है| इसकी बनाने की विधि अगले किसी लेख में दी बताई जायेगी|

राजस्थान के इन तीनों सूखे मेवों से बनी सब्जियां स्वादिष्ट होने के साथ ही पेट के रोगों को ठीक करने में भी रामबाण औषधियां है| साथ ही इनका सेवन किसी भी मौसम में कभी भी किया जा सकता है|
केर, कुमटिया, सांगरी की महिमा का बखान स्व. आयुवान सिंह शेखावत ने अपने राजस्थानी काव्य “हठीलो राजस्थान” में इन शब्दों के साथ किया है-

सट रस भोजन सीत में,
पाचण राखै खैर |
पान नहीं पर कल्पतरु ,
किण विध भुलाँ कैर ||


(जिस फल के प्रयोग से ) सर्दी के मौसम में छ:रसों वाला भोजन अच्छी तरह पच जाता है | उस कैर (राजस्थान की एक विशेष झाड़ी) को किस प्रकार भुलाया जा सकता है जो कि बिना पत्तों वाले कल्पतरु के समान है |

कैर,कुमटिया सांगरी,
काचर बोर मतीर |
तीनूं लोकां नह मिलै,
तरसै देव अखीर ||


कैर के केरिया , सांगरी (खेजडे के वृक्ष की फली) काचर ,बोर (बैर के फल) और मतीरे राजस्थान को छोड़कर तीनों लोकों में दुर्लभ है | इनके लिए तो देवता भी तरसते रहते है |

अब छलावा लगने लगा है केजरीवाल का संघर्ष

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जिस मीडिया, सोशियल मीडिया व युवा शक्ति के समर्थन के दम पर केजरीवाल ने अन्ना के साथ सफल लोकपाल आन्दोलन चलाया और उसी समर्थन के भरोसे आम आदमी पार्टी “आप” का गठन किया| आज केजरीवाल के अनशन पर उसी मीडिया ने जहाँ दुरी बना रखी है वहीँ सोशियल साईटस पर लोकपाल आन्दोलन के समर्थन में अभियान चलाने व सड़कों पर उतरकर समर्थन देने वाली युवा पीढ़ी ने एक और केजरीवाल के अनशन से दुरी बना रखी वहीँ दूसरी और वही युवा जो सोशियल साईटस पर उसके पक्ष में अभियान चला रहे थे वे आज केजरीवाल के खिलाफ तरह तरह की टिप्पणियाँ कर उसके विरोध में खड़े नजर आ रहे है|
ऐसा नहीं कि युवावर्ग सोशियल साईटस पर सिर्फ विरोध ही जता है बल्कि केजरीवाल व “आप” पार्टी से कई सवाल भी पूछ रहा है पर सोशियल साईटस पर मौजूद “आप” के कार्यकर्त्ता ऐसे युवाओं के सवालों का शालीनता के साथ जबाब देकर उनकी जिज्ञासा मिटाने के बजाय अशालीन होकर उलझते देखे जा सकते है| सोशियल साईटस पर ही क्यों अनशन स्थल पर भी आप के कार्यकर्ताओं द्वारा मीडियाकर्मियों के साथ उलझने के कारण मीडियाकर्मी “आप” के कार्यकर्मों से दुरी बनाने में ही अपनी भलाई समझ रहे है|

केजरीवाल के आन्दोलन के प्रति युवाओं के बदले दृष्टिकोण ने एक नई बहस को जन्म दिया है जागरण जंक्शन फोरम ने तो "क्या अरविंद केजरीवाल का संघर्ष एक छलावा है ?" नामक शीर्षक पर विचार करने हेतु युवाओं व ब्लॉग लेखकों से उनके विचार आमंत्रित किये है| यहाँ भी मैं कुछ कारणों व युवाओं के संदेह व उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों पर चर्चा कर रहा हूँ जो युवावर्ग सोशियल साईटस पर अभिव्यक्त कर रहे है-

१- आप पार्टी का विरोध करने वाले युवाओं को "आप" के कार्यकर्त्ता लताड़ते हुए कहते है कि- “एक व्यक्ति ने जनता के लिए जीवन दांव पर लगा रखा है और आप उसका विरोध कर गलत कार्य कर रहे है|”

इसके जबाब में ज्यादातर लोगों को प्रश्न होता है कि – “बाबा रामदेव भी तो जनता के लिए मरने (आन्दोलन करने) दिल्ली आया था तब उसे केजरीवाल ने समर्थन क्यों नहीं दिया ? जबकि रामदेव भी तो देश के भले के लिए ही सरकार से लड़ रहे थे|” पर इसका जबाब आप के कार्यकर्ताओं के पास नहीं है| साथ ही बहुत से युवाओं का मानना है कि हो सकता है केजरीवाल खुद ईमानदार हो, पर हर सीट पर तो अकेले केजरीवाल तो चुनाव नहीं लड़ सकते, उसके लिए उम्मीदवार चाहिए और क्या जरुरी है कि केजरीवाल जिन्हें चुनाव में उतारेंगे वे ईमानदार ही हो ?

२- लोकपाल आन्दोलन को भाजपा-संघ व वामपंथ सहित अन्य विभिन्न राजनैतिक विचारधारा वाले इनके सामाजिक कार्यकर्त्ता होने के चलते युवा व लोग समर्थन दे रहे थे पर केजरीवाल के राजनैतिक पार्टी बनाते ही युवा वर्ग ने अपनी अपनी राजनैतिक विचारधारा के आधार पर केजरीवाल का साथ छोड़ दिया| इस तरह लोकपाल आन्दोलन में समर्थन देने एकजुट हुआ युवावर्ग राजनैतिक विचारधारा के आधार पर विभक्त हो गया|

३- लोकपाल आन्दोलन में इनकी टीम के सदस्यों में स्वामी अग्निवेश, अरुणा राय आदि का कांग्रेस के साथ गुप्त गठबंधन सामने आने के बाद इनकी विश्वसनीयता कम हुई है| ज्यादातर लोग मानने लगे कि बाबा रामदेव द्वारा काला धन के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान की हवा निकालने के लिए अग्निवेश, अरुणा राय व केजरीवाल जैसे लोगों को आगे कर अन्ना द्वारा अनशन करवा रामदेव के आन्दोलन को हाईजेक कराने के लिए ये कांग्रेस का ही कोई गुप्त एजेंडा था|

४- अरुणा राय, अरुंधती राय, मयंक गाँधी, प्रशांत भूषण एंड संस का केजरीवाल के साथ होना भी युवाओं के मुंह फेरने का एक मोटा कारण है| अरुंधती व भूषण को उनके कश्मीर पर व्यक्त विवादस्पद विचारों की वजह से युवाओं का एक बड़ा तबका इन्हें राष्ट्र विरोधी मानता है|

५- फेसबुक पर कई युवा “आप” पार्टी के चुनाव लड़ने पर आंकलन कर लिख रहे है- “कांग्रेस से नाराज लोगों के वोट “आप” ले जायेगी जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिलेगा और आप की बदौलत दिल्ली में कांग्रेस की महा भ्रष्ट सरकार को चौथी बार फिर झेलना पड़ेगा|” इस आंकलन के आधार पर युवाओं को “आप” व कांग्रेस के बीच कोई गुप्त समझौता होने का संदेह है|

६- बदले की कार्यवाही के लिए कुख्यात सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपने आलाकमान के परिवार पर सीधे आरोप लगाने के बावजूद केजरीवाल पर कोई बदले की कार्यवाही ना करना भी युवाओं के मन में दोनों दलों के बीच कोई गुप्त समझौता होने के संदेह को गहरा करता है|

इस संदेह को व्यक्त करते कई युवा फेसबुक पर सवाल करते है कि –“पूर्व आयकर अधिकारी देशबंधु गुप्ता द्वारा सरकार के खिलाफ बोलते ही उनके बेटे की सीआर ख़राब कर दी गयी और फंसा कर गुप्ता परिवार को परेशान किया गया फिर कांग्रेस पर एक के बाद एक इतने गंभीर आरोप लगाने के बावजूद केजरीवाल की पत्नी पिछले पन्द्रह वर्षों से एक जगह कैसे टिकी हुई है?”

७- सोशियल साईटस पर ही कई युवा केजरीवाल से सवाल करते है कि वे आयकर विभाग में उच्च अधिकारी थे जहाँ वे अपनी शक्तियों का सदुपयोग करते हुए कई भ्रष्ट नौकरशाहों व व्यापारियों पर कार्यवाही कर सकते थे पर क्या उन्होंने की ? कई युवा फेसबुक पर यह सवाल पूछते देखे गए कि- आयकर अधिकारी के रूप में केजरीवाल की उपलब्धिया क्या है?

८- केजरीवाल द्वारा अपने आपको धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए शाही इमाम जैसे व्यक्ति से मिलना भी युवाओं को रास नहीं आ रहा| कई युवाओं द्वारा अभिव्यक्त विचार पढने के बाद पता चलता है कि युवा केजरीवाल पर भी तुष्टिकरण की राजनीति करने का संदेह करते है| और केजरीवाल ने अपने क्रियाकलापों से इस संदेह को और गहरा ही किया है|

९- वर्तमान अनशन में सरकारी डाक्टरों की जगह प्राइवेट डाक्टर से अपने स्वास्थ्य की देखरेख करवाना और पानी पीने के लिए स्टील का गिलास रखने पर भी सोशियल साईटस पर युवाओं को चुटकियाँ लेकर मजाक उड़ाते देखने के बाद साफ़ लगता है कि युवावर्ग को यह अनशन दिखावटी ड्रामा लग रहा है|

कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि केजरीवाल ने अन्ना, रामदेव आदि सामाजिक कार्यकर्ताओं का साथ छोड़कर भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को अपनी व अपने साथियों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के चलते कमजोर ही किया है| हो सकता है भविष्य में केजरीवाल एक राजनैतिक विकल्प देने में सफल हो जाये पर फ़िलहाल तो उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ उपजे गुस्से और आन्दोलन को अंकुरित होते ही राजनैतिक महत्वाकांक्षा के नीचे दबा ही दिया| और यही सब कारणों पर विचार करते हुए युवा केजरीवाल के आन्दोलन को छलावा समझ दूर होते जा रहे है|

युवावर्ग का सोचना भी सही है यदि केजरीवाल अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा छोड़ अन्ना, बाबा और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले संघ, वामपंथी कार्यकर्ताओं व अन्य ताकतों के साथ एक सामाजिक संगठन के बैनर तले ही अभियान चलाते रहते तो यह ज्यादा प्रभावी व देश हित में होता|

समाज में पुरुष सत्ता : हकीकत कुछ और !

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भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता शुरू से नारीवादियों के निशाने पर रही है| इस कड़ी में आजकल सोशियल साईटस पर कुछ प्रगतिशील नारीवाद समर्थक पुरुष और कुछ अपने आपको पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, नौकरी करने, अकेले रहने, आजाद ख्यालों वाली, बिंदास पाश्चात्य जिंदगी जीने वाली नारी होने का दावा करने वाली नारियां जो रानी लक्ष्मीबाई, इंदिरागाँधी आदि नारियों को अपना आदर्श न मान फूलन देवी को अपना असली आदर्श मानती है, दिन भर पुरुषों को कोसती, गरियाती रहती है| यदि उनके नजरिये से देखा जाय तो पुरुषों ने नारियों का जीवन नारकीय बना रखा है, किसी भी परिवार में सिर्फ और सिर्फ पुरुष की सत्ता चलती है, नारी तो बेचारी अपने पति के घर में बिना वेतन की नौकरानी मात्र है|

ये आधुनिकाएँ और इनके दिल में जगह बनाने की चाहत लिए कुछ आधुनिक युवक भी इनका समर्थन करते हुए पुरुष सत्ता या उनके शब्दों में पितृसत्ता को उखाड़ने का नारा बुलंद करते देखे जा सकते है| अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने की आजादी के साथ आजकल सोशियल साईटस रूपी औजार आसानी से उपलब्ध है जिस पर पुरुष सत्ता को गरियाने का फैशन व होड़ सी चल रही है|

पर यदि हम अपने आस-पास के परिवारों में पुरुष सत्ता पर नजर डालें तो ऐसे घर बहुत कम मिलेंगे जहाँ पुरुष नारियों को अपने पाँव की जूती समझते है मतलब किसी भी निर्णय में वे न तो परिवार की स्त्रियों को पूछना जरुरी समझते है ना उनकी बताई सलाह मानते है साथ ही वे अपनी पत्नियों को छोटी छोटी बातों पर प्रताड़ित भी करते है |

लेकिन इसके साथ ही ऐसे परिवारों के उलट इतने ही कुछ परिवार आपको अपने पडौस में ऐसे भी मिलेंगे जहाँ बेशक परिवार की स्त्री घरेलु कामकाजी महिला हो पर उसके आगे उसके पति, ससुर आदि किसी पुरुष की नहीं चलती बेशक वह नारी आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर भी ना हो| पर परिवार में उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत घर के किसी पुरुष में नहीं होती| वह भी अपने परिवार के पुरुषो का उत्पीड़न करने में कहीं पीछे नहीं रहती|
अपने ४७ वर्ष के जीवन में ऐसे मैंने कई उदाहरण देखे है और देखने को सतत मिल भी रहे है| ऐसे ही एक बार एक पत्नी पीड़ित मित्र ने पत्नी द्वारा उत्पीड़न की बात पर चर्चा करते हुए कहा- “ये पत्नी वाली लाटरी जीवन में एक ही बार खुलती है सही खुल गयी तो जीवन सफल नहीं तो जीवनभर ऐसा दर्द मिलता है जिसे किसी के आगे अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते|”
कारण भी साफ़ है विचारों की भिन्नता वाले जीवन साथी को समाज छोड़ने की कतई अनुमति नहीं देता और कानून की शरण लो तो पुरुष को इतना भारी पड़ने की गुंजाइश दिखती है कि उसके बारे में सोचकर ही पुरुष कांप उठता है और परिस्थियों से समझौता करने में ही अपनी भलाई समझते हुई उस रिश्ते को ढोता रहता है|

इन दोनों श्रेणियों के परिवारों जिनकी संख्या कम ही होती है इनके विपरीत ज्यादातर परिवार ऐसे मिलेंगे जहाँ नर- नारी आपसी समझ, सलाह मशविरा कर अपने घर के निर्णय लेते है और सुखी रहते है| इनमें भी कुछ ऐसे स्पष्टवादी व्यक्ति भी होते है जो घर के बाहर स्पष्ट रूप से स्वीकारते है कि उनके निर्णय बिना गृह स्वामिनी के सहमती के नहीं होते| पर ज्यादातर व्यक्ति बाहर अपनी थोथी धोंस ज़माने के लिए झूंठे अपनी मूंछों पर ताव देते देखे जा सकते कि- “उनके निर्णय सिर्फ उनके होते है|” पर हकीकत कुछ और होती है, वे पहले ही चुपचाप किसी भी मामले में गृह स्वामिनी से सलाह मशविरा कर उसकी सहमती प्राप्त कर लेते है| ऐसे लोगों की ये आदत उनके घर की महिलाएं भी जानती है पर वे भी बाहर पुरुष सत्ता दिखाने में अपने घर के पुरुष का साथ दे देती है| और इसी स्थिति ने समाज को पुरुष प्रधान का चौगा पहना पुरुष प्रधान समाज घोषित कर रखा है और बाहर लोगों को लगता है कि पुरुष प्रधान समाज में पुरुष की ही निरंकुश सत्ता चलती है|

शहरों में गांवों की तरह सामूहिक मामले में निर्णय लेने के अवसर कम ही होते है पर गांवों में अक्सर पंचायत या गांव के किसी सार्वजनिक कार्य के लिए किसी सामूहिक निर्णय पर पुरुषों को निर्णय करना पड़ता है ऐसे मामलों में अक्सर बड़े बुजुर्गों को आपस में मजाक करते देखा जा सकता है कि- "पंचायत में मूंछों पर ताव देकर हामी भरदी पर घर से सहमती ली या नहीं?
कई बार रिश्ते आदि तय करते हुए भी बाहर मर्द आपस में सहमत होने के बाद कहते सुने जाते है - घर में जाकर विचार-विमर्श कर आईये फिर आगे बात बढाते है|"
ऐसे उदाहरण साफ़ करते है कि- समाज बेशक पुरुष प्रधान दिखता हो पर हकीकत कुछ और ही है|

पुरुष प्रधान समाज में पितृसत्ता के खिलाफ अभियान चलाने वाले समाज के अन्य परिवारों की बजाय यदि अपने परिवारों में झाँक कर देखे तो उन्हें पुरुष सत्ता की असलियत पता चल जायेगी| हाँ ! सब कुछ जानते बुझते यदि कोई अपनी नेतागिरी चमकाने, प्रसिद्धि पाने या चर्चा में रहने के लिए पितृसत्ता को गरियाते रहे तो बात अलग है|

आज पितृसत्ता (पुरुष सत्ता) को गरियाने की बजाय जो लोग पत्नियों को पैर की जूती समझते है या परिवार की नारी की अहमियत नहीं समझते उन्हें शिक्षित, जागरूक कर नारी के महत्व के बारे में समझाने की जरुरत है| क्योंकि दोनों एक दुसरे के पूरक है, एक दुसरे के बिना अधूरे है, नारी का अपमान पुरुष का अपमान है फिर चाहे अपमान कोई बाहरी व्यक्ति करे या घर का कोई व्यक्ति करें| जरुरत नर और नारी को एक दुसरे से नीचा दिखाने की नहीं, दोनों के बीच आपसी समझदारी वाले तालमेल की जरुरत है, इसी तालमेल से वैवाहिक जीवन सफल होता, परिवार सफल होते है और परिवार सफल व सुखी होंगे तो पूरा समाज और देश सुखी होगा|

ऐसा कौन बेटा होगा जो परिवार में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपनी माँ का अनादर करेगा ? ऐसा कौनसा पोत्र होगा जो अपनी दादी का आदर नहीं करता हो ? ऐसा कौन पति होगा जो अपनी धर्मपत्नी का अनादर करना चाहेगा ? ऐसा कौन भाई होगा जिसके मन में अपनी बहन के लिए आदर नहीं होगा ?
हाँ ! जो जाहिल व संस्कारहीन होंगे वे तो वैसे भी किसी का आदर नहीं करेंगे!!

ज्ञान दर्पण.कॉम को बेस्ट वेब पत्रकारिता सम्मान

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जयपुर : 10 अप्रेल २०१३ को जयपुर के सूचना केंद्र में न्यूज पेपर्स एसोसियशन ऑफ़ इंडिया की राजस्थान इकाई व ह्युमन 4 ह्युमन संस्था द्वारा आयोजित युवा पत्रकार सम्मान समारोह में प्रदेश में अपने अपने कार्यक्षेत्रों में श्रेष्ठ पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को "कलम के सिपाही" सम्मान सम्मानित किया गया| इस अवसर पर वेब पत्रकारिता की श्रेणी में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए ज्ञान दर्पण.कॉम को "बेस्ट वेब पत्रकारिता" सम्मान से सम्मानित किया गया|

इस अवसर पर युवा पत्रकारों के साथ ही प्रदेश के वरिष्ट पत्रकार श्याम आचार्य, महेश शर्मा, मिलाप चंद डंडिया, लक्ष्मी शर्मा व चम्मा शर्मा को लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान से सम्मानित किया गया| समारोह की अध्यक्षता हाई कोर्ट के जज जे.के.रांका ने की| समारोह में न्यूज पेपर्स एसोसियशन ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव विपिन गौड़ ने संस्था की उपलब्धियां की जानकारियां देते हुए प्रदेश इकाई के सचिव मनमोहन सिंह व संस्था की जयपुर इकाई को कार्यक्रम के सफल आयोजन पर बधाई दी|


राजस्थान के वरिष्ट पत्रकार श्याम आचार्य के हाथों सम्मानित हुए



सम्मानित पत्रकारों के साथ



कार्टूनिस्ट अभिषेक जी के साथ



म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव

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म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।
कोरा कोरा मटका रो सोंधो -सोंधो पाणी।
गर्मी रा मौसम को कलेवो, छाछ - राबड़ी और धाणी
पीपल अर खेजड़ा री, ठंडी शीतळ छांव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(1)
पावणा रो अठै होवै मोकलो सत्कार
टाबर ,जिव -जिनवारां न हेत रो पुचकार
सीधा सांचा लोग अठा रा, त्योंहारा रो चाव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(2)

केर कमटिया सांगरी का मेवा री सुवास
धर्म दान और वीरता रा मंड्या पड्या इतिहास
नर -नारयां रो अठे ,फुटरो बणाव्
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(3)

प्याऊ ठंडा पानी का, हेला रो हेत अठै
मीठी बोली ऱी अपणायत आ सोना जेड़ी रेत् कठै
दुबड़ी ऱी जड़ की तरियां, आपस रो जुडाव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(4)


गजेन्द्र सिंह शेखावत

शब्दार्थ- 1.कलेवा- नाश्ता, 2.पावणा-मेहमान,3. मोकल़ो- खूब अच्छा,4.टाबर -बच्चे ,4.फुटरो- सुंदर,5.बणाव्- श्रृंगार, 6.हेत-अपणायत - नेह ,आत्मीयता

निरबाण राजपूत : निर्वाण नहीं "निरबाण" लिखिए जनाब

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चौहान राजपूत वंश की एक शाखा है “निरबाण”, पर जब भी मैं इस वंश की शाखा के व्यक्तियों के नाम के आगे देखता हूँ तो पाता हूँ कि ये लोग निरबाण Nirban की जगह निर्वाण Nirwan लिखते है| जो गलत है कईयों को फेसबुक पर मैंने बताया भी फिर भी उन्होंने इस गलती को नहीं सुधारा| इसका सीधा सा कारण है उन्हें अपने वंश के इतिहास का पता ही नहीं और न ही उन्होंने अपना इतिहास पढने की कभी जरुरत महसूस की| जब अपना इतिहास ही इन्होने नहीं पढ़ा तो इन्हें क्या पता कि उनका यह निरबाण टाइटल क्यों पड़ा ?

शाब्दिक दृष्टि से भी देखें तो निरबाण व निर्वाण में बहुत अंतर है दोनों के शाब्दिक अर्थ ही एक दूसरे से भिन्न है|

राजस्थान के शेखावाटी में रहने वाले चौहान राजपूतों की इस निरबाण शाखा का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? ये शेखावाटी में कहाँ से आये ? इस संबंध में राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार स्व.सुरजन सिंह जी झाझड़ने अपनी पुस्तक “शेखावाटी प्रदेश का प्राचीन इतिहास” में बहुत ही बढ़िया व विस्तृत शोधपरक ऐतिहासिक जानकारी दी है|
कर्नल नाथू सिंह शेखावतने भी अपनी पुस्तक “अदम्य यौद्धा-महाराव शेखाजी”में महाराव शेखाजी के जन्म स्थान “गढ़ त्योंदा” के ऐतिहासिक महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए चौहानों की निरबाण शाखा की ऐतिहासिक जानकारी दी है|

कर्नल नाथू सिंह शेखावतके अनुसार-“निरबाण चौहानों की एक मुख्य खांप है| नाडोल (पाली) के राजा आसपाल की पटरानी वांछलदेवी से माणकराव, मोकळ, अल्हण और नरदेव नामक चार पुत्र हुए| इनमे सबसे छोटा नरदेव महत्वाकांक्षी, दूरदर्शी व शौर्यवान था| वह जानता था कि सबसे छोटा होने के कारण पिता के राज्य से कोई बहुत बड़ा ठिकाना मिलने की संभावना नहीं थी, अत: नरदेव ने पिता के राज्य में मिलने वाला हिस्सा त्याग कर, अन्यत्र अपना राज स्थापित करने के उद्देश्य से, अपने विश्वस्त साथियों के साथ कूच किया|
उस समय खंडेला पर कुंवरसिंह डाहिल राज करता था| नरदेव ने ने कुंवरसिंह डाहिल पर वर्तमान उदयपुरवाटी के पास वि.स. ११४२ (सन १०८५ई.) में आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा खंडेला पर अपना अधिकार कर लिया| इस अप्रत्याशित जीत व पिता के राज में हिस्से के प्रति त्याग से प्रसन्न होकर राजा आसपाल ने नरदेव को आशीर्वाद स्वरूप “निरबाण” की उपाधि से सम्मानित किया| तब से नरदेव निरबाण के नाम से विख्यात हुआ और उसकी संताने निरबाण उपनाम से जानी जाने लगी| अन्य भाइयों की संताने देवरा पुत्र अर्थात देवड़ा कहलाती है|”

उस वक्त उतर भारत में चौहानों का शक्तिशाली राज्य था शेखावाटी के खंडेला के पास संभार पर शक्तिशाली शासक विग्रहराज चौहान का शासन था| नरदेव निरबाण अपने वंशज चौहानों से घनिष्टता का फायदा उठाते हुए सांभर का विश्वसनीय सामंत बन गया और उनकी शक्ति का फायदा उठाते हुए अपने राज्य के पास अरावली घाटी की श्रंखला में उदयपुरवाटी से पूंख, बबाई, पपुरना, खरकड़ा, जसरापुर व त्योंदा तक अपने शक्तिशाली ठिकाने स्थापित कर अपना राज्य विस्तार कर छोटा सा सुदृढ़ राज्य स्थापित कर लिया|

अकबर काल में निरबाणों पर मुग़ल दरबार में उपस्थित होने हेतु निरंतर दबाव पड़ता रहा पर इन्होने न तो कभी अकबर की अधीनता स्वीकार की, न कभी उसे कर दिया, न कभी मुग़ल दरबार में ये नौकरी करने गये| अकबर ने इसे अपनी तौहीन समझी पर इनपर कभी मुग़ल सेना नहीं भेजी कारण साफ था उस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में निरबबाणों की छापामार युद्ध प्रणाली के आगे इन्हें हराना बहुत कठिन था| कई बार पड़ताली मुग़ल दस्ते इन पर चढ़ कर गये पर उन्हें निरबाणों ने हराकर या लूटकर वापस भगा दिया|

आखिर रायसल शेखावतने इन्हें हराकर पहले उदयपुर बाद में खंडेला का राज्य छीन इन्हें राज्यहीन कर दिया फिर भी ये कभी मुग़ल सेवा में नहीं गये|

व्यापार ही नहीं शौर्य में भी कम ना रहे है बणिये

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हमारा मैट्रो दैनिक
स्वाभिमान के मामले में समझौता करने वाले लोगों पर अक्सर लोग व्यंग्य कसते सुने जा सकते है कि- “बनिये की मूंछ का क्या ? कब ऊँची हो जाये और कब नीची हो जाय ?”

राजस्थान में तो एक कहावत है –गाँव बसायो बाणियो, पार पड़े जद जाणियो” कहावत के जरिये बनिए द्वारा बसाये किसी गांव की स्थिरता पर ही शक किया जाता रहा है|

उपरोक्त कहावतों से साफ है कि अपने व्यापार की सफलता के लिए व्यापारिक धर्म निभाने की बनिए की प्रवृति को लोगों ने उसकी कायरता समझ लिया जबकि ऐसा नहीं है बनिए ने अपनी मूंछ कभी नीची की है यानी कहीं समझौता किया है तो वह उसकी एक व्यापारिक कार्यविधि का हिस्सा मात्र है| कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यापार में सौम्य व्यवहार, मृदु भाषा व संयम के बिना सफल नहीं हो सकता और बनियों ने अपने इन्हीं गुणों के आधार पर व्यापार के हर क्षेत्रों में सफलता चूमी है|

बनियों के इन्हीं गुणों की वजह से उनको कायर मानने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि आज तो व्यापार करना आसान है, ट्रांसपोर्ट के साधनों से एक जगह से दूसरी जगह माल लाना ले जाना, बैंकों के जरिये धन का स्थानांतरण करना एकदम आसान है जबकि पूर्व काल में जब न बैंक थे न आवागमन के साधन थे तब भी बनिए अपने घर से हजारों मील दूर ऊंट, बैल गाड़ियों में माल भरकर यात्राएं करते हुए व्यापार करते थे रास्ते में डाकुओं द्वारा लुटे जाने का पूरा खतरा ही नहीं रहता था बल्कि कई छोटे शासक भी डाकुओं की भूमिका निभाते हुए व्यापारिक काफिलों को लुट लिया करते थे फिर भी अपने धन व जान की परवाह किये बगैर बनिए बेधड़क होकर दूर दूर तक अपने काफिले के साथ व्यापार करते घूमते रहते थे| उनका यह कार्य किसी भी वीरता व साहस से कम नहीं था|

व्यापार ही क्यों युद्धों में भी बनियों ने क्षत्रियों की तरह शौर्य भी दिखा इस क्षेत्र में भी पीछे नहीं रहे जोधपुर जैसलमेर का इतिहास पढ़ते हुए ऐसे कई उदाहरण पढने को मिल जाते है| इन पूर्व राज्यों में कई बनिए राज्य के सफल प्रधान सेनापति रहे है जिनकी वीरता व कूटनीति का इतिहासकारों ने लोहा माना है|

राजस्थान का प्रथम इतिहासकार मुंहता नैणसी (मोहनोत नैणसी)जो जैन था और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह का सफल प्रधान सेनापति था जिसने जोधपुर राज्य की और से कई युद्ध अभियानों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया| जोधपुर राज्य में महाराजा भीमसिंह व उनके बाद महाराजा मानसिंहके समय में इंद्रराज सिंघवी नामक बनिया जोधपुर का सेनापति रहा जिसकी वीरता, राजनैतिक समझ और कूटनीति इतिहास में भरी पड़ी है| इंद्रराज सिंघवी ने अपनी राजनैतिक कूटनीति व समझदारी से जोधपुर राज्य को ऐसे बुरे वक्त में युद्ध से बचाया था जब जोधपुर महाराजा के ज्यादातर सामंत विरोधियों से मिल जयपुर व बीकानेर की सेनाओं को जोधपुर पर चढ़ा लाये थे और जोधपुर की सेना में सैनिक तो दूर तोपें इधर उधर करने के लिए मजदुरों तक की कमी पड़ गयी थी| ऐसी स्थिति में इंद्रराज सिंघवी ने अपने बलबूते जोधपुर किले से बाहर निकल ऐसी चाल चली कि जयपुर, बीकानेर की सेनाओं को जोधपुर सेना के कमजोर प्रतिरोध के बावजूद मजबूर होकर वापस लौटना पड़ा|

आजादी के कुछ समय पहले भी जब जयपुर की सेना ने सीकर के राजा को गिरफ्तार करने हेतु सीकर पर चढ़ाई की तो शेखावाटीकी समस्त शेखावत शक्तियाँएकजुट होकर जयपुर सेना के खिलाफ आ खड़ी हुई यदि वह युद्ध होता तो भयंकर जनहानि होती पर शेखावाटीके सेठ जमनालाल बजाज की सुझबुझ व कूटनीति ने शेखावाटीव जयपुर के बीच होने वाले इस भयंकर युद्धपात से बचा लिया|

इन उदाहरणों के अलावा राजस्थान के पूर्व राज्यों के इतिहास में आपको कई ऐसे सफल सेनापतियों के बारे में पढने को मिलेगा जो बनिए थे और उन्होंने अपना परम्परागत व्यापार छोड़ सैन्य सेवा में अपनी वीरता व शौर्य का लोहा मनवाया| ज्ञान दर्पण पर जल्द ही आपको ऐसे शौर्य पुरुषों का परिचय भी पढने को मिलेगा|

जब खुद की कोहनी पर चोट लगे

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किसी भी व्यक्ति को दर्द का अहसास तभी होता है जब उसकी खुद की कोहनी पर चोट लगती है, मतलब जो दर्द दूसरा सह रहा है वह उसे सहना पड़े तभी उसे अहसास होता है कि दर्द क्या होता ? हमारे देश में ही देख लीजिये- देश के विभिन्न हिस्सों में लाल किताब पढ़ क्रांति कर सत्ता हथियाने का ख़्वाब देखने वाले नक्सली आधुनिक हथियारों से लेश हो खुलेआम हिंसा का तांडव करते है जो उनके हिसाब से क्रांति के लिए जायज है| उनके ही क्यों किसी भी सत्ता पाने वाले की लालसा रखने वाले की नजर हिंसा जायज ही होती है पर जब यही हिंसक नक्सली सुरक्षा बलों की प्रतिहिंसा का शिकार होते है तो इनके समर्थकों को वही मानवाधिकार याद आते है जिनका खुला उलंघन ये नित्यप्रति करते है| कहने का मतलब जब ये खुद शिकार होते है तब इन्हें हिंसा का दर्द महसूस होता है पर खुद की हिंसा में जो लोगों को दर्द देते है वह नजर नहीं आता|

बंगाल में वामदल के काडर ने सत्ता पर पकड़ बनाये रखने के लिए वर्षों हिंसा व उत्पीड़न का सहारा लिया उनकी हिंसा के शिकार लोगों का दर्द किसी मानवाधिकारवादी व अपने आपको सेकुलर कहते थकते नहीं लोगों ने महसूस नहीं किया पर आज जब वही वामपंथी काडर तृणमूल कार्यकर्ताओं की प्रतिहिंसा का शिकार बन रहें है तो उन्हें दर्द महसूस हो रहा है वे इस प्रतिहिंसा से तिलमिला रहें है|

अब फांसी की सजा पाये भुल्लर को ही ले लीजिये- बम फोड़ते वक्त उसमें मारे जाने वालों के परिजनों को क्या दर्द होगा इस आतंकी ने महसूस नहीं किया पर अब जब अपनी गर्दन फांसी में फंदे में फंसती नजर आ रही है तब उससे होने वाले दर्द के अहसास से कांप रहा है|

पंजाब में खालिस्तान आन्दोलन आतंक के समय खालिस्तानी आतंकियों ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा पर न तो उन्हें दर्द हुआ न उन सिखों को दर्द हुआ जो आतंकियों को खालिस्तान की चाहत में समर्थन व शरण देते थे| पर जब उसी आतंकी विचारधारा की करतूत से सिख सुरक्षा प्रहरियों ने इंदिरा गाँधी की हत्या की और बदले में दिल्ली में कांग्रेसियों ने जो सिख नरसंहार किया उसका दर्द दुनियां में बैठे हर उस सिख ने महसूस किया जिन्होंने पंजाब में खालिस्तानी आतंकियों के हाथों हुई हिन्दुओं की हत्याओं पर शायद ही दुःख हुआ हो| हाँ जब इन्हीं आतंकियों ने सिखों की इज्जत पर खेलना शुरू किया तो तब उन्हीं लोगों को दर्द का अहसास हुआ जो लोग पहले आतंकियों को सुरक्षा बलों से बचाने के लिए शरण देते थे पर जब खुद को चोट लगने लगी तब जाकर शरण देना छोड़ पुलिस का साथ दिया और नतीजा आतंक पर काबू |

कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को आतंकियों ने मारना शुरू किया जिसकी वजह से पंडितों ने कश्मीर से पलायन किया उनका दर्द किसी कश्मीरी ने महसूस नहीं किया आज वे जगह जगह वर्षों से विस्थापित पड़े है पर कश्मीर की सरकार को उनका दर्द महसूस होना तो दूर सुना है उनके घर नीलाम करने की तैयारियां चल रही है पर एक अपने स्वधर्म आतंकी की फांसी पर कश्मीर के मुख्यमंत्री तक ने गहरा दर्द महसूस किया|

आजादी के बाद कांग्रेस के राज में अनगिनत हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए उनका दर्द कभी कांग्रेस ने महसूस नहीं किया न ही कभी अपनी प्रशासनिक विफलता मानी | हाँ चुनावों में एक दुसरे समुदाय का डर दिखाकर वोट बैंक की राजनीति खूब की| अपने राज में हुए दंगों का कभी इस पार्टी को अहसास नहीं हुआ क्योंकि दंगों में मारे जाने वाले ज्यादातर लोग कांग्रेस के वोट बैंक में शामिल नहीं थे| पर जिस गुजरात में अपने राज में १८० से ज्यादा हुए दंगों का दर्द महसूस नहीं करने वाली पार्टी को दुसरे के शासन में हुए एक दंगे का इतना दुःख है कि आजतक उसका प्रलाप जारी है|
कांग्रेस पार्टी ही क्यों गुजरात दंगों में मारे गए लोगों के दुःख से दुखी होने वाले लोगों को सिर्फ गोधरा में रेल में जले लोगों का दर्द नहीं उसके बाद मरे लोगों का दर्द है यही कारण है कि आजतक गुजरात दंगों का प्रलाप करने वाले कभी भी रेल के डिब्बे में जलाकर मारे गए लोगों की मौत पर नहीं बोलते| क्योंकि वे उनके अपने नहीं थे और दर्द तो तभी होता है जब किसी अपने को चोट पहुँचती है|

बात साफ़ है हमारे देश में हिंसा के प्रति भी सबका अपना अपना नजरिया है लोग उसी हिंसा को हिंसा समझते है जो अपनों के साथ होती है दूसरों के साथ हुई हिंसा उनकी नजर में हिंसा नहीं होती| जबकि हिंसा हिंसा ही है, किसी भी तरह व किसी भी पक्ष द्वारा की गयी हिंसा घृणित है मानवता के खिलाफ है जो सबको समान दर्द देकर जाती है बस महसूस करने की जरुरत है| पंजाब में मारे गए लोगों के परिजनों को भी उतना ही दर्द महसूस हुआ था जितना दिल्ली में हुए सिख नरसंहार में मरे लोगों के परिजनों को हुआ है|
कश्मीर में सुरक्षा बालों के हाथों मारे गए आतंकियों या भटके हुए नौजवानों की मौत का जितना दर्द उनके परिजनों को महसूस हो रहा है उतना ही दर्द उन विस्थापित या फिर आतंकियों के हाथों मारे गए कश्मीरी पंडितों को भी महसूस हो रहा है जिन्होंने आतंक की वजह से अपने घर बार छोड़ दिए|
गुजरात दंगों में मारे गए लोगों के परिजनों को जो दर्द मिला है उतना ही दर्द गोधरा में रेल डिब्बे में जलाये गए लोगों के परिजनों को भी मिला है|

जब तक हिंसा के शिकार लोगों के दर्द को हम समान रूप से नहीं महसूस करेंगे तब तक ये हिंसा चलती ही रहेगी| हम एक दुसरे की हिंसा को कोसते हुए दोषारोपण करते रहेंगे पर इसे रोकने की कोई कोशिश ईमानदारी से नहीं करेंगे| जो थोड़े बहुत लोग ऐसी कोशिश करेंगे भी तो उन्हें राजनीति के सौदागर अपने फायदे के लिए करने नहीं देंगे|

पर जिस दिन हम हिंसा के शिकार हुए लोगों के दर्द को बिना किस जांत-पांत व धार्मिक आधार पर समान रूप से महसूस करने लगेंगे उस दिन ये आपसी हिंसक घटनाएँ स्वत: रुक जायेगी|

क्या पारम्परिक परिधान रूढ़ीवाद व पिछड़ेपन की निशानी है ?

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पिछले दिनों फेसबुक पर अपने आपको एक पढ़ी-लिखी, आत्म निर्भर, नौकरी करने, अकेले रहने, आजाद, बिंदास व स्वछंद जिंदगी जीने वाली लड़की होने का दावा करने वाली एक लड़की ने लिखा- “पढाई के दिनों उसकी एक मुस्लिम लड़की सहपाठी थी वो पढने लिखने में होशियार, समझदार, आधुनिक विचारों वाली थी पर जब बुर्के की बात आती तो वह एकदम रुढ़िवादी हो जाती और बुर्के का कट्टरपन तक जाकर समर्थन करती|”

मुझे समझ नहीं आ रहा कि यदि वह शिक्षित मुस्लिम बालिका यदि बुर्के को अपना कर अपनी सांस्कृतिक पहचान बचाए रखना चाहती है तो इसमें किसी और को क्या और क्यों दिक्कत ? हाँ यदि कोई महिला अपनी पारम्परिक पौशाक अपनाना नहीं चाहती और उसे यदि कोई अपनाने के लिए कोई मजबूर करे तब उसका विरोध जायज है और करना भी चाहिये पर अपनी मर्जी से कोई अपनी सांस्कृतिक पहचान बचाने हेतु पारम्परिक परिधान धारण करना चाहे तो उसका विरोध क्यों ?

एक शिक्षित महिला चाहे वह किसी भी धर्म जाति की हो पारम्परिक पहनावा अपनाती है तो कुछ तो खास होगा उसके उस पारम्परिक पहनावे में| यदि उसमें कुछ खास ना भी हो और किसी को वह पहनावा अच्छा लगता हो तो यह उस महिला का व्यक्तिगत मामला है कि वह क्या अपनाना चाहती है ?

राजस्थान के राजपूत व राजपुरोहित समाज में आज भी महिलाएं अपनी सदियों से चली आ रही पारम्परिक पौशाकको बड़े चाव से पहनती है| यही नहीं राजस्थान की अन्य जातियों की शिक्षित महिलाएं भी इस पारम्परिक ड्रेस को बड़े चाव से अपना रही है और यह पारम्परिक ड्रेस आज बाजार में आधुनिक फैशन पर भारी पड़ती है|

तो क्या ये शिक्षित महिलाएं रुढ़िवादी है ? शिक्षित होने के बावजूद पारम्परिक पौशाक अपनाने के चलते है पिछड़ी है ? आप की या मेरी नजर में कदापि नहीं पर हाँ उपरोक्त कथित पढ़ी-लिखी, आत्मानिर्भर, नौकरी करने, अकेले रहने, आजाद, बिंदास स्वछन्द जिंदगी जीने वाली लड़की होने का दावा करने वाली लड़कियों की नजर में ये रुढ़िवादी या पिछड़ी हुई ही है!!

क्योंकि इनकी नजर में शायद पाश्चात्य परिधान अपनाते हुए अधनंगा बदन दिखाते हुए घूमना आधुनिकता की निशानी है, शरीर पर छोटे छोटे परिधान पहन देह प्रदर्शन करते हुए सार्वजनिक स्थानों पर अपने पुरुष मित्रों के साथ अश्लील हरकतें करना ही आधुनिकता का पैमाना है और शिक्षित होने बावजूद अपनी संस्कृति को बचाए रखने, अपनी अच्छी परम्पराओं को बचाये रखने वाली लड़कियां व महिलाएं रुढ़िवादी है, पिछड़ी हुई है|

काश अपने आपको आधुनिक कहने वाले कथित लोग लोगों के परिधान देखकर उनके प्रति कोई धारणा बनाये जाने की जगह व्यक्ति की सोच, समझ, ज्ञान देख समझकर अपनी धारणा बनाये| मुझे अपनी पारम्परिक पौशाक धोती कुर्ता व पगड़ी पसंद है और कई मौकों पर मैं इसे अपनाता भी हूँ तो क्या उस दिन इन्हें पहनने के बाद मेरा अब तक अर्जित ज्ञान कम या ख़त्म हो जायेगा ? क्या उस दिन मेरी सोच बदल कर रुढ़िवादी हो जायेगी ?

भाग्य में लिखा वो मिला

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“भाग्य में लिखा छप्पर फाड़ कर मिलता है” पूर्वजों की बनाई यह कहावत एकदम सटीक है ऐसे कई उदाहरण देखने, पढने को मिल जाते है कि जिसके भाग्य में राजा बनना लिखा था तो वह किसी राजा की रानी के गर्भ से पैदा नहीं होने के बावजूद भी राजा बना| जोधपुर के राजा मानसिंहहालाँकि जोधपुर राजपरिवार में पैदा हुए पर उनके पिता का जोधपुर राज्य के राजा के छोटे पुत्र होने के कारण गद्दी पर उनका अधिकार कतई नहीं रहा| जब पिता के ही हक़ में राजगद्दी नहीं थी तब मानसिंह के अधिकार की तो बात ही दूर थी|

उस वक्त जोधपुर की राजगद्दी पर भीम सिंह विराजमान थे जो मानसिंह के बड़े भाई ( उनके पिता के बड़े भाई का पुत्र) थे| मानसिंह जालौर के किले में थे पर पारिवारिक कलह और पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह के षड्यंत्रों के चलते भीमसिंह ने मानसिंह को जालौर किले से बेदखल करने हेतु अपने प्रधान सेनापति इंद्रराज सिंघवी के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेज जालौर किले को घेर रखा था|

वर्षो से जोधपुर की सेना से घिरे रहने के चलते मानसिंह आर्थिक तौर पर तंगहाली में गुजर रहे थे, धनाभाव के चलते किले में सुरक्षा के लिए गोलाबारूद तो छोड़िये खाने के लिए अन्न की भी भयंकर कमी पड़ जाया करती थी| ऐसी हालत में हर बार मानसिंह के मित्र कवि जुगतीदान बारहट, बणसूरी दुश्मन सेना के मध्य से छद्मवेश में निकलकर अर्थ की व्यवस्था करते थे| एक बार तो जब बारहट जी के धन की व्यवस्था के लिए सभी रास्ते बंद हो गये तब कवि जुगतीदान बारहट ने अपनी पुत्रवधू के गहने चुपके से निकाल बेचकर राजा मानसिंह की आर्थिक सहायता की| जिसे मानसिंह कभी नहीं भूले|

उस दिन वर्षों के सैनिक घेरे के चलते किले में धन व खाद्य सामग्री का अभाव पड़ गया था, किले में मौजूद हर व्यक्ति चार पांच दिन बाद खाद्य सामग्री के ख़त्म होने के बाद भूखे रहने वाली परिस्थिति भांप कर व्याकुल था| मानसिंहको भी अब धन की व्यवस्था करने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, सभी परिस्थियों पर गहन चिंतन मनन करने के बाद मानसिंह ने मन ही मन अपने बड़े भाई जोधपुर के राजा भीमसिंह के सेनापति के आगे आत्मसमर्पण करने का निर्णय कर अपने साथियों से विचार विमर्श किया|

उनके साथी भी ऐसी विकट परिस्थिति में आत्म समर्पण करने के ही पक्ष में थे आखिर आत्म समर्पण भी बड़े भाई की सेना के सामने ही करना था अत: स्वाभिमान आहत होने वाली बात भी इतनी बड़ी नहीं थी| कोई सेना होती तो आत्म समर्पण करना कुल परम्परा के खिलाफ होता, स्वाभिमान आहत होता| पर यहाँ तो अपने ही बड़े भाई की सेना के आगे समर्पण करना था| फिर भी वहां मौजूद नाथ सम्प्रदाय के एक साधू देवनाथ आत्म समर्पण के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने मानसिंह को आत्म समपर्ण करने के लिए चार दिन इन्तजार करने का कहते हुए आश्वस्त किया कि आने वाले चार दिनों में परिस्थितियां आपके अनुकूल होगी| एक साधू के वचन पर भरोसा कर मानसिंह ने आत्म समर्पण करने के लिए चार दिन इन्तजार करने का निश्चय किया| चार दिन बाद अचानक ऐसी परिस्थियाँ बदली कि- जो मानसिंह वर्षों से जालौर किले को येनकेन प्रकारेण बचाने को जूझ रहा था उसे जोधपुर राज्य के राजा बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया|

उन्हीं चार दिन बाद जोधपुर सेनापति ने जालौर किले में उपस्थित होकर मानसिंहको जोधपुर नरेश भीमसिंह की मृत्यु का समाचार सुनाते हुए अनुरोध किया कि भीम सिंह के बाद आप ही राज्य के उत्तराधिकारी है अत: जोधपुर चलिए और राजगद्दी पर बैठिये|

चूँकि राजा भीमसिंह के कोई संतान नहीं थी और आपकी गृह कलह में जोधपुर राजपरिवार के लगभग सदस्य मारे जा चुके थे अत: जीवित बचे सदस्यों में मानसिंह ही जोधपुर की राजगद्दी के हक़दार बन गए| एक दिन पहले तक जिस बड़े भाई की सेना से दुश्मन सेना की भांति टक्कर ले रहे थे वही मानसिंह महाराजा भीमसिंह की मृत्यु का शोक मना छोटा भाई होने का कर्तव्य निभा रहे थे|

जो सेना मानसिंह के खून की प्यासी थी जिसे मानसिंह के वध के लिए वर्षों से जालौर किले की घेराबद्नी के लिए तैनात किया गया था भाग्य का खेल देखिये कि उसी सेना का सेनापति इंद्रराज सिंघवी जालौर किले में मानसिंह से जोधपुर चलकर राजगद्दी पर बैठने का आग्रह कर रहा था और मानसिंह उसे कह रहे थे- “मैं तुझ पर कैसे भरोसा करूँ ?” और कल तक मानसिंह के खून का प्यासा वही जोधपुर का सेनापति उस दिन मानसिंहको सुरक्षा देने के वचन निभाने का भरोसा दिलाने के लिए कसमें खा रहा था|

आखिर सेनापति ने मानसिंहके कहे अनुसार जोधपुर के राज्य के कुछ प्रभावशाली सामंतों को बुलाया और उनके द्वारा सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करने व उनका समर्थन मिलने के बाद मानसिंह ने जोधपुर आकर राज्य की गद्दी संभाली व चालीस वर्ष तक राज्य किया|

जो व्यक्ति जोधपुर जैसे राज्य के ख़्वाब देखना तो दूर अपनी छोटी सी रियासत व जालौर किले को अपने नियंत्रण में रखने को जूझ रहा था उसका भाग्य देखिये कि उसका वह किला तो बचा ही साथ ही परिस्थितियों द्वारा ली गयी करवट ने उसे जोधपुर राज्य का महाराजा बना दिया|

जय भ्रष्टाचार बनेगा गरीबी मिटाने का औजार

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बेशक देश के नागरिक भ्रष्टाचार से त्रस्त है आये दिन किसी न किसी के नेतृत्व में देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए आन्दोलन करते रहते है पर यदि देश के नेताओं, अफसरों व आम नागरिक का आचरण देखें तो लगता है जैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले आन्दोलन तो महज एन्जॉय करने के लिए है असल में तो सब भ्रष्टाचार को अपनाते हुए अपनी तरक्की करने में लगे| नेता, अभिनेता, सरकारी अफसर, खिलाड़ी, कर्मचारी, निजी संस्थानों के कर्मचारी सब ने एक ही लक्ष्य बना रखा है अपने आपको विकसित करना है तो भ्रष्टाचार का सहारा लो और फिर भ्रष्टाचार को ही कोसते हुए आगे बढ़ते रहो ताकि किसी की नजर भी ना लगे| इन सबके पास भ्रष्टाचार कर आगे बढ़ने की असीम संभावनाएं है पर बेचारे आम नागरिक के पास ऐसी संभावनाएं नहीं थी तो सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वो अपना विकास कर इन भ्रष्टाचारियों के साथ कदम ताल मिलाकर कैसे चले ?

पर आजकल सरकार द्वारा जन-कल्याण के नाम पर चलाई गई विभिन्न योजनाओं में आम नागरिक द्वारा भ्रष्टाचार करने की गुंजाईस व उन्हें लिप्त देखता हूँ तो सोचता हूँ –“कहीं सरकार ने आम व गरीब आदमी का विकास करने के लिए उसे भी भ्रष्टाचार कर विकसित होने का मौका देने के लिए तो इन योजनाओं का शुभारम्भ नहीं कर रखा ?”

वैसे भी इस देश के बुद्दिजीवी पिछड़ों द्वारा भ्रष्टाचार अपना कर अपना विकास करते हुए आगे बढ़ने को अच्छा संकेत मान रहे है जैसे- अभी कुछ माह पहले ही जयपुर में आयोजित एक मेले में एक बुद्दिजीवी जो दलितों के खिलाफ एक बयान में फंस गए थे ने सफाई देते हुए कहाँ कि- दलित भी भ्रष्टाचार अपना कर आगे बढ़ रहे है इसकी प्रसंशा होनी चाहिए|” हो सकता सरकार ने ऐसे ही बुद्दिजीवियों की बातें सून आम नागरिक को भी भ्रष्टाचार कर आगे बढ़ने का मौका दे रही हो|

अब देखिये ना गरीबों के लिए मनरेगा नाम की योजना बनाई है जिसमें नेता, अफसर, कर्मचारी के साथ मिलकर मुफ्त दिहाड़ी लेकर आम गरीब आदमी भी भ्रष्टाचार कर सकता है| ऐसे ही गावों में बहुत सी योजनाएं आती है जैसे अकाल राहत, बायोगैस संयंत्र, काम के बदले अनाज योजना से निर्माण, कच्चे रास्ते, प्याज रखने के लिए सब्सिडी वाले शेड, कृषि ऋण, फसल बीमा आदि आदि योजनाओं की बहुत लम्बी सूची है जो आम आदमी को भी भ्रष्टाचार करने की असीम संभावनाएं उपलब्ध करा रही है जिनके माध्यम से आम आदमी भ्रष्टाचार अपनाकर अपना विकास करने में लगा|

मुझे तो लगता है आने वर्षों में सरकारें देश से गरीबी भागने के लिए भ्रष्टाचार को औजार के रूप में इस्तेमाल करेगी| चुनावी घोषणा पत्रों में साफ़ लिखा होगा कि हम आम आदमी के लिए भ्रष्टाचार करने हेतु दरवाजे खोलने के लिए फलां फलां योजनायें लायेंगे| तब देश का हर नागरिक भ्रष्टाचार में डूब अपना विकास करने में लगा होगा| घरों में सुबह शाम आरतियाँ भी गूंजा करेगी- “जय भ्रष्टाचार देवा....|” देश का हर नागरिक भ्रष्टाचार के बूते आगे बढ़ चूका होगा, गरीबी भ्रष्टाचार के फैलते ही भाग खड़ी होगी| इसका सबूत भी दिखता है जिस नेता, अफसर ने भ्रष्टाचार अपनाया गरीबी उनसे कोसों दूर भाग खड़ी हुई और तो और आज देश की सबसे बड़ी भ्रष्टाचार रूपी समस्या खुद ही चुटकी में ख़त्म हो जायेगी क्योंकि तब हर नागरिक भ्रष्ट होगा, जब खुद भ्रष्ट होगा तो किसी पर अंगुली भी ना उठायेगा|
यदि कहीं थोड़े बहुत ईमानदार बच गए तो उनके खिलाफ आन्दोलन चलेंगे कि हमारे विकास में टांग अड़ा रहें है इनका तबादला किया जाय| ईमानदारों पर आरोप लगेंगे कि ये भ्रष्टाचार के बीच बाधा बनकर विकास के आड़े आ रहे है, हो सकता है आज भ्रष्ट शब्द को गाली समझने वाले तब किसी को हरिशचंद्र कहने पर वह इस शब्द को गाली मानकर बुरा मान जाय|

शेखावाटी की भागीरथी - काटली नदी

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काटली नदी राजस्थान के सीकर ज़िले के खंडेला की पहाड़ियों से निकलती है। यह एक मौसमी नदी है और तोरावाटी उच्च भूमि पर प्रवाहित होती है। नदी उत्तर में सीकर व झुंझुनू में लगभग 100 किलोमीटर बहने के उपरांत चुरू ज़िले की सीमा के निकट अदृश्य हो जाती है।

विगत १७-१८ सालों में जिस प्रकार से बारिश का पैमाना साल दर साल कम होता गया है। वर्षा से पूरित जल श्रोत धीरे - धीरे सूखने लग गए। हर साल बारिश तो होती है, परन्तु कुछ समय में रुक जाती है। जिससे धरती की गहराईयों में स्तिथ जल शिराओं तक जलराशी नहीं पहुँच पाती है| परिणाम स्वरुप भूमि के द्वारा उस जल का तुरंत अवशोषण कर लिया जाता है व् वाष्प बनकर उड़ जाता है।

शेखावाटी क्षेत्र की परमुख बरसाती नदी काटली इस क्षेत्र की भागीरथी है। अरावली पर्वत श्रंखलाओं की गोद से जन्म लेने के बाद विभिन्न गांवों से निकली नालियों, छोटे छोटे नालों व पठारों से निकली जल की कुपिकाओं को अपने आप में समाहित करती हुई आगे बढती है। किसी समय में यह पुरे वेग के साथ उफनती हुई घुमावदार बलखाती हुई बहती थी। लगभग आधा किलोमीटर चौड़ाई का क्षेत्र इसके आगोश में होता था। अपने चिरपरिचित मार्ग से यह जब निकलती थी तो तटवर्ती गांवों का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। सीमावर्ती गाँवों का संपर्क टूट जाता था। कुछ सधे हुई तैराक नदी के तट पर सहायता के लिए उपलब्द रहते थे।

गांवों का जनसमूह तटों पर मानो इसके स्वागत के लिए जमा हो जाया करते था। उस दौरान इस क्षेत्र का मिठा पानी का स्तर स्वतः ही बढ़ जाया करता था ।तैराकी के शौकीनों के लिए इसके बहाव के ख़त्म हो जाने के बाद बने छोटे -छोटे तालाब तैराकी सिखने का जरिया होते थे। जहाँ वो अपनी जिजीविषा को शांत करते थे।

इस नदी के शबाब पर होने के दौरान आवागमन पूरी तरह से ठहर जाता था। कई -कई बार तो २-३ दिन तक पानी का वेग नहीं रुकता था। ऐसे में कॉपर प्रोजेक्ट के द्वारा ३५ -४० साल पहले चंवरा-कैंप के पास दोनों मुहानों को जोड़ने के लिए रपटे(सीमेंट की रोड ) का निर्माण करवाया गया। ये रपटा मजबूत कंकरीट पत्थर लोहे व् सीमेंट के योग से बना है। जिससे यह आज भी पत्थर की मानिंद वैसे ही डटा हुआ है।

परन्तु अब न तो वह बारिश की झड़ी लगती है और न ही ये नदी मचलती हुई आती है। इन १७-१८ सालों में जन्म लेने वालों के लिए तो यह मात्र काल्पनिक कहानी बनकर रह गयी है। आज सुदूर तक इस नदी के पाट व् बीच के क्षेत्र में कुचे व् आक के पौधे खड़े हुए निरंतर इसके आगमन के लिए प्रतीक्षारत है। वहीँ दूसरी और मनुष्यों ने नदी के बहाव क्षेत्र में आवासीय निर्माण कार्य कर के इसके भविष्य में नहीं आने के प्रति पूरी तरह से आस्वश्थता जता दी है ।कई जगह छोटे छोटे बांध भी बना दिए गए है। काटली नदी के बहाव क्षेत्र में गुहाला (झुंझुनू) के समीप चिनाई में प्रयुक्त होने वाली उत्तम किस्म की बजरी (रेत) होती है ।जहाँ से सुदूर स्थानों पर इसका परिवहन होता है ।

क्या फिर से काटली नदी कभी आ पायेगी ? इसका उत्तर प्रकृति के स्वरुप में छिपा हुआ है ।

उसने छोड़ दिया आना -जाना
मानों कह रही हो मानव से
तूनें अच्छा सिला दिया मेरे दुलार का
तुमने हमेशा देखा अपना हित
और की मेरी अनदेखी
बस अब बहुत हो चूका
अब और नहीं सह पाऊँगी

पहले वह थमी
फिर कुम्हलाई एक बेल की तरह
फिर बन गई सूखती हुई लकीर
और आज रह गयी दूर- दूर तक सिर्फ रेत............>>
लेखक : गजेन्द्र सिंह शेखावत



katli river of shekhawati, shekhawati's river, katli nadi, katli nadi of shekhawati, katli nadi of jhunjhunu sikar churu

धीरे धीरे व्यवस्थित हो रहा है ओम बना धाम

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२५ अप्रेल १३ : शाम के चार बज रहे थे जोधपुर के कुड़ी भगतासनी हाऊसिंग बोर्ड कालोनी में किरायेदार से अपने खाली मकान की चाबियाँ लेने के बाद वापस शहर आना था, श्रीमती जी का स्वास्थ्य भी इतना ख़राब था कि वे भी बाइक पर सवारी करने की स्थिति में नहीं थी कि अचानक मेरे मन में वहां से ६० किलोमीटर दूर पाली जोधपुर हाईवे पर स्थित ओम बना (जहाँ उनकी बाइक बूलेट की पूजा होती है) स्थलजाने की इच्छा हुई| श्रीमती जी को बताने पर वह स्वास्थ्य ख़राब होने के बावजूद सहर्ष चलने को तैयार हो गयी साथ ही उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि कभी किसी मंदिर में मत्था ना टेकने वाला, कभी पूजा पाठ न करने वाला व्यक्ति अचानक वहां चलने की बात क्यों कर रहा है खैर..उन्होंने ये प्रश्न पूछने के बजाय इस मौके का फायदा उठाना ही ज्यादा उचित समझा|

दरअसल मेरे द्वारा पंडावाद, कर्म-कांड, ढोंगी बाबा, साधुओं, पंडितों की आलोचना व इन्हीं ढोंगियों द्वारा लिखी गई धार्मिक पुस्तकों (वेदों के अलावा) की आलोचना के चलते मुझे मेरे नजदीकी मित्र व पारिवारिक सदस्य नास्तिक समझते है और इन्हीं सब कारणों के चलते श्रीमती जी को ओम बना धाम पर चलने का सुन आश्चर्य होना लाजिमी था|

करीब ४५ मिनट में हम बाइक की सवारी आराम से करते हुए ओम बना धाम पहुंचे इस बार वहां का दृश्य पूरी तरह से बदला हुआ था, सड़क के पास बना ओम बनाका चबूतरा जहाँ २४ घंटे उनकी फोटो व प्रतिमा के आगे हवन चलता रहता था वह चबूतरा ही गायब था उसकी जगह पेड़ के नीचे एक बोर्ड लगा था कि ओम बना का स्थान यहाँ से पास ही स्थान्तरित कर दिया गया अत: पूजा पाठ के इच्छुक भक्तगण वहां पधारें, यही नहीं चबूतरे के पीछे प्रसाद की दुकानों की लगी लाइन भी गायब थी उनकी जगह वहां पेड़ों के नीचे बैठने की व पार्किंग की सुविधाएँ बनी नजर आ रही थी और एक होम गार्ड का सिपाही वाहनों को सही पार्किंग करवाता दिखाई दे रहा था| पूर्व में ओम बना का स्थान सड़क के किनारे सटा होने के चलते वाहनों की आवाजाही में अड़चन होती थी सो उसे वहां से स्थान्तरित कर व्यवस्थापकों ने बहुत अच्छा कार्य किया इससे उधर से गुजर रहे वाहनों को जाम नहीं लगने से निजात तो मिलेगी ही साथ ही सड़क से दूर होने पर भक्तगणों के भी किसी वाहन की चपेट में आने का खतरा टल गया साथ ही सुविधाओं के लिए जगह भी निकल आई|

हमने भी बाइक एक पेड़ की छायां में पार्क कर इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सामने ओम बना का नया चबूतरा नजर आया जिस पर उनकी एक बड़ी फोटो व कुछ प्रतिमाएं लगी थी, व उनके सामने पहले की ही तरह ज्योति जल रही थी व हाथ जोड़े लोगों की भीड़ मन्नत मांगते नजर आ रही थी, सड़क के दूसरी और जहाँ पहले से ही एक होटल था के साथ ही प्रसाद आदि की दुकानें स्थान्तरित की हुई नजर आई, पार्किंग स्थल में जगह जगह पीने के पानी के लिए ओम बना के भक्तों द्वारा कोई दस के लगभग वाटर कूलर भी लाइन से लगे दिख रहे थे जिन पर भक्तगण अपनी प्यास बुझाते नजर आये पर पास जाने के बाद पता चला कि किसी भी वाटर कूलर्स में बिजली का कनेक्शन नहीं है शायद अभी वहां बिजली की कोई समस्या हो, हालाँकि कुछ वाटर कूलर्स पर सोलर पैनल जरुर नजर आये| पीने की पानी की ऐसी बढ़िया सुविधा धार्मिक स्थलों पर कम ही जगह उपलब्ध होती है| कुल मिलाकर यात्रियों के लिए पार्किंग, बैठने व पीने के पानी की मूलभूत सुविधाएँ देख मन हर्षित हुआ क्योंकि ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर यात्रियों को लुटने पर ज्यादा ध्यान व सुविधाओं पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है|

सामने की होटल के पास बनी प्रसाद की दुकानों से प्रसाद लेकर श्रीमती जी के साथ ओम बना के चबूतरे के पास पहुंचे तो देखा रास्ते में एक व्यक्ति राजस्थानी पगड़ी पहने हाथ में थाली लिए आगुन्तकों के तिलक लगाने में लगा था उसकी थाली में रखे दस दस के नोटों का ढेर देखकर हम समझ गए कि ये जनाब भी लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करने अपनी दूकान लगाये खड़े है वह हमें भी लपेटने के चक्कर था पर वह हमें देखकर ही ताड़ गया कि हम उसके चक्कर में आने वाले नहीं|

श्रीमती जी ओम बना की बाइकजो चबूतरे के पीछे शीशे के फ्रेम में रखी थी पर माल्यार्पण कर हाथ जोड़ अपने आपको धन्य समझ रही थी और हम अपने केमरे में उनके ये यादगार क्षण संजोने में तन्मयता से लगे थे| बाइक की पूजा अर्चना कर श्रीमती जी ओम बनाके चबूतरे के चारों और परिक्रमा कर रही भीड़ में शामिल हो गयी साथ ही फोटोग्राफी के लिए उनके पीछे पीछे चलते हमारी भी ओम बना की परिक्रमा पूरी हुई| परिक्रमा कर रही भीड़ में कई नए जोड़े भी हाथों में गठ्जोड़े पकडे परिक्रमा करते व मन्नत मांगते नजर आये|

वापसी में पार्किंग में लगी बैंच पर बैठ सड़क पर आते जाते वाहनों पर नजर डाली तो देखा हर वाहन चालक वहां वाहन धीरे कर ओम बना को प्रणाम करता हुआ अपने गंतव्य की और बढ़ रहा था तो बस चालक पार्किंग में बस खड़ी कर यात्रियों को ओम बना के दर्शन लाभ देने का अवसर देकर अपने आपको धन्य मानते दिखाई दे रहे थे|

हमने अपनी बाइक उठाई और वापस चल दिए जोधपुर की और पर बाइक का स्टेंड ऊँचा कर नियत स्थान पर करना भूल गए पीछे से आ रहे एक छोटे ट्रक वाले ने हमें ओवर टेक करते हुए खिड़की से झांककर ऊँची आवाज में बाइक का स्टेंड ठीक करने की सलाह दी| श्रीमती को उस ट्रक वाले में ओम बना की छवि नजर आई बोली- देखा ना ओम बनाने इस ट्रक वाले के रूप में आकर आपको स्टेंड ठीक करने की चेतावनी देकर आपको इसकी वजह से होने वाली संभावित दुर्घटना से बचा लिया|

ख़राब स्वस्थ्य की वजह से बाइक पर दस किलोमीटर के सफ़र में ही थक चुकी श्रीमती जी ओम बनाकी आस्था के सैलाब में बाइक पर १३० किलोमीटर की यात्रा पूरी करने में ऐसे सफल रही मानों वे एकदम स्वस्थ हो !!




नोट : अगली जोधपुर यात्रा के बाद ओम बनाके एक ऐसे भक्त से परिचय कराया जायेगा जो किसी मामले में अरब देश में गिरफ्तार हुआ, उसके हिसाब से उसके बचने के कोई चांस नहीं थे आखिर उसने ओम बना को याद किया और दो दिन बाद वह अप्रत्याशित तरीके से बरी हो भारत आ गया| जोधपुर में अतिक्रमण हटाने वाला दस्ता अतिक्रमण हटा रहा था उसके आगे लगी सभी थड़ीयां हटाई जा चुकी थी अब उसी की हटाने की बारी थी वह कहता है मैं ओम बनाको याद कर रहा था कि उसकी रोजी रोटी बचा ले, तोड़ फोड़ दस्ता उसकी थड़ी तक आया ही था कि जोधपुर की एक विधायिका सूर्यकांता व्यास मौके पर विरोध करने आ गयी और उसकी एक मात्र थड़ी बच गई| इसे कोई आस्था की शक्ति कहे या कुछ और पर वह व्यक्ति इन सब के लिए ओम बना का आभारी है|

बेचारा बाप

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रामलाल सरकारी विभाग में बाबू है अपने विभाग में ही नहीं जिस मुहल्ले में रहते है वहां भी लोग उनकी भलमनसाहित के कायल है, उनके सम्पर्क में रहने वाले किसी भी व्यक्ति से उनकी किसी भी बात पर आलोचना सुनने को आज तक नहीं मिली|

अपनी सरकारी नौकरी के वेतन से उन्होंने अपने दो बेटों व दो बेटियों को अच्छी शिक्षा देने में अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी| बड़ा बेटा पढ़ लिखकर जहाँ भारतीय वायुसेना में भर्ती होने में कामयाब रहा वहीँ छोटा भी आजकल एक निजी इंजीनियरिंग कालेज में प्रोफ़ेसर बन गया| बड़े बेटे व बड़ी बेटी की शादी रामलाल ने अपने सीमित आर्थिक साधनों से कर दी| छोटी बेटी की शादी के समय बड़ा बेटा वायुसेना में भर्ती हो कमाने लगा तो उसके साथ से शादी में रामलाल को ज्यादा तकलीफ नहीं आई| वर्षों सरकारी आवास में रहने के बाद अपने शहर में रामलाल ने एक छोटा सा अपने रहने लायक घर भी ले लिया था अत: उसे रिटायर्मेंट के बाद रहने की चिंता भी नहीं रही|

दोनों बेटियों की शादी हो गयी दोनों बेटों की अच्छी नौकरी लग गयी साथ ही दोनों बेटे एकदम लायक, माँ बाप की इज्जत तो करते ही पड़ौसियों में भी उनके व्यवहार की अक्सर अच्छी बातें चलती है| जिन्हें सून बाबू रामलाल की धर्म-पत्नी खुश होती है आखिर यह सब बच्चों को उसके द्वारा दिए गए संस्कारों का नतीजा जो है|

बाबू रामलाल के पास ही एक घर है जिसके मालिक तबादला होने के चलते दुसरे शहर में चले गये, उनके घर को किराये पर देना, किराया वसूलकर मालिक तक पहुँचाना व उस घर की देखभाल बाबू रामलाल ही एक अच्छे पड़ौसी होने के नाते करते थे| बाबू रामलाल के बड़े बेटे की इच्छा थी कि यह घर जब भी बिके तो वह ही उसे ख़रीदे ताकि माँ-बाप के पास रह सके| मकान मालिक की भी यही चाहत थी कि जब भी वे मकान बेचेंगे बाबू रामलाल के बेटे को ही बेचेंगे आखिर उनके मकान की देखभाल का जिम्मा भी तो बाबू रामलाल व उनकी धर्म-पत्नी मुफ्त में उठाते थे|

इस तरह कोई दस वर्ष बीत गये और आखिर एक दिन पड़ौसी मकान बिकने का समय आ गया| पड़ौसी ने बाबू रामलाल को कह दिया कि अब उसे अपना घर बेचना है आप बाजार भाव पता कर लीजिये और आपके बेटे के लिए बाजार भाव से पचास हजार रूपये कम दे दीजिये|

बाबू जी भी इस बात से खुश थे, पड़ौसी की भी दिली इच्छा थी कि वह घर बाबू रामलाल के बेटे को बेचे भले उसे कीमत मिलने में समय भी लगे, बेटे को कोई ऋण आदि भी लेने में समय लगे तो भी कोई बात नहीं| जब व्यवस्था हो जाये तब भी चलेगा| बाबू रामलाल ने अपने बेटे से बात की, बेटा भी खुश था कि जिस घर को खरीदने का वर्षों से सपना संजोये बैठा था वह अब पूरा हो जायेगा, पर उसकी आधुनिक पत्नी ने वह घर किसी भी कीमत पर लेने से मना कर दिया कहने लगी- “मुझे आपके माँ-बाप के पास किसी घर में नहीं रहना|”

जब यह बात बाबू रामलाल और उनकी धर्म-पत्नी को पता चली तो वे बड़े निराश हुये हालाँकि ख़रीदे जाने वाले घर से उनको कोई सिर्फ यही एक मतलब था कि उनके बच्चे बुढापे में उनके नजदीक रहेंगे| आधुनिक बहू की जिद के आगे हथियार डालते हुए दोनों बाप-बेटे ने निराश होकर पड़ौसी को फोन पर कहा –“आप घर किसी और को बेच दीजिये|”

घर बिक गया, पड़ौसी को समझ नहीं आया कि- जिस घर को लेने बाप-बेटे वर्षों से सपना संजोये बेटे थे एकदम कैसे छोड़ दिया ?” कुछ दिन जब पड़ौसी का बाबू रामलाल की पत्नी से मिला तब उसनें बड़े दुखी मन से घर न खरीद पाने का कारण बताते हुए पड़ौसी से प्रश्न किया-

“हमने तो शादी के बाद से ही बहू को बेटे के साथ भेज दिया, कभी सास-ससुर वाला रिश्ता भी ना रखा, हमारे लिए तो वह घर की तीसरी बेटी थी, उसे भविष्य में हमारे पडौस में रहने में क्या दिक्कत हो सकती थी ?

“बाबू जी की अपनी तनखा आती है फिर पैंशन आती रहेगी, हमें तो बेटों से कभी खर्च लेने की भी जरुरत नहीं पड़ेगी फिर बहू को किस बात की तकलीफ हो सकती थी ?

माँ-बाप बेटों को पालतें है, पढ़ाते है, उनकी शादी करते है क्या इसीलिए कि एक दिन बहू आयेगी और माँ-बाप का बेटे पर जो हक़ होता है वह छीन लेगी ?

ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न उसने पड़ौसी से कर डाले| बेचारा पड़ौसी भी क्या जबाब देता ?आधुनिक बहुएं है कुछ भी कर सकती है|

बाबू रामलाल ने तो बेटे को अच्छे से पढ़ाकर नौकरी भी लगवा दिया था जो न पढ़ पाये उनके माँ-बाप को कोसते कई ऐसी कई आधुनिक बहुएं अक्सर नजर आ जाती है (जिनके माँ-बाप कम दहेज़ के लालच में किसी कम पढ़े लिखे या बेरोजगार से शादी कर देते है) कि- माँ-बाप ने खुद ही मजे किये औलाद को किसी लायक नहीं बनाया|

क्या ये नव सामंतवाद नहीं ??

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हमारे देश में सदियों से राजतन्त्र प्रणाली शासन प्रणाली चलती रही धीरे धीरे इस प्रणाली में संघ राज्य की शक्तियाँ क्षीण होती गयी और नतीजा छोटे छोटे स्वतंत्र राज्यों ने जन्म ले लिया, कई सारे स्वतंत्र राज्य होने, उन पर कई वंशानुगत अयोग्य शासकों के आसीन होने के चलते हमारी शासन प्रणाली में कई तरह के विकार उत्पन्न हो गए जो बाहरी आक्रान्ताओं खासकर मुगलों के आने बाद बढ़ते ही गये| मुगलों के आने से पहले हमारे यहाँ के शासक आम जनता से किसी तरह की दुरी नहीं रखते थे पर मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद उनका अनुसरण करते हुए वे भी शानो-शौकत से रहने लगे, यहाँ के कई राजा मुगलों के सामंत बन गए तो अपना राज्य सुचारू रूप से चलाने को उन्होंने भी अपने अपने राज्यों में सामंतों की एक बड़ी श्रंखला पैदा कर दी|

ये सामंत ही राज्य संचालन में राजा व प्रजा के बीच की कड़ी बन गए, राजा भी शासन कार्यों व सैन्य सुरक्षा शक्ति आदि पर इन सामंतों पर आश्रित हो गये| मुगलों के शक्तिहीन होने व देश में अंग्रेजों के वर्चस्व बढ़ने के बाद इन राजाओं की स्थिति और भी दयनीय हो गयी उन्हें जहाँ शासन की नीतियों के लिए अंग्रेजों का मुंह ताकना पड़ता था वही प्रशासन चलाने व सुरक्षा आदि कार्यों के लिए सामंतों पर निर्भर रहना पड़ता था|

आजादी के आन्दोलन के समय जहाँ जहाँ अंग्रेजों का सीधा शासन नहीं होकर राजाओं के साथ संधियाँ थी वहां वहां (राजस्थान में) प्रजा को शासन में भागीदारी देने हेतु प्रजामंडल व प्रजा परिषदों का गठन हुआ, इन परिषदों में शामिल होने वाले लोग जो आजादी के बाद कथित स्वतंत्रता सेनानी कहलाये, उस समय वे चाहते थे कि राज्य की बागडौर उनके हाथों में आ जाये और जिम्मेदारी राजा की रहे मतलब आजादी नहीं सिर्फ शासन में उनकी भागीदारी चाहिये थी| इन प्रजामंडलों को शासन में भागीदारी मिलते ही इनका सीधा टकराव राज्य के सामंतों से हुआ जो अब तक उस व्यवस्था पर काबिज थे|

आजादी के बाद यही प्रजामंडलों वाली भीड़ कांग्रेस में घुस फर्जी स्वतंत्रता सेनानी बन गयी और कांग्रेस के नेतृत्व को झूंठी कहानियां घड़ सामंतों से दूर रखा साथ ही जनता में भी सामंतवाद को कोसते हुए, शोषण की कहानियां बना दुष्प्रचार कर बदनाम कर दिया कि आपके सबसे बड़े शोषक यही सामंत है|

आज वर्तमान किताबी ज्ञान हासिल की हुई पीढ़ी इन्हीं सामंतों को अत्याचारी, शोषक आदि मानती है जबकि वे बुजुर्ग जिन्होंने सामंतों को देखा, उनके सम्पर्क में रहे वे सामंतों की प्रशंसा करते नहीं थकते| हो सकता है कुछ सामंत दुराचारी रहे भी हों| खैर....हमारी शासन प्रणाली में आये विकारों व सामंतवाद को कोसते हुये लोकतंत्र में कई दलों ने वोट बैंक बनाये और वे सत्ता की सीढियाँ चढ़ते आगे बढ़े| आज किसी दल का ऐसा कोई नेता नहीं जो सामंतवाद को नहीं कोसता जबकि आज जब सामंतवाद प्रणाली का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा तो उन्हें कोसने की क्या आवश्यकता ?

लेकिन एक बात जरुर है हमारे राजनेता जो अक्सर सामंतवाद को पानी पी पीकर कोसते नहीं थकते, उन्होंने भी सत्ता मिलते ही एक नये सामंतवाद का उदय जरुर कर दिया| कितने ही ऐसे राजनैतिक घराने व बन गये जो अपनी अपनी पार्टियों के राजाओं की तरह ही दल के नेता का वारिश वंशानुगत तौर पर उस दल का वारिस होता है, दलों के क्षत्रप सामंत की पूरी भूमिका निभाते है और उनके चुनाव क्षेत्र भी दलों द्वारा वंशानुगत तौर पर आवंटित होने लगे है कुल मिलाकर एक नव सामंतवाद का प्रादुर्भाव हो चूका है| ये नए सामंत भी जनता का शोषण करने में कहीं पीछे नहीं है बल्कि इन वर्तमान सामंतों ने तो इस मामले में पूर्व सामंतों को ही पीछे छोड़ दिया है| बस फर्क यही है-

- पहले के सामंत राज्य को अपनी पैतृक सम्पत्ति मानकर उनकी रक्षा के लिए प्राणों की आहुतियाँ देने तक में पीछे नहीं रहते थे|
आज के सामंत राज्य की संपत्तियों को भ्रष्टाचार के माध्यम से लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कराने में लगे है इस डर से कि पता नहीं बाद में मौका मिले या नहीं|

- पहले के सामंतों को अपनी सामंती व अपना राज्य बचाने या पाने के लिए सिर कटवा कर अपना व अपने स्वजनों का बलिदान देना पड़ता था|
आज के सामंत को अपनी सामंती बचाने के लिए सिर कटवाने की कोई जरुरत नहीं सिर्फ सिर गिनवाने से ही काम चल जाता है|

- उस समय के सामंत अपनी प्रजा को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी समझते थे पर आज के सामंत जनता के सिर्फ उसी वर्ग को अपना समझते है जो उन्हें वोट देता है वे सिर्फ अपने वोट बैक वाले वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाते है|

- उस समय जनता पर कोई बुरा सामंत वंशानुगत तौर पर आसीन हो जाता था जो प्रजा का अपनी मनमर्जी शोषण कर सकता था पर आजकल जनता किसी बुरे व्यक्ति को जानते हुए भी जाति,धर्म,पार्टी लाइन आदि के वशीभूत खुद अपना शोषण करने व देश के संसाधनों को लूटकर स्विस बैंकों में जमा करने के लिए चुनकर नियुक्त कर देती है|

- उस समय का सामंत जीवन भर प्रजा के प्रति उतरदायी रहता था पर आज का सामंत कुछ वर्ष के लिए ही उतरदायी होता है चुनाव में हारने के बाद उसका उतरदायित्व किसी और के कंधे पर शिफ्ट हो जाता है|

- सामंती काल में भी किसी सामंत का राजा पक्ष लेता था उसी तरह आज भी किसी नव सामंत पर पार्टी आलाकमान का वरदहस्त होता है तो उसके भ्रष्टाचार व शोषण को जानते हुए भी जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती|

- सामंतवाद को कोसने वाली पार्टियों व नेताओं को आज भी सामंतवाद को कोसने के अलावा पूर्व सामंतों से कोई परहेज नहीं जहाँ जिस चुनाव क्षेत्र में पूर्व सामंतों के नाम से सीट जीती जा सकती है उस सीट पर हर राजनैतिक दल की पहली पसंद पूर्व सामंत परिवार के सदस्य ही होते है|

मजा तो कई बार तब आता है जब यही पूर्व सामंत राजनीति में स्थापित होने के लिये खुद सामंतवाद को कोसते नजर आते है| कुल मिलाकर हमारे देश के नेताओं व जनता द्वारा भरपूर कोशिश करने के बाद भी सामंतवाद ख़त्म नहीं हुआ बल्कि नए रूप में प्रतिपादित होकर हमारे सामने सीना तानकर खड़ा है और जनता बेबस होकर उसे बढ़ावा देने में लगी है|

चक्रवर्ती सम्राट विचित्रवीर्य का नाम चित्र-रथ से विचित्र वीर्य क्यों पड़ा ?

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महाभारत कालीन महाराज धृतराष्ट्र और पांडू के जन्म पर हमें पढाया व टीवी में दिखाया जाता है कि वे वेद व्यास की संतानें है क्या वाकई महाराज धृतराष्ट्र और पांडू वेद व्यास जो ब्राह्मण थे की संतान है ? या वेद व्यास ने चक्रवर्ती सम्राट विचित्र वीर्य जिनका असली नाम चित्र रथ था के संरक्षित वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान तकनीक के जरीय धृतराष्ट्र और पांडू का जन्म कराया ? चक्रवर्ती सम्राट चित्र रथ का नाम विचित्र वीर्य क्यों पड़ा ?

ज्ञान दर्पण.कॉम पर बता रही है कुंवरानी निशा कँवर -

हम पांडा-वाद की मानसिक दासता के इतने आदी हो चुके है क़ि जब वह मोटी-मोटी पुस्तको को सर पर लाद कर हमारे सामने आता है तो हमें लगता है क़ि यह कोई बहुत ही उच्च श्रेणी का धार्मिक ग्रन्थ है ! पंडाजी ने उसका नाम भी बहुत ही आकर्षक और मनमोहक रखा होता है जैसे क़ि "श्री मद-भागवत पुराण" | ऐसे भ्रमित करने वाले नामों से हम जो क़ि पहले से ही अध्ययन के प्रति अरुचि दिखा चुके होते है के प्रति खींचे चले जाते है | और पंडा-वादी तत्व इसका पूरा -पूरा फायदा उठाते है | हमारे ही धन पर इन पुराणों का श्रवण हमारे संपूर्ण नारी-समाज और बालकों को करवाते है और इन पुराणों की किसी भी बात पर शंका न करने का पूरा भय पहले ही दिखाकर हमारे महान पूर्वजों का चरित्र हनन करने का दुष्कृत्य करते है | हम न केवल उसे सुनते है बल्कि उसे सत्य मानकर अपने ही महान पूर्वजों के प्रति घृणित वातावरण बनाने के महापाप में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते है |

वैसे तो हमारे समाज के इन परम्परागत शत्रुओं ने किसी भी महान चरित्र का चाहे वह अखिल कोटि ब्रह्माण्ड के महानायक श्री राम और कृष्ण हो या फिर पितामह भीष्म, माता सत्यवती हो या फिर राजमाता कुंती, किसी को नहीं बक्शा है किन्तु कुछ ऐसे घिनौने झूंठ इन्होनें जोड़े है जिससे हमारे क्षत्रिय समाज के कई पूरे के पूरे कुल जैसे तोमर (तंवर) चाहे वह राजपूत तोमर हो या जाट तोमर हो या फिर मुश्लिम राजपूत तोमर हो, उन्हें तो एकदम से वर्ण-शंकर सिद्ध करने का कुत्षित प्रयास किया है| "श्री मद-भागवत पुराण' में क्योंकि संपूर्ण तोमर कुल चाहे वह आज किसी भी जाति , वर्ण या धर्म में हो वह सुभद्रा-नंदन , अभिमन्यु के ही वंशज है | और पंडा-वादियों ने लिख दिया है क़ि यह महाराज पांडू और धृतराष्ट्र तो पराशर और सत्यवती की नाजायज संतान वेद-व्यास जी के महाराज विचित्र-वीर्य की विधवाओं ( अम्बिका और अम्बालिका) के साथ नाजायज सम्भोग (नियोग) करके पैदा किया गया है !!!!

अब बताइए की ऐसे अनैतिक सम्बन्ध जिन्हें समाज आजतक भी घोर अनैतिकता की श्रेणी में रखता है उस समय इन महा पाखंडी पंडों ने अपनी लेखनी से क्षत्रिय कुल की मर्यादा की कैसे धुल धूसरित किया है और हम से बड़ा नाजोगा और कपूत कौन होगा कि हम उन्ही पाखंडियों को अपना धन भी लुटाने के लिए तैयार रहते है ?? यह विचारनीय विषय है !!! श्रद्देय श्री देवी सिंह जी महार ने अपनी बहुपयोगी पुस्तक "हमारी भूले"में साफ़ साफ़ लिखा है कि संस्कृत भाषा के ज्ञान के आभाव ने हमें बहुत गहरी चोट पहुंचाई है ! और इस प्रकरण में भी यही हुआ ,,,वरना क्या हमें यह जानकारी नहीं होती कि "विचित्र-वीर्य " का शाब्दिक अर्थ क्या है ??

कौन थे विचित्र वीर्य -

महाराज शांतनु के सत्यवती से दो पुत्र पैदा हुए जिनमे बड़े चित्रांगद और छोटे चित्र-रथ (कही कही उनका नाम चित्र-केतु और चित्र-वृत भी पाया गया है ) थे| तब चित्र-रथ का नाम विचित्र-वीर्य कैसे पड़ गया ? यह नाम था या कोई उपाधि या विरुद ?? हमने कभी इन बातों पर गौर करने का श्रम ही नहीं किया ! पंडा-वाद को भरपूर मौका मिला, अब यह विचार करने कि बात है कि "विचित्र-वीर्य" का शाब्दिक अर्थ क्या होता है ?

विचित्र+वीर्य, विचित्र यानि विशेष प्रकार का, खास,कोई विशेषता लिए या अद्भुत और वीर्य का अर्थ होता है अंश ,बीज या शुक्राणु, जिससे सन्तति बढती है ! इस का अर्थ यह हुआ कि चक्रवृति सम्राट चित्र-रथ विचित्र वीर्य के धनी थे ! चूँकि पितामह भीष्म ने कुरु वंश और हस्तिनापुर राज सिंहासन की रक्षा के लिए वचन दिया हुआ था और जब महाराज चित्रांगद अपने ही नाम के गंधर्व के हाथों वीरगति को प्राप्त होगये थे, राजमाता सत्यवती ने भीष्म से कहा कि यदि कभी छोटे बेटे चित्र-रथ के साथ भी ऐसी ही दुर्घटना घटित हो गई तो आपके द्वारा ली गयी प्रतिज्ञा का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा अतः पुत्र कोई उपाय कीजिये क्योंकि तुम जरुर कोई न कोई रास्ता निकल सकते हो !

तब पितामह भीष्म ने अपने मित्र महार्ण क्षत्रिय ऋषि, श्री मनन नारायण कि वाणी से उत्पन्न, कृष्ण द्वपायन, भगवान अपन्तार्त्मा जिन्हें आज लोग वेद-व्यास के नाम से जानते है के पास गए, ध्यान रहे कि कृष्ण द्वपायन जी तत्कालीन बहुत ही उच्च श्रेणी के महान वैज्ञानिक थे | पितामह भीष्म ने अपनी समस्या अपने मित्र के साथ बांटी और भगवान अपन्तरतमा (वेद-व्यास जी ) ने महाराज चित्र-रथ के शुक्राणु सुरक्षित अपने वेधशाला में रखवा दिए और भीष्म पितामह को कहा कि आज से आपका अनुज विचित्र-वीर्य हो गया है| अब इसकी अनुपस्थिति में भी इसके संतान उत्पत्ति में कोई समस्या नहीं है यह तत्कालीन कृत्रिम विर्यगर्भाधान के जानकार थे ! इसके बाद महाराज चित्र-रथ विचित्र-वीर्य नाम से ही प्रसिद्द हुए |

कृत्रिम गर्भाधान से पैदा हुए थे धृतराष्ट्र, पांडू और विदुर -

इसके बाद जब सम्राट विचित्र-वीर्य कि मृत्यु पर राजमाता सत्यवती ने बताया कि दोनों रानी गर्भ रहित है, तब पितामह अपने मित्र भगवान अपन्तरतमा (वेदव्यास जी ) को महाराज विचित्र-वीर्य के सुरक्षित अंश के द्वारा रानियों को कृत्रिम गर्भाधान के लिए बुलाकर लाते है और सम्राट विचित्र-वीर्य कि मृत्यु के उपरांत भी उन्ही के अंश से महाराज धृतराष्ट्र, पांडू और विदुर जी पैदा होते है ! यह बात बिलकुल झूंठी है कि अम्बिका के आंख बंद करने से महाराज धृतराष्ट्र अंधे पैदा हो गये क्योंकि गर्भाधान के समय माता या पिता की आंखे बंद होने से यदि संतान नेत्र-हीन पैदा होती है तब तो यह सभी कौरव भी अंधे ही पैदा हुए होते !

अतः अब जब भी पंडावादी यह घृणित प्रकरण सुनाये उन्हें वहीँ टोका जाये और हो सके तो उचित दंड भी दिया जाये, क्योंकि महाराज धृतराष्ट्र और पांडू किसी के नाजाय पुत्र नहीं बल्कि स्वयं चक्रवृति सम्राट विचित्र-वीर्य के पुत्र है|

अगले अंश में-
१).बिना माता-पिता के भगवान अपान्त्र-तमा(वेद-व्यासजी ) का जन्म कैसे हुआ ?एवं सत्यवती को माता क्यों बुलाते थे ?
२). राजमाता कुंती के द्वरा कर्ण और पांडवों के जन्म की हकीकत|
३).बिना माता-पिता के द्रौपदी और ध्रुस्टधुम्न का जन्म और
४). माता देवकी जी के गर्भ से बलराम जी माता रोहणी जी के गर्भ में कैसे पहुंचे ? का विस्तार से वर्णन बताया जायेगा ,,
"जय क्षात्र-धर्म"
कुंवरानी निशा कँवर
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति

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