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राजपूत चरित्र को प्राणवान ऐसी भावना ने बनाया

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राजपूत चरित्र को प्राणवान ऐसी भावना में बनाया : दो शत्रु युद्ध में तलवारों से खेल रहे हैं, एक दूसरे पर प्रहार कर रहे हैं, “काका-भतीजा” कहकर एक दूसरे से बात भी करते जा रहे हैं और आपस में अमल की मनवार भी कर रहे हैं | यह था मध्यकालीन भारत का राजपूत चरित्र | यह वही राजपूत चरित्र था जिसमें एक योद्धा युद्ध क्षेत्र में घायल पड़ा और मृत्यु का स्वागत कविता से कर रहा है | मौत गले में अटकी पड़ी और वह घायल योद्धा शत्रु को दोहे रचकर सुना रहा है| मौत को खेल समझने की भावना ने राजपूत चरित्र को प्राणवान बनाया है | आज हम इतिहास की ऐसी ही एक घटना का हम जिक्र कर रहे हैं जिसमें यही राजपूती चरित्र दृष्टिगोचर होता है –

मेवाड़के महाराणा अड़सीजी के समय मेवाड़ में बड़ा जबरदस्त गृहकलह हुआ | देवगढ के रावत राघोदासजी के कहने पर माधोराव सिंधिया भी इस गृहकलह में कूदने के लिए मेवाड़ पर चढ़ा | मेवाड़ के मुसाहिबों ने मेवाड़ से बाहर उज्जैन में जाकर माधोराव सिंधिया से मुकाबला करना तय किया और मेवाड़ की सेना उज्जैन पहुँच गई | शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंहजी भी मेवाड़ी सेना में मुसाहिब थे | उन्होंने बहुत सी लड़ाइयाँ लड़ी थी और एक बहादुर योद्धा होने के साथ, काव्य मर्मग्य, दानी और राजनीति के अच्छे ज्ञाता थे |

उज्जैन के युद्ध मैदानमें मेवाड़ी सेना ने सिंधिया की तीस हजार फ़ौज को भागने पर मजबूर कर दिया, तभी जयपुर से दस हजार नागा सन्यासियों की फ़ौज ने मेवाड़ी सेना पर हमला कर दिया | इस युद्ध में उम्मेदसिंहजी बड़ी वीरता के साथ लड़े और आखिर घायल होकर रणभूमि में गिर पड़े | देवगढ के रावत राघोदासजी मराठों के साथ थे | उन्होंने देखा उम्मेदसिंहजी अचेतन अवस्था में पड़े हैं, कभी कभार आँख भी खुल रही है | राघोदास जी ने सोचा काकाजी का आखिरी समय है, पीड़ा बहुत हो रही होगी, थोड़ा अमल दे दूँ तो पीड़ा कम होगी | यह सोच राघोदासजी ने भाले की नोक पर अमल की डली रखकर उम्मेदसिंहजी की तरफ की और कहा- काकाजी थोड़ा अमल ले लो|

अमल पेट में जाते ही उम्मेदसिंहजी की आँखे खुली और उन्होंने और अमल माँगा | अमल लेते  ही उम्मेदसिंहजी के शरीर में चेतना जागी और वे उठ बैठे हुए | उन्होंने कभी अमल का सेवन नहीं किया था, आज पहली बार ही किया था | अमल लेते ही पीड़ा कम होने पर अमल के गुण पर उन्होंने दोहा बोल – अमल कड़ा, गुण मिठड़ा, काळी कंदळ वेस| जो एता गुण जांणतो, तो सैतो बाळी वेस || दोहा ख़त्म होते ही उम्मेदसिंहजी के प्राण निकल गये और  व उनका धड़ राघोदासजी की गोद में गिर गया |

सन्दर्भ : रानी लक्ष्मीकुमारी की पुस्तक “गिर ऊँचा ऊँचा गढा”


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