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सम्राट हर्षवर्धन

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Samrat Harshvardhan History In Hindi, Read Raja Harshvardhan history in Hindi
हर्षवर्धन अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद वि.सं. ६६३ (ई.स. ६०६) में १६ वर्ष की आयु में थानेश्वर की गद्दी पर बैठे। यह वैस वंश का क्षत्रिय थे। हर्ष की बहिन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के शासक गृहवर्मन (मौखरी वंश) के साथ हुआ था। मालवा के देव गुप्त और गौड़राज शशांक ने मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर गृहवर्मन की हत्या कर दी थी तथा राज्यश्री को कारागार में डाल दिया। यह सुनकर राज्यवर्धन ने राजधानी की रक्षा का भार अपने अनुज हर्ष को सौंपकर, कन्नौज की रक्षा करने तथा शत्रु से बदला लेने के लिए सेना लेकर कन्नौज रवाना हुये। मालवराज देवगुप्त को परास्त कर उन्होंने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। किन्तु ज्योंही वह शशांक के विरुद्ध बढे, वह शशांक के जाल में फँस गये। शशांक ने राज्यवर्धन को अपनी कन्यार्पण कर उनसे मैत्री-सम्बन्ध स्थापित करने का बहाना बनाकर अपने शिविर में बुलया। राज्यवर्धन शशांक के शिविर में नि:शस्त्र अकेले चले गए थे, वहाँ धोखे से मारे गये।

भाई की मृत्यु और बहिन राज्यश्री की कैद का समाचार सुनकर हर्ष ससैन्य कन्नौज गये। उन्हें समाचार मिला कि राज्यश्री कैद से निकलकर विंध्य वन की तरफ चली गई है। वहाँ से हर्ष अपनी बहिन को खोजकर ले आये। हर्ष ने शशांक पर आक्रमण किया, शशांक भाग कर कामरूप (आसाम) के राजा कुमार भास्कर वर्मन के यहाँ चला गया। वहाँ दोनों में युद्ध हुआ और अन्त में भास्कर वर्मन ने हर्ष से सन्धि कर ली। राज्यश्री के पुत्र नहीं था अतः कन्नौज की व्यवस्था का भार भी हर्ष के ऊपर आ गया। हर्ष ने कन्नौज को अपनी नई राजधानी बनाई और यहीं से राज्य का संचालन करने लगे।

हर्ष सम्पूर्ण उत्तर भारत के एक छत्र राजा बन गये| उन्होंने अनेक राज्यों को जीता। हर्ष ने वि.सं. ६६३ से ६७० (ई.स. ६०६ से ६१३) तक उत्तर भारत के राज्यों को जीता। इन विजयों से हर्ष का राज्य उत्तरी भारत में फैल गया। हर्ष ने वल्लभी के राजा ध्रुवसेन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। यह समृद्धशाली राज्य थे। यह कन्नौज तथा दक्षिण के चालुक्यु राज्य के मध्य में स्थित होने के कारण यह प्रदेश सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यहाँ के राजा के साथ हर्ष ने मैत्री सम्बन्ध बना कर राज्य का अधिकार उसी को दे दिया। हर्ष ने और भी बहुत से राजाओं को युद्ध में हराया था। जीत के बाद उनसे सन्धि करके राज्य संचालन का अधिकार पूर्व राजाओं को ही दे देते थे, बदले में उनसे कर व अन्य सैनिक सहायता प्राप्त करते थे। इन सन्धियों के परिणामस्वरूप हर्ष ने समस्त उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य फैलाया था।

उत्तर भारत विजय के बाद हर्ष दक्षिण भारत में भी अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता थे लेकिन वह सफल नहीं हो सके। क्योंकि दक्षिण में पुलकेशिन द्वितीय शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने हर्ष की विजय यात्रा रोक दी। वि.सं. 8 & S. (ई.स. ६१२) में विशाल सेना के साथ पुलकेशिन (चालुक्य) पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया। पुलकेशिन महान योद्धा थे। उन्होंने इससे पूर्व ही अनेक राजाओं को परास्त कर दक्षिण सम्राट की उपाधि धारण कर ली थी। नर्मदा तट पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष पराजित हुये। इस युद्ध में हर्ष की सेना का बहुत अधिक संहार हुआ। इस युद्ध के परिणामस्वरूप हर्ष दक्षिण की तरफ नहीं बढ सके। उसका राज्य उत्तर भारत में ही सीमित रह गया।

हर्ष के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में नर्मदा और महेन्द्र पर्वत (उड़ीसा) तक और पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर आसाम तक था। हर्ष भारत का अन्तिम साम्राज्य-निर्माता था और उसकी मृत्यु के साथ ही उत्तरी भारत में एक केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो गई। सम्राट हर्ष का शासन वि.सं. (909 (ई.स. ६५०) तक रहा।

हर्ष एक कुशल योद्धा ही न था बल्कि एक न्यायप्रिय, परोपकारी राजा थे। हर्ष ने सम्राट अशोक की भाँति अपने सम्पूर्ण राज्य में पशु वध बन्द करा दिया था। जनता की भलाई के लिए सड़कें, धर्मशालाएँ, जलाशय बनवाए। शिक्षा के क्षेत्र में भी हर्ष का महान योगदान था। उनके राज्य में तक्षशिला, उजैन, काशी, नालन्दा, भद्रविहार (कन्नौज) विख्यात विश्वविद्यालय थे, जिनमें भारत के ही नहीं बल्कि विदेशी छात्र भी विद्याध्ययन के लिए आते थे। इन शिक्षा केन्द्रों को हर्ष बहुत सा दान देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय के संरक्षक स्वयं हर्ष ही थे। हर्ष विद्वानों के आश्रयदाता थे। हर पाँचवे वर्ष प्रयाग में हर्ष विद्वानों का सम्मेलन बुलाते थे। सम्मेलन में शास्त्रार्थ होता था, जिसमें हर्ष विद्वानों को दान देते थे। ऐसा ही एक विद्वानों का सम्मेलन कन्नौज में करवाया था। इस उत्सव में १८ राजाओ, तीन हजार बौद्ध विद्वानों और एक हजार ब्राह्मणों ने भाग लिया था, जो अट्ठारह दिन तक चला। दूसरा विशाल सम्मेलन प्रयाग में बुलाया गया, जो तीस दिन तक चला। जिसमें हर्ष ने खूब-दान पुण्य किया। अनाथ, दीन-दु:खीजनों को भी खूब दान दिया गया और यहाँ तक दिया गया कि राजकोष रिक्त हो गया । अन्त में सम्राट ने अपने शरीर के आभूषण, मुकुटमणि और वस्त्र तक दे डाले। बहिन राज्यश्री का उतारा हुआ वस्त्र पहना।हर्ष स्वयं भी विद्वान थे, उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान बाण उनका राजकवि था, जिसने कादम्बरी की रचना की। हर्ष का राज्यकाल कला, साहित्य, सुव्यवस्था का चर्मोत्कर्ष काल था। लूटपाट करने वालों को दण्डित किया जाता था। प्रजा सम्पन्न व सुखी थी। प्रसिद्ध चीनी बौद्ध विद्वान हेनसांग हर्ष के समय भारत आया था। वह यहाँ कई वर्षों तक रहा, उसने हर्ष के शासन का बहुत अच्छा वर्णन किया है। जिससे पता चलता है कि हर्ष के राज्यकाल में प्रजा सुखी थी, देश हर क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर था। हर्ष के नाम से हर्ष सम्वत् भी चला था। सम्राट हर्ष प्राचीन भारत के एक आदर्श शासक माने जाते है। उन्हें एक महान् विजेता, कुशल शासन-प्रबन्धक, स्वयं विद्वान, साहित्यकार तथा विद्वानों का संरक्षक एवं भारतीय सभ्यता का सच्चा सेवक होने का श्रेय प्राप्त है। हर्ष देश के अन्तिम क्षत्रिय सम्राट थे जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को एकता के सूत्र में बाँधा । हर्ष की मृत्यु अनुमानतः वि.सं. ७०७ (ई.स. ६५०) के लगभग हुई।
लेखक : छाजू सिंह बड़नगर


सोलंकी भीमदेव

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Raja Bhiamdev Solanki of Gujrat History in Hindi

काबुल के तूफानों से जब जन मानस था थर्राया।
गजनी की ऑधी से जाकर भीमदेव था टकराया|।


Raja Bhimdeo राजा भीमदेव प्रथम सोलंकी वंश के थे और अणहिलवाड़ापाटन (गुजरात) के राजा थे। दुर्लभराज के पुत्रहीन होने पर उसके छोटे भाई नागराज के पुत्र भीमदेव वि.सं. १०७९ (ई.स. १०२२) में राजगद्दी पर बैठे। जब वे सिंहासन पर बैठे तब कम उम्र थी।
उस समय गजनी का शासक महमूद था। वह एक शक्तिशाली शासक था। उसने भारत पर कई बार आक्रमण कर, यहाँ से अथाह सम्पत्ति लूटकर ले गया। काठियावाड़ में सोमनाथ का शिव मन्दिर सुप्रसिद्ध था। महमूद ने वि.सं. १०८१ (ई.स. १०२४) में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण करने के लिए गजनी से प्रस्थान किया। इसके पहले उसने इतनी बड़ी सेना का संचालन कभी नहीं किया था। गजनी से वह मुलतान आया और मुलतान से राजपूताना के विशाल मरुस्थल को पार कर काठियावाड़ जाने का निश्चय किया। यहाँ के छोटे-छोटे राज्यों ने अपनी सेना के साथ उसका विरोध किया। महमूद के अचानक आक्रमण की खबर पाकर भीमदेव भी अपनी सेना के साथ, जो उस समय उपलब्ध थी; युद्ध के लिए आये। मुस्लिम सेना बहुत अधिक होने के कारण भीमदेव को कन्थकोट (कच्छ) के किले में शरण लेनी पड़ी। महमूद ने मन्दिर को नष्ट किया और वहाँ से धन सम्पति लूट कर वापस रवाना हुआ।भीमदेव ने और सेना एकत्र कर महमूद को रोकना चाहा। इस समय महमूद उससे भिड़ना उचित नहीं समझता था। अत: उसने रास्ता बदल कर सिन्ध से होकर गजनी की ओर कूच किया। भीमदेव ने सिन्ध के राजा हम्मुक पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। जब वह सिन्ध में युद्ध कर रहे थे, तब मालवा के राजा भोज के सेनापति ने अणहिलवाड़ा पर आक्रमण किया। राजधानी में राजा के अनुपस्थित रहने के कारण मालव सेना ने नगर को लूटा। इस युद्ध से गुजरात की बहुत अधिक क्षति हुई। सिन्ध से लौटने के बाद भीम, भोज की शक्ति को नष्ट करने में पूर्णतः जुट गया। उस समय आबू पर मालवा के परमारों की शाखा के धन्धु का शासन था। भीम ने आबू पर आक्रमण कर दिया। धन्धु पराजित होकर भोज की शरण में मालवा चला गया। भीम ने आबू को सरलतापूर्वक जीत कर अपने राज्य में मिला लिया। विमलशाह को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।

भीमदेव ने मालवा पर भी आक्रमण किया। अपने पड़ोसियों से निरन्तर युद्ध से भोज की सामरिक शक्ति कमजोर हो गई थी। भीमदेव ने मालवा (धारा) के भोज को युद्ध में परास्त किया था। भीमदेव सोलंकी ने वि.सं. ११२१ (ई.स. १०६४) तक गौरवपूर्ण राज्य किया। भीमदेव गुजरात के सबसे प्रतापी शासक थे। गुजरात के इतिहास में भीमदेव का समय गौरवशाली रहा है। लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

जुझारसिंह बुन्देला

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वीर बुन्देले
हाल बता बुन्देल धरा तेरे उन वीर सपूतों का।
केशरिया कर निकल पड़े थे मान बचाने माता का।

Raja Jhujhar Singh Bundela जुझारसिंह बुन्देला ओरछा के राजा थे। अपने पिता वीरसिंह बुन्देला की मृत्यु के बाद ओरछा के राजा बने| ये गहरवाल वंश के थे| जुझारसिंह शासन का भार अपने पुत्र विक्रमाजीत को सौंप कर स्वयं शाहजहाँ की सेवा में आगरा चले आये। शाही दरबार में उसका मनसब चार हजार जात और चार हजार सवार का था। जुझार सिंह बुन्देला एक शक्तिशाली शासक थे। विक्रमाजीत ने वि.सं. १६८६ (ई.सन १६२९) में विद्रोह कर दिया। जुझारसिंह भी अपने पुत्र के पास चले गए। वहाँ अपने आप को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। शाहजहाँ ने विद्रोह को कुचलने के लिए एक विशाल शाही सेना भेजी। इस सेना के साथ महावत खाँ अब्दुला खाँ और शाहजहाँ लोदी को भेजा। शाही सेना ने ओरछा पर आक्रमण कर विद्रोही बुन्देलों का विद्रोह शान्त कर दिया। इस युद्ध में बुन्दलों की पराजय हुई। ओरछा के कुछ इल अपने अधीन कर शाहजहाँ ने बुंदेलों को क्षमा कर दिया| संधि के अनुसार जुझारसिंह दक्षिण में शाही शिविर में चले गए, वहां शाही सेवा स्वीकार कर ली|

जुझारसिंह ने पाँच वर्ष तक दक्षिण में पूर्ण स्वामीभक्ति से कार्य किया| वह स्वतंत्र प्रवृति के व्यक्ति थे| दक्षिण से बिना इजाजत ओरछा आ गए| वि.सं. १६९२ (ई.स. १६३५) में शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वि.सं. १६८६ में जो क्षेत्र मुगलों ने अधीन कर लिए थे, उन्हें पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। जुझारसिंह ने चौरागढ (मध्यप्रदेश) के किले पर आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा भीमनारायण (प्रेमनारायण) को परास्त किया। भीम नारायण गोंड को मार कर चौरागढ राज्य पर अधिकार कर लिया। शाहजहाँ इस कार्यवाही से कुध हुआ क्योंकि उसने चौरागढ (गोंडवाना) पर हमला न करने की चेतावनी दी थी। शाहजहाँ ने जीता हुआ क्षेत्र और लूटा हुआ पाँच लाख रूपये गोंड राजा के पुत्र को लौटा देने का आदेश दिया। एक शाही सेना भेजी और कहा कि एक जिला और क्षतिपूर्ति के ३० लाख रुपया सम्राट को भेंट कर क्षमा प्राप्त कर ले। परन्तु जुझारसिंह अडिग रहे। उन्होंने इस आदेश की अवहेलना की। इस पर कुद्ध होकर शाहजहाँ ने शाहजादे औरंगजेब को सेना के साथ ओरछा भेजा। इस सेना का वह मुकाबला न कर सके। मुगलों ने अक्टूबर 4, ई.स.1635 में राजधानी ओरछा पर अधिकार कर लिया| मुग़ल सेना के साथ चंदेरी के राजा देवीसिंह भी थे| देवीसिंह को यहाँ का राजा बना दिया गया| अपने परिवार के साथ जुझारसिंह धामुनी के किले में चले गए| धामुनी का किला सुदृढ़ था| इसके तीन तरफ दलदल और एक तरफ खाई होने के कारण सुरंगें खोदना मुश्किल था। रात्रि में शाही सेना के सिपाहियों ने निसेनियों (सीढियों) के सहारे गढ़ में प्रवेश कर वहाँ पर अधिकार करने के लिए युद्ध किया। जुझारसिंह ने शाही सेना का मुकाबला किया। यहाँ से जुझारसिंह अपने परिवार और खजाने सहित चौरागढ़ के किले में पहुँचने में सफल हुए। जुझारसिंह के योद्धा किले में रहकर युद्ध करते रहे, परन्तु अन्त में उन्हें परास्त होना पड़ा।मुगल सेनाएँ लगातार उसका पीछा करती रही। औरंगजेब चौरागढ में भी आ गया। यहाँ से जुझारसिंह चाँदा और देवगढ़ के प्रदेश से होते हुए दक्षिण की ओर निकल जाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु यहाँ भी पीछा करती हुई मुगल सेना एकाएक आ पहुँची, अब बचकर निकलना असम्भव था। हताश होकर अपनी स्त्रियों का मान सुरक्षित रखने के लिए जुझारसिंह बुन्देले ने उन्हें तलवार तथा कटार भोंककर मार डालना चाहा, क्योंकि वे मुगल सेना से घिर चुके थे। इतना समय भी नहीं था कि जौहर करवा सकें। शाही सैनिक तभी उन पर टूट पड़े। इस युद्ध में बहुत से बुन्देले मारे गए और स्त्रियों को बन्दी बना लिया गया। जुझारसिंह और विक्रमाजीत जंगल में चले गए। जहाँ उन्हें गोंडो ने मार डाला और उनके मस्तक काटकर शाहजहाँ के पास भेज दिए गए। जहाँ बादशाह के आदेशानुसार ये कटे हुए मस्तक सीहोर नगर के दरवाजे पर टांग दिए गए।

पुत्र दुर्गभान, पौत्र दुर्जनशाल और स्त्रियों को शाहजहाँ के सामने पेश किया गया। दो राजकुमारों को मुसलमान बना दिया गया। एक पुत्र ने मुसलमान बनने से इन्कार कर दिया था, उसे कत्ल कर दिया गया। वीरसिंह देव की विधवा रानी की अत्यधिक घायल हो जाने से मृत्यु हो गई। अन्य स्त्रियों को धर्म परिवर्तन कराकर मुगल हरम में अपमानजनक जीवन व्यतीत करने को भेज दिया गया। दो पुत्रों उदयभान और दूसरा बालक था, ने अपने सेवक सहित गोलकुण्डा राज्य में शरण ली। गोलकुण्डा सुल्तान ने इन्हें बन्दी बना कर शाहजहाँ के पास भेज दिया। उदयभान और सेवक ने इस्लाम अपनाना स्वीकार नहीं किया अतः इन्हें कत्ल कर दिया गया। वीर बुन्देलों की वीरता का गुणगान पूरे देश में गौरव के साथ किया जाता है।
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर

Raja Jhujhar Singh Bundela history in Hindi

सिद्धराज जयसिंह

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Raja Siddhraj Jaysinh Gujrat History

जयसिंह गुजरात के राजा थे। गुजरात के सोलंकी राजाओं में वे सबसे अधिक प्रतापी राजा हुए| इनका प्रसिद्ध विरुद "सिद्धराज" था जिससे वे सिद्धराज जयसिंह नाम से अधिक विख्यात है। यह राजा कर्ण सोलंकी के पुत्र थे। वि.सं. ११५० (ई.स. १०९३) में सिद्धराज गद्दी पर बैठे। इनका शासन काल वि.सं. ११९९ (ई.स. ११४२) तक रहा।

जिस समय जयसिंह सोमनाथ की यात्रा पर गये थे तब मालवा के परमार राजा नरवर्मा ने गुजरात पर चढाई कर दी और राजधानी अणहिलवाड़ा-पाटन को लूटा। इस युद्ध के वैर में जयसिंह ने मालवे पर चढाई की, दोनों ओर से बारह वर्ष तके युद्ध हुआ। इस लड़ाई मे नरवर्मा का देहान्त हुआ और उसके पुत्र यशोवर्मा के समय इस युद्ध की समाप्ति हुई। अन्त में यशोवर्मा परास्त हुआ, उसे बन्दी बनाया गया। मालवा पर कुछ समय तक सोलंकियों का अधिकार रहा। मेवाड़ का प्रसिद्ध चित्तौड़ तथा उसके आस-पास का मालवे से मिला हुआ प्रदेश, जो मुंज के समय से मालवा के परमारों के राज्य में चला गया था, अब जयसिंह के अधीन हुआ। ये क्षेत्र जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल तक गुजरात के सोलंकियों के अधीन रहे, परन्तु कुमारपाल के अयोग्य उत्तराधिकारियों के समय में फिर स्वतन्त्र हो गए। बागड़ (बाँसवाड़ा) के क्षेत्र पर उन दिनों हुणों का आधिपत्य था। हूण एक प्राचीन क्षत्रिय जाति थी, जिसने भारतीय इतिहास व मध्य एशिया की राजनीति को प्रभावित किया था। जयसिंह ने इन हुणों को परास्त किया। इस तरह से भारत में हुणों की अन्तिम लड़खड़ाती हुई शक्ति का नाश हुआ। यह क्षेत्र जयसिंह के अधीन हो गया ।आबू के परमार और जालौर के चौहाणों ने भी गुजरात की अधीनता स्वीकार कर ली थी। उन्होंने सोरठ पर चढ़ाई कर गिरनार के चूड़ासमा राजा खंगार (द्वितीय) को परास्त किया। बर्बर आदि जंगली जातियों को अपने अधीन बनाया। अजमेर के चौहाण राजा अर्णोराज पर विजय प्राप्त की, परन्तु पीछे समझौता कर लिया। जयसिह ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराय से कर दिया, जिससे सोमेश्वर का जन्म हुआ।

सिद्धराज जयसिंह बड़े ही प्रतापी, लोकप्रिय, न्यायप्रिय और विद्यारसिक शासक थे। वे जैनों का विशेष सम्मान करते थे। वह स्वयं भी जैन धर्म के अनुयायी थे। उसके दरबार में कई विद्वान रहते थे, प्रसिद्ध विद्वान जैन आचार्य हेमचन्द्र उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

यशोधर्मन

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यशधर्मन जयसिंह मिले थे।
हूणों के भी हृदय हिले थे ।

Raja Yashodharman यशोधर्मन अवन्ती (मालवा) के शासक थे। यह मालव वंश (परमार) क्षत्रिय थे। यशोधर्मन मध्य भारत के एक शक्तिशाली राजा थे। इनका राज्य काल वि.सं. ५५७ से ६०७ (ई.स. ५०० से ५५०) के लगभग था। गुप्त वंश की शक्ति क्षीण हो जाने पर मध्यभारत के इतिहास में यशोधर्मन उल्का की भाँति चमक उठे। इनके सैनिक अभियान और विजय का वर्णन दशपुर (मन्दसोर) अभिलेख में लिखा है। इन्होंने उन प्रदेशों को भी जीता जिन पर गुप्त सम्राटों का आधिपत्य नहीं था। इन्होंने हृणों को भी युद्ध में पराजित किया। इनका राज्य लोहित्य (ब्रह्मपुत्र) से लेकर महेन्द्र पर्वत तक और गंगा से स्पृष्ट हिमालय से लेकर पश्चिम में समुद्र तट तक था|

यशोधर्मन ने वि.सं. ५८५ (ई.स. ५२८) के लगभग हूण राज़ा तोरमाण को परास्त किया था। हूण मूलतः आर्य थे और बाद में वे मध्य एशिया में चले गए थे। वैदिक धर्मानुसार न चलने के कारण ये मलेच्छ कहलाए। हुणों ने सम्पूर्ण मध्य एशिया और भारत की राजनीति को प्रभावित किया। हूण बड़े शूरवीर थे। गुप्त शासकों की शक्ति क्षीण होने पर लगभग पाँचवी ईस्वी शदी में टिड्डी-दल की तरह हूण पश्चिमोत्तर और मध्य भारत में छा गए थे। इनका नेता तोरमूण था जिसकी राजधानी साकल (सियालकोट) थी। उसने मध्य भारत को जीत लिया था। भारत आने पर तोरमाण और उसके आश्रितों ने शैव धर्म अपना लिया था। तोरमाण के पश्चात् उसका पुत्र मिहिरकुल हुणों का राजा बना। तोरमाण और मिहिर कुल अत्यन्त क्रूर शासक थे तथा निर्दोष लोगों पर तरह-तरह के अत्याचार करते थे। उनकी भयानक आवाज जहाँ भी सुनाई देती थी, लोग कॉप जाते थे। उन्होंने अपनी राक्षसी क्रूरता से लोगों का वध किया, आग लगाई तथा सर्वनाश किया। वह बौद्धों का घोर शत्रु था। उसने अधिक संख्या में बौद्धों को मरवा डाला और बौद्धविहारों को जलवा दिया था। मिहिर्कुल इतना पराक्रमी था कि उसने भगवान शिव के अतिरिक्त और किसी के समक्ष सिर नहीं नवाया।यशोधर्मन ने वि.सं. ५८५ (ई.स. ५२८) के लगभग मिहिरकुल को परास्त किया। मिहिरकुल ने पराजित होकर कश्मीर में शरण ली। इस तरह यशोधर्मन ने हूणों के अत्याचार से देश को मुक्त कराया। मिहिरकुल को राजा यशोधर्मन ने मुलतान के आस-पास पराजित किया था। लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

महाराव शेखाजी का घाटवा युद्ध

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एक स्त्री की मान रक्षा के लिए शेखाजी ने झुन्थर के कोलराज गौड़ का सर काट कर अपने अमरसर के गढ़ के सदर द्वार पर टंगवा दिया,ऐसा करने का उनका उद्देश्य उदंड व आततायी लोगों में भय पैदा करना था हालांकि यह कृत्य वीर धर्म के खिलाफ था शेखा जी के उक्त कार्य की गौड़ा वाटी में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और गौड़ राजपूतों ने इसे अपना जातीय अपमान समझा,अनेक गौड़ योद्धाओ ने अपने सरदार का कटा सर लाने का साहसिक प्रयत्न किया लेकिन वे सफल नही हुए और गौंडो व शेखाजी के बीच इसी बात पर ५ साल तक खूनी संघर्ष चलता रहा आख़िर जातीय अपमान से क्षुब्ध गौड़ राजपूतों ने अपनी समस्त शक्ति इक्कट्ठी कर घाटवा नामक स्थान पर युद्ध के लिए राव शेखा जी को सीधे शब्दों में रण निमंत्रण भेजा
गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||

रण निमंत्रण पाकर शेखा जी जेसा वीर चुप केसे रह सकता था और बिखरी सेना को एकत्रित करने की प्रतीक्षा किए बिना ही शेखा जी अपनी थोडी सी सेना के साथ घाटवा पर चढाई के लिए चल दिए और जीणमाता के ओरण में अपने युद्ध सञ्चालन का केन्द्र बना घाटवा की और बढे ,घाटवा सेव कुछ दूर खुटिया तालाब (खोरंडी के पास )शेखा जी का गौडों से सामना हुवा ,मारोठ के राव रिडमल जी ने गौडों का नेत्रत्व करते हुए शेखा जी पर तीरों की वर्षा कर भयंकर युद्ध किया उनके तीन घटक तीर राव शेखा जी के लगे व शेखा जी के हाथों उनका घोड़ा मारा गया ,इस युद्ध में शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी कोलराज के पुत्र मूलराज गौड़ के हाथों मारे गए और इसके तुंरत बाद मूलराज शेखा जी के एक ही प्रहार से मारा गया | घोड़ा बदल कर रिडमल जी पुनः राव शेखा जी के समक्ष युद्ध के लिए खड़े हो गए ,गौड़ वीरों में जोश की कोई कमी नही थी लेकिन उनके नामी सरदारों व वीरों के मारे जाने से सूर्यास्त से पहले ही उनके पैर उखड़ गए और वे घाटवा के तरफ भागे जो उनकी रणनीति का हिस्सा था वे घाटवा में मोर्चा बाँध कर लड़ना चाहते थे ,लेकिन उनसे पहले शेखा जी पुत्र पूरण जी कुछ सैनिकों के साथ घाटवा पर कब्जा कर चुके थे |
खुटिया तालाब के युद्ध से भाग कर घाटवा में मोर्चा लेने वाले गौडों ने जब घाटवा के पास पहुँच कर घाटवा से धुंवा उठता देखा तो उनके हौसले पस्त हो गए और वे घाटवा के दक्षिण में स्थित पहाडों में भाग कर छिप गए शेखा जी के पुत्र पूरण जी घाटवा में हुए युद्ध के दौरान अधिक घायल होने के कारण वीर गति को प्राप्त हो गए | घायल शेखा जी ने शत्रु से घिरे पहाडों के बीच रात्रि विश्राम लेना बुधिसम्मत नही समझ अपने जीणमाता के ओरण में स्तिथ सैनिक शिविर में लोट आए इसी समय उनके छोटे पुत्र रायमल जी भी नए सेन्यबल के साथ जीणमाता स्थित सेन्य शिविर में पहुँच चुके थे ,गौड़ शेखा जी की थकी सेना पर रात्रि आक्रमण के बारे में सोच रहे थे लेकिन नए सेन्य बल के साथ रायमल जी पहुँचने की खबर के बाद वे हमला करने का साहस नही जुटा सके |
युद्ध में लगे घावों से घायल शेखा जी को अपनी मर्त्यु का आभास हो चुका था सो अपने छोटे पुत्र रायमल जी को अपनी ढाल व तलवार सोंप कर उन्होंने अपने उपस्थित राजपूत व पठान सरदारों के सामने रायमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित कर अपनी कमर खोली ,और उसी क्षण घावों से क्षत विक्षत उस सिंह पुरूष ने नर देह त्याग वीरों के धाम स्वर्गलोक को प्रयाण किया ,जीणमाता के पास रलावता गावं से दक्षिण में आधा मील दूर उनका दाह संस्कार किया गया जहाँ उनके स्मारक के रूप में खड़ी छतरी उनकी गर्वीली कहानी की याद दिलाती है |
घाटवा का युद्ध सं.१५४५ बैशाख शुक्ला त्रतीय के दिन लड़ा गया था और उसी दिन विजय के बाद शेखा जी वीर गति को प्राप्त हुए | शेखा जी की म्रत्यु का संयुक्त कछवाह शक्ति द्वारा बदला लेने के डर से मारोठ के राव रिडमल जी गोड़ ने रायमल जी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर और 51 गावं झुन्थर सहित रायमल जी को देकर पिछले पॉँच साल से हो रहे खुनी संघर्ष को रिश्तेदारी में बदल कर विवाद समाप्त किया |

संदर्भ - राव शेखा,शेखावाटी प्रदेश का राजनैतिक इतिहास

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राव शेखा जी का आमेर से युद्ध और विजय :

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राव शेखा के दादा बालाजी आमेर से अलग हुए थे | अतः अधीनता स्वरूप कर के रूप में प्रतिवर्ष आमेर को बछेरे देते थे | शेखा के समय तक यह परम्परा चल रही थी | राव शेखा ने गुलामी की श्रंखला को तोड़ना चाहा | अतः उन्होंने आमेर राजा उद्धरण जी को बछेरे देने बंद कर दिए थे पर चंद्रसेन वि.सं.१५२५ मै जब आमेर के शासक हुए तब राव शेखा के पास संदेश भेजा कि वे आमेर को कर के रूप में बछेरे क्यों नही भेजते है ? शेखा ने कहा कि मै अधीनता के प्रतीक चिन्ह को समाप्त कर देना चाहता हूँ और इसी कारण मेने बछेरे भेजने बंद कर दिए | केसरी समर में इसका सूचक दोहा इस प्रकार है –
"किये प्रधानन अरज यक , सुनहु भूप बनराज |
एक अमरसर राव बिन , सकल समापे बाज ||"

इस समाचार को जानकर चंद्र सेन को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने राव शेखा पर चढाई करने की आज्ञा दी | इसी समय पन्नी पठानों का एक काफिला जिसमे ५०० पन्नी पठान थे |गुजरात से मुलतान जाते समय अमरसर रुका | राव शेखा ने इन पन्नी पठानों को अपना मित्र बना लिया , उनके साथ एक विशेष समझौता किया और अपनी सेना मै रखकर अपनी शक्ति बढाई | चंद्रसेन की सेना को पराजित किया और आमेर के कई घोड़ो को छीन कर ले आए |
अब चंद्र सेन स्वयं सेना लेकर आगे बढे और राव शेखा पर आक्रमण किया | नाण के पास राव शेखा ने चंद्रसेन का मुकाबला किया |राव शेखा ने अपनी सेना के तीन विभाग किए और मोर्चाबद्ध युद्ध शुरू किया | शेखा स्वयं एक विभाग के साथ रहकर कमान संभाले हुए थे | स्वयं ने चंद्रसेन से युद्ध किया | शेखा की तलवार के सम्मुख चंद्रसेन टिक भी न सके भाग खड़े हुए और आमेर चले गए | इस युद्ध में दोनों और से ६०० घुड़सवार ६०० पैदल खेत रहे |
अनुमानतः वि.सं.१५२६ में आमेर के चंद्रसेन पुनः शेखा को पराजित करने एक बड़ी सेना के साथ बरवाडा नाके पर स्तिथ धोली गाँव के पास पहुँच गए | इधर शेखाजी अपनी सशक्त सेना के साथ युद्ध करने पहुँच गए |राव शेखा ने पहुंचते ही फुर्ती के साथ चंद्रसेन की सेना पर अकस्मात आक्रमण किया | काफ़ी संघर्ष के बाद चन्द्रसेन की सेना भाग खड़ी हुई और रावशेखा की विजय हुई | यहाँ से शेखा आगे बढे ओए कुकस नदी के क्षेत्र पर अधिकार लिया |वि.सं.१५२८ में चंद्रसेन ने राव शेखा को अधीन करने का फ़िर प्रयास किया और कुकस नदी के दक्षिण तट पर अपनी सेना को शेखा से युद्ध करने को तैनात किया |राव शेखा जी अपनी सेना सहित आ डेट | चंद्रसेन ने इस युद्ध को जीतने के लिए समस्त कछवाहों को निमंत्रित किया ऐसा माना जाता है |नारुजी पहले आमेर के पक्ष में थे परन्तु युद्ध शुरू होते ही राव शेखा के पक्ष में आ गए | यह जानकर चंद्रसेन बहुत चिंतित हुए और अपनी हार स्वीकार करते हुए संधि का प्रस्ताव रखा | नारुजी की मध्यस्ता में संधि हुई , वह इस प्रकार थी |

१.आज तक जिन ग्रामों पर राव शेखाजी का अधिकार हुआ हैं ,उन पर राव शेखा जी का अधिकार रहेगा |
२.आज से राव शेखा जी आमेर की भूमि पर आक्रमण नही करेंगे | वे आमेर राज्य को किसी प्रकार का कर नही देंगे |
३.शेखा जी अपना स्वतंत्र राज्य कायम रखेंगे | उसमे आमेराधीश कोई हस्तक्षेप नही करेगा |

इस संधि को दोनों पक्षों ने स्वीकार किया | सम्भवतः इसी समय बरवाडा पर चंद्रसेन का अधिकार हो गया | इस समय से राव शेखा जी का ३६० गांवों पर अधिकार हो चुका था |

सोर्स :- शेखावाटी प्रदेश का राजनैतिक इतिहास

जैताजी राठौड़

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Rao Jaita Ji Rathore History in Hindi, Jaitawat Rathore history

महाराणा सा सपूत पाकर धन्य हुई यह वसुन्धरा।
जयमल फता जैता कूपा झाला की यह परम्परा ।

जैता जी, पंचायण (अखैराजोत) के पुत्र थे। ये बगड़ी के ठाकुर थे। मण्डोर पर राव जोधा का अधिकार होने पर इनके बड़े भाई अखैराज ने तत्काल अपने अँगूठे को तलवार से चीरकर रुधिर से जोधाजी के मस्तक पर राज-तिलक लगा दिया। इस पर जोधाजी ने भी मेवाड़ वालों से छीन कर बगड़ी का अधिकार उसे वापस सौंप देने की प्रतिज्ञा की। उसी दिन से मारवाड़ में यह प्रथा चली है कि जब कभी किसी महाराजा का स्वर्गवास हो जाता है, तब बगड़ी जब्त करने की आज्ञा दे दी जाती है, और नए महाराजा के गद्दी पर बैठने के समय बगड़ी ठाकुर अपना अँगूठा चीरकर रुधिर से तिलक करता है, बगडी वापस दे दी जाती है। जैताजी के वंशज जैतावत ‘‘राठौड़" कहलाते हैं।

जैताजी महान् योद्धा थे। ये राव गाँगा जोधपुर की सेवा में थे। कुँपाजी को जैताजी ने ही राव गाँगा की तरफ मिलाया था। जैता जी ने भी कँपा जी के साथ रहते हुए अनेक युद्धों में भाग लिया था। वि.सं. १५८६ (ई.स. १५२९) में राव गाँगा के काका शेखा (पीपाड़) ने नागौर के शासक दौलत खाँ की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं में सेवकी' नामक स्थान पर युद्ध हुआ। शेखा रणखेत रहा और दौलत खाँ प्राण बचाकर रणक्षेत्र से भाग गया। राव गाँगा की सेना में जैताजी ने भाग लिया था । राव गाँगा के बाद राव मालदेव मारवाड़ के शासक बने । राव मालदेव ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया उसमें जैताजी का विशेष योगदान रहा। उन्होंने मालदेव के प्रत्येक सैनिक अभियान में भाग लिया । राव वीरमदेव मेड़तिया से अजमेर और मेड़ता में हुए युद्धों में जैताजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाकर मालदेव को विजय दिलाई। वीरमदेव डीडवाना चला गया, जैताजी और कँपा जी ने डीडवाना से वीरमदेव का कब्जा हटवाया। राणा उदयसिंह को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने में भी जैता जी का योगदान रहा। वणवीर से हुए युद्ध में राव मालदेव ने उदयसिंह की सहायता के लिए एक सेना भेजी थी। उस सेना में अखैराज सोनगरा, कँपाजी राठौड़ और जैताजी राठौड़ सम्मिलित थे। माहोली (मावली) में हुए युद्ध में उदयसिंह की विजय हुई और वह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वि.सं. १५९८ (ई.स. १५४१) में राव मालदेव ने बीकानेर पर चढ़ाई की। राव जैतसी बीकानेर रणखेत रहा, राव मालदेव की विजय हुए। इस युद्ध में जैताजी और कँपाजी ने विशेष वीरता दिखाई। शेरशाह सूरी आगरे से एक विशाल सेना के साथ राव मालदेव पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ। इसकी सूचना जैताजी और कँपाजी को डीडवाणा में मिली। इन्होंने शेरशाह की मारवाड़ पर चढ़ाई की सूचना राव मालदेव को दी। अखैराज सोनगरा, कँपाजी और जैताजी अजमेर पहुँचे। सुमेल-गिररी (जैतारण पाली) में दोनों सेनाओं ने ब्यूह रचना की। लगभग एक महीने तक सेनाएँ आमनेसामने रही, लेकिन शेरशाह की हिम्मत नहीं हुई कि वह मारवाड़ी वीरों पर आक्रमण कर दे। रोज छुट-पुट लड़ाई होती थी जिनमें पठानों का नुकसान अधिक होता था। राठौड़ वीरों की शौर्य गाथाएँ सुनकर शेरशाह हताश होकर लौटने का निश्चय करने लगा। यह देख वीरम ने उसे बहुत समझाया। जब इस पर भी वह सम्मुख युद्ध में लोहा लेने की हिम्मत न कर सका, तब अन्त में वीरम ने उसे यह भय दिखाया कि यदि आप इस प्रकार घबराकर लौटेंगे, तो रावजी की सेना पीठ पर आक्रमण कर आपके बल को आसानी से नष्ट कर डालेगी। परन्तु जब इतने पर भी शेरशाह सहमत न हुआ, तब वीरम ने कपट जाल रचा। ऐसे जाली पत्र मालदेव के शिविर में भिजवा दिए, जिन्हें देखकर राव मालदेव को अपने प्रमुख-प्रमुख सरदारों पर शंका हुई कि ये लोग शत्रु से मिल गए हैं। राव मालदेव की शंका का निवारण करने के लिए जैताजी, कँपाजी और अखैराज सोनगरा ने रावजी को खूब समझाया कि ये फरमान जाली हैं। मालदेव रात में ही वहाँ से जोधपुर कूच कर गया। युद्ध से पहले विशाल सेना एकत्र हुई थी, वह रावजी के मैदान से हटते ही छिन्न-भिन्न हो गई। जैताजी, कुँ पाजी और अखैराज ने अपने ऊपर लगे स्वामिद्रोही के कलंक को हटाने के लिए शेरशाह से युद्ध करने की ठानी। अपने बारह हजार सैनिकों को लेकर रात में ही युद्ध के लिए रवाना हुए। परन्तु दुर्भाग्य से, अधिक अंधकार के कारण सैनिक रास्ता-भटक गए। सुबह जल्दी आक्रमण के समय केवल पाँच-छः हजार योद्धा ही साथ थे। शेरशाह की अस्सी हजार सेना से राजपूत योद्धा भिड़ गए। घमासान लड़ाई हुई। युद्ध में ऐसा प्रलय मचाया कि शत्रु सेना हारकर भागने की तैयारी करने लगी, लेकिन उसी समय शेरशाह का एक सरदार जलाल खाँ अपने सुरक्षित दस्ते के साथ मैदान में आ गया। राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूत घोड़ों से उतरकर युद्ध में प्रलय मचाने लगे। लेकिन शत्रू सेना अपार थी। एक-एक राजपूत वीरगति को पहुँचा। जैताजी अपने साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में लगभग पाँच हजार राजपूत रणखेत रहे। वि.सं. १६०० पोस सुदि ११ को (ई.स. १५४४ जनवरी ५) सुमेल-गिररी की रक्तरंजित लड़ाई समाप्त हुई।

जैताजी ने जिस स्वामिभक्ति का परिचय दिया है वह मारवाड़ के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। इस बलिदान से पूरे मारवाड़ में शोक की लहर छा गई। मालदेव को जब यह खबर मिली तो वह बड़ा दुखी हुआ कि मैंने अपने सरदारों पर शंका की। परन्तु समय निकल चुका था पछतांने के अलावा कोई चारा नहीं था।
जैताजी के वंशज जैतावत राठौड़ कहलाते हैं। इनका बगड़ी (पाली) में मुख्य ठिकाना हैं।
“गिररी हन्दै गौरवे, सज भारत दोहू सूर।
जैतो-कुँ पो जोरवर, स्रग नै ड़ा घर दूर।’’
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर


कूँपाजी राठौड़

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Rao Kumpa Rathore, Kumpawat Rathore History in Hindi, Rao Jaita and Kumpa Rathore

कूँपाजी मेहराज (अखैराजोत) के पुत्र थे। इनका जन्म वि.सं. १५५६ को मार्गशीर्ष सुदि १२ को हुआ था। अखैराज ने अपने छोटे भाई का राजतिलक बगड़ी में किया था तब राव जोधा ने बगड़ी अखैराज को दी। नैणसी ने अपनी ख्यात में चूण्डासर बताया है जहाँ पहली बार राव जोधा का राजतिलक हुआ। राव जोधाजी का राजतिक दो बार हुआ था। दूसरी बार मण्डौर पर अधिकार हो जाने पर, मण्डौर में राजतिलक हुआ था। राजस्थान के योद्धाओं में अपराजित कहे जाने वाले चन्द नाम ही गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने कोई युद्ध हारा नहीं। उनमें कूँपाजी राठौड़ का भी एक अनुपम नाम है जिन्होंने अपने जीवन में ५४ युद्ध लड़े व किसी भी युद्ध में पराजित नहीं हुए।

राव सूजाजी की मृत्यु के बाद राव गाँगा (कुं. बाधा का पुत्र) मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। वीरम सूजावत को सोजत परगना मिला। बगड़ी सोजत परगने में होने के कारण कूँपाजी वीरम के यहाँ सेवा में थे। राव गाँगा जोधपुर की गद्दी पर बैठे, इससे वीरम और शेखा दोनों नाराज थे। राव गाँगा वीरम पर हमले करते थे लेकिन वीरम के पक्ष में कूँपाजी थे इसलिए सफलता नहीं मिल रही थी। राव गाँगा ने जैताजी की सहायता से कूँपाजी को अपनी सेवा में बुलवा लिया। इस तरह से सोजत को आक्रमण करके अपने अधिकार में लिया। राणा साँगा के बड़े भाई पृथ्वीराज (उड़ना राजकुमार) की पासवान (अविवाहित पत्नी) का पुत्र बणवीर चित्तौड़ का शासक बन गया था, उसे हटाकर उदयसिंह को राणा बनाने के लिए युद्ध हुआ। मारवाड़ से उदयसिंह की सहायता के लिए जो सेना भेजी गई थी उसमें अखैरोज सोनगरा व कूँपाजी भी थे। बणवीर और उदयसिंह के बीच माहोली (मावली) में युद्ध हुआ, जिसमें उदयसिंह की जीत हुई। इस प्रकार उदयसिंह को चित्तौड़ का शासक बनाने में कूँपाजी का विशेष सहयोग रहा।

वि.सं. १५८६ (ई.स. १५२६) में राव गाँगा के काका शेखा (पीपाड़) ने नागौर के शासक दौलत खाँ की सहायता से जोधपुर पर चढाई की। दोनों के मध्य सेवकी में युद्ध हुआ। रावजी की सेना में कूँपाजी भी थे। इस युद्ध में शेखा वीरगति को प्राप्त हुआ दौलत खाँ युद्ध से जान बचाकर भाग गया। राव गाँगा की मृत्यु के बाद राव मालदेव मारवाड़ के शासक बने। मालदेव ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया। मालदेव के सभी सैनिक अभियानों में कूँपाजी ने वीरता प्रदर्शित की। इस युद्ध में वीरमदेव मेड़तिया और राव जैतसी बीकानेर भी राव गाँगा की सहायता के लिए आए थे। इस युद्ध के कारण एक बखेड़ा हो गया। जिसके कारण वीरमदेव और मालदेव के बीच शत्रुता हो गई। इस युद्ध में दौलत खाँ का एक हाथी लूट लिया था वह हाथी मेड़ता की तरफ आ गया। उस हाथी को लेने के लिए वीरम और कुं. मालदेव के बीच खींचतान चली।

वि.सं. १५९१ (ई.स. १५३५) में वीरमदेव ने मुसलमानों से अजमेर छीन ली। जब राव मालदेव को पता लगा तो उसने वीरमदेव को कहा कि यह नगर हमें दे दो। परन्तु उसने इस बात को नहीं मानी। इससे राव जी अप्रसन्न हो गए और जैता और कूँपा के नेतृत्व में मेड़ता पर सेना भेजी। मेड़ता पर राव मालदेव का अधिकार हो गया। वि.सं. १५९८ (ई.स.१५४२) में राव मालदेव ने बीकानेर पर चढ़ाई की। राव जैतसी बीकानेर रण खेत रहा। युद्ध में मालदेव की विजय हुई। इसके बाद झुंझुनू पर भी अधिकार कर लिया। इन युद्धों में राठौड़ कूँपाजी ने खास तौर पर भाग लेकर वीरता दिखलाई थी। इससे प्रसन्न होकर राव मालदेव ने झुंझुनू की जागीर के साथ बीकानेर के प्रबन्ध का अधिकार भी कूँपाजी को दे दिया।

वीरमदेव और कल्याणमल बीकानेर अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के लिए शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए ले आए। वि.सं. १६०० में शेरशाह सूरी एक विशाल सेना लेकर मालदेव पर आक्रमण करने के लिए चला। इसकी सूचना जैता और कूँपा ने डीड़वाना से आकर राव मालदेव को दी। सूचना पाते ही राव मालदेव भी अपनी सेना तैयार कर अजमेर की तरफ आगे बढे। उस समय रावजी के पास अस्सी हजार वीर योद्धा थे। जब इस प्रकार तैयार होकर सम्मुख रणाँगण में प्रवृत्त होने का समाचार शेरशाह को मिला, तब उसका उत्साह ठंडा पड़ गया और वह मार्ग में से ही लौट जाना चाहता था। लेकिन वीरमदेव ने शेरशाह का उत्साह बढ़ाया।

सुमेल-गिरी के पास दोनों सेनाओं ने मोरचे बन्दी कर, आमने-सामने पड़ाव डाला। करीब एक मास तक सेनाएँ आमने-सामने पड़ी रही। समय-समय पर छुटपुट लड़ाई होती रही, परन्तु वीर राठौड़ों के सामने शेरशाह की एक न चली। उसने हताश होकर एक बार फिर लौट जाने का विचार किया। यह देख वीरम ने बहुत समझाया। लेकिन शेरशाह युद्ध के लिए राजी नहीं हुआ तब राव वीरम ने कपट जाल फैलाया। उसने मालदेव के बड़े-बड़े सरदारों के नाम कुछ झूठे फरमान लिखवा कर राव मालदेव की सेना में भिजवा दिए। इन फरमानों को देखकर राव मालदेव को अपने सरदारों पर सन्देह हो गया कि ये लोग शेरशाह से मिल गए हैं। सरदारों के काफी समझाने पर भी रावजी का सन्देह दूर नहीं हुआ। वह युद्ध क्षेत्र से लौट जाना चाहते थे। जैताजी, कूँपाजी और अखैराज सोनगरा युद्ध क्षेत्र से जाने के लिए राजी नहीं हुए। इन सरदारों ने कहा कि अजमेर आपने जीती सो आपके हुक्म से पीछे आ गए, हमें कोई आपति नहीं परन्तु यहाँ से पीछे का देश आपके और हमारे पूर्वजों का विजय किया हुआ है, इसलिए यहाँ से हटना हमें किसी भी प्रकार से अंगीकार नहीं हो सकता। इस पर भी मालदेव का उनके कथन पर विश्वास नहीं हुआ और वह रात्रि में ही जोधपुर के लिए लौट गये। राठौड़ों की सेना छिन्न-भिन्न हो गई।यह देख कूँपाजी, जैताजी, अखैराज सोनगरा और अन्य सरदारों ने अपने ऊपर लगे विश्वासघात के कलंक को मिटाने के लिए शेरशाह से युद्ध करने का निश्चय किया। सरदारों ने विचार किया कि राव मालदेव ने हमारे ऊपर बहम कर बड़ा कलंक लगाया है। अगर हम यहाँ से बिना लड़े चले गए तो मारवाड़ में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। यह बात सोच कर शेरशाह से लड़कर मर मिटने का संकल्प किया। दिन उगने की बाट भी नहीं देखी, रात में ही अपने बारह हजार सैनिकों के साथ शेरशाह पर आक्रमण के लिए कूच किया। परन्तु भाग्य की कुटिलता से ये लोग अंधकार में मार्ग में भटक गए, अतः प्रातःकाल के समय लगभग पाँच-छः हजार योद्धा ही युद्ध क्षेत्र में पहुँचे। यद्यपि ऐसे समय में पाँच-छ: हजार राजपूत सैनिकों का अस्सी हजार पठान सैनिकों से भिड़ जाना बिलकुल अनुचित था, तथापि वीर राठौड़ों ने इसकी कुछ भी परवाह नहीं की और अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए शत्रु सेना में घुसकर वह तलवार बजाई कि एक बार तो पठानों के पैर ही उखड़ गए। शेरशाह ने भी अपनी पराजय से दुखी हो भागने की तैयारी कर ली। परन्तु इतने में ही उसका एक सरदार जलाल खाँ अपने सुरक्षित दस्ते को लेकर आ गया। उस को रोकने के लिए राजपूत वीर घोड़ों से उतर कर दुश्मन के चारों तरफ फिर कर भयंकर मार-काट करने लगे। जलाल खाँ के घेरा डालकर जैसा भाटी (लवेरा) ने कटारी से घात कर उसे मार दिया। पत्ता कानावत लडता-लड़ता बादशाह के पास तक पहुँच गया। शेरशाह की जंगी फौज ने राजपूतों के चारों तरफ घेरा दे दिया, लेकिन उनकी पास में जाकर हमला करने की हिम्मत नहीं हुई। तीर कमाणों से तीरों की झड़ी लगा दी। कँपाजी, जैताजी, अखैराज सोनगरा, खींवकरण उदावत, जैसा भाटी (लवेरा), पंचायण करमसोत आदि प्रमुख योद्धा बहादुरी से लड़ते हुए रणखेत रहे। वि.सं. १६०० पोष सुदि११ (ई.स. १५४४ जनवरी ५) को सुमेल-गिरी की रक्तरंजित लड़ाई समाप्त हुई। जब विजय का समाचार शेरशाह के पास पहुँचा तो उसके मुँह से निकला-“ खुदा ने रहम किया वन एक मुट्ठी बाजरी के लिए मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता।”

जिस समय मालदेव को अपने सरदारों की इस वीरता और स्वामिभक्ति का सच्चा समाचार मिला, उस समय वह बहुत दुःखी हुआ। परन्तु समय हाथ से निकल चुका था। साथ ही युद्ध से मारवाड़ की बहुत बड़ी क्षति हुई। लगभग पाँच हजार योद्धा रणखेत रहे। और मारवाड़ के प्रधान-प्रधान सरदार इस युद्ध में काम आए। मारवाड़ में शोक की लहर छा गई। कूँपाजी ने स्वामिभक्ति का जो परिचय दिया है वह मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। कँपाजी के वंशज कूँपावत राठौड़ कहलाते हैं। इनका प्रमुख ठिकाना आसोप है। कूँपावत राठौड़ों ने मारवाड़ के लिए समय-समय पर सेवाएँ दी हैं। कूँपावत मारवाड़ में प्रमुख सरदार हैं।
लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

संत रावल मल्लीनाथ

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Sant Rawal Mallinath Rathore, Malani History in Hindi

राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि पर समय समय कई वीर योद्धाओं, संतो, साहित्यकारों, भक्तों ने जन्म लिया. ऐसे ही पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल में एक ऐसे शासक ने जन्म लिया जिसने अपनी वीरता, शौर्य एवं चातुर्य गुणों का प्रदर्शन कर अपना खोया राज्य प्राप्त करने साथ मुस्लिम आक्रमणकारियों का तगड़ा प्रतिरोध कर उन्हें खदेड़ा. इस वीर नायक ने जहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों की बड़ी बड़ी सेनाओं को अपनी सैनिक रणनीति, कौशल से पराजित करने साथ अपनी राजनैतिक सुझबुझ, प्रशासनिक कुशलता के बलबूते अपने राज्य का विस्तार कर इतिहास के पन्नों में कीर्ति पाई, वहीं उससे बड़ी कीर्ति उन्होंने सिद्ध पुरुष के रूप में प्राप्त की. अपने लोकोपकारी कार्यों व चमत्कारों की कथाओं ने उस क्षेत्र के जनमानस को अत्यंत प्रभावित कर इस संत शासक ने देवत्व प्राप्त करते हुए सिद्ध पीर का पद प्राप्त किया, जिसकी पुष्टि उन पर रचित गीतों से होती है. उनकी पूजा-अर्चना हिन्दू एवं मुस्लिम समान रूप से करते है. उनकी समाधि पर रातभर जागरणों का सिलसिला यहाँ की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चूका है.
जी हाँ ! हम बात कर रहे है. पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल के संत शासक रावल मल्लीनाथ राठौड़ की. राजस्थान ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही व्यक्तित्व मिलेगा, जिसने शासक से देवत्व तक की यात्रा की हो. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने लोकहित के कार्य करके लोकप्रसिद्धि प्राप्त की हो. लेकिन ऐसा बिरला ही मिलेगा, जिसने भक्ति की धारा में बहकर स्वयं लोक-आराध्य का पद प्राप्त कर लिया हो. राजस्थान के लिए यह गौरव की बात है कि उसकी मिट्टी में पले-पल्लवित हुये महेवा के नायक माला से रावल मल्लीनाथ और रावल मल्लीनाथ से सिद्ध मल्लीनाथ के रूप में देवत्व प्राप्त कर गये. सभवत: यही कारण है कि थार के इस राज्य का नाम मालाणी उनके नाम पर पड़ा.
रावल मल्लीनाथ राजस्थान में राठौड़ साम्राज्य के संस्थापक राव सिंहा की वंश परम्परा में राव सलखा के ज्येष्ठ पुत्र थे. उनकी जन्मतिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग अलग जन्म समय लिखा है, ठाकुर नाहर सिंह, जसोल ने अपनी पुस्तक "मालाणी के संत शासक- रावल मल्लीनाथ' में विभिन्न इतिहासकारों द्वारा लिखी जन्मतिथि व रावल मल्लीनाथ के समकालीन अन्य इतिहास पुरुषों के समय का गहन अन्वेषण कर उनका जन्म वर्ष वि.सं.1378 ई.सन 1321 माना है. महेवा के राठौड़ शासक राव तीडा के निधन के पश्चात् राजवंश की प्रस्थापित ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की परम्परा का उलंघन करके ज्येष्ठ पुत्र सलखा को उत्तराधिकार से च्युत कर उनके स्थान पर राव तीडा के द्वितीय पुत्र राव कान्हड़दे को महेवा की राजगद्दी का टीका दिया गया. यह किन परिस्थितियों में हुआ स्पष्ट नहीं है पर निश्चत ही इस घटना ने राजपरिवार में पारस्परिक संशय एवं कटुता की नींव डाल दी. यह इसी कटुता का प्रमाण है कि राव कान्हड़दे द्वारा अपने भतीजे मल्लीनाथ से अथाह स्नेह रखने और उन्हें राज्य का प्रधान बनाकर सम्पूर्ण महत्त्व देने के बाद भी राव कान्हड़दे के निधन के बाद गद्दी पर बैठे उसके पुत्र राव त्रिभुवनसी पर सैन्य कार्यवाही कर मल्लीनाथ ने अपना खोया पैतृक राज्य वापस अपने अधीन कर लिया, क्योंकि कुंवर मल्लीनाथ के बाल मन से ही अपने खोये राज्य को पुन: प्राप्त करने की इच्छा की कोंपल विद्यमान थी.

अपना खोया राज्य पाने की बचपन से इच्छा की ही परिणिति थी कि मल्लीनाथ ने दिल्ली के तत्कालीन बादशाह से सैन्य सहायता प्राप्त कर, दलबल सहित महेवा पर आक्रमण कर राव त्रिभुवनसी को युद्ध में परास्त कर, 1340 ई. में महेवा की राजगद्दी हासिल कर, रावल की पदवी धारण की. इस अवसर पर उनके भाई-बिरादरी के साथ क्षेत्र के समस्त राजपूत सरदारों ने उपस्थित होकर रावल मल्लीनाथ का समर्थन कर उनके राज्य को स्थायित्व प्रदान किया.

महेवा के सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद रावल मल्लीनाथ ने अपनी सैन्य शक्ति बढाकर राज्य-विस्तार अभियान शुरू किया तथा आस-पास के शक्तिशाली राजपूत राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उनसे मधुर सम्बन्ध बनाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ की. उनकी बढती शक्ति से आस-पड़ौस की मुस्लिम शक्तियों का आशंकित होना स्वाभाविक था. अत: रावल का मुस्लिम शक्तियों के साथ कई बार युद्ध हुआ और हर युद्ध में उनकी विजय हुई. हालाँकि इतिहास में उनके साथ युद्ध करने वाले मुस्लिम शासकों के नाम नहीं मिलते लेकिन समसामयिक साहित्य में उनका मुस्लिम शक्तियों से संघर्ष और उन पर विजय का विवरण प्रचुर मात्रा में मिलता है. राजस्थानी स्त्रोतों के आधार पर रावल मल्लीनाथ को रेगिस्तानी प्रदेश में सीमा विस्तार में काफी सफलता मिली थी. उन्होंने अपनी सुगठित सेना के बल पर तुर्कों को हराकर सिवाणा को अपने राज्य का अंग बनाया, उमरकोट तक के क्षेत्र पर सैन्य कार्यवाही कर काफी धन संग्रह किया.
राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार नैणसी ने मल्लीनाथ को बाड़मेर का स्वामी माना है जो प्रमाणित करता है कि बाड़मेर रावल मल्लीनाथ के मालाणी राज्य का अंग था. महेवा की उत्तरी सीमा संभवत: सालोड़ी नामक स्थान तक थी जिस पर बनी सीमा चौकी की सुरक्षा की जिम्मेदारी राव चुंडा जो बाद में मंडोर के शासक बने के पास थी. ओसियां क्षेत्र पर अधिपत्य के अलावा सांचोर के चौहान शासक रावत मल्लीनाथ के अधिपत्य स्वीकार कर चुके थे. इस तरह जाहिर होता है कि रावल मल्लीनाथ ने अपने राज्य का विस्तार अच्छा ख़ासा कर लिया था. जिसके समुचित प्रबंधन की भी अच्छी व्यवस्था थी. चूँकि तत्कालीन समय में राज्य विस्तार भाई-बिरादरी के साझे प्रयास से संभव हो पाते थे अत: रावल मल्लीनाथ ने बुद्धिमता का परिचय देते हुए अपने आपको कुल का संप्रभु नेता दर्शाते हुए प्रशासन व राज्य की भूमि जिसका वास्तविक अधिकार शासक के पास होता था, में अपने भाई-बिरादरी को उनका हिस्सा देकर साझेदार बनाया ताकि व्यवस्था समुचित तरीके से हो सके. इसके साथ ही रावल मल्लीनाथ राज्य में सुशासन के लिए एक सलाहकार समिति से भी सलाह लेते थे जिसमें राज्य के प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल होते थे.रावल मल्लीनाथ की राणी रुपांदे अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला था. जो बाल्यकाल से ही साधू-संतों के चमत्कारों से प्रभावित थी. विवाह के उपरांत भी वह महेवा में होने वाले साधू-संतों के सत्संग में शामिल होती थी. यह उस काल के जातीय सौहार्द व समानता का ही प्रतीक है कि राणी राजधानी में धारु नामक एक व्यक्ति जो मेघवाल जाति का था के घर आने वाले साधू-संतों के सत्संग में भागीदारी करती थी. एक दलित जाति के घर पर होने वाले सत्संग व जागरण आदि में भाग लेने पर उनपर कोई रोकटोक नहीं थी. रानी रुपांदे जो भक्ति से ओतप्रोत थी से प्रेरणा लेकर रावल मल्लीनाथ जी को उन्हीं के पंथ में आनंद एवं मुक्ति का मार्ग दृष्टिगोचर हुआ और वे इस मत में शामिल हो गए. ठाकुर नाहरसिंह जसोल के अनुसार वि.सं.1439, चैत्र सुदी 2, वार शनिवार के दिन रावल मल्लीनाथ इस पंथ में सम्मिलित हुए. इस पंथ में शामिल होने के पश्चात् वे एक महान संत के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने लगे| उनके चमत्कारों की कथाएँ जनमानस में गहरी पैठने लगी. यही नहीं, इस प्रकार की चर्चाएँ दिल्ली एवं मुस्लिम शासकों तक भी पहुंची.

एक कथा के अनुसार उस समय देश में तीन-चार वर्ष तक वर्षा ना होने के चलते अकाल पड़ा तब दिल्ली के सुलतान ने राजकोष खाली होने से परेशान था. उसने सुना कि महेवा के रावल मल्लीनाथ सिद्ध पीर है जो अपने तपोबल से वर्षा करवा सकते है. तब सुल्तान ने रावल को दिल्ली आमंत्रित किया और जनता को कष्टों से मुक्ति दिलवाने की प्रार्थना की. रावल ने उत्तर दिया कि- "मालो किसो हर री देह, हर बरसावे तो बरसे मेह." अर्थात वर्षा तो ईश्वर के हाथ में है, मेरे हाथ में कुछ नहीं है.

कहा जाता है कि तब सुल्तान के अनुनय-विनय से मल्लीनाथ जी वहीं समाधि पर बैठ गए एवं परिणामत: बरसात हुई. इस प्रकार उन्होंने अपने चमत्कार से जनता के संकट दूर किये. इस तरह के लोकोपकारी व चमत्कारी कार्यों से प्रभावित जनमानस के मन में छाये विश्वास के बल पर मल्लीनाथ जी देवत्व को प्राप्त हुये. नकी आज भी सम्पूर्ण मारवाड़ के लोग संत देव रावल मल्लीनाथ व रानी रुपांदे की पूजा-अर्चना करके स्मरण करते है. राजस्थान के इतिहास में ऐसा कोई शासक नहीं हुआ जिसको समाज ने इतना उच्च स्थान प्रदान किया हो. रावल मल्लीनाथ के बाद उनके पुत्र जगमाल महेवा की राजगद्दी पर बैठे.

सन्दर्भ: ठा. नाहरसिंह, जसोल लिखित "मालाणी के संत-शासक रावल मल्लीनाथ" पुस्तक


History of Rawal Mallinath Rathore, Malani, Malani history in Hindi, Sant Mallinath history, Saint Ruler Mallinath Rathore

महाराजा जसवन्तसिंह राठौड़

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Maharaja Jaswant Singh Rathore, Jodhpur
जागे बप्पा सांगा जागे, जागे पृथ्वीराज हमीर।
जागे जयमल फत्ता जागे मालदेव जसवन्त प्रवीर।।

महाराजा जसवन्त सिंह जोधपुर (मारवाड़) के शासक थे। जसवन्तसिंह महाराजा गजसिंह के छोटे पुत्र थे। बड़े पुत्र अमरसिंह को राव की पदवी देकर नागौर का राज्य दिया गया। इनका जन्म वि.सं. १६८३ माघ बदि चतुर्थी (ई.स. १६२६) को बुरहानपुर (दक्षिण) में हुआ था। पिता की मृत्यु के उपरान्त वि.सं. १६९५ आषाढ बदि सप्तमी (ई.स. १६३८) को आगरा में बादशाह जहाँगीर ने राजतिलक किया, उस समय इनकी उम्र १२ वर्ष थी। जसवन्तसिंह बड़े वीर थे, बादशाह औरंगजेब भी इनसे भयभीत रहता था। उस समय मारवाड़ में पाँच परगने जोधपुर, सिवाना, मेड़ता, सोजत और फलौदी थे।

वि.सं. १७०६ में पोखरन जैसलमेर के भाटियों से जीता। जसवन्तसिंहजी ने शाही सेवा में रहते हुए कई सैनिक अभियानों में भाग लिया था। बादशाह शाहजहाँ के विश्वास-पात्र थे। वि.सं. १७१४ (ई.स. १६५७) में शाहजहाँ बीमार पड़ गया और उसकी हालत अत्यन्त गम्भीर बनी रही। स्वयं उसे अपने पूर्ण स्वस्थ हो जाने की आशा नहीं रही इसलिए दारा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। मुगल सिंहासन के उत्तराधिकार के लिए व्यापक युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। बंगाल में शाहशुजा ने और गुजरात में मुराद ने स्वयं को मुगल सम्राट घोषित कर दिया, जबकि दक्षिण में औरंगजेब सारी स्थिति पर नजर रखे हुए प्रतिक्षा करता रहा।

दारा को सबसे अधिक भय औरंगजेब से था। उसने जसवन्तसिंह को मालवा का सूबेदार बनाकर एक विशाल शाही फौज के साथ भेजा। औरंगजेब ने मुराद के साथ गठजोड़ कर लिया उनकी सयुंक्त सेनाएँ वि.सं. १७१५ वैशाख मास (ई.स. १६५८ अप्रेल) में उजैन के पास धरमत नामक स्थान पर पहुँची। दूसरे दिन शाही सेना और औरंगजेब की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में औरंगजेब के तोपखाने के सामने राजपूतों की अग्रिम पंक्ति (हरावल) में भयानक रक्तपात हुआ। यद्यपि इस शुरु के युद्ध में जीत शाही सेना की हुई, लेकिन इसमें राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जौहर दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। शाही सेना में बिखराव हो गया। मुगल सेना ने अपने राजपूत साथियों की कोई सहायता नहीं की। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए। जसवन्तसिंह, अपने राठौड़ योद्धाओं के साथ शाही दस्ते के बीच में अड़े रहे। इस युद्ध में दुर्गादास राठौड़ ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। विजय असंभव दिखने लगी, राठौड़ सेना-प्रमुखों ने महाराजा जसवन्तसिंह के घोड़े की लगाम पकड़ ली और उसे युद्ध क्षेत्र से बाहर खींच ले गए। रतनसिंह राठौड़ (रतलाम) ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अन्तिम चरण के युद्ध में बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। जसवन्तसिंह जी घायल होकर जोधपुर लौट आए। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई। औरंगजेब दिल्ली का बादशाह बन गया। आमेर के राजा जयसिंह की मध्यस्थता से औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को शाही सेवा में ले लिया। औरंगजेब ने उन्हें क्षमा कर दिया और मालवा की सूबेदारी से पहले का मनसब और तमाम परगने बहाल कर दिए। औरंगजेब के प्रारम्भिक शासन काल के बीस वर्षों के लम्बे और भाग्य निर्णायक दौर में जसवन्तसिंह की भूमिका सर्वविदित है। जसवन्तसिंह गुजरात, कोंकण क्षेत्र के सूबेदार रहे। शिवाजी के विरूद्ध अभियान में जसवन्तसिंह भी गए थे। जसवन्तसिंहजी के प्रयत्न से ही शिवाजी के पुत्र शंभाजी और मुगलों में सन्धि हुई थी।शिवाजी के विरुद्ध अभियान में सफल न होने पर महाराजा को दक्षिण से वापस बुला लिया गया व शहजादा मुअज्जम के साथ अफगानिस्तान भेज दिया गया। वि.सं. १७२८ (ई.स. १६७१) में दुबारा गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया। इसके एक वर्ष पश्चात् दुबारा अफगानिस्तान में भेज दिया गया। वि.सं. १७३१ (ई.स. १६७३) में जमरूद का थानेदार नियुक्त किया गया। यहाँ पर जसवन्तसिंहजी ने उल्लेखनीय कार्य किया | अफगान विद्रोहियों का दमन किया। औरंगजेब मन ही मन महाराजा से द्वेष रखता था। यहाँ जसवन्तसिंहजी विषाद-ग्रस्त रहते थे। क्योंकि उनके पुत्र पृथ्वीसिंह व दूसरे पुत्र अल्पायु में ही चल बसे थे। उनके कोई पुत्र जीवित नहीं था, जो उनका उत्तराधिकारी बन सके। अपने अन्तिम दिनों में उत्तराधिकारी की चिन्ता में अत्यधिक खिन्न रहने लगे। वि.सं. १७३५ पोष बदि १० को (ई.स. १६७८ नवम्बर २८) जमरूद में महाराजा जसवन्तसिंह का देहान्त हुआ। मृत्यु के समय इनकी दो रानियाँ, जो इनके साथ जमरूद में थी, गर्भवती थी । जसवन्तसिंहजी के उत्तराधिकारी अजीतसिंह हुए।
यह महाराजा उच्च कोटि के विद्वान भी थे। इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की। इनके द्वारा रचित भाषा-भूषण साहित्य का अपूव ग्रन्थ है।
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर


राव हम्मीर देव, चौहान

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Rao Hammirdeo Chauhan, Ranthambor History in Hindi

“याद हमें है हल्दीघाटी और हठी हमीर/"

राव हम्मीर देव चौहाण रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि.सं. १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है।हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
जलालुद्दीन खिलजी ने वि.सं. १३४७ (ई.स. १२९०) में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। सबसे पहले उसने छाणगढ (झाँइन) पर आक्रमण किया। मुस्लिम सेना ने कड़े प्रतिरोध के बाद इस दुर्ग पर अधिकार किया। तत्पश्चात् मुस्लिम सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ी। उसने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया लेकिन हम्मीर देव के नेतृत्व में चौहान वीरों ने सुल्तान को इतनी हानि पहुँचाई, कि उसे विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा। छाणगढ़ पर भी चौहानों ने दुबारा अधिकार कर लिया। इस आक्रमण के दो वर्ष पश्चात् मुस्लिम सेना ने रणथम्भौर पर दुबारा आक्रमण किया, लेकिन वे इस बार भी पराजित होकर दिल्ली वापस आ गए। वि.सं. १३५३ (ई.स. १२९६) में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना। वह सम्पूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाने की आकांक्षा रखता था। हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था । अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था ।

ई.स. १२९९ में अलाउद्दीन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया था। वहाँ से लूट का बहुत सा धन दिल्ली ला रहे थे। मार्ग में लूट के धन के बँटवारे को लेकर कुछ सेनानायकों ने विद्रोह कर दिया तथा वे विद्रोही सेनानायक राव हम्मीरदेव की शरण में रणथम्भौर चले गए। ये सेनानायक मीर मुहम्मद शाह और कामरू थे। सुल्तान अलाउद्दीन ने इन विद्रोहियों को सौंप देने की माँग राव हम्मीर से की, हम्मीर ने उसकी यह माँग ठुकरा दी। क्षत्रिय धर्म के सिद्धान्तों का पालन करते हुए राव हम्मीर ने, शरण में आए हुए सैनिकों को नहीं लौटाया। शरण में आए हुए की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझा। इस बात पर अलाउद्दीन क्रोधित होकर रणथम्भौर पर युद्ध के लिए तैयार हुआ।

अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुस्लिम सैनिकों को परास्त कर दिया। मुस्लिम सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि.सं. १३५८ (ई.स. १३०१) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं युद्ध में नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुस्लिम सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया।

तत्पश्चात् मुस्लिम सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। उसने शरणागतों को सौंपने अथवा अपने राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट मना कर दिया। तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। तुर्की सेना ने नुसरत खाँ और उलुग खाँ के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। दुर्ग बहुत ऊँचे पहाड़ पर होने के कारण शत्रु का वह पहुचना बहुत कठिन था। मुस्लिम सेना ने घेरा कडा करते हुए आक्रमण किया लेकिन दुर्ग रक्षक उन पर पत्थरों, बाणों की बौछार करते, जिससे उनकी सेना का काफी नुकसान होता था। मुस्लिम सेना का इस तरह घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।
अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुस्लिम सेना का घेरा चलूता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ रोना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए।

दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी। राजपूतों के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नहीं सके वे भाग छूटे भागते हुए मुसलमान सैनिको के झण्डे राजपूतों ने छीन लिए व वापस राजपूत सेना दुर्ग की ओर लौट पड़ी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानों के झण्डो को दुर्गे की ओर आते देखकर समझा की राजपूत हार गए अतः उन्होंने जोहर कर अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया। किले में प्रवेश करने पर जौहर की लपटों को देखकर हमीर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। उसने प्रायश्चित करने हेतु किले में स्थित शिव मन्दिर पर अपना मस्तक काट कर शंकर भगवान के शिवलिंग पर चढा दिया। अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो उसने लौट कर दुर्ग पर कब्जा कर लिया।
“स्यंघ गमन सापुरसि वचन, केळि फळे यक बार।
त्रिया तेल हमीर हठ, चद्वै न दूजी बार।"

लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

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बिश्नोई समाज के प्रवर्तक संत जाम्भोजी पंवार

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Bishnoi community promoter saint Jambhoji Panwar history in Hindi

राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि में सिर्फ वीर ही नहीं, कई ऐसे संतों ने भी जन्म लिया जिन्होंने भक्ति, ईश्वर साधना, आत्मबोध के साथ ही तत्कालीन समाज में फैली बुराइयों को जड़ से समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किये. इन संतों को उनके सुकृत्यों के कारण यहाँ की जनता ने भरपूर आदर दिया व इनकी लोक देवता के रूप में पूजा-अर्चना शुरू की. इन विविध लोक-देवों की उपासना वैसे तो अंध-विश्वास पर आधारित रही है व बुद्धिजीवियों की इन पर कोई श्रद्धा नहीं रही, फिर भी आम जनमानस में इनके प्रति दृढ़ निष्ठा ने सहस्रों साधारण स्तर के नर-नारियों को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है।

इनके जीवन-वृत्त पर मनन करने से ऐसा वर्ग इस नतीजे पर पहुँचा है कि जगत् का नियन्ता कोई ऊपरी शक्ति है और चमत्कार से धार्मिक जीवन का घना सम्बन्ध है। इस प्रकार के विश्वास से प्रेरित होकर इन लोक-देवों के अनुयायी बिना किसी छुआछुत, ऊँच-नीच, भेदभाव के एक स्थान पर एकत्रित होते हैं और जातीय व धार्मिक एकसूत्रता का अनुभव कर साम्प्रदायिक सौहार्द व समानता की मिशाल कायम करते हैं। सबसे बड़ा महत्त्व इस प्रकार के स्थानीय लोक देवों में विश्वास का यह है कि अधिकांश जनता ने बिना धर्म सम्बन्धी दर्शन के शास्त्रार्थ में पड़े एकता ध्यान और नैतिक जीवन के तत्त्वों को समझने में सफलता प्राप्त की।

इनके अनुयायियों में आज भी अच्छे सिद्ध-पुरुष दिखायी देते हैं जो एक तरह से निरक्षर हैं परन्तु जिनका आत्मबोध स्तुत्य है और जिनका ईश्वर के प्रति प्रेम प्रगाढ है। राजस्थान के शासक वर्ग क्षत्रिय जाति में रावल मल्लीनाथ, बाबा रामदेव तंवर (Baba Ramdev sa peer), गोगा जी चौहान (Gogaji Chauhan), तेजाजी (Veer Tejoji), हडबू जी सांखला (hadbuji sankhla), पाबूजी राठौड़ (Pabuji Rathore) आदि लोक देवताओं की एक लम्बी श्रंखला रही है, जिन्होंने अपने शासकीय धर्म के निवर्हन के साथ लोक-कल्याणकारी कार्यों में आत्मोसर्ग कर, सादा तथा सदाचारी जीवन जी कर, तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के उपाय बताकर, आम जन को बिना ऊँच-नीच अपने सीने से लगाकर देवत्व को प्राप्त किया. क्षत्रिय संतों की इसी श्रंखला में विश्नोई समाज के प्रवर्तक जाम्भोजी का नाम बड़े सम्मान के साथ प्रसिद्ध है. उनके सम्बन्ध में बतायी गयी वाणी में परमतत्त्व की विवेचना मिलती है जो अनुभव-प्रधान हो सकती है। संसार के मिथ्या होने पर भी उन्होंने समन्वय की प्रवृत्ति को प्रधानता दी। दान, तीर्थ आदि के सम्बन्ध में उन्होंने उपेक्षा करते हुए ‘शील-स्नान" को उत्तम बताया। पाखण्ड को अधर्म और पवित्र जीवन को धार्मिक बताया । विष्णु की भक्ति में अर्चन करने पर बल देते हुए कुरीतियों से बचने के उपाय भी उन्होंने सुझाये। समाज-सुधारक की भाँति जाम्भोजी ने विधवा विवाह पर बल दिया। मुसलमानों के अनुरूप मुर्दो को गाढ़ना उन्होंने ठीक बताया।
उनके ये सभी अनुभव 29 शिक्षा के नाम से जाने जाते हैं और इनका पालन करने वाले "विष्णोई' (विश्नोई) नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। इन मतावलम्बियों का अपने जीवन और विचारों का एक तरीका है जिससे वे स्वतः एक समाज बनाते हैं। इनको एक सूत्र में गठित करने का श्रेय जाम्भोजी (Jambhoji) को है। आज भी विष्णोई समाज, जिसमें अधिकांश में जाट हैं, अपने ढंग से स्वतन्त्र विचारों का है और उसकी अपनी इकाई है।
जीवन परिचय :
जाम्भोजी का जन्म 1451 ई. में जोधपुर राज्य के अन्तर्गत नागौर परगने के पीपासर गाँव में हुआ था। जाति के वे पंवार राजपूत थे। इनके पिता का नाम लोहटजी था और उनकी माता हाँसा भाटी राजपूत कुल की थीं। अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र जाम्भोजी बचपन से ही यह मननशील थे जिससे वे कम बोलते थे। साधारणतः इस स्थिति को देखकर लोग इन्हें गूंगा थे। परन्तु कभी-कभी वे ऐसी बात कर बैठते थे कि लोग आश्चर्यान्वित हो जाते थे। संभवतः अचंभित करतूतों से लोग इन्हें जाम्भोजी कहने लगे हों। बताया जाता है कि 7 वर्ष की उम्र से ही जाम्भोजी ने गायें चराना आरम्भ कर दिया था जो लगभग अपनी 16 वर्ष की आयु तक करते रहे। इसी अवस्था में इन्हें सद्गुरु का साक्षात्कार हुआ।

जब इनके माता-पिता मृत्यु हो गयी तो वे घर छोड़कर चल दिये और सत्संग में तथा हरिचर्चा में अपना समय बताने लगे "वे केवल मननशील ही नहीं वरन् उस युग की साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक भी थे। वे चाहते थे कि अन्ध-विश्वास और नैतिक पतन के वातावरण से सामाजिक दशा को सुधारा जाय और आत्मबोध के द्वारा कल्याण के मार्ग को अपनाया जाय। उनकी शिक्षा-दीक्षा का व्यवस्थित न होना स्वाभाविक था, परन्तु गायें चराने के अवसर ने उन्हें एकान्तवास और मनन का समय दिया।

जाम्भोजी की जीवन लीला तालवा गाँव में 1526 ई. में समाप्त हुई जिसके स्मरण में विष्णोई भक्त फाल्गुन मास की त्रयोदशी को वहाँ एकत्रित होते हैं और मृत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जाम्भोजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त सबदवाणी और उनका नैतिक जीवन मध्ययुगीन धर्म सुधारक प्रवृत्ति के बलवान अंग हैं।

सन्दर्भ पुस्तक: राजस्थान का इतिहास, लेखक- डा.गोपीनाथ शर्मा


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राजा जवाहरसिंह भरतपुर एवं महाराजा माधोसिंह जयपुर के मध्य मावंडा मंडौली युद्ध

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Battle of Maonda and Mandholi fought was between the Jat ruler of Bharatpur Raja Jawahar Singh and the Rajput ruler Maharaja Madhosingh of Amer Jaipur in 1767, Full story in Hindi

राजस्थान के इतिहास में भरतपुर के जाट राजा सूरजमल, जवाहरसिंह आदि का नाम वीरता और शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है| सूरजमल के पिता बदनसिंह ने भरतपुर का राज्य अपने चचेरे भाई चूडामण के पुत्र से जयपुर के महाराजा जयसिंह की सहायता से हासिल किया था| यही कारण था कि बदनसिंह जिसे महाराजा जयसिंह ने मुग़ल सल्तनत से राजा के तौर पर मान्यता दिलवाई का बड़ा अहसान मानते थे और अपने आपको जयपुर का सामंत समझते थे| बदनसिंह के निधन के बाद उनके पुत्र सूरजमल भरतपुर के राजा बने और उन्होंने जीवन पर्यंत जयपुर के साथ रिश्ते निभाये और स्वयं को जयपुर के एक सामन्त से अधिक नहीं माना।

सूरजमल अपनी वृद्धावस्था तक दशहरा के दिन जयपुर नरेश को उपहार भेंट करने आते थे| जब कभी जयपुर नरेश डीग या भरतपुर से गुजरते तो वह एक सामन्त की तरह उनकी हाजिरी में उपस्थित होते और अपने किले की चाबियाँ उसके सामने रखकर कहते थे, यह सब आपका ही है। सवाई जयसिंह की ओर से भी उन्हें पुरस्कार में कई क्षेत्र मिले थे। किन्तु जवाहरसिंह ने बदन सिंह के समय से चली आ रही परम्परा तोड़ दी। जवाहरसिंह यह मानते थे कि वह साधारण किसान न होकर राजा के पुत्र है, क्योंकि सूरजमल को सफदरजंग ने राजा ब्रजेन्द्र बहादुर की पदवी दे दी थी। साथ ही जवाहरसिंह ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू कर दिया था जो जयपुर की पूर्वी सीमाओं के लिए खतरा बन रहा था। जवाहरसिंह की नज़र कामा पर थी और कामा शाहजहाँ द्वारा जयपुर घराने को दिया गया था। जवाहर सिंह को अपने खजाने व शक्ति का घमण्ड था| उसकी सेना के 15 हजार अश्वरोही, 25 हजार पदातिक तथा 30 तोपों व गोलाबारूद की असीमित आपूर्ति उसके गर्व को और बढ़ाते थे| इस शक्ति के चलते जवाहरसिंह को जयपुर की अधीनता रास नहीं आ रही थी। जवाहर सिंह को नजीबुद्दौला से अपने पिता की हत्या का बदला लेना था, जिसमें वह फ़रवरी 1766 तक व्यस्त रहे और भारी व्यय ओर मराठा और सिखों की सहायता के बावजूद पूर्णतः असफल रहे। उसकी सेना में कई जाट सामन्त ऐसे थे जिनसे जवाहर सिंह की पटरी नहीं बैठती थी और जाटों से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने वाल्टर राइन हार्ड द्वारा यूरोपियन पद्धति से प्रशिक्षित सिपाही भरती किये। इससे उनका हौसला और बढ़ गया।

जवाहरसिंह के सौतेला भाई नाहरसिंह धौलपुर के शासक थे| नाहरसिंह की पत्नी अत्यन्त रूपवती थी और जवाहरसिंह की उस पर कुदृष्टि थी। उसने मराठों सिखों और गोहद के राणा की सहायता से नाहरसिंह को युद्ध में हरा दिया, जिसने शाहपुरा में विषपान द्वारा आत्महत्या कर ली (6 दिसम्बर 1766)। जवाहरसिंह ने विजेता के रूप में नाहर सिंह की विधवा और उसके खजाने की माँग की, जिसे जयपुर के महाराजा माधोसिंह ने अनुचित माना। नाहरसिंह की विधवा ने आत्महत्या करके स्वयं को ग्लानि से बचाया। इसी प्रकरण को लेकर जवाहरसिंह महाराजा माधोसिंह पर क्रोधित हुआ|

जवाहरसिंह के सिख छापामार जयपुर राज्य में भी घुसपैठ कर रहे थे। माधोसिंह ने भरतपुर के खिलाफ़ भरतपुर के दुश्मनों का मोर्चा बनाने की असफल चेष्टा भी की। जवाहरसिंह ने मराठों और बुन्देलों पर विजय से तृप्त होकर अपने गोरों द्वारा प्रशिक्षित जाट सवारों के साथ पुष्कर की ओर जयपुर क्षेत्र में होते कूच किया| 6 नवम्बर 1767 को पुष्कर सरोवर के तट पर जोधपुर के महाराजा विजयसिंह की जवाहर सिंह से भेंट हुई। दोनों पगड़ी बदल कर भाई बने और एक ही जाजम पर बैठकर चर्चाएं कीं। फिर उन्होंने माधोसिंह को भी वहाँ आने का निमंत्रण भेजा। चूँकि माधोसिंह जवाहरसिंह द्वारा जयपुर राज्य की सीमाओं में घुसपैठ से पहले से नाराज थे सो नहीं आये और विजयसिंह को उत्तर दिया कि उसने एक किसान के बेटे को अपना पगड़ी बदल कर भाई बनाकर अपने राठौड़ कुल को कलंकित किया है। इस पत्र की जानकारी मिलने के बाद जवाहरसिंह आगबबूला हो गया। वह लौटते हुए तबाही और कत्ले आम करता हुआ जयपुर की ओर आया। तबाही की सूचना मिलते ही जयपुर राज्य सेना ने जवाहरसिंह की सेना पर आक्रमण कर किया| नीमकाथाना के पास तंवरावाटी में मावंडा नामक स्थान पर युद्ध हुआ| जिसमें कछवाह सेना के सामने अपनी सैन्य शक्ति पर इतराने वाले जाट राजा जवाहरसिंह की वीरता और शौर्य धरा रह गया और उन्हें जान बचाकर कायरों की तरह भागना पड़ा|

इस युद्ध के बारे इतिहासकार चंद्रमणि सिंह अपनी पुस्तक "जयपुर राज्य का इतिहास" के पृष्ठ 95,96 पर लिखती है-"जवाहरसिंह अपनी भारी भरकम सेना और तोपखाने के साथ जब नारनौल से 23 मील दूर मांवडा पहुँचा तो 14 दिसम्बर को पीछे से आ रही कछवाहा सेना ने उस पर आक्रमण किया। यहाँ सामने की ओर एक तंग घाटी थी। उन्होंने अपना सामान आगे भेज कर पीछे सैनिक बल रखा। राजपूत घुड़सवारों का खुले मैदान का पहला आक्रमण जाटों ने विफल कर दिया और उनकी ओर जवाबी हमला किया। इस पहली सफलता से निश्चिन्त होकर जाटों ने अपनी सेना तंग घाटी से घुसा दी। किन्तु जयपुर के घुड़सवार आगे बढ़कर इस तंग घाटी में उनसे जा भिड़े। आगे मुड़कर जाटों ने मुकाबला किया और तोपों के मुँह खोल दिये। कछवाहा घुड़सवारों ने गोलों की परवाह किये बिना तलवारें खींच लीं और जाटों पर टूट पड़े। जाटों में भगदड़ मच गयी और वे गोलाबारूद और साज सामान छेड़ कर भाग छूटे। राजपूत फिर लूटपाट में लग गये। किन्तु जवाहरसिंह को भागने में सहायता की। दोनों ओर के लगभग 5000 लोग मारे गये, जिनमें आधे से अधिक जाट सैनिक थे। जवाहर सिंह ने अपने बचकर भाग आने को ही अपनी जीत माना। किन्तु जाटों की तकदीर फिर चुकी थी। वे लुटेपिटे हार कर आये थे।माधोसिंह ने इस जीत के बाद लड़ाई जारी रखी और 16 हजार सैनिकों के साथ भरतपुर राज्य में प्रवेश किया, वे कामा आ कर रुके जहाँ 29 फरवरी 1768 को उसने फिर जवाहरसिंह को हराया, उसके 400 सैनिक और सेनापति दानसिंह को घायल कर दिया। जब 20 हजार सिखों की नयी सेना भरतपुर की सहायता के लिए आयी तो राजपूत अपने राज्य में लौट गये।
माधोसिंह की यह अंतिम लड़ाई थी, 15 मार्च 1768 को मालवा में उनकी मृत्यु हो गई और चार माह बाद जवाहरसिंह अपने ही किसी आदमी के हाथों यमलोक पहुँच गया| इस युद्ध के हताहतों की सूची जयपुर के पोथीखाने में उपलब्ध है| इसके अनुसार जयपुर के 986 सैनिक मारे गए और 227 घायल हुए|"

मावंडा के इसी प्रसिद्ध युद्ध के बारे इतिहासकार देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक "राजस्थान के कछवाह" के पृष्ठ- 82,83 पर लिखते है- "ईस्वी सन 1767 में जवाहर सिंह पुष्कर आया तथा जोधपुर के विजयसिंह जी भी पुष्कर आये हुए थे. पुष्कर में जवाहरसिंह और विजयसिंह जी दोनों धर्म-भाई बने| विजयसिंह जी ने माधोसिंह जी को भी पुष्कर बुलाया परन्तु वे नहीं आये| कामा पर जवाहर सिंह के अधिकार करने की नाराजगी के कारण माधोसिंह जी ने एक सेना वापिस लौटते जवाहरसिंह पर हमला करने भेजी| इस सेना का नेतृत्व धूला के राव दलेलसिंह राजावत कर रहे थे| दलेलसिंह ने बीचून के बनेसिंह को 500 सवारों सहित आगे भेजा| उसका भरतपुर की बड़ी सेना में गगवाने में मुकाबला हुआ जो जयपुर की ओर आ रही थी|

बनेसिंह 500 सवारों के साथ जवाहरसिंह की सेना से युद्ध करते हुये मारा गया| उसका भी काफी नुकसान हुआ, जवाहरसिंह ने अपना रास्ता बदल लिया और जयपुर के उत्तर से होकर जाने लगा| दलेलसिंह ने उसका पीछा किया और तंवरावाटी के मावंडा मंढोली में उसे पकड़ा| भरतपुर की सेना ने मावंडा में थी और जयपुर की सेना मंढोली में. प्रतापसिंह नरुका माचेड़ी पर महाराजा माधोसिंह जी ने नाराज होकर उसकी जागीर जब्त करली थी| तब से वह भरतपुर जवाहरसिंह के पास चला गया था| परन्तु जब जवाहरसिंह ने जयपुर पर चढ़ाई का इरादा किया तब प्रतापसिंह उसे छोड़ जयपुर की तरफ आ गया था| वह भी इस युद्ध में शामिल था| शेखावतों की सेना का संचालन नवलसिंह नवलगढ़ कर रहे थे| दिनांक 14 दिसंबर 1767 को मावंडा-मंढोली का प्रसिद्ध हुआ| जयपुर के सेनापति राव दलेलसिंह राजावत की तीन पीढियां वहां काम आई| भरतपुर की पराजय हुई तथा उसके तोपखाने के अध्यक्ष फ़्रांसिसी समरू जवाहरसिंह को युद्ध स्थल से बचाकर निकाल ले गया| जयपुर की सेना ने फिर भरतपुर पर हमला किया. दिनांक 29 फरवरी 1768 ई. को कामा के युद्ध में फिर भरतपुर की हार हुई|"
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वीर राजा पुरु (पोरूष)

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झेलम बोल जरा क्यों लाल हुआ तेरा पानी

king Puru राजा पुरु केकय राज्य के चन्द्रवंशी राजा थे। इनका राज्य भारत के पश्चिमोत्तर में इमेलम नदी और चिनाव नदी के मध्य में फैला था। पंजाब के झेलम, गुजरात और शाहपुर जिले तक कैकय राज्य था। ई.पू. 326 के लगभग यूनानी आक्रान्ता सिकन्दर (Sikandar) भारत के पश्चिमोत्तर राज्यों पर आक्रमण करने के लिए बढ़ा। उसकी इच्छा पूरे विश्व को जीत कर जगद्वजेता की उपाधि धारण करने की थी। भारत पर आक्रमण के समय यहाँ के वीरों ने युद्ध क्षेत्र में अपूर्व शौर्य का परिचय दिया, जिसको देखकर उसे वापिस अपने देश लौटना पड़ा।

सिकन्दर तक्षशिला तक भारतीय क्षेत्रों को जीतता हुआ पहुँच गया था। उस समय पश्चिमोत्तर क्षेत्र में छोटे-छोटे राज्य थे। सभी ने जितनी उनकी सामर्थ्य थी, सिकन्दर का विरोध किया। तक्षशिला से सिकन्दर ने पुरु के पास अपना दूत भेजा और कहा कि वह उसकी सेवा में उपस्थित होकर उसका आधिपत्य स्वीकार कर ले। पुरु ने जवाब दिया कि वह युद्ध क्षेत्र में उसके सामने उपस्थित होकर उसका स्वागत करेगा। सिकन्दर की सेना अपने मित्रों के साथ इोलम के पश्चिमी किनारे पर आ डटी। उसका सामना करने के लिए पुरु की सेना झेलम के पूर्वी तट पर एकत्र हुई। महीनों तक दोनों सेनाएँ झेलम के किनारों पर आमने-सामने पड़ी रही किन्तु आक्रमण करने के लिए सिकन्दर का साहस नहीं हुआ।

एक दिन, रात को आँधी और वर्षा हो रही थी, उस समय सिकन्दर अपनी सेना को बीस मील ऊपर ले गया और चुपके से दरिया पार करके पुरु की विशाल सेना पर आक्रमण करने का विचार किया। दोनों सेनाएँ आमने-सामने हो गई। पुरु के पास हाथी, रथ और पैदल धनुषधारियों की सेना थी। खुले मैदान में उसका सिकन्दर से जमकर मुकाबला हुआ। परन्तु दुर्भाग्य से पानी और कीचड़ के कारण पुरु के रथ बेकार हो गए और पैदल सैनिक भी गीली जमीन में भारी और लम्बे धनुषों पर बाण नहीं चढा सके। सिकन्दर के पास विशाल भाले और धनुर्धर घुड़सवार सेना थी। दोपहर तक भारतीयों ने कड़ा मुकाबला किया और एक समय ऐसा मालूम पड़ता था कि यूनानी हार जाएँगे। इसी बीच में बाणों और भालों से घायल हाथियों ने पगलाकर अपने भारतीय सैनिकों को ही कुचलना शुरू कर दिया। पुरु की सेना में भगदड़ मच गई। परन्तु पुरु रणक्षेत्र छोड़कर भागा नहीं। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि वह एक हाथी पर चढ़कर, लड़ता हुआ सेना का संचालन कर रहा था। स्वयं घायल था, किन्तु उसने द्रोही अम्भि राज पर भाला चलाया परन्तु अम्मि संयोग से बच गया। पुरु घायल हो गया, मूर्छित अवस्था में बन्दी बना लिया गया। उसे सिकन्दर के सामने हाजिर किया गया। सिकन्दर ने पूछा, “तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए ?’ पुरु ने गर्व से उत्तर दिया, “जैसा राजा लोग दूसरे राजा के साथ करते हैं।’’ पुरु की निर्भीकता, उसके पौरुष, साहस और स्वाभिमान की उच्च भावना से सिकन्दर अत्यधिक प्रभावित हुआ और प्रसन्न होकर उसने पुरु को उसका राज्य लौटा दिया (एरियन)। इस युद्ध में सिकन्दर की विजय बताई गई है जो संदिग्ध लगती है। जैसा कि अन्य इतिहासकारों ने लिखा हैं। “विशालकाय हाथियों में अपार बल था और अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। उन्होंने पैरो तले बहुत सारे (यूनानी) सैनिकों की हड्डियाँ चकनाचूर कर दी। वे अपने विकराल गजदन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे।’’ (डियोडोरस)

पुरु की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है कि इस युद्ध के बाद सिकन्दर के सैनिकों ने आगे युद्ध करने से इन्कार कर दिया और स्वदेश लौटने के लिए सिकन्दर पर दबाव डालने लगे। आखिर सिकन्दर को वापस यूनान जाना पड़ा। मार्ग में उसे जगह-जगह विरोध झेलना पड़ा था। यह बिल्कुल गलत है कि इस युद्ध में पुरु को बन्दी बनाकर सिकन्दर ने दया करके छोड़ दिया। क्योंकि सिकन्दर अत्यन्त क्रूर और घमण्डी प्रवृति का था। उसने कई पराजित राजाओं को तड़पातड़पाकर मार डाला था। अपने परिवार के स्वबन्धुओं को भी मार डाला था। यदि सिकन्दर की पुरु पर विजय हुई होती तो इतना कूर और विश्वविजयी का इच्छुक शासक, जिसने अपने जीवन में कभी भी किसी को क्षमा नहीं किया और निर्दयता से नष्ट कर डालता था, पुरु पर इतना उदार क्यों होता। वह अपने साथ विशाल सेना लाया था। वह वापस अपने देश गया तब उसका दिल टूट चुका था। वह खुद घायल अवस्था में था। उसकी सेना बुरी तरह से तहस-नहस हो चुकी थी। पुरु ने झेलम तट पर युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाया कि सिकन्दर का विश्व विजय का स्वप्न साकार नहीं हो सका और उसे अपने देश वापस लौटना पड़ा। तब ही तो कवि ने कहा है कि झेलम के किनारे पर पुरु ने ऐसा भंयकर युद्ध किया, जिससे उसका पानी लाल हो गया अर्थात पुरु ने अपनी तलवार झेलम नदी में झकोळी (धोई) है जिसके कारण झेलम का पानी लाल हो गया।
लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

एक खबर पर व्यक्त प्रतिक्रिया पर जिन मित्रों की भावनाएं आहत हुई, उनके नाम...........

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अभी हाल ही में हरियाणा जाट आन्दोलन के बाद उसी से संबंधित एक खबर "जाट समुदाय के लोगो ने इस्लाम कबूल करने का किया फैसला"का लिंक शेयर करते हुए फेसबुक पर मैंने सहज प्रतिक्रिया देते हुए लिखा- "यदि यह खबर सच है तो इसे इमोशनल ब्लैकमेलिंग ही कहा जायेगा|क्या धर्म परिवर्तन से आरक्षण का लाभ मिल जायेगा? इससे तो अच्छा आरक्षण पाने के इच्छुक दलितों से विवाह सम्बन्ध कायम करें तो हो सकता है उन्हें आरक्षण का लाभ भी मिल जाये|"
मेरी इस प्रतिक्रिया पर कुछ जाट मित्रों ने इस खबर को असत्य बताते हुए इसे हटाने का आग्रह किया| पर इन्टरनेट पर तलाशने के बाद यह खबर मुझे देश के प्रितिष्ठित अख़बार "राजस्थान पत्रिका"की वेब साईट पर भी मिली, जिसके बाद इसे असत्य मानने का कारण मेरे सामने नहीं बचा| हालाँकि मैंने जो लिंक दिया था वह मेरी नजर में प्रतिष्ठित वेबसाइट नहीं थी सो उसे असत्य माना जा सकता था| इस खबर की पुष्टि मैंने एक औरवेबसाईटपर की|

खबर की राजस्थान पत्रिका की वेब साईट पर पुष्टि के बाद मैंने जाट मित्रों के आग्रह पर उक्त प्रतिक्रिया डिलीट नहीं की और मैं मेवाड़ के दो दिवसीय प्रवास पर चित्तौड़गढ़ होते हुए हमीरगढ़ चला गया, जहाँ मेरे पास न तो फेसबुक देखने का समय था, ना वहां पर्याप्त नेटवर्क था| इस बीच मेरी प्रतिक्रिया पर कई जाट मित्रों की भावनाएं आहत हुई, कईयों ने पोस्ट ना हटाने की शिकायत की टिप्पणियाँ की व कईयों ने मुझे जातिवादी ठहराया| जबकि मैंने उक्त पोस्ट में किसी जाति के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की थी| हाँ ! जो प्रतिक्रिया थी वह हरियाणा के एक संगठन "योगदानी आजाद सेवा सहयोग समीति" से जुड़े कुछ जाट सदस्यों द्वारा आरक्षण आन्दोलन मामले को लेकर धर्मान्तरण की धमकी देने से संबंधित खबर पर थी|
खैर..........मेरी प्रतिक्रिया के बाद मेरे जिन जाट मित्रों की भावना आहत हुई उसके लिए मैं खेद व्यक्त करता हूँ|

पर जिन मित्रों की भावनाएं आहत हुई उनसे मेरे कुछ सवाल है आशा है मित्र इन सवालों का जबाब दे या ना दे पर उनकी जाति के लोगों द्वारा सामूहिक रूप से किये जाने वाले कुकृत्यों की आलोचना करने वालों को जातिवादी ठहराने वाले अपने अन्दर झांक एक बार अवश्य देखेंगे कि ऐसा कर कहीं वे कहीं अपने जातिवादी होने का कितना प्रदर्शन कर रहे है| वे ऐसे कुकृत्यों कर, उनकी जाति पर अंगुली उठाने का मौका देने वालों की आलोचना क्यों नहीं करते? क्यों ऐसे कार्यों पर तटस्थ रहकर उनका मौन समर्थन करते है? हरियाणा जाट आन्दोलन की ही चर्चा करूँ तो फेसबुक पर मेरी मित्र सूचि में मौजूद सैकड़ों जाट मित्रों में से महज दो मित्र राकेश सहरावत व नीरज जाट के अलावा किसी ने इस आन्दोलन में हुई हिंसा की आलोचना नहीं की| ये ही दो मित्र थे जो स्वजातियों द्वारा किये गए कुकृत्य पर शर्मिदा थे बाकी सब तो इस पर गर्व कर रहे थे या तटस्थ थे, या फिर आन्दोलन में की गई हिंसा की खबरों को निराधार, झूंठी आदि बताकर इस कुकृत्य पर पर्दा डालने में व्यस्त थे|

जबकि इन मित्रों को इस शर्मनाक घटना की निंदा करनी चाहिए थी, जिसने उनके समाज पर बदनामी का कलंक लगाया है, उन तत्वों के खिलाफ कार्यवाही की मांग करनी चाहिए थी, जिन तत्वों की करतूत ने हरियाणा में जातीय संघर्ष बढाने वाले तत्वों को मौका दे दिया| यह इन बेलगाम आंदोलनकारियों की करतूत का ही नतीजा है कि जातीय आधार पर सत्ता सुख पाने की लालसा रखने वाले कथित नेता आज हरियाणा की 36 बिरादरियों में से 35 बिरादरियों के मन में जाटों के खिलाफ नफरत भर कर उन्हें जाटों के खिलाफ लामबंद करने की कोशिशों में लगे है| मेरी प्रतिक्रिया पर सबसे ज्यादा मेरे राजस्थान के जाट मित्रों की भावनाएं आहत हुई| मेरा उनसे सीधा सा एक ही सवाल है कि राजस्थान के जाटों को आरक्षण का लाभ पहले से मिल रहा है तो उनका अन्य प्रदेशों के जाटों को आरक्षण के लिए समर्थन देना क्या जातिवाद नहीं? क्या हरियाणा जाट आन्दोलन में हुई हिंसा व आगजनी पर राजस्थान के जाट युवाओं का गर्व करना जातिवाद नहीं था? मेरी प्रतिक्रिया पर भावनाएं आहत करने वाले मित्रों ने अपने उन स्वजातीय युवाओं की इस तरह की टिप्पणियाँ पर ऐतराज क्यों नहीं किया? जो अन्य जातियों के लोगों को उकसाने का कार्य कर रही थी|

हरियाणा हिंसा पर तटस्थ रहने वाले मित्र क्यों अचानक कथित "मुरथल बलात्कार काण्ड" की खबर को झूंठ साबित करने पर जुट गये? उन्हें आंदोलनकारियों द्वारा की गई हिंसा ने नहीं झकझोरा, पर उनके समाज की बदनामी करने वाली एक कथित खबर ने झकझोर दिया और वे इसके खिलाफ तुरंत सोशियल साइट्स पर उतर आये| क्यों? क्या यह जातिवाद नहीं है?
राजस्थान की ही "डांगावास कांड" घटना ले लीजिये-
मेरी प्रतिक्रिया पर भावनाएं आहत करने व मुझे जातिवादी उपमा से विभूषित करने वाले मित्र उस वक्त भी तटस्थ थे| उस कांड पर उनके कई मित्रों के आग्रह पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि इसे कानून का मामला बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया| उस कांड के समर्थन में भी कई जाट युवाओं द्वारा गर्व करने जैसी टिप्पणियों पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी| हाँ उसी गांव में जब एक जाट ने एक दलित बहन के यहाँ मायरा भरा तो उसका उन्होंने खूब प्रचार किया| मतलब साफ़ है जिस घटना से समाज की छवि बिगड़ी रही थी वहां मौन और जो घटना समाज की छवि सुधार सकती है उसकी पुरजोर से मार्केटिंग| क्या यह जातिवाद नहीं?

डांगावास की घटना बेशक कानून से जुड़ा मुद्दा थी, लेकिन उसके क़ानूनी फैसले का इंतजार नहीं किया और जातीय आधार पर एकजुट होकर विरोधी को ही निपटा दिया गया| ऐसी घटना पर तटस्थ रहना, मौन रहना, कोई विपरीत प्रतिक्रिया जाहिर ना करना क्या मौन समर्थन और जातिवाद नहीं?

दिल्ली में दौसा के किसान गजेन्द्रसिंहद्वारा आत्महत्या करने पर यही (भावनाएं आहत होने वाले) मित्र गजेन्द्रसिंह को साफों का कारोबारी साबित करने वाले एक झूठी खबर को शेयर कर प्रचारित कर रहे थे कि वह किसान नहीं कारोबारी था, जबकि गजेन्द्रसिंह महज साफे बांधने जैसा पारिश्रमिक करते थे| एक मित्र जिनके एक पारिवारिक सदस्य की एक गैंगवार में हत्या के बाद वे हर वर्ष उसका शहीदी दिवस मनाते है, गजेन्द्रसिंह की आत्महत्या पर उसे शहीद का दर्जा देने की हमारी मांग रास नहीं आ रही थी, वे तो गजेन्द्रसिंह के राजपूत जाति में जन्म लेने के कारण उसे किसान तक मानने को राजी नहीं थे, उनकी टिप्पणियों पर मेरे द्वारा जबाबी प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर इन्हीं भावनाएं आहत होने वाले मित्रों में से एक मित्र तुरंत इनबॉक्स में मुझे समझाने आ गए कि ये उचित नहीं| हमने भी उनका सम्मान करते हुए अपनी आगे की प्रतिक्रिया रोक दी|

खीमसर विधायक हनुमान बेनीवालअपने राजनैतिक फायदे के लिए हमेशा राजपूत जाति को निशाने पर रखते है अपने सार्वजनिक भाषणों में राजपूत समाज के खिलाफ जहर उगलते है (सोशियल मीडिया के मित्रों से मिली जानकारी के अनुसार)| उनके साथ फोटो खिंचवाकर सोशियल साइट्स पर चिपकाने वाले मित्र को तब वे जाट-राजपूत भाईचारे के लिए खतरा महसूस नहीं हुये, पर जैसे ही हनुमान बेनीवाल पर अपने समाज के खिलाफ प्रतिक्रियाएं देने आहत कुछ उग्र राजपूत युवाओं ने हमला किया और दोनों समूहों के बीच ऑडियो वार चली तभी उन मित्र को "जाट-राजपूत भाईचारे" की अहमियत महसूस हुई| आखिर उन्हें यह जरुरत पहले महसूस क्यों नहीं हुई?

जब तक हमारे स्वजातीय दूसरों पर हमला करते रहे तब तक हम तटस्थ रहे और अपने निशाने पर आते ही हम निशाना साधने वालों को भाईचारे की अहमियत समझा कर चुप करने की कोशिशों में लग जाये| क्या यह हमारे मन छुपा हुआ छद्म जातिवाद नहीं?

अत: अपनी भावनाएं आहत करने वाले मित्रो एक बार अपने अन्दर झाँक कर देखो| दूसरों को जातिवादी ठहराने वालो अपनी उस मानसिकता को भी पहचानों जिसके वशीभूत तूम दूसरों को जातिवादी ठहरा देते हो|
जहाँ तक मेरे जातिवाद का प्रश्न है वो भी मैं साफ़ किये देता हूँ-"जातिवादी व्यवस्था मैंने स्वयं ने नहीं अपनाई, यह मुझे विरासत में, जन्मजात मिली है जो इस देश में हर नागरिक को मिलती है| जन्मजात मिली इस व्यवस्था के अनुसार मैं जिस जाति में पैदा हुआ उप पर गर्व करता हूँ और बाकी अन्य जातियों का हृदय से सम्मान करता हूँ| अब तक अपने कर्तव्य पालन में कभी भी किसी दूसरे का हक अपने स्वजातीय के पक्ष में नहीं मारा| इसे आप अपने मनमाफिक कोई भी उपमा देने के लिए स्वतंत्र है|"

जब पंवारों की छोटी सी सेना के आगे भागी थी भरतपुर की शक्तिशाली सेना

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Battle of karhiya (Near Narwar) fought was between the Jat ruler of Bharatpur Raja Jawahar Singh and the Rajput ruler Rao Kesari Singh Panwar of Karhiya

भरतपुर के जाट राजा जवाहरसिंह एक समय बहुत शक्तिशाली थे| अपनी बढ़ी शक्ति के बल पर जवाहरसिंह ने आस-पास के राज्यों सहित दिल्ली व आगरा तक लूटपाट की और पड़ौसी राजाओं के साथ साथ मुगलों को भी अपनी वीरता के बल पर खूब छकाया| "जयपुर के इतिहास" पुस्तक की लेखिका चंद्रमणि सिंह के अनुसार-"उसकी सेना के 15 हजार अश्वरोही, 25 हजार पदातिक तथा 30 तोपों व गोलाबारूद की असीमित आपूर्ति उसके गर्व को और बढ़ाते थे|" उसके तोपखाने का प्रमुख फ़्रांसिसी नागरिक समरू युद्ध संचालन का निपुण विशेषज्ञ था| अपनी इस शक्ति के घमण्ड में जवाहरसिंह ने जयपुर के राजघराने से वो सम्बन्ध तोड़ लिए जो उसके दादा बदनसिंह ने कायम कर, उन संबंधों की बदौलत भरतपुर का राज्य व राजा की उपाधि पाई थी| जवाहरसिंह ने जयपुर के राजा माधोसिंह के समय राजस्थान के नीमकाथाना के पास मावंडा नामक गांव की पहाड़ियों में युद्ध लड़ा| लेकिन कछवाह राजपूतों की सम्मलित शक्ति के आगे अपनी वीरता और शौर्य पर गर्व करने वाले उस घमण्डी को पीठ दिखाकर भागना पड़ा|

जब जयपुर से युद्ध में विजय हासिल नहीं कर सके तो जवाहरसिंह ने बुन्देलखंड और मालवा की तरफ रुख किया| नरवर उस काल कछवाह राजपूतों की राजधानी थी| रामसिंह कछवाह उस वक्त वहां का शासक था, सो जवाहरसिंह ने मावंडा में कछवाहों के हाथ हुई करारी हार का बदला नरवर के कछवाहों को हरा कर लेने का निश्चय किया और अठारासै चौइस में अपनी सेना के साथ नरवर पर आक्रमण के लिए चम्बल नदी पार की| रास्ते में कालपी, भदावर आदि के राजाओं से धन वसूला और नरवर के पास मगरौनी नामक स्थान पर अपनी सेना का पड़ाव डाला| जहाँ उसके कई स्वजातीय बंधू उससे आकर मिले| इन बंधुओं ने पास ही करहिया के पंवार शासकों के खिलाफ जवाहरसिंह को काफी भड़काया और उन पर आक्रमण करने हेतु उत्तेजित किया|

परिणाम स्वरुप जवाहरसिंह ने करहिया के स्वामी राव केसरीसिंह को पत्र लिखकर उसकी सेवा में हाजिर होने का आदेश दिया| राव केसरीसिंह ने अपने भाई बंधुओं यथा राव दुरजणसाल, मुकंदसिंघ, सिरदारसिंघ, सांवतसिंघ, कैसौराम, पंचमसिंघ और धरमांगद इत्यादि प्रमुख सरदारों व शूरमाओं को आमंत्रित कर जवाहरसिंह के पत्र के बारे में चर्चा कर उसे जबाब देने हेतु सलाह मशविरा किया| इन शूरवीरों को जब जवाहरसिंह का पत्र पढ़कर सुनाया गया तो उनके तन-बदन में आग जल उठी और जवाहरसिंह से युद्ध करने को उनकी भुजाएं फड़कने लगी| जवाहरसिंह को अपनी तलवार का जौहर दिखलाने के लिए इन पंवार बंधुओं ने रणभूमि में आमंत्रित किया कि नरवर पर आक्रमण करने से पहले उनसे दो दो हाथ करले|अपनी शक्ति के अहंकार में डूबे जवाहरसिंह ने पत्र का जबाब मिलते ही करहिया पर आक्रमण किया| लेकिन इस युद्ध में पंवारों ने ऐसा युद्ध कौशल दिखाया कि जवाहरसिंह की जाट सेना के एक हजार वीरों को काट कर पंवारों ने अपनी तलवारों की प्यास बुझाई| पंवारों ने अपनी तलवार के ऐसे जौहर दिखाए कि जाट सेना के सैनिकों के मुंड युद्ध भूमि में ऐसे लुढकने लगे जैसे रेत के खेतों में गड़तुम्बे लुढकते है| पंवार वीरों की छोटी सी सेना के वीरों के विकट शौर्य प्रदर्शन के आगे घमण्डी जवाहरसिंह की सेना टिक नहीं पाई और हार कर जवाहरसिंह को वापस भरतपुर की ओर भागना पड़ा|

इस युद्ध का राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार, इतिहासकार श्री सौभाग्यसिंह जी शेखावत ने अपने एक लेख में इस तरह वर्णन किया है- "जवाहरमल्लजी तौ आप ही अहंकार री आधी। राजमद आयौ मैंगळ। फौज नै करहिया रा किला माथै वहीर कीनी। बेहू पखां में जोरदार राड़ौ हुवौ। अेक हजार जाट वीर खेत्रपाल री बळ चढिया। जाटां रौ फौ नीं लागौ। थळी रा तूम्बा री भांत मुंडकियां गुड़ी करहिया रा पंवारां इण भांत अण न्यूंतियां न्यूंतियारां नै रण रूप मंडप में बधाया। काले पाणी रूप कुंकम रा तिलक कर भालांरी नोक री अणियां री चोट रा तिलक किया। मुंडकियां रूप ओसीस रै सहारै पौढाय नै रण सेज सजाई अर ग्रीझ, कावळां कागां नै मांस लोही रौ दान बंटाय आपरी उदारता जताई। पछै परोजै रूपी अपजस’रा डंका बजावता जवाहरमल्लली ब्रज वसुंधरा में आया अर पंवार आपरी विजय रा नगारा घुराया। इण भांत अण न्यूंतिया न्यूंतियारां रौ सुवागत पंवारां कियौ जिकौ अठै सार रूप में जता दियौ।"



Battle between the Jat ruler Jawahar Singh and the Rajput ruler Rao Kesari Singh Panwar

राजस्थान री गणगौर

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राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार श्री सौभाग्यसिंह जी शेखावत की कलम से..............

भारत री जनपद संस्क्रति त्यूंवारां रै ओळी-दोळी घूमर घालती लखावै। अै त्यूंहार किणी पुराण कथा प्रसंग, इतिहास नायक, अवतार रै जनम, ब्याव-उछाव अर लोकदेवता रै अलौकिक चमत्कारी परचां नै जनता रै खातर जूझणियां री याद नै याद राखण तांई सईकां सूं मनाया जाता आवै है। लोकमाणस रा मन-तन में सुख री सौरम, करतब री किरण नै उछाव, उमाव अर उल्लास रौ अदीत उगावै। गणगौर त्यूंहार (Gangaur Festival) ई अैड़ी इज अेक पुराण कथा होळिका रै सरजीवण रा आख्यान नै जुग जुग सूं जीवतौ जगावतौ आवै है। विख नै ई इम्रत रूप में पीणौ इण संस्क्रति री मूळ भावना रैई है। सिव अर सती रै दिख प्रजापति रै ज्याग रै विधूंस अर सती रै पारबतां रै रूप में फेर जनम धारण करणै रै कथानक में ई गणगौर रौ अवतरण मानियौ जावै है।

गणगौर गौरड़ियां रा तिंवारा रौ सिरमौर। गण नै गवरी, सिव अर पारबती रै पूजण रौ त्यूंहार बाजै। छोटी मोटी डावड़ियां अर सुहाग भाग री चावणियां नारियां रौ नखराळौ त्यूंहार गणगौर होळिका दहण रै बीजै दिन चैत बद एकम सूं सरू होवै अर चैत सुद तीज रै दिन गणगौर री बोळावणी रै सागै पूरौ हुवै। अठारह दिन रौ औ त्यूंहार घणै लाडां-कोडां, होडां-हरखां मनायीजै है। गणगौर रौ त्यूंहार भारत रा रजवाड़ी भाग सेखावाटी, ढूंढाड़, मेवात, मारवाड़, मेवाड़, बीकाणै अर भाटीपा, हाड़ौती आद समूची ठौड़ां बडा ठसका नै ठरका सूं मनायौ जावै।

सियाळा री सरसर चालती सेळी, काया नै थरथर कंपावतौ सीळो बाव, प्रचंड देह पुरखां रा पींडा नै धूजावती पवन रौ पापौ कटै अर रितुराज बसंत रौ राज जमै। उण जीवणरस री धार सूं रसा नवौढ़ा री भांत वनदेवी बणीठणी सी लखावै। सीत रौ सफायौ होवै। वन-विटपां में नुंवौ रस बापरै। मुरझाया पेड़-पौधां में कूपळां चालै। आपरा पत्ता रूपी कान टमटमावै। कूंपळ रूपी तुर्रा नै हिलावै। खेजड़ी, नीम, फोग, बंवळ सगळां रै मींजर, फूल, फळ लहलहावै। आखी रोही सौरम री सुहावती, मनभावती महक में जीयाजूंण नै नहावै। धरती माथै इन्दर रै नंदण कानन सरीखी छिब नजर आवै। इण रितु में नर नारियां तौ कांई देव नै नाग कन्यावां रा ई धरा धाम माथै अवतरण खातर मन लचावै।

गणगौर पूजा रै खातर लौकिक मानता है कै भगतराज प्रहलाद रौ पिता दैतराज हिरणाकुस वड़ौ अभमानी, धाड़फाड़, जोमराड़ राजा हुयौ। वौ दैतवंस रौ टणकौ रुखाळौ, भगवान बिसन नै तूंतड़ा बरौबर ई नीं गिणतौ। ईसर रै ठौड़ आपनै इज करतार मानतौ। प्रहलाद आपरै पिता रै इण मत नै कूड़, अैहंकार समझतौ। वौ ईसर रौ भगत। पण रौ बडौ सकत। प्रहलाद बिस्णु री पूजा करै। बीजा भगतां, रिया रैत नै ई विस्णु महमा जतावतौ नै भगती री भागीरथी बहावण री धंख धारै। हिरणाकुस रै कहण कथन री गिणत-गिंनार नाकारै। हिरणाकुस इण नै राज विरोध मानियौ। आपरी आईन्या रै लोप सूं हिरणाकुस प्रहलाद माथै नाराज हुयौ तौ अैड़ौ हुयौ कै-आपरी भाण होळिका जिण नै महादेव भूतनाथ रौ औ वर हौ कै वा बासदै में नीं बळै-उण नै हिरणाकुस बुलाय अर कैयौ-होळिका ! औ, प्रहलादियौ, दैतवंस रौ कलंक नै कुळ रौ खैकरणियौ है। थूं इण पिताद्रोही नै गोद में लेय अर आग में बैठ सौ इण बुधबायरा दुसट रौ नास हुवै।
होळिका दैतराज री आग्या प्रवाण प्रहलाद नै आपरै खोलै में ले अर आग में जा बैठी। पण नारायण री लीला निराळी है। बाळवाळी बळ गई अर बळणियौ रैयग्यौ। होळिका बळनै राख हुई अर प्रहलाद आग मांय सूं मुळकतौ, पुळकतौ, हंसतौ हंसातौ, जीवतौ जागतौ ‘हरे किसन’ रा बोल उच्चारतौ आग माय सूं बारै नीसरियौ। फूल री छड़ी जितरौ इज घाव नीं हुयौ। प्रहलाद रै तातो बायरौ इज नीं लागौ। औ ढंग जोय नै हिरणाकुसजी रा तोत्या सूख गया। घणौ आकळ-बाकळ हुयौ। होळिका रै खावंद रौ भै ई हिरणाकुस रै पेट रौ पाणी पतळौ करण लागौ। हिरणाकुस रौ आराम हवा हुयौ। नींद न्हाट गी। चिंता में मन चक्री ज्यूं फिरण लागौ। जीव तिरूं डुबूं करण ढूकौ। जद बेकळ खातै होय अर हिरणाकुस देस परदेस रा ठावा ठींमर जोसीड़ां, भोपां, पुजारियां, पंडां अर हैदगियां नै तेड़ नै आपरी मनोदसा बतायी अर होळिका नै सरजीवण करण री विध पूछी। जद जोतसी कैयौ-होळिका री भस्मी रौ पिंड कर नै कुंवारी अर सुहागणां उण पिंड नै पूजै तौ होळिका राख सूं फेर सरजीवत हुवै।

जद होळिका री राख लाय अर कुंवारी डावड़ियां पिंड री पूजा करी जणा सातवें दिन होळिका सरजीवत हुई अर गणगौर रै रूप में लोक में पूजीजण लागी। गणगौर री पुजारणियां रै घरां में धीणौ-धापौ, नाज-पात अर सुख सम्रधी सूं अखार-बखार भरीजण लागा। धन-धीणां रा ठाठ जुड़ गया। किणी रीत भांत री उणारथ नीं रैई। बाळ गोपाळ आणंद उल्लास सूं रामतां रमण लागा। पछै पंदरवें दिन गौरज्या अेक डावड़ी नै रात रा दरसाव दियौ अर कैयौ कै-थां म्हॉरी काठ कै मांटी री मूरत बणाय, घाबा लत्ता ओढ़ाय-पहिराय, सजाय म्हॉरी असवारी काढ़ौ जिकौ थां पुजारणियां मन भायौ, चित चायौ भरतार पावस्यौ अर सुख सीळ, सुहाग भोग भोगावस्यौ। कैवै है कै जद सूं गणगौर पूजा चली आवै है।
गणगौर पूजणवाळी कन्यावां 18 दिन नित उठ निरणी बिना जळ पीयां बिना अन्न रौ दाणौ खायां कूआ, बावड़ी कै तळाव पर ढूलरौ बणाय गौरी रा गीत गावती जावै अर उठां सूं दूब, फूल, पानड़ा, तोडै़ अर निर्मळ, प्रवीतजळ सूं लोटा भरै नै उणा पर फूल-पत्ता अर दूब सजाय नै गीत गावती घरै आवै। फेर भस्मी रा ईसर गणगौर री फूल पत्तां सूं पूजा करै।
अै सगळी एक इज ठौड़ नित पूजा करै। परणेतण नारियां दो-दो रा जोड़ा सूं पूजा करै। इण पूजण में दूब रा हरा तांतवा, फोग रा ल्हासू, जौ रा जंवारा किणी सूं भी पूजा की जा सकै है। ईसर गौरी रै पिण्डां माथै जळ चढ़ावण सूं लागै कै गणगौर सिव पारबती री पूजा रौ त्यूंहार है। प्रभात रा औ क्रम चालै अर सांझ रा घूघरी, चूरमौ, लापसी आद सूं ईसर गणगौर नै जिमावै। लुगायां सांझ रा भेळी होय नै 18 दिन तांई गणगौर रा नित गीत गावै। पछै तीज रै दिन घणा उछाव सूं काठ री प्रतिमा नै सजाय अर पालकी-सी बणाय नै गांव में असवारी काढ़ै। सिवाले नै बीजा मुख बाजारां, गुवाड़ों में घूम नै गांव री किणी एक नियत ठौड़ माथै असवारी ले जावै। उठै ऊंट घोड़ा, बैलगाडियां री दौड़, बन्दूक रा फैर आद कई भांत रा खेल, कवादां हुवै। लुगायां रंग बिरंगी पोसाक, गहणा-गांटां में लड़ालूम नेह रा प्यालां सूं छकी, हंसणियां सी मंदगति सूं महालती अैड़ी सोभा पावै जाणै इन्दर रा अखाड़ा री अपछरावां आय नै गणगौर नै बधावै है। घूमर घालै, लूहर लेवै जद तौ जाणी इन्दराणी री सखियां इज चाल नै आई जाण पडै।

सोभा री सागर, गुणां री गागर, रूप री रास, चंद्र किरण सी खास, किरणां रौ उजास बिखेरती कौडीली कामणियां गीत गावै जिकी नारियां किसड़ीक उरबसी री अैवजी साजै जिसड़ीक। अैड़ी अरधांगणियां उरबसियां किण रा उर में नीं बस जावै। नाग कन्यावां भी उणां रै नेडै नीं लागै। देवराज री अपछरावां ई लजाय नै दूर भागै। तिलोत्तमा री ताई कै उरबसी री भोजाई अैड़ी नारियां जिकी परियां नै ईं रूप-सरूप में परै बैठावै। अर कदास गणगौर रै दिन उणा री सैजा रौ सिंणगार आलीजौ भंवर घर नीं आवै तौ पांखा लगाय नै उण कनै उडणौ चावै-

गवर त्यूंहार गजब रौ, मिळण उमेद करांह।
आलीजा सूं उड मिळंू, दै ब्रजराज परांह।।

सलोना साईनां सुहाग भाग अनुराग रा धणी सूं मिळण नै ब्रजराज सूं पांखड़ा मांगै अर दरसण री अभलाखा राखै-
अभलाख नार बीजी न कोय। दरसण हुवां आणंद होय।
रुकमणी किसन रौ दरस चाह। इण विध उमंग उर में अथाह।।
पपीया जेम पिव पिव पुकार। अरधंग्या तणी सुणज्यौ उदार।।

वीरबानियां रा घणकरा त्यूंहार चूड़ा चून्दड़ी री अमरता री कामनावां रा त्यूंवार गिणीजै। नारी कांई कुंवारी, कांई परणी सगळी आछा घर अर आछा वर अर कुटम कडूम्बा री सीळ सोम, सुख सम्रध, स्नेह, सोराई खातर व्रत-बडूल्या करै। पिरवार री मंगळ कामनावां इज रात दिन मन में धरै। गणगौर रा लोटिया लेय नै आवती वेळा गावती बाळिकावां रा गीतां में पिरवार रा साख-सनमंध, रिस्ता नाता नै समाज हित रा बोल गूंजीजै-

गौर अे गणगौरमाता खोलदै किंवाड़ी,
बाहिर ऊभी थांरी पूजण वारी।
आवौ अे पुजारण बायां कांई कांई मांगौ।
जळवळ जामी बाबी मांगा रातादेई माय।
कान कंवर सो वीरो मांगा राई सी भोजाई।
पीळी मुरक्यां मामो मांगा, चुड़ला वाली मामी।
ऊंट चढ्यो बहनोई मांगा, सहोदरा सी बहैण।
वडे दूमालै काको मांगा, संझ्यावाळी काकी।
फूस बुहारण फूफी मांगा, हाडां धोवण भूवा।
जोड़ी को म्हैं राईवर मांगा, सारां में सरदार।
ओ वर मांगा अे गवरळ माय।।

जठै कन्यावां समंदर सरीखौ रतानां सूं भरिया घर वालो पिता, किसन अर राधिका जैड़ी भाई भोजाई, सम्रध पिरवार मामौ अर सुहागण मामी, घर ग्रस्ती में मददगार फूफौ भूवा और सगळां में सरदार हुवै इसौ कंत चावै, उठै परणेतण आप री सथाणियां, साइनी सहेलियां रै साथै गणगौर रमण री जोड़ी रा जोधार सूं विनती करै-

खेलण दो गणगौर भंवर म्हांनैं पूजण दो गणगौर।
ओजी म्हॉरी सैयां जोवै बाट, बिलाला म्हांनै खेलण दो गणगौर।
भल खेलो गणगौर सुन्दर गौरी भल पूजो गणगौर।
ओजी थांनै देवै लडेतो पूत, प्यारी भल खेलो गणगौर।

पछै तौ गौरी गौरज्या सूं माथा रौ मैमद, सुहाग रौ टीकौ, रतनजड़ी रखड़ी, काना रा हीरा जड़िया झूठणा, मुखड़ा री बेसर, नाक री नथड़ी, कंठा री कंठसरी, हिवड़ा पर अर होरा रौ गैहणौ-मांगै। चैत माह में चंचळ चंचळावा रौ मन उछाव में उछाळा लेवै। जदी कैयौ है-

फागण पुरस चेत लुगाई। काती कुतिया माघ बिलाई।

राजस्थान में जैपर री तीज, कोटा रौ दसरावौ, जोधपुर री आखातीज अर उदैपुर री गणगैर री घणी सोभा बखाणीजै। उदैपुर में पीछोला सरोवर में गणगौर री नाव री सवारी री छिब तौ कितरा इज छैलां नै छळ लेवै। नर ती कांई महेसर ई आपरी गौरल नै पिछांण नीं पावै। इण भ्रम मुलावै कवि पदमाकर रै मुंहडै सिव जी पूछावै-
’इन गनगोरन में कौनसी हमारी गनगोर है।’
अैड़ी नाव री सवारी किसड़क लखावै, एक गीत रा बोलां में सुणावै-

हेली, नाव री सवारी सजन राण आवै छै।
पीछोला री पाळ गोर्ययां गोर्ययां लावै छै।
छतर लुळत चंवर दुळत दरसावै छै।
जोख निरख पहप बरख हरख मन छावै छै।
धीमै धीमै नाव चालै जाणै इन्दर धावै छै।
ज्यों जांणलो छटा थे म्हांसू कही न जावै छै।
उदैपुर री नाव री सवारी नै निरखण परखण परियां राई मन ललचावै। नायकावां रा टीळा, गीतां रा हबोळा अर पीछोळा री छोळां देखण नै सुभटां रौ समाज हवेलियां रा गोखड़ा पर बिराज जावै कै बाड़ियां में ऊभौ नजर आवै-

बैठो गोखां पर जठै, सुभटां तणो समाज।
उदियापुर री गणगवर, अब देखालां आज।।
उदैपुर री गणगौर मेळौ, गीतां रौ हबोळी, अपछरावां रौ टोळी इज जणावै। अैड़ा गणगौर रा प्रब पर किसौ कवि चमतक्रत नीं होय जावै अर आपरा सबद रूप नगीना में जड़णौ न चावै-
बरस आद दिन चौत रै मास चत्र बरणं,

ध्यान जग मात निज रूप ध्यावै।
देव बीसर अवर पूज जगदम्ब का,
गवर ईसर तणा गीत गावै।।1।।
चहूं पुर सहर गांवां पुरां चहुं तरफ,
नाग देवां नरां भाव भजनेव।
नवरता सकत नवधा भगत हुवै नित,
दूलही देवी अर वर महादेव।2।।
पूज जगमात नव रात सेवा परम,
प्रगट त्रहूं लोक जन मन वचन प्रीत।
इसा नह देव किण ही दखै अवर रा,
गवर रा त्रिपुर रा उछरंग उमंग गीत।।3।।
लोकवेद सह वेदां सूं न्यारौ है। लोक में अजन्मा अनाद सिव नै बिरमाजी रा बेटा मानिया जावै है। गणगौर ईसरजी नै प्याला देती, मुजरौ करती अर झाला देती आवै है-
देखो म्हांरी सैयां थे बिरमाजी रै छावै री गणगोर।
ईसरदास ल्याया छै गणगोर, राना बाई रै बीरा री गणगोर।
झाला देती आवै छै गणगोर, मुजरो करती आवै छै गणगोर।
आगै ईसर व्हैैर्यया छै गणगोर, प्याला पीता आवै राज राठौड़।
कानां में कुंडल पैर्यया छै गणगोर, झूठणा घड़ावै राव राठौड़।।
घुड़ला री घमरोळा आवै छै गणगोर, मनड़ो उमावै छै गणगोर।।

राजस्थान री धरती माथै प्रक्रतिदेवी मन चाया तरीकां सूं मोहित होई है। कटैई बाळू रेत री लांवी भरें, भाखरां री चोटी पर सवारी करता टीबा, कठैई नद नाळा, खाळा हरिया चिरम बीहड़ है । अैड़ी भांत भतीली धरती री प्रक्रति अर संस्क्रति ई न्यारी निरवाळी है। पण राजस्थान में चावै मेवाड़, माड, मारवाड़, जांगलू सेखावाटी, मेवात, हाडोती कठैई जावौ सगळा भागां में त्यूंहार संस्क्रति अेक समान लखावै। राजस्थान री भूमि री अनेकता में सांस्क्रतिक एकरूपता साव साफ नजर आवै। बीजा पड़गना री तरै इज मेवात में ई गणगौर रौ त्यूंहार उमंग-उल्लास रै साथै मनावै। अलवर री गणगौर रो उछाव नीचै री ओेळियां में देखण में आवै-

मास चैत उछब महा, हुवै गणगोर हंगाम।
हुवै मंगल घमल हरख, तिणवर सहर तमाम।।
तिणवर सहर तमाम, पारबती पूजवै।
गावै गिरजा गीत, गहर सुर गूंजवै।।
सजि सोलह सिंणगार, नारि नव नागरी।
बण ठण अेम बहार, विलौके बागरी।।
गणगौर रा उछब नै नव जुवतियां नवेलियां रा बणाव ठणाव नै कण्ठां रा सरस सुरीला गीतां री धुन सुण नै बागां में कोयलां ढहूका देणौ भूल जावै-
रहै चूकि सुण राग सुर, कोयल यों कूकंत।
छटा इसी छंदगारियां, फुलबाड़ियां, फबंत।।
फुलबाड़ियां, फबंत चमन गुल चूंटवै।
अेक अेक संू अगै, लगै हठ लूटवै।।
लता बीच ल्हुक जात, विगर कंटकि वड़ै।
मिल गुल चसमां मांहि, पिछांणी नह पड़ै।।

अैड़ी कामणगारियां जिकी रा मीठा सुरां रै धकै कलकंठी कोकिलां पाणी भरै। लुभाणा लोयणा री प्रगियां लाजां मरै। लतावां जैड़ा लचीला गात, पहपां जैड़ा कोमल अंग जिकी लतावां रै झुरमट में ल्हुक जावै तौ खोजणौ अबखौ पडै़। पछै अमरावती रौ आवास कठै अलवर री बरोबरी चढ़ै।

कंचन भर लावै कलस, दूब कुसम इण दाय।
पती पारबती पूजवै, इम निज निज प्रह आाय।।
इम निज निज ग्रह आय, क अंब अराधवै।
दिन प्रत सोडस दिवस, सबै सह साधवै।।
सित गिरजा सतूठ, धरै सुख दै घणै।
मिलै वास जग मांय, तिकां अलवर तणै।।

गौरल री असवारी री छिब अर हसगामणियां रा टोळा तौ राजहंसां रा टोळा री ओपमा पावै। कवि एक जिभा सूं कींकर बखाणकर जतावै-
होवै अत अनुपम हरख, रोज संझारां दीह।
वणै जिकी छवि बेखियां, जाय न वरणी जीह।
जाय न वरणी जीह, छटा छत्रधार री।
असवारी अंबा तणी, बणी बजार री।।
टोळी हंसी तेम क, दौळी दासियां।
जेवर रतनां जड़ी क, अमर उजाणियां।।

गणगौर री सवारी रै साथै चौकसी खातर चौगिड़दै भाला, बरछा, बन्दूक, सांगां, चालै। नगारा, निसांणा, छड़ी, झंडा लियां सिपाही इयां लखावै जाणै फौज पलटणा रौ लवाजमौ विजै करण नै दुसमणां रै देस पर ध्यावै है।

गणगौर रौ अपहरण ई कदै कदै कर लियौ जातौ, इणी खातर रुखाळी रौ पूरौ सरजाम रखण में आतौ। इयां इज अेक बार सिंघपुरी (जोबनेर) रौ रामसिंघ खंगारोत मेड़ता री गणगौर उठा ल्यायौ जिणारी साख अेक वीरगीत में बखाण पायौ-

मरद तूझ आसंग दूसरा माधवा, अभंग दूदाण ऊभां अथागां।
मेड़ता तणी गणगोर मांटी पणै, खांगड़ो लियायो पांण खागां।।
बराराकोट नरहरां रा बहादर, जस गल्लां धरा रा धणी जाणै।
खांगड़ा पागड़ा घणा ऊभा खगां, अरधंग्या ईसर तणी आणै।।
कूरमांछाल अखियात कीनी कहर, सुणी आ बात सारां सरायो।
हेक असवार दै उराणै हैमरां, लाख असवार विच गोर लायो।।
तवां रंग राम रै जोत घोड़ी तनै, सांम रै काम दौड़ी सलूधी।
मुरधरा बिरोलै लियायो महाभड़, सिव तणी नारसिंणगार सूधी।।

राजस्थान में गणगौर प्रब जठै होडाहोड उछाव करनै मनायीजती उठै बूंदी में गणगौर री महाराज जोधसिंघ री गणगौर सवारी समेत बूंदी रै तळाव में डूब नै मर जाणै रै कारण ओख मानी जाती। इण कारण सूं बूंदी में गणगौर उछाव नै असवारी नीं निकळती। आ कहणगत ‘हाडो ले डूबो गणगौर’ जोधसिंघ री मौत नै लेय नै इज चालै है। अेक पन्दराड़ी अेक तीन तांई गणगौर रा लाड लडाय अर बेस बागा, दात दायजो देय नै सीख देवै जिण नै गणगौर बोलावणी कैवै है इण भांत मांटी रा पिंडा नै तो कूआ बावड़ी में पधराय देवै अर काठ रा ईसर गणगौर नै एक दूजा का मुंडा उलटा सीधा कर नै घरै ले आवै।

गणगौर रै पछै चौमासा में तीज रौ त्यूंहार इज आवै है। लोक में इणी वास्ते कहतीणौ है- तीज त्यूंहारां बाहुड़ी ले डूबी गणगौर। गणगौर रौ त्यूंहार गिरजापति गौरी री आराधना रौ त्यूंहार है। इण में होलिका नै सरजीवण करणै रै लारै तंतर-मंतर विद्या रा देव सिव री महानता अर जोग.बळ रौ बीजांकुर ई सामिल है। बैस्णब अर सैव भगति रौ अनोखौ मेळ गणगौर त्यूंहार रै पाछै घुळ्यौ मिळ्यौ जाण पडै़ है।


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मुगल-राजपूत वैवाहिक सम्बन्धों का सच

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The truth of Mughal-Rajput marital relationship


आदि-काल से क्षत्रियों के राजनीतिक शत्रु उनके प्रभुत्व को चुनौती देते आये है। किन्तु क्षत्रिय अपने क्षात्र-धर्म के पालन से उन सभी षड्यंत्रों का मुकाबला सफलतापूर्वक करते रहे है। कभी कश्यप ऋषि और दिति के वंशजो जिन्हें कालांतर के दैत्य या राक्षस नाम दिया गया था, क्षत्रियों से सत्ता हथियाने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से आडम्बर और कुचक्रों को रचते रहे। कुरुक्षेत्र के महाभारत में जब अधिकांश ज्ञानवान क्षत्रियों ने एक साथ वीरगति प्राप्त कर ली, उसके बाद से ही क्षत्रिय इतिहास को केवल कलम के बल पर दूषित कर दिया गया। इतिहास में क्षत्रिय शत्रुओं को महिमामंडित करने का भरसक प्रयास किया गया ताकि क्षत्रिय गौरव को नष्ट किया जा सके। किन्तु जिस प्रकार हीरे के ऊपर लाख धूल डालने पर भी उसकी चमक फीकी नहीं पड़ती, ठीक वैसे ही क्षत्रिय गौरव उस दूषित किये गए इतिहास से भी अपनी चमक बिखेरता रहा। फिर धार्मिक आडम्बरों के जरिये क्षत्रियों को प्रथम स्थान से दुसरे स्थान पर धकेलने का कुचक्र प्रारम्भ हुआ, जिसमंे शत्रओं को आंशिक सफलता भी मिली। क्षत्रियों की राज्य शक्ति को कमजोर करने के लिए क्षत्रिय इतिहास को कलंकित कर क्षत्रियों के गौरव पर चोट करने की दिशा में आमेर नरेशों के मुगलों से विवादित वैवाहिक सम्बन्धों (Amer-Mughal marital relationship) के बारे में इतिहास में भ्रामक बातें लिखकर क्षत्रियों को नीचा दिखाने की कोशिश की गई। इतिहास में असत्य तथ्यों पर आधारित यह प्रकरण आमजन में काफी चर्चित रहा है।

इन कथित वैवाहिक संबंधों पर आज अकबर और आमेर नरेश भारमल की तथाकथित बेटी हरखा बाई (जिसे फ़िल्मी भांडों ने जोधा बाई नाम दे रखा है) के विवाह की कई स्वयंभू विद्वान आलोचना करते हुए इस कार्य को धर्म-विरुद्ध और निंदनीय बताते नही थकते। उनकी नजर में इस तरह के विवाह हिन्दू जाति के आदर्शों की अवहेलना थी। वहीं कुछ विद्वानों सहित राजपूत समाज के लोगों का मानना है कि भारमल में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अकबर से अपनी किसी पासवान-पुत्री के साथ विवाह किया था। चूँकि मुसलमान वैवाहिक मान्यता के लिए महिला की जाति नहीं देखते और राजपूत समाज किसी राजपूत द्वारा विजातीय महिला के साथ विवाह को मान्यता नहीं देता। इस दृष्टि से मुसलमान, राजा की विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को उसकी संतान मानते है। जबकि राजपूत समाज विजातीय महिला द्वारा उत्पन्न संतान को राजपूत नहीं मानते, ना ही ऐसी संतानों के साथ राजपूत समाज वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते है। अतः ऐसे में विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को पिता द्वारा किसी विजातीय के साथ ब्याहना और उसका कन्यादान करना धर्म सम्मत बाध्यता भी बन जाता है। क्योंकि यदि ऐसा नही किया गया जाता तो उस कन्या का जीवन चौपट हो जाता था। वह मात्र दासी या किसी राजपूत राजा की रखैल से ज्यादा अच्छा जीवन नहीं जी सकती थी।

भारमल द्वारा अकबर को ब्याही हरखा बाई का भी जन्म राजपूत समाज व लगभग सभी इतिहासकार इसी तरह किसी पासवान की कोख से मानते है। यही कारण है कि भारमल द्वारा जब अकबर से हरखा का विवाह करवा दिया तो तत्कालीन सभी धर्मगुरुओं द्वारा भारमल के इस कार्य की प्रसंशा की गयी। इसी तरह का एक और उदाहरण आमेर के इतिहास में मिलता है। राजा मानसिंह द्वारा अपनी पोत्री (राजकुमार जगत सिंह की पुत्री) का जहाँगीर के साथ विवाह किया गया। जहाँगीर के साथ मानसिंह ने अपनी जिस कथित पोत्री का विवाह किया, उससे संबंधित कई चौंकाने वाली जानकारियां इतिहास में दर्ज है। जिस पर ज्यादातर इतिहासकारों ने ध्यान ही नहीं दिया कि वह लड़की एक मुस्लिम महिला बेगम मरियम की कोख से जन्मी थी। जिसका विवाह राजपूत समाज में होना असंभव था।

कौन थी मरियम बेगम
इतिहासकार छाजू सिंह के अनुसार ‘‘मरियम बेगम उड़ीसा के अफगान नबाब कुतलू खां की पुत्री थी। सन 1590 में राजा मानसिंह ने उड़ीसा में अफगान सरदारों के विद्रोहों को कुचलने के लिए अभियान चलाया था। मानसिंह ने कुंवर जगत सिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। जगतसिंह का मुकाबला कुतलू खां की सेना से हुआ। इस युद्ध में कुंवर जगतसिंह अत्यधिक घायल होकर बेहोश हो गए थे। उनकी सेना परास्त हो गई थी। उस लड़की ने जगतसिंह को अपने पिता को न सौंपकर उसे अपने पास गुप्त रूप से रखा और घायल जगतसिंह की सेवा की। कुछ दिन ठीक होने पर उसने जगतसिंह को विष्णुपुर के राजा हमीर को सौंप दिया। कुछ समय बाद कुतलू खां की मृत्यु हो गई। कुतलू खां के पुत्र ने मानसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। उसकी सेवा से प्रभावित होकर कुंवर जगतसिंह ने उसे अपनी पासवान बना लिया था। प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘दुर्गेशनंदिनी’’ में कुंवर जगतसिंह के युद्ध में घायल होने व मुस्लिम लड़की द्वारा उसकी सेवा करने का विवरण दिया है। लेकिन उसने उस लड़की को रखैल रखने का उल्लेख नहीं किया। कुंवर जगतसिंह द्वारा उस मुस्लिम लड़की बेगम मरियम को रखैल (पासवान) रखने पर मानसिंह कुंवर जगतसिंह से अत्यधिक नाराज हुए और उन्होंने उस मुस्लिम लड़की को महलों में ना प्रवेश करने दिया, ना ही रहने की अनुमति दी। उसके रहने के लिए अलग से महल बनाया। यह महल आमेर के पहाड़ में चरण मंदिर के पीछे हाथियों के ठानों के पास था, जो बेगम मरियम के महल से जाना जाता था। कुंवर जगतसिंह अपने पिता के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध हुये, जिसकी वजह से वह शराब का अधिक सेवन करने लगे। मरियम बेगम ने एक लड़की को जन्म दिया। कुछ समय बाद कुंवर सिंह की बंगाल के किसी युद्ध में मृत्य हो गई। इस शादी पर अपनी पुस्तक ‘‘पांच युवराज’’ में लेखक छाजू सिंह लिखते है ‘‘मरियम बेगम से एक लड़की हुई जिसकी शादी राजा मानसिंह ने जहाँगीर के साथ की। क्योंकि जहाँगीर राजा का कट्टर शत्रु था, इसलिए उसको शक न हो कि वह बेगम मरियम की लड़की है, उसने केसर कँवर (जगतसिंह की पत्नी) के पीहर के हाडाओं से इस विवाह का विरोध करवाया। किसी इतिहासकार ने इस बात का जबाब नहीं दिया कि मानसिंह ने अपने कट्टर शत्रु के साथ अपनी पोती का विवाह क्यों कर दिया? जबकि मानिसंह ने चतुराई से एक तीर से दो शिकार किये- 1. मरियम बेगम की लड़की को एक बड़े मुसलमान घर में भी भेज दिया। 2. जहाँगीर को भी यह सन्देश दे दिया कि अब उसके मन में उसके प्रति कोई शत्रुता नहीं है। जहाँगीर के साथ जगतसिंह की मुस्लिम रखैल की पुत्री के साथ मानसिंह द्वारा शादी करवाने का यह प्रसंग यह समझने के लिए पर्याप्त है कि इतिहास में मुगल-राजपूत वैवाहिक संबंध में इसी तरह की वर्णशंकर संताने होती थी, जिनका राजपूत समाज में वैवाहिक संबंध नहीं किया जा सकता था। इन वर्णशंकर संतानों के विवाहों से राजा राजनैतिक लाभ उठाते थे। जैसा कि छाजू सिंह द्वारा एक तीर से दो शिकार करना लिखा गया है। एक अपनी इन संतानों को जिन्हें राजपूत समाज मान्यता नहीं देता, और उनका जीवन चौपट होना तय था, उनका शासक घरानों में शादी कर भविष्य सुधार दिया जाता, साथ ही अपने राज्य का राजनैतिक हित साधन भी हो जाता था। इस तरह की उच्च स्तर की कूटनीति तत्कालीन क्षत्रिय समाज ने, न केवल समझी बल्कि इसे मान्यता भी दी। यही कारण है कि हल्दीघाटी के प्रसिद्द युद्ध के बाद भी आमेर एवं मेवाड़ के बीच वैवाहिक सम्बन्ध लगातार जारी रहे।

The truth of Mughal-Rajput marital relationship

राजकुमार पृथ्वीराज, बीकानेर

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राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि में अनेक ऐसे वीर पुरुषों ने जन्म लिया है जिनके एक हाथ में तलवार रही, तो दूसरे हाथ में कलम| इन वीरों ने इतिहास में अपनी तलवार के जौहर दिखाकर वीरता के उत्कृष्ट उदाहरण पेश किये, वहीं अपनी कलम से उत्कृष्ट साहित्य रचकर साहित्य साधना की| Rajkumar Prithviraj, Bikaner का नाम इतिहास में ऐसे ही महापुरुषों की श्रंखला में लिपिबद्ध है, जिन्होंने अपनी वीरता के साथ साहित्य को नया आयाम दिया| साहित्यकारों व इतिहासकारों ने उनकी वीरता के साथ उनमें उच्चकोटि की विलक्षण साहित्यिक प्रतिभा की भरसक सराहना की है|

साहित्यक जगत में पीथळ के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे पुत्र थे| जिनका जन्म वि.सं. 1606 मार्गशीर्ष वदि 1 (ई.सं. 1549 ता, 6 नवम्बर) को हुआ था। इतिहास के पन्नों पर उनका चरित्र बड़े आदर्श और महत्त्वपूर्ण रूप से अंकित है| वे बड़े वीर, विष्णु के परम भक्त और उंचे दर्जे के कवि थे। उनका साहित्यिक ज्ञान बड़ा गंभीर और सर्वांगीय था। संस्कृत और डिंगल साहित्य के वे विद्वान थे। इतिहासकार कर्नल टॉड पृथ्वीराज के बारे में लिखते है- "पृथ्वीराज अपने युग के सर्वाधिक पराक्रमी प्रमुखों में से एक था तथा वह पश्चिम के प्राचीन ट्रोबेडूर राजाओं की भाँती युद्ध-कला के साथ ही कवित्व-कला में भी निपुण था| चारणों की सभा में इस राजपूत अश्वारोही योद्धा को एक मत से प्रशंसा का ताल-पत्र दिया गया था| प्रताप के नाम से उसके मन में अगाध श्रद्धा थी|" (कर्नल टॉड कृत राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास, पृष्ठ 359.)

इतिहासकार डा. गोपीनाथ शर्मा, अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास" के पृष्ठ-322,23. पर लिखते है-"पृथ्वीराज, जो बड़ा वीर, विष्णु का परमभक्त और उच्चकोटि का कवि था, अकबर के दरबारियों में सम्मानित राजकुमार था| मुह्नोत नैणसी की ख्यात में पाया जाता है कि बादशाह ने उसे गागरौन का किला जागीर में दिया था| वह मिर्जा हकीम के साथ 1581 ई. की काबुल की और 1596 ई. की अहमदनगर की लड़ाई में शाही सेना में सम्मिलित था|" अकबर के समय के लिखे हुए इतिहास 'अकबरनामे' में उनका नाम दो-तीन स्थानों पर आया है अकबर के दरबार में रहते हुए पृथ्वीराज अकबर के सबसे बड़े शत्रु महाराणा प्रताप के परमभक्त थे| एक दिन अकबर ने उन्हें बताया कि महाराणा प्रताप उसकी अधीनता स्वीकार करने को राजी हो गये है, तब उन्होंने अकबर से कहा कि यह नहीं हो सकता, यह खबर झूंठ है, यदि आज्ञा हो तो मैं पत्र लिखकर सच्चाई का पता कर लूँ| और इस तरह उन्होंने बादशाह की अनुमति लेकर उसी समय निम्नलिखित दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे—

पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण ।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत॥1 ॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक'॥2 ॥

आशय- महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात् जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असम्भव है वैसे ही आप (महाराण) के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असम्भव है|
हे दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये|

इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया—

तुर्क कहासी मुखपती, इणू तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥1 ॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण ॥2 ॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सुं वाद ॥3 ॥

आशय- (भगवान) 'एकलिंगजी' इस शरीर से (प्रतापसिंह के मुख से) तो बादशाह को तुर्क ही कह्लावेंगे और सूर्य का उदय जहाँ होता है वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा|
हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज ! जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूंछों पर खुशी से ताव देते रहिये|
(राणा प्रतापसिंह) सिर पर सांग का प्रहार सहेगा, क्योंकि अपने बराबर वाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज! तुर्क (बादशाह) के साथ के वचनरूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।

यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुआ और महाराणा प्रताप का उत्साह बढ़ाने के लिए एक गीत लिख भेजा| इस तरह पृथ्वीराज ने अपनी ओजस्विनी कविता के द्वारा महाराणा प्रताप का स्वतंत्रता संग्राम हेतु उत्साहवर्धन किया व उन्हें कर्तव्य पथ पर डटे रहने को प्रेरित कर उन्नत कार्य किया|

राजस्थानी भाषा के साहित्य जगत में पृथ्वीराज की विष्णु-भक्ति की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। "वेलि क्रिसन रुकमणी री" पृथ्वीराज की सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है। इस ग्रन्थरत्न का निर्माण वि.सं. 1637 (ई.सं. 1580) में हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके राम-कृष्ण सम्बन्धी तथा अन्य फुटकर गीत एवं छन्द भी उपलब्ध हैं, जो अपने ढंग के अनोखे हैं। कहते हैं कि "वेलि क्रिसन रुकमणी री' को समाप्तकर जब वह उसे द्वारिका में श्रीकृष्ण के ही चरणों में अर्पित करने जा रहे थे, तो मार्ग में द्वारिकानाथ ने स्वयं वैश्य के रूप में मिलकर उक्त पुस्तक को सुना था। श्रीलक्ष्मीनाथ का इष्ट होने से वह उसकी मानसिक पूजा किया करते थे| "वेलि क्रिसन रुकमणी री' की समीक्षा करते हुए राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार श्री सौभाग्यसिंह शेखावत लिखते है- "प्रथीराज राठौड़ री रचियौड़ी क्रिसन रुकमणी री वेल या वेलि रौ सिरै नांव गिणीजै। इयां तौ राजस्थानी में करमसी रुणीचा री वेल, हर पारबती री वेल अर राव रतनसी उदावत री वेल, राव रतन हाडा री वेल आद कई रचनावां क्रिसन रुकमणी री वेल रै आगै पाछै रचीजी, पण प्रथीराज री वेल री विसय, भासा बरणाव अर भावां री भव्यता री जोड़ में बाकी वेलिया साहित भवन री पैड़ियां, कांगरा, गौखड़ा भेंटै तौ प्रथीराज री बेल उण भवन रै कळस रूप सिरख पर चढ़ी सोवै अर साहित रा सनेहियां रौ मन मोवै। एक वार पढ़ण सरु किया पछै रससागर में गुचळकिया खावतौ, भाव तरंगां में बहावती, वरणण कौसळ में बिलमावतौ अर क्रिसन व्याह री लीला में लवलीन लखावतौ इज निगै आवै।"
राजस्थान के कई तत्कालीन नामचीन साहित्यकारों व कवियों ने "क्रिसन रुकमणी री वेल" की साहित्यिक उत्कृष्टता पर कई कविताएँ व गीत लिखे है| राष्ट्रकवि दुरसा आढ़ा ने तो इस रचना को पांचवें वेद की संज्ञा दी है| डिंगल शैली में रचित इस ग्रन्थ का प्रथम संपादन इटली के भाषाविद एलपी टैरीटोरी ने किया था जिसका सन 1917 में इसका प्रकाशन हुआ था| बाद में विद्वान ठाकुर रामसिंह व सूर्यकारण पारीक ने इस ग्रन्थ का संपादन कर हिंदी टीका लिखी थी|

राजस्थानी काव्यकारों में पृथ्वीराज का बड़ा नाम है वे स्थूल वर्णनकार कवि नहीं थे किसी भी मनुष्य के अंतर्मन में झांक कर उसके मनोभावों का काव्यरूप में चित्रण करने में माहिर थे| कल्ला रायमलोत ने तो युद्धभूमि में प्रस्थान करने से पूर्व पृथ्वीराज जी से अपने मरसिया इस शर्त पर बनवा लिए थे कि वे अपने काव्य में जैसा वर्णन करेंगे वह वैसा ही युद्ध में प्रदर्शन करेगा|

मृत्यु का पूर्वाभास

पृथ्वीराज को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास भी हो गया था| राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार हीराचंद गौरीशंकर ओझा अपनी पुस्तक "बीकानेर राज्य का इतिहास" पृष्ठ 146 पर लिखते है-"अकबर के पूछने पर उसने छः मास पूर्व ही बता दिया था कि मेरी मृत्यु मथुरा के विश्रान्त घाट पर होगी। कहते हैं कि बादशाह को इसपर विश्वास न हुआ और इस कथन को असत्य प्रमाणित करने की इच्छा से उसने पृथ्वीराज का राज्य-कार्य के निमित्त अटक पार भेज दिया। कुछ समय बीत जाने पर एक दिन एक भील कहीं से चकवा-चकई का एक जोड़ा पकड़कर राजधानी में बेचने के लिए लाया। पक्षियों का यह जोड़ा मनुष्य की भाषा में बोलता था। बादशाह अकबर ने इसे मंगाकर देखा और आश्चर्य प्रकट किया।
नवाब खानखाना उस समय मौजूद था, उसने बादशाह को प्रसन्न करने के लिए दोहे का एक चरण बनाकर कहा-
सजन बारूं कोड़धां या दुर्जन की भेंट।

पर इसका दूसरा चरण बहुत प्रयत्न करने पर भी न बन सका। उस अवसर पर बादशाह को पृथ्वीराज की याद आई और उसने उसी समय उसे बुलाने के लिए आदमी भेजे। अभी बताई हुई अवधि में पन्द्रह दिन शेष थे। ठीक पन्द्रहवें दिन पृथ्वीराज मथुरा पहुंचा, जहां दोहे का दूसरा चरण लिखकर बादशाह के पास भिजवाने के अनन्तर उसने विश्रान्त घाट पर प्राण-त्याग किया। यह घटना वि.सं. 1657 (ई.सं. 1600) में हुई। पृथ्वीराज का कहा हुआ दूसरा चरण इस प्रकार है-
रजनी का मेला किया बेह (विधि) के अच्छर मेट।"

पृथ्वीराज की मृत्यु पर बादशाह अकबर ने उनके वियोग में निम्न दोहा कहा- पीथल सूं मजलिस गई, तानसेन सौ राग।
रीझ बोल हंस खेलबौ, गयौ बीरबळ साग।।

पृथ्वीराज के वंश के पृथ्वीराजोत बीका कहलाते हैं, जो दद्रेवा के पट्टेदार हैं और छोटी ताज़ीम का सम्मान रखते हैं।


Rajkumar Prithviraj (pithal), Bikaner History in Hindi, Bikaner History in Hindi, read who are pithal
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