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जंगलधर बादशाह, महाराजा करण सिंह, बीकानेर

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Maharaja Karan Singh, Bikaner, Jangaldhar badshah Story in Hindi

बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है. करण सिंह का जन्म वि.स. 1673 श्रावण सुदि 6 बुधवार (10 जुलाई 1616) को हुआ था. वे महाराजा सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे अत: महाराजा सूरसिंह के निधन के बाद वि.स. 1688 कार्तिक बदि 13 (13 अक्टूबर 1631) को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठे. बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान बड़े ऊँचे दर्जे का था. उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था. कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था. औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी. यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे.

विद्यानुराग

महाराजा करण सिंह स्वयं विद्वान व विद्यानुरागी होने के साथ विद्वानों के आश्रयदाता थे. उनकी सहायता से कई विद्वानों ने मिलकर "साहित्यकल्पद्रुम" नामक ग्रन्थ रचा, पंडित गंगानंद मैथिल ने "कर्णभूषण", "काव्य डाकिनी", भट्ट होसिक कृत "कर्णवंतस", कवि मुद्रल कृत "कर्णसंतोष" व "वृतासवली" नामक ग्रन्थों की रचना हुई जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है.

औरंगजेब के साथ संबंध

औरंगजेब के गद्दी पर बैठने के बाद बेशक वे उसके साथ रहे, कई युद्ध अभियानों में भाग लिया पर वे सदैव उसकी तरफ से सतर्क रहते थे. यह उनकी सतर्कता का ही प्रतिफल था कि सभी हिन्दू राजाओं को औरंगजेब का जबरन मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल हो गया. ख्यातों के अनुसार औरंगजेब की इच्छा सभी राजाओं का धर्मान्तरण कर मुसलमान बनाने की थी, परन्तु महाराजा करण सिंह की रगों में बसे स्वधर्म व जातीय रंग ने उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी. हालाँकि उनके इस निर्भीकता पूर्ण कार्य के लिए उन्हें औरंगजेब के कोप का भाजन भी बनना पड़ा. औरंगजेब की उक्त मंशा असफल होने पर वह महाराजा करण सिंह पर काफी क्रुद्ध हुआ, उनकी जागीर व मनसब आदि जब्त कर लिए और उनके घर में फूट डालने के प्रयोजनार्थ उनके पुत्र अनूप सिंह को बीकानेर का राज्य तथा ढाई हजार जात व दो हजार का मनसब दिया. मुलसमान लेखकों ने फ़ारसी तवारीखों में औरंगजेब का करण सिंह से रुष्ट होना, उनकी जागीर व मनसब जब्त कर उनके पुत्र को राजा की पदवी देना आदि विवरण तो दर्ज है पर औरंगजेब उन पर क्यों रुष्ट व क्रोधित हुआ के कारणों पर प्रकाश नहीं डाला गया.

लेकिन राजस्थान के ख्यात लेखकों द्वारा इस प्रकरण पर लिखे वृतांत के अनुसार राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने "बीकानेर राज्य के इतिहास" पुस्तक भाग- 1, के पृष्ट संख्या 204 पर लिखा है- "वैसे तो कई मुसलमान बादशाहों की अभिलाषा इतर जातियों को मुसलमान बनाने की रही थी, पर औरंगजेब इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता था. उसने हिन्दू राजाओं को मुसलमान बनाने का दृढ निश्चय कर लिया और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कशी आदि तीर्थ स्थानों के देवमन्दिरों को नष्ट कर वहां मस्जिदें बनवाना आरम्भ किया. ऐसी प्रसिद्धि है कि एक समय बहुत से राजाओं को साथ लेकर बादशाह ने ईरान (?) की और प्रस्थान किया और मार्ग में अटक में डेरे हुए. औरंगजेब की इस चाल में कयास भेद था, यह उसके साथ जाने वाले राजपूत राजाओं को मालूम न होने से उनके मन में नाना प्रकार के सन्देह होने लगे, अतएव आपस में सलाह कर उन्होंने साहबे के सैय्यद फ़क़ीर को, जो करण सिंह के साथ था, बादशाह के असली मनसूबे का पता लगाने भेजा. उस फ़क़ीर को अस्तखां से जब मालूम हुआ कि बादशाह सब को एक दीन करना चाहते है, तो उसने तुरंत इसकी खबर करण सिंह को दी.
तब सब राजाओं ने मिलकर यह राय स्थिर की कि मुसलमानों को पहले अटक के पार उतर जाने दिया जाय, फिर स्वयं अपने अपने देश को लौट जायें. बाद में ऐसा ही हुआ. मुसलमान पहले उतर गये. इसी समय आंबेर के राजा जयसिंह की माता की मृत्यु का समाचार पहुंचा, जिससे राजाओं को 12 दिन तक रुकने जाने का अवसर मिल गया, परन्तु उसके बाद फिर समस्या उतन्न हुई.तब सब के सब करण सिंह के पास गए और उन्होंने उससे कहा कि आपके बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता. आप यदि नावें तुड़वा दें तो हमारा बचाव हो सकता है, क्योंकि ऐसा होने से देश को प्रस्थान करते समय शाही सेना हमारा पीछा न कर सकेगी. करणसिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और धर्मरक्षा के लिए बादशाह का कोप-भाजन बनना पसंद किया. निदान ऐसा ही किया गया और इसके बदले में समस्त राजाओं ने करणसिंह को "जंगलधर बादशाह" का ख़िताब दिया. साहिबे के फ़क़ीर को उसी दिन से बीकानेर राज्य में प्रतिघर प्रतिवर्ष एक पैसा उगाहने का हक है. अनन्तर सब अपने-अपने देश चले गए."


जंगलधर बादशाह की पदवी

जैसा की इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि औरंगजेब के षड्यंत्र विफल करने के लिए राजाओं का नेतृत्व करने के बदले राजाओं ने उन्हें जंगलधर बादशाह का ख़िताब दिया. वहीं जयपुर की ख्यात में लिखा है- यह खबर बादशाह ने सुनी तो वह अपने वजीर के साथ बीकानेर के राजा के डेरे में आया. सब राजाओं ने अर्ज किया कि आपने मुसलमान बनाने का विचार किया, इसलिए आप हमारे बादशाह नहीं और हम आपके सेवक नहीं. हमारा तो बादशाह बीकानेर का राजा है, सो जो वह कहेगा हम करेंगे, आपकी इच्छा हो वह आप करें. हम धर्म के साथ है, धर्म छोड़ जीवित रहना नहीं चाहते. बादशाह ने कहा- तुमने बीकानेर के राजा को बादशाह कहा सो अब वह जंगलपति बादशाह है. फिर उसने सब की तसल्ली के लिए कुरान बीच में रख सौगंध खाई कि अब ऐसी बात तुमसे नहीं होगी.

औरंगजेब द्वारा वापस बुलाना

औरंगजेब का हिन्दू राजाओं का षड्यंत्र विफल कर देने के बाद नाराज होकर दिल्ली लौटने पर उनके ऊपर सेना भेजी गई, उनके पुत्र को राजा की पदवी व मनसब आदि दिए गए व उन्हें बुलाकर मरवाने का षड्यंत्र द्वारा रचा गया. इसी षड्यंत्र के तहत उन्हें एक अहदी के माध्यम से सूचना देकर दरबार में बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया पर औरंगजेब की कुटिल चालों को समझने वाले करण सिंह अपने दो वीर पुत्रों केसरी सिंह तथा पद्म सिंह को साथ ले दिल्ली दरबार में पहुंचे, जिसकी वजह से औरंग द्वारा उन्हें मरवाने के प्रबंध विफल हो गए. तब बादशाह ने उन्हें औरंगाबाद में भेज दिया, जहाँ वे अपने नाम से बसाए कर्णपुरा में रहने लगे.

अंतिम समय

फ़ारसी तवारीखों के अनुसार औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद उनका निधन हो गया. करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था.

रानियां तथा संतति

करण सिंह के आठ पुत्र हुए- 1. रुकमांगद चंद्रावत की बेटी राणी कमलादे से अनूप सिंह, 2. खंडेला के राजा द्वारकादास की बेटी से केसरी सिंह, 3. हाड़ा वैरीसाल की बेटी से पद्म सिंह, 4. श्री नगर के राजा की पुत्री राणी अजयकुंवरी से मोहनसिंह, 5. देवीसिंह, 6. मदन सिंह,7. अमरसिंह.
उनकी एक राणी उदयपुर के महाराजा कर्णसिंह की पुत्री थी. उससे नंदकुंवरी का जन्म हुआ, जिसका विवाह रामपुर के चंद्रावत हठीसिंह के साथ हुआ था.

कर्नल टॉड के गलत तथ्य

महाराजा करणसिंह को कर्नल टॉड ने रायसिंह का पुत्र लिखकर बीकानेर के इतिहास में भ्रांति फैलाई. बीकानेर राज्य के इतिहास के छटे अध्याय में पृष्ट 193 के फूट नोट पर गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते है कि "टॉड का कथन ठीक नहीं है. वास्तव में वह (टॉड) बीच के दो राजाओं, दलपत सिंह एवं सूरसिंह के नाम तक छोड़ गया|"

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सेर नै लखमण

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सेवापुरा रा हिंगळाजदान (HInglajdan klaviya) कविया साखा रा चारण कवि हा। महाकवि सूरजमल मीसण बूंदी वाळा रै पछै पाछला सईका में राजस्थान में हिंगळाजदान रा जोड़ रौ कवि नीं हुवौ। राज सम्मान में कविराजा सांवळदास धधवाड़िया उदैपुर अर महामहोपाध्याय मुरारदान आसिया रौ घणौ आघमान हौ पण पिंडताई अर कविता में हिंगळाजदान री बणावट, उकतां अर अनुप्रासां आगै बाकी रा सैंग री कवितावां पाणी भरती लागै। हिंगळाजदान री ओपमावां, काव्य-आभूषणां में कुन्नण में जड़ियोड़ा नगीना सा फबै। हिंगळाजदान रै अर बूड़सू ठाकुर लिछमणसिंघ मेड़त्या रै घणौ जीव-जौग नै हेत हिमळास हुंतौ।

अेक मौकै बूड़सू ठाकुरां नै कुचामण ठाकुर सेरसिंघ कुचामण बुलाया। कुचामण में हरियाजूंण रा भाखर में नौहत्था सेर री सिकार करी। उण दिन हिंगळाजदान भी बूड़सू लिछमणसिंघ रै साथ हुंता। सेरसिंघ हिंगळाजदान री कविता री बडाई सुण मेली ही। सेर री सिकार माथै कविता बणावण तांई सेरसिंघ हिंगळाजदान नै कैयौ।
हिंगळाजदान उठै संू आप रै गांव आय ‘मृगया, उपमावां, स्लेषां अर अनुप्रासां रै सागै-सागै सिकार रौ छवि चित्राम सौ कोर दियौ। प्रक्रति री सोभा, भाखरां री बणगट, सेर रौ आपाण, सेरसिंघ री निसाणाबाजी इत्याद रौ सांगौपांग बरणन कियौ अर उण खण्डकाव्य री एक फड़द कुचामण मेली। ठाकर सेरसिंघ ‘मृगया मृगेन्द्र’ ने सुण अर मुगध व्हैग्या। कवि हिंगळाजदान नै पुरस्कार देवण तांई आप रा कामदार नै सेवापुरै मेल अर उणनै कुचामण बुलावौ भेजियौ। हिंगळाजदान खुद नीं आया अर अेक कवित बणाय अर कामदार साथै भेजियौ, जिण री पाछली भड़ ही-
मै लखमण नै जांचियौ अब किम सेरां जांच्यौ जाय। इण रौ सीधौ सौ अरथ तौ औ कै- म्हैं बूड़सू रा लिछमणसिंघजी कनै सूं ईनाम लियौ अब कुचामण रा सेरसिंघजी कनै सूं कींकर लेवूँ। दूजौ भाव ओ कै म्हैं लखमण (लाख- मण) नै जांचियौ अब मण रै चालीसवें भाग सेर (तोल विसेस) नै कांई जांचूँ।
पछै कुचामण ठाकुर सेरसिंघ अेक सौ अेक ऊंट बाजरा रा लदवाय नै सेवापुरै हिंगळाजदानजी रै घरै भिजवाया। दाता अर पाता दोनुवां री गुणग्रायकी देखण जोग है।


दोय साढू

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श्री सौभाग्य सिंह जी की कलम से.......

नबाब रहीम खानखानौ (Navab Rahim Khankhana) आवभगत अर दातारगी में हिन्दुस्तानी मुसलमानां, बादसाहां, अमीर उमरावां में सिरै हुवौ। मुगलां री तवारीखां में उणरै जोड़ रौ दातार खोज्या भी नीं लाधै। बात री बात में एक-एक लाख रिपिया देवणियौ बीजौ विरळौ इज मिळै। कवियां, चारणां, भाटां, पिंडतां रौ खानखानौ प्रागवड़, कल्पव्रछ नै सांप्रतेख कामधेन इज हौ। उणां री दातारगी री बातां बीरबळ रा चुटकलां री भांत राज-समाज में चालै। भाट, चारण, कवीसरां रा एक-एक छंद माथै लाख-लाख रा देवाळ राजा भोज धारा नगरी रा धणी रै पछै अब्दुलरहीम खानखानौ इज गिणती में आवै।

अेक बार दूर देस रौ एक भूखौ बिरामण ऊभाणां पगां, फाटा लीरक-लीर घाबा में नबाब खानखाना रै द्वार माथै आयौ। पहरादारां उण नै बा’र री डयौढ़ी माथै इज थाम दियौ। बिरामण कैयौ- आगै तो मतां जावण दौ, पण थां जाकर नबाब सा’ब नै कैय तौ देवौ कै थांरौ साढू मिळण तांई आयौ है अर उणरी जोड़ायत थांरी साळी भी उण रै साथै है। द्वार रूखाळो बिरामण कैयौ ज्यूं री ज्यूं जाय नै खानखाना आगै गुदराई। खानखानौ उण नै तेड़ नै आपरै गौडै बुलवायौ। फाटा लतां, संग्याहीण उण दलिद्री नै कन्नै बैसाय नै पूछियौ-थांरौ म्हांरौ किण भांत रौ रिस्तौ है ?

उण अरज किवी- बिपती अर संपती दोनूं सगी बै’णां है। पैहली म्हांरा घर में गोडा ढाळिया बैठी है अर दूजी आपरै घर में बिराजै है! इण वास्ते थांरौ अर म्हारौ साढू रौ साख है। नबाब हंस पड़ियौ। घणौ राजी हुवौ। उणनै खिल्लत पहराई, सोनैली साजत रौ घोड़ौ बखसियौ अर अेक लाख रोकड़ देय नै वहीर कियौ।

नबाब रहीम खानखाना के रोचक किस्से

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राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार श्री सौभाग्यसिंह जी शेखावत की कलम से नबाब रहीम खानखाना के कई रोचक किस्से (Nabab Rahim Khankhana Ke Rochak Kisse) राजस्थानी भाषा में.........

पारस रौ पूतळौ

नबाब रहीम खानखानौ पारस रौ पूतळौ नै सोना रौ पौरसौ इज हौ। लोक कथावां में सोना रां पौरसा रौ घणौ बरणन मिळै। पण उण नै दीन दुनी मांय कुंण दीठौ। पण खानखानौ जीवतौ पारस हुवौ। अेक बार री बात है खानखानौ सहल सवारी सूं आय नै घोड़ा रा पागड़ा सूं पग धरती पर मेल्यौ इज हौ कै एक डगमग नाड़ हालती जईफ डोकरी आपरी काख में दाबियोडै लोह रा तवा नै काढ़ियौ अर खानखाना रै डील सूं रगड़बा लागी। नौकर चाकर ‘ना-ना’ करता थका डोकरी नै रोकण नै दौड़िया । खानखानौ उणां नै अळगा इज थांम नै चाकरां नै कैयौ- उण बूढी माई नै इण रा तवा रै बरौबर सोनौ खजाना सू तुलवाय देवौ। जद पोतादार इण रौ अरथ पूछियौ- खानखानौ कैयौ- डोकरी आ जांचण नै आई ही कै बूढ़ा बडेरा औ केवै है कै पातसाह अर राजा नबाब पारस हुवै है। उण रौ औ कथण सांची है कै कूड़। अर अबार रा समै मांय भी अेड़ा लोग है कै नीं है।

अक टोपौ आबरू

खानखाना री दान दुगाणी री बातां रा कांई ओड़ आवै। एक दिन रौ किस्सौ है कै खानखाना री सवारी जावती ही। अेक मोटौ दाळदी अेक काच री सीसी में अेक टोपो पाणी रौ नांख अर खानखानै नै दिखायौ अर सीसी नै ऊंधी करी। जद पाणी री बूंद धरत्यां पड़बालागी जद पाछी सीधी करली। उण रौ रूप रंग सूं ठा पड़ै हौ कै बौ किणी भरापूरा घर नै आछा कुळ रौ मांणस हुवै। पण समै रौ फेर भी कुजरबौ हुवै है। अणहोणी आय पड़ै जणा क्यूं इज कारी नीं लागै। बंदौ दौड़ै चार घड़ी अर भाग दोड़ै रात दिन। करम कमाई रौ मेळ हुवै जणा सुख संपत मिळै। हां, तो खानखानौ आपरा घोड़ा नै थथोप नै उण नै नजीक बुलायौ अर आपरै सागै घर लियायौ। घाबा-लता अर रोकड़ मोकळी माल मत्तो देय उणनै पाछौ मोकळियौ।

साथ रा लोगबाग पूछी- औ कांई ? खानखानौ कैयौ- थां लोग जाणिया नीं। बात ब्योपाया सूं म्यानौ नीसरै है। पढ़ियां लिखियां कीं हुवै मूळ बात तो गुणियां हुवै। उण री सीसी रौ अरथ औ हौ कै आवरू तौ ही जद घणी इज ठाढ़ी ही पण अब एक बूंद ईजत इज जीयां-तीयां बाकी बची है। अर अब बा भी गिरबा वाळी ही है। साथ रा लोग खानखाना री चात्रगता पर अचरज कर राजी हुवा।

दोय कीली

अेक दिन खानखानौ आपरा रहवास सूं आमखास कांनी जावतौ हौ। अेक मोटौ ताजौ मलीड़ घुड़सवार पांचूं सस्तर-पाती बांधियां साम्हौ आय ऊभो रैयौ। सलाम करी। जद खानखानै पूछी-बोल कांई चावै। उण कही नौकरी। उण में विसैस बात आ ही कै उण री पाघ में माथै पर लोह री दोय तीखी कीली भी खसोलियोड़ी ही। खानखानै पूछी ठीक है। पण, लोह रा पाघ में टांकियोड़ा कीलां रौ कांई अरथ है ? अै किंण रीत बांध मेली है ? उण पडूतर दियौ- इण में अेक कीलौ तौ उण मिनख तांई है जिकौ चाकर राख नै उण नै पगार नीं देवै। अर दूसरौ उण चाकर तांई है जिकौ रोजीनौ तौ लेवै पण काम बजायनै नीं करै। खाली बातां री ब्याळंू नै भोपा डोफर करतौ फिरै अर धणी सूं खोट-कपट बिंणजै।

खानखानौ उण रौ रोजीनौ टै’रा लियौ अर आपरै साथै लै लियौ। नुंवौ चाकर दरबार में साथै ही गयौ। सगळा दरबारी उण रै बांकै पैहराव नै देखण ढूका। जद खानखानौ उण चाकर नै पूछियौ- मिनख री आवड़दा घणी सूं घणी किता बरसां री हुवै। उण कहयौ-कुदरत रा लेखा सूं ज्यादा सूं ज्यादा छैबीसी साल आदमी जीवै।

खानखानै आपरा खवास नै तेड़ाय नै पोतादार नै बुलायौ अर उण नै कैयौ-इण मिनख नै आखी उमर री पगार चुका देवौ। अर उण सिपाई नै कैयौ-ल्यौ हजरत, लोह री एक कील रौ बोझ तो अबार सूं थां अपणै माथै सूं उतार देवौ। अब दूजी कील रौ तन्नै इकत्यार है।

दरबारी लोग उण दिन सांचमांच में खानखानै में राजा भोज सरीखी बुध अर उदारता अर वीर विकरमादीत-सी हींमत नै परख देखी।

राजा मान कछावौ नै नबाब रहीमखान

आमेर रा राजा मानसिंघ अर हिंदी रौ मोटौ कवि नै पातसाह अकबर रौ गिनायत खानखानौ अबदुररहीम दोनूं पातसाही रा भारीखम थांभा हुंता। अकबर इणां री घणी मानतान, काण, म्रजाद राखतौ। दोनों में आछौ भलौ मेळ-मिलाप नै प्रेम-प्रीति हुंती। अेक दिन ठालैड़ रा बखत में दोनू कंधार रा किला में बैठा सतरंज रमै हा। खेल में होड आ हुई कै जिकौ जीतै बौ हारे जिण सूं चावै जिका अेक जिनावर री बोली बुलावेलौ। खानखाना री बाजी दबबा लागी। मानसिंघ मुळकबा लागा कै मैं तौ मिनकी री बोली बुलावस्यूं। खानखानौ साहस करतौ रैयौ। पण छैवट चार-पांच चालां पछै उण री हींमत छूटबा लागी। खानखानौ वडौ डावौ मिनख हौ। बाजी जाती देख खेल संू उठणौ मांड्यौ अर कहयौ-अरर ! म्हैं तो बीसम्रत ही व्है गयौ। चोखौ हुवौ जिकौ इण समै याद आ गयौ।

राजा मानसिंघ गोटी चलाय नै कैयौ- यां चाल्या। नबाब रहीम कैयौ पातसाह सलामत म्हनैं अेक काम ओडायौ हौ ! बौ काम अबार इज याद आयौ। म्हैं तुरत-फुरत सूं उण काम रौ परबंध कर आवूं हूं। राजा कैयौ-ना, आ कींकर हुवै। पैली बिलाई री बोली बोलौ अर फेर जावौ। इयां कैय नै नबाब रा जामा री कळी पकड़ली अर फेर कैयौ, पैली मिनकी री बोली बोलौ नै पछै जावौ।

खानखाना कैयौ-राज म्हांरौ पल्लौ छोड़ौ-मे आयम्-मे आयम्। मैं आऊं हूं-इण भांत फारसी बोली में आपरी बात ही चात्रगता सूं कैय दीन्ही अर बिल्ली री बोली म्यांवू री नकल भी कर दिवी। बै भी हंस दिया अर अै भी हंस दिया। कितरी ऊंची चात्रगता है इण में जो आपरी बात भी कैय दी अर पैला री बात भी पूरी कर दिवी।


बीकानेर का संस्थापक : राव बीका

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Rao Bika Founder of Bikaner Princely State History in Hindi
राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि में जन्में वीरों की श्रंखला में राव बीका राजस्थान के इतिहास में राजपूती वीरता का एक जाज्वल्यमान उदाहरण है. राव बीका का नाम इतिहास में उत्कृष्ट वीरता, पितृभक्ति, उदारता एवं सत्यवादिता के रूप में विख्यात है. जोधपुर के स्वामी राव जोधा की सांखली राणी नौरंगदे की कोख से वि.स. 1495 श्रावण सुदि 15 (5 अगस्त 1438) मंगलवार को जन्में राव बीका ने अपने बाहुबल से बीकानेर का राज्य स्थापित कर अपने पैतृक राज्य मारवाड़ से सदा के लिए अपना अधिकार त्याग दिया| बीका के इस कार्य की प्रशंसा करते हुए इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा अपनी पुस्तक "बीकानेर राज्य के इतिहास" में लिखते है-"पिता की इच्छा का आभास पाते ही उसने जोधपुर के राज्य की आकांक्षा छोड़ दी और अपने बाहुबल से अपने लिए एक नया राज्य कायम कर लिया. पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर बड़ा होने पर भी, उसने अपने पैतृक राज्य से सदा के लिए स्वत्व त्याग दिया. ऐसी अनन्य पितृभक्ति बहत कम लोगों में प्रस्फुटित होती है. पिता को दिया हुआ वचन उसने पूर्ण रूप से निभाया और कभी छल या कपट से अपना स्वार्थ सिद्ध न किया." पितृभक्त होने के साथ बीका को अपने भाइयों से भी असीम प्यार था, जब भी भाइयों को उसकी सहायता की आवश्यकता हुई बीका ने उनकी हरसंभव सहायता की.


बीकानेर राज्य की स्थापना
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है "बीका ने अपने बाहुबल से जांगलू देश पर अधिकार कर नया राज्य स्थापित किया और अपने नाम से बीकानेर नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया. इतिहासकारों के अनुसार एक दिन जब राव जोधा अपने दरबार में बैठा था, तब बीका दरबार में आया और अपने काका कांधल के पास बैठ गया, थोड़ी देर बाद राव जोधा ने देखा कि दोनों कान लगाकर आपस में कुछ बात कर रहे तब राव जोधा ने उनसे पूछा-"आज काका भतीजे में क्या सलाह हो रही है? कहीं कोई नया राज्य जीतने की योजना तो नहीं बन रही?" तब कांधल ने जबाब दिया-"आपके प्रताप से यह भी हो जायेगा." तब बीका ने कहा-"जांगलू परगना बिलोचों के आक्रमण से कमजोर हो चूका है और सांखले उसका परित्याग कर अन्यत्र चले गए है. यदि आप चाहें तो वहां सरलता से अधिकार किया जा सकता है. राव जोधा को पुत्र बीका की बात पसंद आई और उसने तुरंत बीका को काका कांधल व जांगलू देश से जोधपुर आये हुए नापा सांखला को साथ लेकर नया राज्य स्थापित करने की आज्ञा दे दी.

पिता की आज्ञा प्राप्त कर बीका काका कांधल, नापा सांखला व अपने कई खास सहयोगियों को साथ लेकर मंडोर से देशनोक पहुंचा. जहाँ उसने माता करणी जी के दर्शन कर सफलता का आशीर्वाद माँगा. माता करणी ने भी उसे आशीर्वाद दिया-"तेरा प्रताप जोधा से सवाया बढेगा और बहुत से भूपति तेरे चाकर होंगे."

बीका ने माता का आशीर्वाद ग्रहण कर अपना अभियान शुरू किया और कई स्थानों पर कब्ज़ा करते हुए कोड़मदेसर में जाकर अपना ठिकाना बनाया. 1478 ई. में जब बीका ने कोड़मदेसर में गढ़ बनवाना आरम्भ किया तो भाटियों ने उस पर आक्रमण किया. हालाँकि इस आक्रमण में भाटियों को हारना पड़ा पर वे बीका को तंग करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे. तब बीका ने किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर गढ़ बनवाने की सोच अपने सहयोगियों से सलाह कर रातीघाटी पर वि.स. 1542 (ई.स. 1485) में किले की नींव रखी और वि.स.1545 वैसाख सुदि 2 (12 अप्रेल 1488) को उस गढ़ के आस-पास अपने नाम से बीकानेर नामक नगर बसाया.

जनश्रुतियों में बीका को यह स्थान करणी माता ने यह कहते हुए बताया था कि-"जब तक तेरी राजधानी इस स्थान पर रहेगी तब तक तेरा राज्य कायम रहेगा." कहते है आजादी से कुछ पहले बीकानेर की राजधानी उस किले से थोड़ा दूर बने महलों में बदली और कुछ समय बाद देश आजाद हो गया और देशी रियासतों का विलय होने से राजाओं का राज चला गया|

जाटों को अधीन करना
उन दिनों बीकानेर के आस-पास के काफी क्षेत्र पर जाटों का अधिकार था. शेखसर का इलाका गोदारा जाट पांडू व भाडंग का इलाका सारण जाट पूला के अधीन था. इन दोनों में आपस में बनती नहीं थी. पूला सारण की पत्नी ने अपने पति के किसी ताने से आहात होकर पांडू गोदारा को उसे ले जाने को आमंत्रित किया तब पांडू जाट के कहने पर उसका पुत्र नकोदर पूला की पत्नी मल्कि को उठा लाया. जब घटना का पूला को पता चला तो उसने आस-पास के जाटों को पांडू पर चढ़ाई के लिए आमंत्रित किया पर पांडू द्वारा पहले ही राव बीका की अधीनता स्वीकार कर उसकी सुरक्षा हासिल करने के चलते किसी की पांडू पर आक्रमण की हिम्मत नहीं पड़ी फिर भी पूला सिवाणी के नरसिंह जाट को साथ लेकर पांडू पर चढ़ा. लेकिन जैसे ही बीका को इसकी सूचना मिली उसने इस जाट को घेर लिया और नरसिंह जाट को मार दिया. नरसिंह जाट के मरते ही अन्य जाट भाग खड़े हुए और पूला आदि कई जाटों ने बीका से क्षमा याचना करते हुए उसकी अधीनता स्वीकार कर ली. इस तरह बिना ज्यादा रक्त-पात बहाये राव बीका ने जाटों के अधीन इस भूमि को अपने राज्य में मिला लिया और गोदारा पांडू को उसकी खैरख्वाही के बदले बीका ने यह अधिकार दिया कि बीकानेर के राजा का राजतिलक पांडू गोदारा के ही वंशजों के हाथ से हुआ करेगा और यह प्रथा अब तक प्रचलित है.

अन्य सैनिक अभियान
बीका ने सिंघाने पर चढ़ाई कर उसके जोइया स्वामी को अपने अधीन किया तो खीचीवाड़े के स्वामी देवराज खींची को मारकर उसका राज्य अपने राज्य में शामिल किया. पूंगल के भाटी शेखा को अपने अधीन करने के साथ खड़लां के ईसरोत को मारकर उसके इलाके को अपने राज्य में मिलाने के साथ ही बीका ने धीरे-धीरे जांगलू प्रदेश के लगभग पुरे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया. बाघोड़ों, भूटों, बिलोचों को पराजित किया व हिसार के पठानों की भूमि छीनकर बीकानेर में मिलाई. ख्यातों के अनुसार बीका ने देरावर, मुम्मण-वाहण, सिरसा, भटिंडा, भटनेर, नागड़, नरहड़ आदि स्थानों पर आक्रमण कर उनका अधिग्रहण किया साथ ही नागौर पर चढ़ाई कर उसे दो बार जीता. कहते है उस काल बीका की आन 3000 गांवों में चलती थी. पंजाब तक पहुंचे उसके राज्य की सीमओं का चालीस हजार वर्ग मील में फैले होने का इतिहासकार अनुमान लगाते है.

हिसार के सारंगखां के साथ युद्ध में कांधल के मारे जाने का समाचार मिलने पर बीका ने बदला लेने के लिए सारंगखां पर चढ़ाई की, इस चढ़ाई में बीका की सहायतार्थ जोधपुर, मेड़ता, छापर-द्रोणपुर की सेना भी मिली. झांस (झांसल) नामक गांव में सारंगखां के साथ युद्ध हुआ जिसमें सारंगखां मारा गया. इस युद्ध से लौटते समय राव जोधा ने बीका की प्रशंसा में उसे सपूत कहते हुए एक वचन माँगा व बीका द्वारा वचन देने पर राव जोधा ने उसके हिस्से में आया लाडनू मांगते हुए जोधपुर राज्य पर अपना अधिकार भाइयों के पक्ष में त्यागने का वचन माँगा. तब बीका ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए पिता से बड़ा पुत्र होने के नाते अपने वंश की पूजनीक चीजें जैसे- तख़्त, छत्र, नंगारा आदि के साथ राव जोधा की तलवार व ढाल मांगी, जिसे राव जोधा ने स्वीकार कर लिया. लेकिन जोधा की मृत्यु के बाद जोधपुर की गद्दी पर बैठे सूजा ने बीका को ये वस्तुएं देने को मना कर दिया. फलस्वरूप बीका ने इन पूजनीक वस्तुओं को हासिल करने के लिए जोधपुर पर चढ़ाई कर दी. जोधपुर की सेना बीका के इस आक्रमण के आगे ज्यादा नहीं टिक पाई. अनन्तर सूजा की माता जसमादे ने बीका के पास सन्देश भेजा कि -तूने तो अब नया राज्य स्थापित कर लिया है. अपने छोटे भाइयों को रक्खेगा तो वे रहेंगे." बीका ने उतर दिया-"माता ! मैं तो सिर्फ पूजनीक वस्तुएं चाहता हूँ." तब जसमादे ने पूजनीक चीजें उसे देकर सुलह करवाई. इस तरह बीका ने पिता के वचन के पालन नहीं करने वाले भाई के खिलाफ सख्त कदम उठाया वहीं पूजनीक वस्तुएं मिलने के बाद सहृदयता का परिचय देते हुए माता जसमादे के आग्रह पर अपने भाई सूजा से सुलह भी कर ली. मेड़ते के स्वामी वरसिंह को अजमेर के सूबेदार द्वारा धोखे से गिरफ्तार करने पर बीका ने ससैन्य अजमेर कूच कर उसे छुड़ाया. पूंगल के भाटी शेखा को लंघों द्वारा बंदी बना लिए जाने पर बीका ने लंघों पर चढ़ाई कर भाटी शेखा को उनकी कैद से छुड़वाया.

मृत्यु
बीका के मृत्यु स्मारक शिलालेख पर अंकित तिथि के अनुसार बीका का निधन आषाढ़ सुदि 5 वि.स. 1561 (17 जून 1504) को हुआ.

संतति
बीका के दस पुत्र हुए-1. नरा, 2. लूणकर्ण, 3. घडसी, 4. राजसी, 5. मेघराज, 6. केलण, 7. देवसी, 8. विजयसिंह, 9. अमरसिंह, 10. वीसा राव बीका के निधन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र नरा बीकानेर की गद्दी पर बैठा पर कुछ माह बाद ही उसका देहांत होने के बाद राव लूणकर्ण बीकानेर की राजगद्दी पर आसीन हुआ.


Rao Bika History in Hindi, Bikaner History in Hindi

रामदान रै कुंवरडै री सगाई

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दूसरों के बनते काम बिगाड़ने वालों की हरकतों का सजीव चित्रण करता राजस्थानी भाषा में लिखा यह लेख (Rajasthani Story) राजस्थानी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार श्री सौभाग्यसिंह जी की कलम से लिखा गया है............

हेमराज दिनूगै री बखत आप रै खेड़ा में टीबड़ी माथै बैठौ बैठौ बाळू रेत सूं लौटौ मांज रैयौ हो, जितरै में तौ आथूणी कूट कांनी सूं गायां नै रोही में ताड़ नै भोमौ भाखर गांव कांनी आवतौ दिख्यौ। हेमराज, भीमा नै हाथ रौ झालो देय नै कनै बुलावण री सैन करी। भोमौं लाबी डग भरतौ हेमराज कनै आय नै राम रमी करी, हेमराज पाछौ राम राम भाई आव भोमा, कैय नै कुसलखेम पूछी। भोमौ जेळी रौ नाळौ धरती माथै टेकनै जेळी रा सींगा पर मूंठी मेल अर उण पर आपरी ठोढ़ी टेकतौ थकौ बोल्यौ-ठोरमटौर हां ठाकरां। हेमराज कैयौ- खेत सम्हाळ आयौ दीखै है! हां, ठाकरां! आपणां ढांढ़ा नै रोही में ऊछेर नै आयौ हूं। दो घड़ी रोही में फिरसी तो क्यूं तांमणांई पेट में पड़सी नै गांव में लोग बागां नै सूनां अधावै भी कोनी। हेमराज कैयौ ठीक इज है भाई परायौ उजाड़ बिगाड़ करै जद तो ओळमो इज खावणौ पडै़। ढोर ढांढा उजाडू नीं हुवै। उजाडू तो धणी इज हुवै है। हेमराज इतरी बात करनै बोल्यौ-पटेल! गांव री और कांई नुंवी जूनी हळगळ है। मैं तो अेक पन्द्राड़ी सूं सांझ रा इज पाछो आयो हूं। मारवाड़ कांनी पावणाचारी में गयोड़ौ हौ। घणा दिन लागग्या।

भोमौ बोल्यौ-गांव में तो नुंवी-जूनी कांई है। पण काल थांकी पटेलण वडै रावलै गई ही। कैवै ही कै रामदानजी काकैजी रै कुंवरडै रै सगपण खातर पावणा आयौड़ा है। देवळौ, भी बतावतौ हौ कै काल तीसरै पहर जोरदानजी रै साथै एक अणसैंधौ मिनख कूआ रा कोठा माळै ऊभौ हौ। दोनूं घणी ताळ बीढा पर ऊभा बातां करै हा। जोरदानजी कूआ पर आधपांती रामदानजी री पावणां नै बतावै हा। मकानां में भी आधूआध हिस्सौ रामदानजी रौ बतावै हा।

रामदानजी अर जोरदानजी सागै काकौ-भतीज, पण जोरदानजी रौ घर जोरां। मकान, कूऔ, खेत-क्यार, ऊंट-पूंण, गाय-मैंस सब भांत सूं संठियोड़ौ घर। कोटड़ी अर बैसक री आछी ओपती जुगत। कनै पांच पीसा री जुळगै। गांव में आछी मान-तांन। चौखळा में भी ठावां घरां नै ठीमर मिनखां में गिणीजै। किणी री खोटी-खरी, ओछी-इधकी बात मुंहडै में नीं घालै। टाळवां मिनखांरी गिणत में आवै। आपरी कमाऊ अर आपरी खाऊ मिनख। रामदान भी नेक नीत रो मिनख। सगळा गांव सू हेत हिमळास राखै। नंद फंद सूं सैकड़ां कोसां आंतरै नीकलै। पण, घर में धापर नादारी। जोरदान रौ बरौबरियौ बंटायत। पण पैमाइसी रै समै जमीन, खेतड़ा सगळा करसां रै हेटै चल्या गया। फगत बारे बीघा तेरै विस्वा जमीन इज खातेदारी में रैयी।

घर में अेक जोड़ायत, दो बाइल्या अर अेक कुंवरड़ौ खींवराज। खींवराज नाक-नकसै डील-डोल अर हाड पगां रो चौखौ भलौ। बायां रा हाथ तौ पीळा कर दिया, पण खींवराज रै ब्याव-सावा रौ ढंग ढाळौ नीं बैठै। सगपण घणा ई आवै, टाबर नै जोय नै गिनायत मन थाम लै, पण घर री जुगत जोय नै लोग पाछौ पग मोड़ लेवै। इयां करतां-करतां खींवराज चौईसी नै लांघग्यौ। सगपण रौ जुगाड़ कौ बैठौ नीं। छेवट आज खारीपट्टी रौ करणीदानजी, जोरदान रा मकान, कूआ, बळद-बाळद, नै जमीं रौ आध धणी समझ नै खींवराज री सगाई आपरी डावड़ी सूं करण नै राजी हुयौ। जोसी नावां टेवा, वर्ग मिळाय नै सगाई री पक्की कराय दी। सारौ काम बणबाळो इज हौ, पण उणी समै खीचड़ा में गुठलौ कै खीर में मूसल सौ हेमराज आय पूगौ। अर आवतोई कातियौ कूतियौ कपास कर दियौ। बातां ई बात में इसौ भचड़कौ नांखियौ कै खारै कुत्ता खीर।

आडै दिन तो हेमराज, रामदान अर जोरदान री कोटड़ी में पग उठाय नै नीं आवतौ। पण, पावणां-पही री सुण नै डाकण रै न्यूतै जरख री भांत जैन बखत पर झट आय जावतौ। गांव में जठै-कठै ई सगा गनायत आवण री सुणनै ‘खीरां मेली खीचड़ी टीलौ आयौ टच’। सौ हेमराज भी पूग इज जावतौ। अमेळ-अणबणत होतां थकां भी अेहड़ा मौका पर आवण में कोनी चूकतौ।

हेमराज, रामदानजी रै तीन पीढ़ी आंतेरै भाई लागै। पण वडौ कुबध रौ कोथळौ। भूंड रौ भंडार। कपट रौ आगार। बातां में बीरबल रौ इज काकौ कै नारद रौ नानौ। ठाढी बातपोस। अन्तर कपटी। बुगला रौ बाबौ इज जेठ रौ भतूलियौ सौ बात नै पानी फफूंदरियां ज्यूं बखेर नै आकासां चढ़ावण में वडौ बाजीगर। किणीं नै धड़ै पालड़े इज नीं लागण देवै। बातां में बिलमावण में प्रौढ़ां नै भी पैतरौ भुलाय दे। न धरती पड़ण दे नी आकास उड़ण दे। लाज-सरम तो नैड़ै ढूकडै़ इज कौ नीसरी नै। अठी रा भाखर उठी नै मेलता घड़ी पलक इज नीं लगावै। अेहड़ौ अकल रौ उजीर। कूड़ कामण रौ कंथ सौ रामदान रै डावड़ै री सगाई री बात भोमा रा मुंहड़ा सूं सुण नै मन में घोळ गूंथतौ थकौ उठनै आपरी कोटड़ी कांनी बहीर हुयौ। घरां आय आपरा हाथ ऊजळा करनै वडै बाप रै बेटै भाई घीसीदान नै हेलौ दियौ। घीसू कांई करै है ? थोड़ो अठै आव तो। घीसीदान कनै आयौ जणा बोल्यौ-अरे, सुणी है, कै रामदानजी रै लूंगीदान री सगाई करण तांई पावणा आया बताया। जोरदान आपरौ मकान, कूऔ नै खेतड़ा में आध पांती रामदानजी री बताय नै पावणा नै पटाय लिया बताया। डोफा, तूं नै बाबोजी दोनंू अठै ई हा, फेर थां कांई करता रैया। थोड़ी घणी भी निंगै कोनी राखौ क गांव में कठै कांई बात हुवै है। इयां तौ औ, ठाकरपणौ थोड़ा ई दिनां रौ दीसै है। थांनै गांव रौ कूकरौ ई नीं पूछेलौ। आपणी कोटड़ी सूं उण कोटड़ी में पैली सूं इज आंट टेढ़ चालै है। आव, तूं म्हंारै साथै चाल। आपणै पूछिया बिना ई औ सगारथ कियां हुयौ। गांव में चोथ रा बंटायत बाजां हां। पछै आपां नै कुंण पूछसी। कुंण गिणसी। दोनां री बतळावण सुण नै घीसीदान रौ बाप, घीसीदान नै ओझाड़तौ थकौ बोल्यौ-अरे घीसू इण कुटीचर हेमा री फंकी में मत आजाज्यै। औ तौ इयां ई ऊंधा पाधरा नै सिर फूड़ावणी करतौ रैयौ है। किणी रा घर मंडता में फिदड़कौ पटकणौ, कुटीचरां खोडीलां माणसां रा काम है। बणता काज में पळीती सिलगाय नै चिंणगारी गैरणौ आगोतर बिगाड़णो है। आपणै किणी री राई दुहाई में नी पड़णौ। गैलै चालतै बैराड़ी मोल क्यूं लेवणौ। इण हेमा री तो बुध मारी गई। अकल बाहिरौ कूड़ कपट रा काम इज करसी। औ तौ आपसरी में फूटा जोजरा करण नै इज जनमियौ है। किंणी री भलाई सूं इण नै कांई लेणौ देणौ। आपणै तो कूड़, कुबुध सूं सौ कोसां आंतरै रहणौ। इणरी पढाई पाटी नीं सीखणी।

जितरै तौ हेमराज बोलियौ- म्हैं इण टाबर नै कांई कुसीख देऊं हूं ? म्हैं तो आ कैवूं हूं कै म्हैं रामदान जी री कोटड़ी कांनी जावूं हूं। जे पावणां रै सागै बातां में घणी ताळ लाग जावै अर छाक बखत हौ जावै तो तूं हेलौ पाड़ दीजै कै पटवारीजी आया है। थांनै उडीकतां घणी ताळ हुई। उवै खाथावळ करै है, सौ वेगा सा घरां चालौ। सौ पटवारी रा नांव रा टाळा सूं उठा सूं उठ आवृं। नीतर पावणां रै भेळे जीमण नै बैठाय दियौ तो कई ओलावौ लेय नै आऊंला। म्हैं तो साव सीधी सुधभाय बात कही है।

जद घीसीदान रै बाप कही-आ, तो ठीक बात है। हेलौ तौ एक कांई हजार पाड़ देसी। इणमें तौ कांई जीभ घसै है। बुलाबा-तलाबा में तौ क्यूंई आंट कोनी आवै। इण भांत घीसीदान नै कैयनै हेमराज रावळा में गयौ। कानां में सोना री सांकळियां, गळा में माताजी रौ फूल, अर आंगळी में बीटीं नै हाथां में कड़ा पैहरिया। हाथ में चांदी रौ हुक्कौ लियौ। चिलमिया जचाय नै हेमराज खाथी डग भरतौ थकौ जोरदान रामदान री कोटड़ी कांनी गयौ।

कोटड़ी में तिबारी रै मुहारणै में पग धरतौ इज जैमाताजी री करनै मुडा पर बैठौ अर पावणां साम्हे नेचौ करनै बातचीत करण लागौ। नांव, गांव कांकड़-सीमाड़ी, समै-कुसमै रै काचे कुररे, धान-पात, धीणां-धापा री सगळी बातां पावणां नै पूछी अर रामदान रै डावडै री सपूताचारी रा घणा बखाण किया। इण रीत आप रा खांवचोपण री पावणां पर छाप जमायली। घणी हरख हिमळास री बातां करी। इतरै में तौ पैली रा समचा रै कारण घीसीदान आय नै हेलौ दियौ- हेम दादोभाई ! पटवारी जी आयोड़ा बैठा है थानै एक घड़ी सूं बैठा-बैठा उडीकै है। सगळा गांव में परिक्रमा काट आयौ, थे नीं लाधा। छेवट लाई पुजारी जी बतायौ कै जोरदानजी दादोभाई री कोटड़ी कांनी जावतां नै मै देखिया हा। जद ठा पड़ियौ अब वेगा चालौ। घणी ताल सूं थांकी बाट न्हाळै है।

आ सुणर हेमराज कइयौ-तूं घर चाल। मैं लारै रौ लार आऊं हूं। पछै बड़बड़ातौ थकौ बोल्यौ-राजरा अैलकार, अफसरां नै धरोड़ भावै है। अठै कठै हेमाणी गडी पड़ी है। राजा रा चाकरां नै डाकीवाड़ौ सूझियौ है। लाव राजा घूघरी, लाव राजा घूघरी री दांई रट लगा मेली है। आजादी कांई आयी, सगळी रापट रोळ मचा दी। रेबारण ही अर डाकण होगी। पछै ऊंटा चढर खाय तौ कंुण पालै। जिसा चाकर बिसा इज नेता नांगळा मिल गया। अर, औ तौ पटवारी कांई हिड़कियौ माणस इज है। सगळा खेतीखड़ा नै घुरड़ार खायगौ। बात-बात रौ पीसौ कठां सूं आवै। करसां कनै पीसां री खाना थोड़ी ई निकळे है। थोड़ा सा काम खातर इज सौ-सौ रुपया मांगलै। म्हंारै खेत री खातेदारी रौ नांवौ पळटाणौ है, सौ रुपिया मांगै है। म्हैं दस रुपिया देवणा धाम दिया पण हूंकारौ इज नीं भरै। काठौ नन्नौ झाल लियौ। पूरा एक सौ रौ पत्तो मांगै है। देखौ, कैड़ी रोळदट्ट मचा मेली है। कोई भी धोलै दिन रा आं धाड़ायतियां नै हटकणियौ कोनी कै राज थांनै रोजगार दै मेलियौ है पछै थे पीसा किण बात रा चावौ हौ। अबार जे जोरदान कनै सूं सौ री ठौड़ हजार मांगै तो इज घणां कौनी। इण रै न्यारी निरवाळी पांच सौ बीघा कांकड़ री जमीन, अेकला रै दुढांणियौ कूऔ, आछौ मकान नै सगळी थोक है। पण, म्हारै अर रामदानजी काकैजी रै तो कोटड़ी, खेड़ा और रोही री सगळी जमीन तेरह बीघा सात बिस्वा ई है। म्हां दोनां रै न कूऔ अर न जाव। पछै एक सौ रुपिया म्हां कठां सूं ल्यावां। मिन्नी नै तौ ताकळा रौ ठांम इज भारी पडै़। देखौ, किसौ अजोगो जमानौ आयौ है। न राजा न्याव न प्रजा प्रीत।

आ, कैय नै ऊठतौ थकौ हेमराज बोलियौ-ल्यौ सगाजी ! बातां री तौ कांई छेह आवै है, पण उणा कुबधी नै तौ लेसी जणां तौ दस रुपिया देय नै लार छुड़ाणी इज पड़सी। नींतर अबार रोटियां रौ फेर भचीड़ ठोक देसी। इतरी बात कैयनै हेमराज झपाक सूं उठ नै पगोतियां सूं हेटै उतर गयौ।

रामदान अर जोरदान रै काटो तो खून री बूंद इज नीं। जाणै पगां हेटै सूं धरती निकळगी। माथो भूण ज्यूं बरणाटै चढ़ग्यो। काकै भतीजै रो तन-मन पसीनै-पसीनै हुयग्यौ। पावणा रै मन में भी सांच-झूठ री घालमेल लागगी। पछै पावणौ उठ नै थैली उठाय नै बौल्यौ-घर, टाबर म्हंारै दाय आयग्यौ है। बीचेट भाई फौज में है, सौ उण नै कागद न्हाख नै फैर पूछ लूं। उण रौ पडुत्तर आवतांई आपनै सगपण री खरी पक्की लिख मेलस्यां। इण भांत कैयनै बस स्टैण्ड कांनी चाल पड़ियौ। रावळा में दमामण बैठी गाळ गावती रैयी अर चावळ लापसी पुरसियौड़ा थाळ में पड़िया रैया। पावणौ मोटर चढ़ग्यौ।


500 रूपये में स्मार्ट फोन

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भारत में स्मार्ट फोन बनाने वाली उतरप्रदेश के नॉएडा स्थित कम्पनी रिंगिंग बेल्स 17 फरवरी को देश के रक्षा मंत्री मनोहर परिकर के हाथों 500 रूपये कीमत का अब तक का सबसे सस्ता Freedom-251 Smart Phone लाँच करवाने जा रही है| इससे पहले भी कम्पनी Smart 101 के नाम से सस्ता Smart Mobile Phone बाजार में मात्र 2999 रूपये में पेश कर चुकी है|

ख़बरों के अनुसार कम्पनी की यह पेशकश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारत में आखिरी व्यक्ति तक सशक्तीकरण, भारत की वृद्धि की कहानी में बदलाव की सोच पर आधारित है। पिछले वर्ष नॉयडा में स्थापित कंपनी रिंगिग बेल्स के अनुसार वह पहले चरण में हैंडसेट को असेंबल करेगी। बाद में उसका इरादा घरेलू स्तर पर हैंडसेट का विकास करने का है। हालांकि कंपनी ने विनिर्माण, उत्पाद और मूल्य के बारे में किसी तरह का ब्योरा नहीं दिया। लेकिन मिली ख़बरों के अनुसार इस स्मार्ट फोन की कीमत 500 रूपये के भीतर होगी| हालाँकि अभी यह नहीं बताया गया है कि इस स्मार्ट फोन में क्या क्या फीचर होंगे. फिर भी जाहिर है कम्पनी ने इसे स्मार्ट फोन का दर्जा दिया है तो कुछ फीचर अवश्य ऐसे होंगे जो अभी तक महंगे स्मार्ट फ़ोन्स में ही उपलब्ध होते थे| आज जिस तरह मोबाइल फोन पर इन्टरनेट का प्रयोग बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए हर आदमी इन्टरनेट से लैस फोन चाहने की तमन्ना रखता है पर महंगे होने की वजह से हर व्यक्ति की स्मार्ट फोन्स तक पहुँच नहीं पाती| यदि कम्पनी मात्र 500 रूपये में स्मार्ट फोन उपलब्ध कराने के अपने दावे में सफल रहती है तो निश्चित ही भारत में इन्टरनेट का गांव के अंतिम व्यक्ति तक प्रसार अवश्य होगा तभी सही मायने में प्रधानमंत्री का डिजिटल भारत का सपना पूरा होगा|

डाटाविंड तो आकाश तो साबित नहीं होगा
आपको कांग्रेस सरकार द्वारा हर छात्र के हाथ में टैब देने की योजना तो याद होगी ही, जिसमें तत्कालीन मंत्री कपिल सिब्बल ने डाटाविंड कम्पनी से करार कर मात्र 2500 रूपये के टैब उपलब्ध कराने का जनता को सपना दिखाया था, लेकिन उस महत्त्वपूर्ण योजना का आकाश टैबलेट आज तक आकाश ने धरती पर नहीं उतरा| ठीक इसी तरह की आशंका इस स्मार्ट फोन में भी देखी जा सकती है, कहीं कम्पनी इतना सस्ता फोन लाँच करवाकर उपयोगकर्ताओं को उपलब्ध ही नहीं कराये और इस बहाने प्रचार पाकर अपनी पहचान बना बाजार में स्थापित हो जाये| और जनता उसके स्मार्ट फोन का इंतजार करती रहे जैसे डाटाविंड के आकाश का किया था|


Sasta Smart Phone Freedom-251, Freedom-251 Smart Phone by Ringing Bells Review in Hindi, Feature Freedom-251 Smart Phone

गुमेज गाथा बिजा देवड़ा री

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ठाकुर सौभाग्य सिंह जी शेखावत की कलम से.........
आडाबळा रा उर में आबाद आबूजी री छायां में बसियोड़ौ सिरोही सहर जिण माथै प्रक्रतीदेवी री घणी महर। बनस्पतियां री बणी जांणै इन्दर राजा रा तंबू री इज तणियोड़ी तणी। बीजी ठौड़ा नीं चढ़ै जोड़ इणी। अैड़ी सिरोही री धरा माथै देवड़ा रौ राज। देवड़ा चुहाणां री चौईस साखावों में गिणीजै। देवड़ा साख रौ निकास सोनगिरा साखा सूं भणीजै। महणसी सेनिगरा रै देवौ नांव सुत हुवौ। देवा रा जाया जनमिया देवड़ा कहीजिया। देवड़ा में सैंसमल देवड़ौ वडौ टणकैल हुवौ। आबू रा धणी पंवारां नै पांणी पाय अर ठौड़ ठिकाणै लगाय सैंसमल आबू री धरती खाटी। उण बखत सिंधौ पंवार आबू रौ धणी जिक नै सैंसमल बारैसै सोळारी साल जीत अर उण रै इज नांव माथै सिरोही री रांग भराई अर देवड़ री नुंवी राजधानी री थरपना कराई। सिरोही रा स्याम देवड़ा रहणी-कहणी रा मांटी हुवा। देस री सुतंतरता खातर घणां धळ-धौंकल किया। घणां खळखेटां में जूझिया। लोह रटाका लिया। वीरारस रा प्याला पिया। मारवाड़, मेवाड़ नै गुजरात री गड़ासंध नै कांकड़ सीमाड़ा रा रैवासी देवड़ा आपरी मातभौम रा सांचा रुखाळा। कुळ करत रा ऊजाळा। मरदमी में मतवाळा। आया-गयां अतिथियां री आवभगत में बिलाला। बळहठ बंका, जिणांरी मैमालूदारी री मैहमा रा सगळी ठौड़ा बाजिया जस डंका। कीेरत कामणी रा अैड़ा कंत कै आपरी आजादी रै तांई आरण रै अखाड़े घणां दिया अंत।

सिरोही रा सायब देवड़ां रै समहर नै ससतर सनेह रौ इज कारण है कै आखी राजस्थान में सिरोही री समसेर अर सिरोही री कटार ससतर-असतरा में सिरै गिणीजै। तरवार रा परयाय वाचक सबदां में सिरोही इण इज कारण चावौ भणीजै।

सिरोही रा सूरा पूरा समर सूरमावां में बिजौ देवड़ौ मोटौ मांटी गिणीजियौ जिक अनेक अखाड़ों में वैरिय सू कियौ कजियौ अर सूरमाई रौ सुजस खाटियौ। मुगल साइंसाह अकबरसाह रै समै में देवड़ौ बिजौ सिरोही रौ थाप-उथाप इज मनीजियौ।

सिरोही रौ खांविन्द राव मानसिंघ देवड़ौ आपरी अन्तवेळां में भरै दरबार बिजा नै तेड़ाय नैं कैयौ-सुरताण भाण रा नैं सिरोही रौ राव करावज्यौ। पण, सिरोही माथै राव मान रै पछै मेवाड़ रौ हिमायती राव कल्लौ मल्लोमल्ली आय धसियौ। जद बिजै देवडै कालिन्दरी में राव सुरताण सूं गाढ़मेळ सांध-बांध नै राव कल्ला पर धाया अर दोनूं ई ओड़ रा सूरमा कुंभळमेर कांनी चलाया। केई कायरां रा काळजा थरथराया। ना पगां रा पग घरां कांनी धकाया। सूर धीरां रा मन-मनोज आहव-अरुण रा उछाह में खिल्या नै कायर कापुरसां रा चित्त चिंता रा कर्दम कादा में कळ्या। इण विध धरती रै कागद भाला रै अचाकां री लेखण नै लाल स्याही में डबोय नै हक रौ हासल लेवणौ धामियौ। जंग रा जोधार। गनीमां रा ग्रब गंजणां। भद्रजाती गजां रा भ्रसुंडा भंजणां। जिरह बख्तरां री कड़ियां कस नै चालिया जांणै आठ इज दिसावां रा दिग्गज गाढ़ छोड़ नै हालिया। धरती चल-विचळ थई। सूरज री रोसनी गई। आकास में ग्रिझ पळचरां पंखां नै अपछरां रा रथां री छात छई। अैड़ो सौ रूपक दीठ में आयौ अर कालन्द्री रै रणखेत वीर बिजौ राव सुरताण रै पक्स चढियौ अर राव कल्ला री फौज पर चलायौ। पछै बिजौ नै कल्लौ अैड़ा जूटा कै मद आया दोय मैंगळ ठाणां सूं खूटा कै बाराह सूं बाराह टक्कर खाधी। लळवळती सूंडा रा लपेटा सिरोही री तरवारां रा झपेटां सुजड़ियां री चोटां। दांतळियार री दांतळी रा सा अचाका उठा। जांणै जोधार बिजा रै मन में धावड़ा रा धधकता सा अंगारा चींटा। पछै कल्ला री फौज नैं पराजै रौ पांणी पाय अर राव सुरताण री विजै रा दमामां घुराय बिजौ देवड़ौ सिरोही आयौ नै सुरताण नै रावाई रै पाट बैठायौ। बिजै देवड़े राव मानसिंघ नै दियोड़ौ बचन पालियौ अर राव कल्ला रै काळजै कटार रा साल सौ सालियौ। कालन्द्री री बिजै में बिजा रा जस प्रवाड़ा कवियणां घणां बखाणियां जिकां में राव कल्ला नै उण रै हिमायती मेवाड़ री हार रा आखर मांडिया। अठै उण गीतां मांय सूं एक गीत सुणाइजै नै मन में उछाह लाइजै-

बिलैपाल अड़प संसार बखांणै, केहरी भड़ां किमाड़।
मारे साथ तणौ मेवाड़ां, मांझी तूं भाळियौ मेवााड़।।
गाोडवाड़ चढ़तै गाहटियौ, गोड़विया भड़ वेणि गिनै।
मेवाड़ा बिजपाल मानियौ, मार सार संसार मनै।।
केहरी बीजा कटक कालंदरी, तैं छड़छिया चढ़ खगधार।
तैं आहड़ा नसइ पतगरियौ, अरि आवरत वड़ा असवाार।।
रे हरिराज तणा रढ़, रावत वंदिया रांणो रांण।
तैं दससहस तणा भांजै दळ, दीपियौ दससहसै दीवांण।।
अैड़ा हूंतलमल हरिराज रा जाया बिजा रै आगै मेवाड़ रा राणा उदैसिंघ अर राव कल्ला री फौज भागी अर पराजय री रजी उड कल्ला नै उदैसिंघ राणा रै मुख लागी-
विजौ बखांण बखांण, हूंतलमल हरिराज रौ।
जिण आवतां आवियौ, दीवाणै दीवांण।।
इण रीत कवि अंतमेळा दूहा में बखांणियौ जिकौ सगळै संसार रा जोधारां जाणियौ। पछै समैजोग री बात सौ राव सुरताण अर बिजा रै आपस में अैड़ी ऊधड़ी कै मानो खीर रा कड़ाव में कांजी पड़ी। दोनूवां में ठाढौ विरस हुवो, पण सिरोही री राजदुराजी रौ मुदौ मूंदड़ौ बिजा रै हाथ सौ बिजा रै बिना हलायां पान इज नों हालै। बिजौ दिन-दिन जोर चढ़तौ गयौ नै राव सुरताण घणौ इज बळ खादै पण पसवाड़ फेरण नीं पावै। बिजा नै छेड़ नै काळौ नाग कुण जगावै। सिरोही रा लोग राव सुरताण नै घणी इज कैयौ कै सिरोही रा धणी थे कै बिजौ। पण बीजा जैड़ी बलाय सूं साम्हा रोपै उण माथै मानौ जमराज इज कोपै। सांच कथी है कै वन में पंखेरुवां रा सैकड़ा ढूलरा चुगा चुगै पण बाज रा एक इज झपेटा में उणांरी स्वासा परलै लोक पूगै। उरमांवर तो अेक इज लाख नै आंगमै उण रै धकै चढियां सैनसरूप प्राण गुमै-

कांनी कायरड़ां थकां, कांसूं घणा जणांह।
हाकळियां ढूला हुदै, पंखी जांण घणांह।।
जिकौ बिजौ राव सुरताण री लाज री काज कालंदरी रै रणखेत जैत री दुंदुभी घुराई नै फतै री पताका फहराई। उणी इज बिजा अर राव सुरताण रै मन में पड़गी खटाई। आपस री मिटगी रसरसाई। पण बिजौ, लांघाबलाय सुरताण रौ नीं लागै उपाय। लटवा लबाळ लोगां सुवारथ री सवारी साज फांटौ तौ पटक दियौ पण लाभ किंणी रीत रौ नी लियौ। मतलबिया अैड़ी चाल मांडी अर बिजा सुरताण री अेकता कीनीं खांडी। कुंण सकस पूंछ दाबै नागणी बांडी। पछै छेवट हार मान नैं राव सुरताण बीकानेरिया राव राइसिंघ रौ पल्लौ झालि अर आधी सिरोही बादसाही खालसै घालि बिजा सूं पिण्ड छुडायौ। बादसाह आधी सिरोही राव सुरताण रै राखी अर आधी राणा उदैसिंघ रा बेटा राणावत जगमाल रै वतन में घाली। जद बिजौ चुप्पी झाली अर तरै भाव जोवण लागो। राणावत जगमाल राव मानसिंघ रो जंवाई। राणा प्रतापसिंघ रौ भाई राव सुरताण सूं पैली तौ राखी रसाई पण पछै आपरी बैरबानी देवड़ी रै सिखाये लाग राव सुरताण सूं अड़कसी ऊपाई। जगमाल दरगाह गयौ नै बादसाह अकबर नै सुरताण रै बरखिलाफ कैयौ। जद बादसाह राणावत जगमाल री भीड़ राव राइसिंघ चंदरसेणोत सोजत, कोळीसिंघ दांतीवाड़ा, राव गोपालदास आदि साही उमरावां मनसबदारां नै राव सुरताण पर मेलिया। राणावत जगमाल बिजा सूं भी हेत इकलास जताय डंडियौ मेलियौ। अर राब सुरताण सूं दताणी रै रणखेत खगाटां रौ खेल खेलियौ। जोगसंजोग री बात राहबेधी बिजौ तौ अंक दिन बीजी कांनी गयौ अर पाछै संू राव सुरताण मोकौ जोय नै साही सेना पर रातीबाहौ दियौ सौ भलौ सौ चकाबाहो हुयौ। साही सेनानायक राणावत जगमाल, राव राइसिंघ, कोळीसिंघ दांतीवाड़ा, राव गोपाळदास आद घणा उमराव काम आया। राव सुरताण जैत रा सैदाना बजाया। दत्ताणी रै खेत सुरताण जीतियौ पण बिजौ राव सुरताण रौ लागू बणियौ, सौ बणियौ इज रहियौ। पछै बादसाहजी राणावत जगमाल नै राव राइसिंघ रै बदलै सिरोही माथै मोटाराजा उदैसिंघ जोधपुर अर नबाब जामबेग नै भेजियौ पण राव सुरताण अडिग रैयौ। अठी नै साही फौज नै बीजौ भी कमती कद हुयौ सौ लड़ता भिड़तौ रह्यौ। बीजा री साथ इज बिजा रौ भाई लूणकरण भी जंग रौ रसियौ हुवौ। खाग अर त्याग दोनूं ओर जोर लूणकरण रौ रैयौ सिरोही में लूणकरण वडौ दातार बाजियौ। काळ दुकाळ अकाळ में मिनखां नै पोखिया-

कांसूं करिस दुकाळ, पड़सी तो भागिस पगां।
सुत हरराज सुगाळ, लूणै कियौ लूभाउवां।।

पछै बिजै रा संगळिया राव सुरताण रै आगै नाठा पण बिजै पग रोपै राखिया ठाढा। बिजा रै माथै सस्त्रां री चौकड़ियां पड़ी। कवचां री कड़ियां झड़ी फेर भी बिजा री लड़णै री हांम नीं पुरीजी। बाबहिया री स्वांत बूंद री भांत बिजा री जुध री प्यास लागी इज रैयी-
चौखंद्री चहुवांण रै बिजिया हरिराज रा।
बै भागा खुरसांण, तौ भुज छळ पतसाह रा।।
साही सेना रा नामी गरामी सिपैसालार मैदान छोड़ भागा पण वीरधीर बिजौ लोहलाट सौ अडिग रैयौ अर समर-ज्या में आपरा जीव री आहूत देय नै अमरापुर में वास कियौ। बिजा री रण पिपासा रौ बखांण कवीसरां इण भांत कियौ -
लोहां तणै मलोइ, बैठौ भड़ माथै बिजा।
त्रिखा न भागी तोइ, बळ तळ बाबहिया जहीं।।
भागज सत्र भागाह, दोमझ रढ़ दीवाण मा।
उवरसै आगाह, वलै न तेवड़सी विढ़ण।।
बिजमल हैर वराह, बिढ़तै जुत विरांमियौ ।
किर हंस पेटां मांह, अजै न आफरा ऊतरै।।

जामबेग रा भाई नैं रणांगण पौढ़ाय नै आप बिजपाल अपछरां सूं आंलिगण कर अचिंत नींद पौढ़ियौ। बिरोध रा बाण राव सुरताण नै बिजा रै बीच जिका बगलारा घालिया वै आखर बिजा रा प्राण लेय नै इज भरीजिया। वीरवर बिजा अर सुरताण रै समर री गुमेज गाथा एक वीर गीत में सुणीजै-
परां हुकम बीड़ो लियौ सगह पतसाह रै,
आवियौ विजौ नंदगिर उपरै।
पिड़ि चद्वै राव सुरताण सूं पाधरै,
हाकळै ओरिया बाज हरिराज रै।।
गाजि गुण बांण नीसांण सिरि गड़गडै,
चालि बेऊ कटक आविया चापड़ै।
धूणियै सेल झोके दिया धूधडै,
देवड़ा ऊपरै नांखिया देवडै।।
सोर भर गाजियौ ऊगतां सूर रै,
पोह खोटां खरा नींसरै पोत रौ ।
हांकती थाट खग झाट दूदाहरी,
पमंग पिड़िताळ जो माढियां पाधरौ।।
खैंग भांगां पछै मांझियां खड़खड़ै,
बिजड़ धड़ ऊकरड़ चाढ़तौ बेहड़ै।
पिसण सांगै जिसा आप आगळि पडै,
चालि जो बिजौ वैकूठ अणियां चडे।।
पछै बिजा रै लारै बिजा री जोड़ायत सत कियौ नै सुरग रौ वास लह्यौ। राव चंद्रसेन री सारधू जामतीदेवी झाळानळ में तन होमियौ। बिजौ जैड़ौ हड़ीप मांटी हुवौ अर विरोधियां रौ कच्चरघांण कर परलोक हुवौ।

हीरादे : राष्ट्रभक्ति का अनूठा उदाहरण

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Heera De of Jalaur, Hira de Story in hindi, Rashtrbhakt Hira de

संवत 1368 (ई.सन 1311) मंगलवार बैसाख सुदी 5. को विका दहिया जालौर दुर्ग के गुप्त भेद अल्लाउद्दीन खिलजी को बताने के पारितोषिक स्वरूप मिली धन की गठरी लेकर बड़ी ख़ुशी ख़ुशी लेकर घर लौट रहा था| शायद उसके हाथ में इतना धन पहली बार ही आया होगा| चलते चलते रास्ते में सोच रहा था कि इतना धन देखकर उसकी पत्नी हीरादे बहुत खुश होगी| इस धन से वह बड़े चाव से गहने बनवायेगी| और वह भी युद्ध समाप्ति के बाद इस धन से एक आलिशान हवेली बनाकर आराम से रहेगा| हवेली के आगे घोड़े बंधे होंगे, नौकर चाकर होंगे| अलाउद्दीन द्वारा जालौर किले में तैनात सूबेदार के दरबार में उसकी बड़ी हैसियत समझी जायेगी ऐसी कल्पनाएँ करता हुआ वह घर पहुंचा और धन की गठरी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए अपनी पत्नी हीरादे को सौंपने हेतु बढाई|

अपने पति के हाथों में इतना धन व पति के चेहरे व हावभाव को देखते ही हीरादे Heera De को अल्लाउद्दीन खिलजी की जालौर युद्ध से निराश होकर दिल्ली लौटती फ़ौज का अचानक जालौर की तरफ वापस कूच करने का राज समझ आ गया| और समझती भी क्यों नहीं आखिर वह भी एक क्षत्रिय नारी थी| वह समझ गयी कि उसके पति विका दहिया ने जालौर दुर्ग के असुरक्षित हिस्से का राज अल्लाउद्दीन की फ़ौज को बताकर अपने वतन जालौर व अपने पालक राजा कान्हड़ देव सोनगरा चौहान के साथ गद्दारी कर यह धन पारितोषिक स्वरूप प्राप्त किया है|
उसने तुरंत अपने पति से पुछा-
“क्या यह धन आपको अल्लाउद्दीन की सेना को जालौर किले का कोई गुप्त भेद देने के बदले मिला है ?”
विका ने अपने मुंह पर कुटिल मुस्कान बिखेर कर व ख़ुशी से अपनी मुंडी ऊपर नीचे कर हीरादे के आगे स्वीकारोक्ति कर जबाब दे दिया |

यह समझते ही कि उसके पति विका ने अपनी मातृभूमि के लिए गद्दारी की है, अपने उस राजा के साथ विश्वासघात किया है जिसने आजतक इसका पोषण किया था| हीरादे आग बबूला हो उठी और क्रोद्ध से भरकर अपने पति को धिक्कारते हुए दहाड़ उठी-
“अरे ! गद्दार आज विपदा के समय दुश्मन को किले की गुप्त जानकारी देकर अपने वतन के साथ गद्दारी करते हुए तुझे शर्म नहीं आई? क्या तुम्हें ऐसा करने के लिए ही तुम्हारी माँ ने जन्म दिया था? अपनी माँ का दूध लजाते हुए तुझे जरा सी भी शर्म नहीं आई ? क्या तुम एक क्षत्रिय होने के बावजूद क्षत्रिय द्वारा निभाये जाने वाले स्वामिभक्ति धर्म के बारे में भूल गए थे ?

विका दहिया ने हीरादे को समझा कर शांत करने की कोशिश की पर हीरादे जैसी देशभक्त क्षत्रिय नारी उसके बहकावे में कैसे आ सकती थी ? पति पत्नी के बीच इसी बात पर बहस बढ़ गयी| विका दहिया की हीरादे को समझाने की हर कोशिश ने उसके क्रोध को और ज्यादा भड़काने का ही कार्य किया|

हीरादे पति की इस गद्दारी से बहुत दुखी व क्रोधित हुई| उसे अपने आपको ऐसे गद्दार पति की पत्नी मानते हुए शर्म महसूस होने लगी| उसने मन में सोचा कि युद्ध के बाद उसे एक गद्दार व देशद्रोही की बीबी होने के ताने सुनने पड़ेंगे और उस जैसी देशभक्त ऐसे गद्दार के साथ रह भी कैसे सकती है| इन्ही विचारों के साथ किले की सुरक्षा की गोपनीयता दुश्मन को पता चलने के बाद युद्ध के होने वाले संभावित परिणाम और जालौर दुर्ग में युद्ध से पहले होने वाले जौहर के दृश्य उसके मन मष्तिष्क में चलचित्र की भांति चलने लगे| जालौर दुर्ग की राणियों व अन्य महिलाओं द्वारा युद्ध में हारने की आशंका के चलते अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर की धधकती ज्वाला में कूदने के दृश्य और छोटे छोटे बच्चों के रोने विलापने के दृश्य, उन दृश्यों में योद्धाओं के चहरे के भाव जिनकी अर्धान्ग्नियाँ उनकी आँखों के सामने जौहर चिता पर चढ़ अपने आपको पवित्र अग्नि के हवाले करने वाली थी स्पष्ट दिख रहे थे| साथ ही दिख रहा था जालौर के रणबांकुरों द्वारा किया जाने वाले शाके का दृश्य जिसमें जालौर के रणबांकुरे दुश्मन से अपने रक्त के आखिरी कतरे तक लोहा लेते लेते कट मरते हुए मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद हो रहे थे| एक तरफ उसे जालौर के राष्ट्रभक्त वीर स्वातंत्र्य की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर स्वर्ग गमन करते नजर आ रहे थे तो दूसरी और उसकी आँखों के आगे उसका राष्ट्रद्रोही पति खड़ा था|
ऐसे दृश्यों के मन आते ही हीरादे विचलित व व्यथित हो गई थी| उन विभत्स दृश्यों के पीछे सिर्फ उसे अपने पति की गद्दारी नजर आ रही थी| उसकी नजर में सिर्फ और सिर्फ उसका पति ही इनका जिम्मेदार था|

हीरादे की नजर में पति द्वारा किया गया यह एक ऐसा जघन्य अपराध था जिसका दंड उसी वक्त देना आवश्यक था| उसने मन ही मन अपने गद्दार पति को इस गद्दारी का दंड देने का निश्चय किया| उसके सामने एक तरफ उसका सुहाग था तो दूसरी तरफ देश के साथ अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी करने वाला गद्दार पति| उसे एक तरफ देश के गद्दार को मारकर उसे सजा देने का कर्तव्य था तो दूसरी और उसका अपना उजड़ता सुहाग| आखिर उस देशभक्त वीरांगना ने तय किया कि -"अपनी मातृभूमि की सुरक्षा के लिए यदि उसका सुहाग खतरा बना है और उसके पति ने देश के प्रति विश्वासघात किया है तो ऐसे अपराध व दरिंदगी के लिए उसकी भी हत्या कर देनी चाहिए| गद्दारों के लिए यही एक मात्र सजा है|”

मन में उठते ऐसे अनेक विचारों ने हीरादे के रोष को और भड़का दिया उसका शरीर क्रोध के मारे कांप रहा था उसके हाथ देशद्रोही को सजा देने के लिए तड़फ रहे थे और हीरादे ने आव देखा न ताव पास ही रखी तलवार उठा अपने गद्दार और देशद्रोही पति का एक झटके में सिर काट डाला|

हीरादे के एक ही वार से विका दहिया का सिर कट कर ऐसे लुढक गया जैसे किसी रेत के टीले पर तुम्बे की बेल पर लगा तुम्बा ऊंट की ठोकर खाकर लुढक जाता है|

और एक हाथ में नंगी तलवार व दुसरे हाथ में अपने गद्दार पति का कटा मस्तक लेकर उसने अपने राजा कान्हड़ देव को उसके एक सैनिक द्वारपाल द्वारा गद्दारी किये जाने व उसे उचित सजा दिए जाने की जानकारी दी|

कान्हड़ देव ने इस राष्ट्रभक्त वीरांगना को नमन किया| और हीरादे जैसी वीरांगनाओं पर मन ही मन गर्व करते हुए कान्हड़ देव अल्लाउद्दीन की सेना से आज निर्णायक युद्द करने के लिए चल पड़े|

किसी कवि ने हीरादे द्वारा पति की करतूत का पता चलने की घटना के समय हीरादे के मुंह से अनायास ही निकले शब्दों का इस तरह वर्णन किया है-
"हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ"

अर्थात्- विधाता आज कैसा दिन दिखाया है कि- "इस चण्डाल का मुंह देखना पड़ा।" यहाँ हीरादेवी ने चण्डाल शब्द का प्रयोग अपने पति वीका दहिया के लिए किया है|

इस तरह एक देशभक्त वीरांगना अपने पति को भी देशद्रोह व अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी करने पर दंड देने से नहीं चुकी|

देशभक्ति के ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते है जब एक पत्नी ने अपने पति को देशद्रोह के लिए मौत के घाट उतार कर अपना सुहाग उजाड़ा हो| पर अफ़सोस हीरादे के इतने बड़े त्याग व बलिदान को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसकी वह हक़दार थी| हीरादे ही क्यों जैसलमेर की माहेची व बलुन्दा ठिकाने की रानी बाघेली के बलिदान को भी इतिहासकारों ने जगह नहीं दी जबकि इन वीरांगनाओं का बलिदान व त्याग भी पन्नाधाय के बलिदान से कम ना था| देश के ही क्या दुनियां के इतिहास में राष्ट्रभक्ति का ऐसा अतुलनीय अनूठा उदाहरण कहीं नहीं मिल सकता| |

काश आज हमारे देश के बड़े अधिकारीयों,नेताओं व मंत्रियों की पत्नियाँ भी हीरादे जैसी देशभक्त नारी से सीख ले अपने भ्रष्ट पतियों का भले सिर कलम ना करें पर उन्हें धिक्कार कर बुरे कर्मों से रोक तो सकती ही है!! नोट :- कुछ इतिहासकारों ने हीरादे द्वारा अपने पति की हत्या तलवार द्वारा न कर जहर देकर करने का जिक्र भी किया है| बेशक हीरादे ने कोई भी तरीका अपनाया हो पर उसने अपने देशद्रोही पति को मौत के घाट उतार कर सजा जरुर दी|

किसनगढ़ धणी नै महादाजी पटेल

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श्री सौभाग्य सिंह जी की कलम से.............
Story of Kishangarh Maharaj Bahadur Singh and Mahadaji Patel

किसनगढ़ रा राजाजी महाराजा बादरसिंघजी बिना माथै तरवार बावै जैड़ा मिनख हा। उणा रै समै में किसनगढ़ घणौ चावौ नै ऊघड़तौ ओपतौ रजवाड़ौ गिणीजियौ। दोय सौ दस गांवां रा किसनगढ़ रा राज नै बादरसिंघजी घणौ बधायौ। आंणा-टांणा में, रीत-बैवार में, कानूनां-कायदां में। किसनगढ़ राज में किलाकोट चुणाया। तळाव बावड़ियां खिंणाया, पैदास बधाई। साहित, संगीत, चितराम कळां नै पनपाय नै किसनगढ़ सैली नै जनम दिरायौ। राजस्थान में मरैठां री खाधळव रजवाड़ां री अड़कसी, आपसरी री गोधम-धाड़, रोजीनां रा मारा-कूटा में बादरसिंघजी ऊभा पगां रैया अर किसनगढ़ नै नारां री दाढ़ां बीच रुखाळ राखियौ। कविराज बांकीदास आसियौ लिखियौ है कै-बादरसिंघजी गोडां तांई धोती राखता, कांधे माथै नागौरी धमाकौ अर लोह रा तैनाळ मैनाळ री लोहड़ी मूंठ री तरवार-राखता। इती सादगी सूं रैवता। राड़ में सदा फौज रै साथै रैवता। रजपूतां रौ, सिपायां रौ परगह रौ पूरौ आघमाण राखता। जैड़ा हुंता थकाँ भी अकल हुसियारी नै चात्रगता में सिरै गिणीजता।

अेक बार महादाजी पटेल किसनगढ़ रै सरवाड़ किला में दौय सौ सस्तर पाती ढलैतधारी मिनखां नै लेय राजाजी री मिजमानी में गयौ। महादाजी मरैठां में सिरै बुध, मौटौ सेनाधपत अर जोमराड़ मांटी हौ। मल्हाररावजी, जनकौजी, जयअप्पाजी सगळां सूं घणौ अकलवान, जोधार अर राजनीति में पैराक हौ। मरैठां रा सगळां धड़ां में महादाजी धूजी ज्यूं मरैठां इत्यास में दिसै। महादाजी पटेल बाजिया। पटेल माथा पर पट्टा राखै। उण नै पटेल कैवै। दूजौ पटेलाई, राज रौ लगाण, रेख ऊगावै, उणनै भी पटेल कैवै। तीजौ राज री राजनीतरी चौधर, न्याव थपाव, भांगझड़ करै जिका नै भी पटेल नाँव सूं लोगबाग ओळखै। राजस्थान में जाट जात रा मुखिया नै पटेल कैवै है। पटेल प्रतिष्ठा रौ नै अपणात रौ सबद है।
महादाजी रौ बादरसिंघजी सांतरौ स्वागत कियौ। भांत-भांत री भुगत कर जिमाया। घणी मान मनवार कर गोठ दी। रात रा नाच-गाणा रौ सांसक्रितिक प्रोग्राम नै ख्यालां रौ उछव करायौ। जद सयन रौ बगत हुवौ महादाजी राजाजी नै कैयौ-राजाजी जे अबार म्हारै मन में औ सरवाड़ रौ किलौ खोसबा नै लूटबा री आ जावै तौ थां कांई करौ। अटै थांरै कनै तौ पचास-साठ बूढा ठेरा माणस इज है। राजा बादरसिंघजी कैयौ-‘‘औ, तौ सांच है। म्हांरौ किसनगढ़ है इज कितरौ सौ। पछै ढूंढाड़, मारवाड़, मेवाड़, अजमेरां री कांकड़ सीवाड़ी में बसा हां। कोई खोस लै तौ कांई टणकाई करां ?’’ आ, वात कैय नै राजाजी पटेलजी री निजर बचाय आंख री सैनकारी करी सौ पलक झपकतां रै साथ इज किला री बुरजां में ओलै बैठा पांची हथियारां सूं सजियोड़ा पांच सौ जोधार किला रै औळी-दौळी आय ऊभा व्हिया। पटेलजी राजाजी रा परबन्ध अर सावचेती सूं अचंभित व्है रैया। राजा कह्यौ-महादारावजी ! कंठीर रा कंठा रौ कांठलौ, ब्याळ रै मुंहडा रा बाळ अर रजपूत रै जीवरखां नै हाथ कुंण घालै। पटेलजी हकीगत जाण मुळक पड़या।

पछै दोनूं जुगजोधारां पटेलजी नै राजाजी रै घणौ मेळ रैयौ।

राणाजी नै राजकुंवार

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श्री सौभाग्य सिंह जी की कलम से........
Story fo Maharaja Fateh Singh and Maharaja Bhopal Singh, Udaipur in Rajasthani Bhasha
राजस्थान में मेवाड़ रा सीसोदिया राजवंस कुळ गौरव अर उण रै सुतंतरता री रक्षा रै खातर घणौ ऊंचौ, आदरजोग अर पूजनीक मानीजै। राजस्थान रा बीजा रजवाड़ां में मेवाड़ वाळा सदा अपणी मान मरोड़, कुरब कायदा कांनी ऊभा पगां रैवता आया है। इण सूं उण नै धन, मिनख री हाण अर घणी अबखाई रा कामां सू भटभेड़ियां भी लेवणी पड़ी। मेवाड़ रौ आडंबर तौ आखा बाईसा रजवाड़ां में नामी इज हौ।
पख हाड़ौती माळवौ, ढब देखै ढूंढाड़।
आखर परखै मुरधरा, आडंबर मेवाड़।।


मेवाड़ रा धणी महाराणा फतैसिंघ मेवाड़ री म्रजाद रा छेला रुखाळा हा। कारण ब्रजादा रा बंधणां में चाल्या घणी अड़ेच, अबलाई सहणी पड़ै। असरधा वाळां सूं परम्परावां नी निभाइजै। महाराणां फतैसिंघ अर उणा रै इकोलडा महाराजकुंवार भोपाळसिंघ रै आपस में अमेळ व्है गयौ। चाडीगारा नारदिया तौ मौका री बाट जोवता ही रैवै। आपस री अडकसी में नान्हा मिनखां रा फौ लागै। वडा लोगां रा कामेती, पासवान आधी पड़ती सांच नै तोड़मोड़ धर कळह कराय आपरी दूकान चलाय लै। ‘घर रा तौ पराया अर पराया घर रा’ इण इज भांत री कुबधां सूं हुवै है। चालबाज लोग पाव नै पंसेरी अर राई नैं पहाड़ बणा देवै। वडा लोगों में भी कूड़ा-कूड़ री छाण बीण करण री आदत कम है। कानां रा तौ काचा वडा मिनख सदा सूं ही बाजै। पण, महाराणा फतैसिंघ में अै ओगुण नीं हा। फेर भी एक बडा राजा तौ हा इज। चुगली चांटीगारा लोग भी बड़ा फरेबी हुवै। मगरमछ रा आंसू तौ उणां रै कनै हर पुळ, हर घड़ी त्यार ही रैवै है। महाराणा फतैसिंघ भी चुगली री सूळ ने मेट नीं पाया। मेवाड़ रौ आडंबर उणा रै आडौ फिर गयौ। इणा सूं बाप बेटा एक जाजम माथै विराज नै चुगलां रै मुंहडा पर थाप नीं दे पाया। उणंारै बीच दिन दूणौं रात चोगणौ आंतरौ पड़तौ रैयौ। पण फतैसिंघ घणी देखियोड़ा हा। जमाना री रग-रग नै जाणता-पिछाणता। महाराणा कनै जिको कोई जुवराज री खोटी-खरी चुगली झूठ काढ लेवता। महाराणा नै जिका लोग जुवराज री चुगली चाडी करता वे लोग जुवराज री मूंछा रा बाळ भी वण्या रैवता। अेक साथै दौनां घोड़ों पर चढ़िया रैवता। चित भी म्हॉरी पुट भी म्हॉरी। उठी नै महाराणा री जुवराज कानां में भळी-मूंडी घालता रैवता। पण फतैसिंघ जुवराज री सिकायत रा ओळिमा आप रा कलमदान में मेलावता। किणी बीजा रै हाथ नीं पड़बा देवता। महाराणा फतैसिंघ रै छैला दिनां में अेक दिन महाराणा सा जुवराज भोपाळसिंघ नै बुलवायौ अर आप रा कलमदान री कूची सूंपता थका कैयौ-म्हॉरौ सरीर बीत जावै जद पछै। इण कलमदान नै हाथौंहाथ संभाळज्यौ। किंणी दूजा नै मतां दीज्यौ।
थोड़ा सा दीहाड़ों पछै इज फतैसिंघ देवलोक हुयग्या। जुवराज समझयौ कोई बेस कीमती कागद, रुक्का, सीख भोळावण या आखरी इंछ्या लिखी होसी। पछै भोपालसिंघ गादी बिराज पछै उण कलमदान नै खोलियौ। उण में पांच सौ रै अड़ैगडै़ कागद रा ओळिया निकळिया जिक में भोपालसिंघ रा घणा मरजीदानां रा आखरां सूं फतैसिंघ नै भोपाळसिंघ री सिकायतां करियौड़ी मिळी।
महाराणा भोपाळसिंघ अेक-अेक कागद नै पढ़ता गया, फाड़ता गया। उणा री आंखिया में गंगा-जभना उमड़ आई। आंसुवां रा चौसरिया बहबा लागा। पास खवासा रा मुंहडा पीतळीजग्या। महारांणा अेक निसासो नांख नै कैयौ-राजावां री म्रजादा नै आडंबर भी कैड़ा है जिकौ पिता पूत मिळ बैठ नै बातचीत भी नीं कर सकै। हेताळु रै रूप में चाडीगारा संपळेटिया कांई-कई नीं कर न्हाखै। दूजै इज पळ उण नकली हेताळवां रै प्रति उणरै चेरै पर ग्लाणी रा भाव उतर आया। महाराणा फतैसिंघ रै साथ बरती भावनावां नै धड़ी धारणावां रै खातर अपार दरद, असीम पीड़ अर पछतावौ माथौ धुणाबी लागी।

मांडळ रौ बंधौ

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श्री सौभाग्य सिंह जी शेखावत की कलम से.......

Story of Mandalgarh Dem in Rajasthani Bhasha राजा लोग आपरा कवरां भंवर नै राजकाज रौ व्यवहार, रीत-क्यावर, रौ सांप्रतेक ग्यान करावण तांई बारी-बारी सूं उणा नै राज रा महकमां रौ काम संूपिया करता। इण सूं उणां नै काम-काज री लकब, मिनख री परख, काम-काज रौ तरीकौ आप रौ ग्यान मिलतौ। देसी रजवाड़ां री टैठ री चाल सूं राजा रै रामसरण हुवां पछै उण रौ मोबी कुंवर इज पाट बैठतौ। बाकी रा छोटा कुंवरां नै राज री पैदास नै आमदनी-रै माफक जीवका-जागीर पटै में मिळती। आ परम्परा गूढ़ विचार वमेक रै पछै चालू हुई ही।
कारण, भायां में बरौबर सारखौ बंटवाड़ौ करियां राज री सकती इज बीखर जावै अर पछै सासन में निबळता आ जावै। महाराणा फतैसिंघ रै तौ अेक इज भोपाळसिंघ कुंवर हा। इणां नै राजरीत सिखावण तांई फतैसिंघ बारीबारी सूं राज रा कारखानां, कमठाणा, अर विभाग रा काम भोळाया। फतैसिंघ जिण साल भोपाळसिंघ नै माल रा महकमा रौ काम दियौ उणी इज साल मेवाड़ में ठाढी, बिरखा पड़ी। मेह री अधिकता सूं मेवाड़ रा घणखरा तळाव, बंधा, नाडा, निवाण पाणी सूं छबा-छब, छिलाछिल भरीजग्या। कितरा ई बंधा टूट ग्या अर आखी मेवाड़ बाढ़ रा पाणी संू रेळपेळ व्हैगी । उण मेह रा जोर सूं मेवाड़ रै मांडळ रौ वडौ तळाव टूटग्यौ। अर उण रा पाणी रा बहाव सूं अजमेर रतळाम लैण री रेलगाडी रा चीला ऊपड़ग्या। रेल री पटड़ियां बह नै न जांणै कठै रेत में दबगी। इण सूं अंग्रेजी राज में हजारां रिपियां रौ खाडौ घलग्यौ। बीं रेल लेण री मालक अंग्रेज सिरकार ही। अंग्रेज सिरकार आपरी खामी कद मानै। राजावां रा झुंथरिया ऊपाड़ण में त्यार बैठी रैवती इज।

अंग्रेज सिरकार बंधा सूं व्हियोड़ा नुकसांण नै मेवाढ़ राज रै माथै मांडण नै महाराणाजी पर दावौ चलाणों तै करियौ। आमां-सामां कामेती, बावसू फिरिया। पछै भारत री अंग्रेज सिरकार मेवाड़ सिरकार संू खामिजायौ लेय रेल री पटड़ी पाछी बणावणै री पटड़ी बैठावण लागा। महाराणाजी उण दावा रा कागद मिसलां जुवराज भोपाळसिंघ कनै मोकळ दिवी। भोपाळसिंघ आपरा सल्लाकारौं सू सल्ला सूत तेवड़ी। अंत पंत में आ तै रैयी कै तळाव फूटणै सूं रेल री पटड़ी अर रेल रा टेसणां रौ खोगाळ हुवौ है। इण वास्तै औ हरजाणौ मेवाड़ रै लागसी। इण रीत हरजाणौ देवण री सल्ला कर नै हरजाणा भरबा रा फार्मा रा काचा मसौदा बणावण लागा। कागद जद त्यार व्हैग्या तद महाराणाजी री मंजूरी ताई पेसी में खिंनाया। महाराणाजी सज्जनगढ़ पधारियोड़ा हा। उठै डाक रौ थेलौ गयौ।
महाराणाजी सगळा वाद बिबाद सूं वाकब तौ हूंता इज। मेवाड़ रा जबाव रा कागदां ने न्हाळ अर हंसबा लागा। दूजै ही पळ उण नै खारिज करता थकां लिख्यौ । मांडळ रौ बांध चार-सौ पांच-सौ साल जूनौ बणियौ थकौ है। अर रेल री पटड़ी बणियां नै तीस चालीस बरसां सूं ज्यादा समै नीं हुवौ। इण वास्तै अंगरेज सिरकार रेल री पटड़िया बिछाई अर चीला न्हाखियां जद पैली देखणौ हौ कै तळाव पुराणौ है कदै फूट नीं जावै। तळाव रा जळ रा बहाव सूं अळगी पटड़ियां बणावणी चायिजती ही। आगली पाछली नीं विचारणै सूं औ नुकसाण हुवौ जिण रौ दायौ अंगरेज सिरकार रौ है। मेवाड़ सिरकार रौ इण नुकसाण सूं क्यूं ई तल्लौ मल्लौ नीं है।

महाराणा फतैसिंघ रौ ओपतौ पडू़तर पाय अंगरेज सिरकार चुप्पी घालण में इज आप रौ भलौ दीठौ। कैड़ौ जावण दियौ जिण नै बिना चाखिया इज ताळवौ चिपग्यौ।

जब एक थानेदार ने दर्ज की आईजी पुलिस के खिलाफ रपट

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Sant Thanedar Ramsingh Bhati
आपने ऐसे कई प्रसंग सुने होंगे कि फलां थानेदार चाहते हुए उपरी दबाव में किसी अपराधी के खिलाफ कार्यवाही नहीं कर पाया| इस देश में आज भी कई थानेदार, पुलिसकर्मी या अन्य विभागों में सरकारी कर्मचारी, अधिकारी है जो ईमानदारी से काम करना चाहते है पर वे ऊपर के विभागीय या राजनैतिक दबाव के चलते निष्पक्ष कार्य नहीं कर पाते| ऐसे में संत थानेदार एक प्रेरणास्पद व्यक्तित्व है जो कभी भी ऊपरी दबाव नहीं आये और उन्होंने किसी भी मामले में न्यायोचित जाँच व कार्यवाही की| यह उनकी ईमानदारी व कर्यव्यपरायणता का ही कमाल है कि आज भी उस संत थानेदार का समाधि मंदिर और आश्रम आध्यात्मिक-पथ अनुगामियों के साथ आं जनता के लिए आस्था व आकर्षण का केंद्र है|
जी हाँ ! हम बात कर रहे है संत थानेदार के नाम से विख्यात थानेदार रामसिंह की| जिन्होंने कभी भी पराये धन को हाथ नहीं लगाया| अपने सहायकों से कोई व्यक्तिगत काम नहीं कराया, कभी मुफ्त में रेल बस यात्रा नहीं की| कभी किसी मामले की जाँच में ऊपरी दबाव में नहीं आये| बल्कि उनकी छवि के चलते उनके उच्चाधिकारी उनसे कभी किसी की सिफारिश भी नहीं करते थे| यह थानेदार रामसिंह की कर्तव्यनिष्ठा की पराकाष्ठा ही थी कि एक बार उन्होंने जयपुर राज्य के पुलिस महानिरीक्षक के खिलाफ बिना किसी खौफ के अपने थाने के रोजनामचे में रपट दर्ज कर ली| इस घटना पर संत थानेदार पुस्तक के लेखक शार्दुल सिंह कविया अपनी पुस्तक में लिखते है- "महात्मा गांधी की डांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह के फलस्वरूप समूचे देश में चेतना की एक नई लहर फैल गई थी। राजस्थान की देशी रियासतें भी इससे अछूती नहीं रही। राजस्थान में इन्हीं दिनों प्रजामण्डल की स्थापना हुई जिसने आगे चलकर जन-आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

एक बार प्रजामण्डल से प्रेरित होकर ऐसा ही कोई आन्दोलन गीजगढ़ ठिकाने में चला, जिसमें व्यापारी वर्ग अग्रणी था। तत्कालीन जयपुर राज्य में गीजगढ़, चांपावतराठौड़ों का बड़ा ठिकाना था। गीजगढ़ ठाकुर उन दिनों जयपुर स्टेट कौन्सिल के मेम्बर थे और जयपुर राज्य के प्रभावशाली सामन्तों में उनकी गणना की जाती थी। वे नहीं चाहते थे कि उनके यहाँ कोई इस प्रकार का आन्दोलन हो।इसे दबाने के लिए ठाकुरगीजगढ़ने यंग साहबसे परामर्श किया। एफ.एस. यंग एक अंग्रेज अधिकारी थे, जो जयपुरस्टेटमें महानिरीक्षकपुलिस के पद पर आसीन थे।

यंग साहब ने चतुराई से काम लिया। सादा कपड़ों में कुछ लोग गीजगढ़ पहुँचे। इन लोगों ने डंडे के जोर से व्यापारियों का मुँह बन्द करना चाहा। लोगों को डराया-धमकाया और बल प्रयोग किया। इसी आवेश में उनके मुखिया के मुख से यह निकल गया कि हम यंग साहब के आदमी हैं, तुमको सीधा कर देंगे।

आखिर सताये हुए लोगों ने पुलिस थाने में पुकार मचायी। दैवयोग से भाटी रामसिंह थाना प्रभारी थे। वे पुलिस बल लेकर तत्काल गीजगढ़ पहुँचे। वहां जाने पर पता लगा कि जान-माल का नुकसान नहीं हुआ, मारपीटहुई है।मारपीट करनेवाले तब तक फरार हो चुके थे।
थानेदार रामसिंह ने केस दर्ज किया। मामले की तहकीकात की, और बयान कमलबन्द किए। बयानों में यह स्पष्ट उल्लेख आया कि उन डंडाधारी हमलावरों का मुखिया, जिसने कुल्लेदार साफा बाँध रखा था और दिखने में पंजाबी मालूम होता था, कह रहा था कि हम यंग साहब के आदमी हैं। थानेदार भाटी रामसिंह ने बयानों को ज्यों का त्यों लिख लिया और रोजनामचे में एफ.आई.आर. दर्ज कर ली।

क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को जब इस रपट का पता लगा तो रोजनामचा अपने कब्जे में ले लिया और कहने लगा, ‘थानेदार साहब ! आपने यंग साहब के खिलाफ रोजनामचा रंगा है, अब आपकी महात्माई चौड़े आ जाएगी।' इस पर थानेदार रामसिंह ने उत्तर दिया, “मैंने अपना फर्ज अदा किया है। अपनी ओर से कोई बात नहीं लिखी है।'
अपनी वफादारी दिखाने के लिए वह डिप्टी रोजनामचा लेकर तुरन्त जयपुर पहुँचा। उस समय काशीप्रसाद तिवाड़ी जयपुर के पुलिस अधीक्षक थे। वह अधिकारी एस.पी. के सामने हाजिर नहीं हुआ और रोजनामचा लेकर सीधा ही जलेब चौक आई.जी.पी. यंग साहब के पास पहुँच गया। अवसर पाकर रोजनामचा पुलिस महानिरीक्षक के समक्ष रख दिया और अर्ज किया, “यह पुलिस थाना बस्सी का रोजनामचा है, इसमें थानेदार रामसिंह ने हुजूर के खिलाफ रपट दर्ज करली।'
यंग साहब सब काम छोड़कर चौकन्ने हुये और रिपोर्ट सुनाने को कहा। डिप्टी मियाँ मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। उसने रिपोर्ट सुनाना आरम्भ किया। यंग साहब ने रोजनामचा ध्यान से सुना। जब सुन चुके तो दोनों हाथ फैलाकर कुर्सी की पीठ पर लुढ़ककर दिल खोलकर हँसे। फिर रोजनामचा लाने वाले पुलिस अफसर से कहने लगे, "रामसिंह थानेदार ऐसी रपट लिख सकता है, तुम लोग नहीं लिख सकता, तुम लोग मैला (भिष्टा) खाता है|"

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सेठ पोद्दार और आईजी यंग को चवन्नी

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Sant Thanedar Ramsingh Bhati
संत थानेदार रामसिंह भाटी की ईमानदारी की बात जन-सामान्य तक फ़ैल चुकी थी| तत्कालीन जयपुर राज्य के पुलिस महानिरीक्षक मि. यंग ने भी सुना कि उनकी पुलिस में एक ऐसा थानेदार है जो रिश्वत लेना तो दूर प्याऊ पर पानी भी मुफ्त में नहीं पीता| कहीं मुफ्त में खाना नहीं खाता किसी के भी दबाव में जाँच को प्रभावित नहीं करता| हर काम न्यायोचित करता है|
तब मि.यंग ने खुश होकर महात्मा थानेदार के नाम से प्रसिद्ध थानेदार रामसिंह को बुलवाया| अपने कार्यालय में आईजी ने थानेदार की ईमानदारी से खुश होकर उन्हें खाने के लिए दो संतरे भेंट किये| थानेदार ने संतरे लेकर तुरंत अपनी जेब से एक चवन्नी निकाली और आईजी साहब की टेबल पर रख दी|
आईजी यंग दुविधा में पड़ गया और थानेदार रामसिंह से कहने लगा- क्या मैं तुमसे इनकी कीमत लूँगा?
संत थानेदार ने विनम्रता से उत्तर दिया-"साहब बहादुर ! मैं मुफ्त की चीज नहीं खाया करता| सो मैं माफ़ी चाहता हूँ| आपको संतरों की कीमत लेनी ही होगी|
आखिर विवश होकर आईजी मि.यंग को संत थानेदार द्वारा दी गई चवन्नी लेनी ही पड़ी|
ठीक इसी तरह नवलगढ़ के धनाढ्य सेठ राजा रामदेव पोद्दार को भी थानेदार से एक चवन्नी मिली| एक दिन वे रेल गाड़ी से नवलगढ़ रेल्वे स्टेशन उतरे| उन दिनों राजस्थान में आवागमन का साधन ऊंट सर्वसुलभ था| सेठ पोद्दार के बाहर से कोई मेहमान आने वाला था सो उन्होंने मेहमान को लाने के लिए अपना सजा-सजाया ऊंट रेल्वे स्टेशन पर भेजा था| गाड़ी आई पर मेहमान नहीं आया| संयोग से गाड़ी से संत थानेदार उतरे जिन्हें ऊंटवान पहचानता था| सो उसने थानेदार साहब को ऊंट पर बैठा लिया और थाने ले आया| थानेदार ने ऊंट से उतरते ही ऊंटवान को धन्यवाद के साथ किराए के रूप में एक चवन्नी दी| ऊंटवान संकोच में पड़ गया क्योंकि करोड़पति सेठ का ऊंट कभी किराए पर नहीं चलता था| सो भला वह थानेदार से कैसे किराए ले सकता था| उसने किराया लेने से काफी मना किया पर थानेदार साहब कहाँ मानने वाले थे, आखिर ऊंटवान को किराए के रूप में चवन्नी लेनी ही पड़ी|

ऊंटवान ने सेठ की हवेली पहुँच सेठ को सारी कहानी बताते हुए चवन्नी सुपुर्द की| सेठ ने चवन्नी हाथ में ली, निरखा-परखा, मन ही मन मुस्कराये और चवन्नी को संभालकर तिजोरी में रख लिया और ऊंटवान से कहा-"यह चवन्नी संत थानेदार रामसिंह के हाथ की दी हुई है| हमारा सौभाग्य है कि हमें उनके हाथ की चवन्नी मिली, अपने बहुत यह काम आएगी|"

रावल दूदा भाटी (1319 ई. से 1331 ई.)

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“इण गढ़ हिन्दू बाँकड़ो”
रावल दूदा भाटी (1319 ई. से 1331 ई.)
जैसलमेर का साका (धर्म युद्ध) और जैौहर


जैसलमेर के प्रथम साके में रावल मूलराज और राणा रतनसी ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना का सामना किया था इस साके में जौहर हुआ और तत्पश्चात् जैसलमेर पर मुस्लिम राज हुआ। पाँच वर्ष बाद रावल दूदा भाटी वहाँ का शासक हुआ और उसने भी दिल्ली के मुसलमान तुगलक सुल्तानों से जबरदस्त लोहा दिया।
रावल के भाई त्रिलोकसी ने सुल्तान के क्षेत्र में धाड़ा और लूट आरम्भ करा दी और सुल्तान के एक सामन्त काँगड़ बलोच को मार डाला और उसके बहुत से घोड़े ले आए। इसी प्रकार सुल्तान के लिए उन्नत नसल के घोड़े जा रहे थे सो वे भी रावल ने लूट लिए। इसके अतिरिक्त रावल दूदा ने तुगलक के राज्य में इतने बिगाड़ किए कि जिनकी गिनती नहीं।
इस पर मोहम्मद तुगलक ने एक बड़ी सेना को जैसलमेर दुर्ग पर भेजा जिसने गढ़ का घेरा डाला। रावल दूदा ने जौहर और साका करने का निश्चय तो बहुत पहले ही कर रखा था। अब वह मुस्लिम सेना पर रोज धावे करने लगा। बहुत दिनों तक घेरा पड़ा रहा परन्तु कोई सफलता नहीं मिली। एक दिन दुर्ग के भीतर गन्दे सुअरों के दूध से पत्तले भर के दुर्ग के बाहर फेंकी। इससे मुसलमानों को महसूस हुआ कि अभी तो दुर्ग में दूध दही बहुत है। अतः वे घेरा उठा कर चल दिए। परन्तु देशद्रोही भीमदेव ने शहनाई बजाकर संकेत भेजा कि दुर्ग में रसद समाप्त होने को है। ऐसा भी कहते है कि उसने संदेश कहलवाया था। अतः मुसलमानों ने पुनः दुर्ग पर घेरा डाला।
"रावल जमहर राचियो’’
इस प्रकार रावल ने साका करने का समय जानकर रानी सोढ़ी को जौहर करने की तिथि बताई। रानी ने स्वर्ग में पहचान करने के लिए रावल से शरीर का चिन्ह मांगा तब रावल ने पैर का अंगूठा काट कर दिया। दशमी के दिन जौहर हुआ। रानी ने तुलसीदल की माला धारण की तथा त्रिलोचन, त्रिवदन लिए और 1600 हिन्दू सतियों ने अग्नि में प्रवेश किया। अगले दिन एकादशी को रावल ने साका करने का विचार किया था सो सभी योद्धा मिल रहे थे। एक युवक राजपूत धाडू जो 15 वर्ष का था सो जूंझार होने वालों में से था। उसने सुना था कि कुंआरे की सद्गति नहीं होती है। अतः वह दु:खी हुआ। यह जानकर रावल ने अपनी एक मात्र राज कन्या जो नौ वर्ष की थी से धाडू का विवाह दशमी की आधी रात गए कर दिया। प्रभात होने पर उस राजकन्या ने जौहर में प्रवेश किया। अब एकादशी की दुर्ग के कपाट खोले गए और 25 नेमणीयात (नियम धर्म से बन्धे) जूझारों के साथ सैकड़ों हिन्दू वीर शत्रु पर टूट पड़े। रावल दूदा के भाई वीर त्रिलोकसी के सम्मुख पाँजू नामक मुस्लिम सेना नायक आया। यह अपने शरीर को सिमटा कर तलवार के वार से बचाने में माहिर था। परन्तु त्रिलोकसी के एक झटके से सारा शरीर नौ भाग होकर गिर पड़ा। इस पर रावल दूदा ने त्रिलोकसी की बहुत प्रशंसा की। कहा इस शौर्य पर मेरी नजर लगती है।

कहते है तभी त्रिलोक सी का प्राणान्त हो गया। इस भयंकर युद्ध के अन्त में 1700 वीरों के साथ रावल दूदा अपने 100 चुने हुए अंग रक्षक योद्धाओं के साथ रणखेत रहे। भारत माता की रक्षा में रावल दूदा ने अपना क्षत्रित्व निभाया और हिन्दुत्व के लिए आशा का संचार किया। रावल दूदा सदा ही अपने को “सरग रा हेडाऊ” अर्थात् स्वर्ग जाने के लिए धर्म रक्षार्थ युद्ध में रणखेत रहने को तत्पर रहते थे। 1. त्रिलोकसी भाटी, रावल के भाई 2. माधव खडहड़ भाटी 3. दूसल (दुजनशाल) 4. अनय देवराज 5. अनुपाल चारण 6. हरा चौहान 7. घारू इस प्रकार जैसलमेर ने 'उत्तर भड़किवाड़' अर्थात् देश के उत्तरी द्वार कपाटों के रक्षक के अपने विरुद को चरितार्थ किया और भारत के प्रहरी का काम किया।

संदर्भ : 1 नैणसी री ख्यात द्वितीय 2- Rajasthan Through the Ages I, Dr. Dashrath Sharma,
लेखक : राजेंद्र सिंह राठौड़, बीदासर
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महाराणा हम्मीर सिसोदिया, मेवाड़ (1336ई.)

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Maharana Hammir Sisodia, Mewar
अलाउदीन खिलजी द्वारा सारे उत्तरी भारत की आधीन कर लिए जाने से भारतीयों में निराशा आ गई थी । 1303 ई. में अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीत लिया था । इस देश की रक्षा के युद्ध में मेवाड़ के गुहिलवंश की वरिष्ठ शाखा जिसका राज्य चित्तौड़ पर था और जिसकी उपाधि रावल थी, का अन्त हो गया था ।
गुहिलवंश की कनिष्ठ शाखा जिसका राज्य हल्दीघाटी खमनौर के पास सिसौदा पर था और जिनकी उपाधि राणा थी के राणा लक्ष्मण सिंह भी अपने सात राजकुमारों सहित अलाउद्दीन की सेना से 1303 ई. में लड़कर काम आ गए थे । राणा लक्ष्मण सिंह के पुत्र अरिसिंह के पुत्र हम्मीर हुए जो अपने चाचा अजयसिंह की मृत्यु के बाद सिसौदा के राणा बने औरकेलवाड़ा को केन्द्र बना कर अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । सिसौदा के शासक होने के कारण वे सिसौदिया कहे जाने लगे ।

1336 ई. में उन्होंने चित्तौड़ को दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद तुगलक के करद शासक वणबीर चौहान से लड़कर मुक्त करा लिया था । इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप दिल्ली के सुल्तान की सेना ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया और सिंगोली के युद्ध में वह हार कर भाग गई ।चित्तौड़ से प्राप्त महावीर प्रसाद की प्रशस्ति 1438 ई. के अनुसार हम्मीर ने तुरूष्कों (तुर्क मुसलमानों) को परास्त किया था । इस विजय पर हम्मीर को “विषमशील पंचानन” कहा गया । यह वही समय था जब कर्नाटक में राजा कृष्ण देवराय ने विजय नगर के हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी|

संदर्भ : राजेन्द्र सिंह राठौड़ बीदासर की पुस्तक "राजपूतों की गौरवगाथा" से साभार

आओ मोबाइल एप बनायें

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How Make Android Mobile App Tutorial in Hindi, Android Studio tutorial in Hindi
जब से मोबाइल पर इन्टरनेट की सुविधा मिली है, बाजार में कई स्मार्ट फोन उपलब्ध हुए है तब से मोबाइल फोन ने कंप्यूटर पर व्यक्ति की निर्भरता कम ही नहीं की बल्कि  मोबाइल कंप्यूटर का विकल्प तक बनने की और अग्रसर है|  इस बीच गूगल द्वारा Android ऑपन सोर्स ऑपरेटिंग सिस्टम उपलब्ध कराने के बाद मोबाइल क्रांति को पंख लगे है|
Android ऑपन सोर्स ऑपरेटिंग सिस्टम की खास बात यह है कि आप Android फोन ने चलने वाली कोई भी एप्लीकेशन खुद बनाकर उसे प्रयोगकर्ताओं के लिए गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध करा सकते है| इस तरह की एप्लीकेशन में आप अपनी किसी भी तरह की वेबसाइट, ब्लॉग, सेवा आदि की एप्लीकेशन बना सकते है|
Android ऑपन सोर्स ऑपरेटिंग सिस्टम आने के बाद आजकल हर किसी की अपनी वेबसाइट,ब्लॉग आदि का एप लाँच करना प्राथमिकता बन गई है तो क्यों ना मोबाइल एप बनाने के बारे में चर्चा की जाय-

हालाँकि इन्टरनेट पर ऐसी कई वेबसाइटस उपलब्ध है जो कुछ ही क्षणों में बिना किसी प्रोग्रामिंग की जानकारी के मोबाइल एप बना देती है| लेकिन ऐसे एप की अपनी सीमाएं होती है| बनाने वाली वेबसाइट आपके एप में अपने विज्ञापन डाल देती है, ऐसे में यदि आप अपने विज्ञापन डालकर कमाई करना चाहते है तो उससे वंचित हो जाते है| अत; इस तरह की वेब साइट्स से एप बनाने की बजाय सीधे Android Studio सॉफ्टवेयर के माध्यम से अपना एप खुद ही बना लेना चाहिये|
तो आईये आज सीखते है बैसिक एप बनना यानि एप बनाने की पहली कड़ी|
1- सबसे पहले इस लिंक पर क्लिक कर Android Studioसॉफ्टवेयर जो मुफ्त है डाउनलोड कर अपने कंप्यूटर में इनस्टॉल करें |
2. अब Android Studio खोलें और Start a new Android Studio project पर क्लिक कर आगे बढे


3. नीचे चित्र में दिखाए अनुसार अपने एप का नाम दें, और आगे बढ़ें 

4. नीचे के चित्र के अनुसार सबसे ऊपर कम से कम Android SDK चुने और नेक्स्ट बटन पर चटका लगा दें !

5.‘Blank activity’ चुने और Next पर क्लिक आगे बढ़ें .



6. फिनिश पर चटका लगाते ही Android Studio आपका बेसिक एप बनना शुरू कर देगा. कुछ देर बाद आपको निम्न चित्र के अनुसार दिखाई देगा, जैसे ही आप चित्र में बताये लाल निशान के अन्दर के बटन Run पर क्लिक करेंगे आपका एप बन चूका होगा|


7. Run पर क्लिक कर एप बनाने के बाद अपने एप की apk फाइल (जिसके माध्यम से एप मोबाइल में इनस्टॉल किया जाता है) बनाने के लिए आप Build में जाकर जनरेट साइनन्ड एपीके पर क्लिक कर अपने एप की apk फाइल बना अपने मोबाइल में इनस्टॉल कर सकते है|

नोट : किसी भी वेब साईट या ब्लॉग का एप जिसे Web View Android App कहा जाता है बनाने के बारे में जल्द जानकारी दी जायेगी|









राव मालदेव राठौड़,

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Rao Maldev Rathore, Jodhpur History in Hindi, Rao Maldeo Rathore of Jodhpur (Marwar) History

मालदेव से मुँह की खाकर शेरशाह था घबराया।
जब-जब कुचला गया धर्म तब हमने ही फुफकारा हो।|

राव मालदेव जोधपुर के शासक राव गाँगा राठौड़ के पुत्र थे। इनका जन्म वि.सं. 1568 पोष बदि 1 को (ई.स. 1511 दिसम्बर ५) हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् वि.सं. 1588 (ई.स. 1531) में सोजत में मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। उस समय इनका शासन केवल सोजत और जोधपुर के परगनों पर ही था। जैतारण, पोकरण, फलौदी, बाड़मेर, कोटड़ा, खेड़, महेवा, सिवाणा, मेड़ता आदि के सरदार आवश्कतानुसार जोधपुर नरेश को केवल सैनिक सहायता दिया करते थे। परन्तु अन्य सब प्रकार से वे अपने-अपने अधिकृत प्रदेशों के स्वतन्त्र शासक थे।
मारवाड़ के इतिहास में राव मालदेव का राज्यकाल मारवाड़ का "शौर्य युग" कहलाता है। राव मालदेव अपने युग का महान् योद्धा, महान् विजेता और विशाल साम्राज्य का स्वामी था। उसने अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। मालदेव ने सिवाणा जैतमालोत राठौड़ों से, चौहटन, पारकर और खाबड़ परमारों से, रायपुर और भाद्राजूण सीधलों से, जालौर बिहारी पठानों से, मालानी महेचों से, मेड़ता वीरमदेव से, नागौर, सॉभर, डीडवाना मुसलमानों से, अजमेर साँचोर चौहाणों से छीन कर जोधपुर-मारवाड़ राज्य में मिलाया। इस प्रकार राव मालदेव ने वि.सं. 1600 तक अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार कर लिया। उत्तर में बीकानेर व हिसार, पूर्व में बयाना व धौलपुर तक, दक्षिण में चित्तौड़ एवं दक्षिण-पश्चिम में राघनपुर व खाबड़ तक उसकी राज्य सीमा पहुँच गई थी। पश्चिम में भाटियों के प्रदेश (जैसलमेर) को उसकी सीमाएँ छू रही थी। इतना विशाल साम्राज्य न तो राव मालदेव से पूर्व और न ही उसके बाद ही किसी राजपूत शासक ने स्थापित किया।

राव मालदेव वीर थे लेकिन वे जिद्दी भी थे। ज्यादातर क्षेत्र इन्होंने अपने ही सामन्तों से छीना था। वि.सं. 1591 (ई.स. 1535) में मेड़ता पर आक्रमण कर मेड़ता राव वीरमदेव से छीन लिया। उस समय अजमेर पर राव वीरमदेव का अधिकार था, वहाँ भी राव मालदेव ने अधिकार कर लिया। वीरमदेव इधर-उधर भटकने के बाद दिल्ली शेरशाह सूरी के पास चला गया। वि.सं. 1568 (ई.स. 1542) में राव मालदेव ने बीकानेर पर हमला किया। युद्ध में राव जैतसी बीकानेर काम आए। बीकानेर पूर मालदेव का अधिकार हो गया। राव जैतसी का पुत्र कल्याणमल और भीम भी दिल्ली शेरशाह के पास चले गए। राव वीरमदेव और भीम दोनों मिलकर शेरशाह को मालदेव के विरुद्ध भड़काने लगे।

चौसा के युद्ध में हुमायू शेरशाह से परास्त हो गया था, तब वह मारवाड़ में भी कुछ समय रहा था। वीरमदेव और राव कल्याणमल अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने की आशा से शेरशाह से सहायता प्राप्त करने का अनुरोध करने लगे। इस प्रकार अपने स्वजातीय बन्धुओं के राज्य छीन कर राव मालदेव ने अपने पतन के बीज बोये। वीरम व कल्याणमल के उकसाने पर शेरशाह सूरी अपनी 80000 सैनिकों की एक विशाल सेना के साथ मालदेव पर आक्रमण केरने चला। मालदेव महान् विजेता था परन्तु उसमें कूटनीतिक छल-बल और ऐतिहासिक दूर दृष्टि का अभाव था। शेरशाह में कूटनीतिक छल-बल और सामरिक कौशल अधिक था।

दोनों सेनाओं ने सुमेल-गिररी (पाली) में आमने-सामने पड़ाव डाला। राव मालदेव भी अपनी विशाल सेना के साथ था। राजपूतों के शौर्य की गाथाओं से और अपने सम्मुख मालदेव का विशाल सैन्य समूह देखकर शेरशाह ने भयभीत होकर लौटने का निश्चय किया। रोजाना दोनों सेनाओं में छुट-पुट लड़ाई होती, जिसमें शत्रुओं का नुकसान अधिक होता। इसी समय मेड़ता के वीरमदेव ने छलकपट की नीति अपनाई। मालदेव के सरदारों में फिरोज शाही मोहरें भिजवाई और नई ढालों के अन्दर शेरशाह के फरमानों को सिलवा दिया था। उनमें लिखा था कि सरदार राव मालदेव को बन्दी बनाकर शेरशाह को सौंपे देंगे। ये जाली पत्र चालाकी से राव मालदेव के पास पहुँचा दिए थे। इससे राव मालदेव को अपने सरदारों पर सन्देह हो गया। यद्यपि सरदारों ने हर तरह से अपने स्वामी की शंका का समाधान कूरने की चेष्टा की, तथापि उनका सन्देह निवृत्त न हो सका और वह रात्रि में युद्ध शिविर से वापस लौट गया। मारवाड़ की सेना बिखर गई। यह देख जैता, कूम्पा आदि सरदारों ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया। यह देख जैता, कूम्पा ने रात्रि में अपने 12000 सवारों के साथ समर के लिए प्रयाण किया। अन्धकार की वजह से बहुत से सैनिक रास्ता भटक गए। सुबह जल्दी ही शेरशाह की सेना पर अचानक धावा बोल दिया, उस समय इनके साथ केवल 6000 सैनिक ही थे। सारे-के-सारे राजपूत अपने देश और मान की रक्षा के लिए सम्मुख रण से जूझकर कर मर मिटे। इस युद्ध में राठौड़ जैता, कूम्पा पंचायण करमसोत, सोनगरा अखैराज आदि मारवाड़ के प्रमुख वीर काम आएो युद्ध में विजय शेरशाह की हुई। जब यह संवाद शेरशाह को मिला तो उसने कहा “खुदा का शुक्र है कि किसी तरह फतह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्टी बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत ही खो दी होती।’ यह रक्तरंजित युद्ध वि.सं.1600 पोष सुद 11 (ई.स. 1544 जनवरी 5) को समाप्त हुआ।

शेरशाह का जोधपुर पर शासन हो गया। राव मालदेव पीपलोद (सिवाणा) के पहाड़ों में चला गया। शेरशाह सूरी की मृत्यु हो जाने के कारण राव मालदेव ने वि.सं. 1603 (ई.स. 1546) में जोधपुर पर दुबारा अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे पुनः मारवाड़ के क्षेत्रों को दुबारा जीत लिया गया। राव जयमल से दुबारा मेडता छीन लिया था । वि.सं. 1619 कार्तिक सुदि 12 (ई.स. 1562 नवम्बर 7) को राव मालदेव का स्वर्गवास हुआ। इन्होंने अपने राज्यकाल में कुल 52 युद्ध किए। एक समय इनका छोटे बड़े 58 परगनों पर अधिकार रहा| फारसी इतिहास लेखकों ने राव मालदेव को 'हिन्दुस्तान का सर्वाधिक समर्थ राजा' कहा है।

लेखक : छाजू सिंह

जयचन्द गहरवाल

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jaichand History in Hindi, History of Jaychand gaharwal

जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि.सं. १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ। राजा जयचन्द पराक्रमी शासक था। उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी, इसलिए उसे ‘दळ-पंगुळ' भी कहा जाता है। इसका गुणगान पृथ्वीराज रासो में भी हुआ है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को यवनों का नाश करने वाला कहा है।
युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह अद्वितीय हो गई, जिससे जयचन्द को दळ पंगुळ' की उपाधि से जाना जाने लगा। जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा मदन वर्मा को परास्त किया। राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)। यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा) । रम्भामञ्जरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था। उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी।

तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। यहाँ का शासन प्रबन्ध गौरी ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी ।

तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया। दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ। युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि.सं. १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था।जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं। संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि पृथ्वीराज के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे। ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर गौरी को सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। गौरी को भेद देने वाले थे नित्यानन्द खत्री, प्रतापसिंह जैन, माधोभट्ट तथा धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो। यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था। उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था। संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए। लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा। फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह सम्पन्न हुआ।

पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर सकता था। अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ? अतः यह आरोप मिथ्या है। पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।

लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर

नोत्र : राजा जयचंद गद्दार नहीं, निर्दोष थे, वे दुष्प्रचार के शिकार हुए| जयचंद पर ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण वाले निम्न दो लेख अवश्य पढ़ें
1-गद्दार नहीं धर्मपरायण और देशभक्त राजा थे जयचंद
2-काव्यकथा ने बना दिया एक देशभक्त राजा को देशद्रोही

राजा पुलकेशिन

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पुलकेशी हित हर्ष चले थे, सबका हर्ष जगेगा रे।
संघ ने शंख बजाया भैया सत्यजयी अब होगा रे॥

Raja Pulkeshin II, राजा पुलकेशिन द्वितीय वातापी (बादामी) के शासक थे। यह चातुक्य (सोलंकी) वंश से थे। अपने चाचा मंगलीश के मारे जाने पर वि.सं. ६६७ (ई.स. ६१०) में वातापी के राजा बने। सोलंकी वंश में इसके समान प्रतापी दूसरा कोई राजा नहीं हुआ। इसके समय में भारत में दो ही प्रबल राजा थे। एक नर्मदा के उत्तर में हर्षवर्धन और दक्षिण में पुलकेशिन द्वितीय। पुलकेशिन ने दक्षिण भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में एकीकृत करने का प्रयास किया। पुलकेशिन बड़े प्रतापी वीर राजा हुए। पुलकेशिन ने अनेकों रणवेत्ता राजाओं को हराकर दक्षिण सम्राट की उपाधि धारण की।

राजगद्दी पर बैठते ही सबसे पहले विद्रोही सामन्तों का दमन किया। राज्य में सुव्यवस्था हो जाने के पश्चात् पडोसी राज्यों को विजय करने लगे। सबसे पहले मैसूर के गंग वंशी राजा को परास्त कर उससे मैत्री कर अपना सहायक बनाया। मालाबार के नागवंशी राजा को अधीन किया। कोंकण के मौर्य राजा को अपनी प्रचण्ड सैन्य से परास्त किया। यहाँ की राजधानी पुरी पर अधिकार किया। धीरे धीरे करके दक्षिण भारत के राज्यों को जीत कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना का प्रयास करने लगे। विजित राजाओं को सहायक बना कर, उनके सहयोग से आक्रमण करते रहे। लाट (भड़ौंच), मालवा और गुर्जर (गुजरात) के राजाओं ने भयभीत होकर पुलकेशिन की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने कदम्बू की राजधानी पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया। दक्षिण कोसल (उड़ीसा), कलिंग देश के राजा उसके सैन्य को देखकर भयभीत हो गए। उन्होंने अधीनता स्वीकार कर ली। उसने पिष्ठपुर (मद्रास) के राजा को हराया और अपने भाई विष्णु वर्द्धन को यहाँ का राजा बनाया।

उत्तर भारत का सम्राट हर्षवर्धन अपने राज्य का विस्तार दक्षिण भारत में भी करना चाहते थे। अत: वह एक विशाल सेना लेकर दक्षिण विजय के लिए चले। दोनों के मध्य नर्मदा नहीं के तट पर युद्ध हुआ। यह युद्ध वि.सं. ६६९ (ई.स. ६१२) में हुआ था। इस युद्ध में हर्ष को पराजित कर ख्याति अर्जित की। हर्ष की हस्ति सैन्य का संहार किया। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप हर्ष दक्षिण में आगे नहीं बढ़ सका। सम्राट हर्ष को परास्त करने पर पुलकेशिन ने परमेश्वर विरुद धारण किया। दक्षिण के चोल, पाण्ड्या और केरल के राजा पर आक्रमण किया और उन्हें अपने अधीन किया। इसी समय पल्लव वंश का प्रतापी राजा महेन्द्र वर्मन (कांची), पुलकेशिन का प्रबल प्रतिद्वन्दी था। उसका राज्य दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला था। दोनों में युद्ध हुआ। पुलकेशिन ने पल्लव राज्य के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया। महेन्द्र वर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन राजा बना। उसने चोल, पाण्ड्या और केरल के राजाओं से मैत्री कर ली पुलकेशिन ने दुबारा पल्लवों पर आक्रमण किया। अन्त में वह वीरतापूर्वक युद्ध करता हुआ रणखेत रहा। पुलकेशिन ने हर्ष को विजय करने के बाद भारत में बड़ी प्रसिद्धि पाई। उसकी मैत्री विदेशी राजाओं से भी थी। यह राजा विद्यानुरागी भी था। इसके राज्य में बहुत से शिक्षा के केन्द्र थे। राजा स्वयं सनातन धर्मी थे लेकिन दूसरे धर्मों का आदर करते थे। इनके राज्य में बहुत से संघाराम (बौद्ध विहार) और हिन्दू देव मन्दिर थे। चालुक्य राजाओं ने धर्म, कला और साहित्य की उन्नति में गहरी रुचि ली और प्रोत्साहन दिया। पुलकेशिन शिव के परम भक्त थे। उन्होंने अपने राज्य में सुन्दर-सुन्दर देव मन्दिर बनवाए। पुलकेशिन राजा कीर्तिवर्मन के पुत्र थे।
लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

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