इतिहास में भूमिया शब्द भूस्वामियों के लिए प्रयोग हुआ है | यहाँ भूस्वामियों का मतलब कुछ एकड़ खेत के स्वामी से नहीं, वरन एक क्षेत्र पर राज्य करने वाले व्यक्ति के लिए भूमियाशब्द का प्रयोग मिलता है, क्योंकि शासक ही अपने राज्य की भूमि का स्वामी होता है, अत: इतिहास में उसे भूमिया कह कर पुकारा गया है | ये शासक स्वतंत्र या किसी अन्य के अधीनस्थ भी हो सकते थे | सीधी भाषा में कहूँ तो जमींदारों व जागीरदारों के लिए इतिहास की किताबों में भूमिया लिखा गया है | राजस्थान के भूभाग पर विभिन्न धर्मों व जातियों के राजवंशों ने राज्य किया है अत: भूमिया शब्द सबके लिए समान रूप से प्रयोग हुआ है |
मुगल सम्राट अकबर ने सर्व प्रथम उन स्वतंत्र शासकों को – जिन्हें वे जमींदार (भूमियां) कहते थे- राज्यकर देने को बाध्य किया। अकबर ने अपने मनसबदारों को उनके वेतन के एवज में उन जमींदारों की जमींदारियों से राज्यकर वसूल करने का अधिकार दिया। जो मनसबदार, जिस जमींदारी से राज्यकर (मामला) वसूल करता था-वह वहां का जागीरदार कहलाता था। भूमि का स्वामी जमींदार और उससे राज्यकर वसूल करने वाला जागीरदार होता था।
ठाकुर सुरजनसिंह जी झाझड़द्वारा लिखित शेखावाटी के प्राचीन इतिहास पुस्तक में जगह जगह भूमिया शब्द का प्रयोग हुआ है | पुस्तक में लिखा है कि – सूरजगढ़ से पूर्व में स्थित बडबड़, बुहाणा आदि गांवों में तथा उनसे संलग्न हरियाणा के भिवानी मण्डल में तंवर राजपूत बहुसंख्या में निवास करते है। वे अब जाटू तंवर कहलाते है और उस भूमि के प्राचीन भूमियां शासक माने जाते हैं। कासली और रैवासा के चंदेल के बारे में सुरजनसिंह जी ने लिखा कि – यहां वाले चंदेल प्रारंभ में दहियों के अधीनस्थ भूमिया राजपूत रहे हों एवं चौहान सम्राटों ने उनकी सैनिक सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें यहां आजीविका प्रदान की हो। खण्डेला और वहां के निरबाण शासक का जिक्र करते हुए पुस्तक में लिखा है कि – अपने विकट और दुर्गम पहाडी स्थानों की ओट में अजेय और निर्भय बने हुए वे निरबाण भूमियां बागड़ प्रदेश के नवस्थापित मुसलमानी राज्यों पर निरन्तर धावे मारा करते थे।
भूमिया शब्द राजपूत शासकों के लिए ही नहीं, मुस्लिम शासकों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है | झुंझनूं के क्यामखानी नबाबों का जिक्र करते हुए सुरजनसिंह जी ने लिखा है कि- अकबर बादशाह ने कूंपा महराजोत के पुत्र मांडण राठौड़ को झुंझनूं की जागीर इनायत की। झुंझनूं का नबाब उस काल भूमियां (जमींदार) के बतोर रहता और बाहशाही जागीरदार को मामला देता था । इसी पुस्तक में एक जगह लिखा है – फाजिलखां को पुनः परगने का अधिकार मिलते ही उन क्यामखानी भूमियों ने मामला देना बन्द कर दिया। नबाब की आज्ञाओं की वे अवज्ञा और अवहेलना करने लगे। बड़वासी के भूमियां अमानुल्लाखां का भी किताब में नाम आता है |
टोडरमल जी के बारे में इतिहास में दर्ज है कि – शाही मनसब न मिलने पर भी टोडरमल उदयपुर परगने का जमींदार (भूमियां) बना रहा और परगने का खिराज (मामला) समय-समय पर परगने पर नियुक्त जागीरदारों को देता रहा। शिखरवंशोत्पति नामक छन्दबद्ध रचना में उन उद्धत क्यामखानी भूमियों के नामों, गामों और कारनामों का उल्लेख किया गया है| तो इस तरह भूस्वामी यानि शासक के लिए भूमिया शब्द का इतिहास में प्रयोग हुआ है, किसी जाति विशेष के लिए नहीं | भूस्वामी यानि शासक किसी भी जाति धर्म का हो उसे भूमिया लिखा गया है और भोमिया भूमिया का अपभ्रंश है या कह सकते हैं कि अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग उच्चारण के कारण कहीं भोमियां कहीं भूमिया कहा जाता है | राजस्थान में पितरों की भी भोमियाजी के नाम से पूजा अर्चना की जाति है |