जागे बप्पा सांगा जागे, जागे पृथ्वीराज हमीर।
जागे जयमल फत्ता जागे मालदेव जसवन्त प्रवीर।।
वि.सं. १७०६ में पोखरन जैसलमेर के भाटियों से जीता। जसवन्तसिंहजी ने शाही सेवा में रहते हुए कई सैनिक अभियानों में भाग लिया था। बादशाह शाहजहाँ के विश्वास-पात्र थे। वि.सं. १७१४ (ई.स. १६५७) में शाहजहाँ बीमार पड़ गया और उसकी हालत अत्यन्त गम्भीर बनी रही। स्वयं उसे अपने पूर्ण स्वस्थ हो जाने की आशा नहीं रही इसलिए दारा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। मुगल सिंहासन के उत्तराधिकार के लिए व्यापक युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। बंगाल में शाहशुजा ने और गुजरात में मुराद ने स्वयं को मुगल सम्राट घोषित कर दिया, जबकि दक्षिण में औरंगजेब सारी स्थिति पर नजर रखे हुए प्रतिक्षा करता रहा।
दारा को सबसे अधिक भय औरंगजेब से था। उसने जसवन्तसिंह को मालवा का सूबेदार बनाकर एक विशाल शाही फौज के साथ भेजा। औरंगजेब ने मुराद के साथ गठजोड़ कर लिया उनकी सयुंक्त सेनाएँ वि.सं. १७१५ वैशाख मास (ई.स. १६५८ अप्रेल) में उजैन के पास धरमत नामक स्थान पर पहुँची। दूसरे दिन शाही सेना और औरंगजेब की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में औरंगजेब के तोपखाने के सामने राजपूतों की अग्रिम पंक्ति (हरावल) में भयानक रक्तपात हुआ। यद्यपि इस शुरु के युद्ध में जीत शाही सेना की हुई, लेकिन इसमें राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जौहर दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। शाही सेना में बिखराव हो गया। मुगल सेना ने अपने राजपूत साथियों की कोई सहायता नहीं की। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए। जसवन्तसिंह, अपने राठौड़ योद्धाओं के साथ शाही दस्ते के बीच में अड़े रहे। इस युद्ध में दुर्गादास राठौड़ ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। विजय असंभव दिखने लगी, राठौड़ सेना-प्रमुखों ने महाराजा जसवन्तसिंह के घोड़े की लगाम पकड़ ली और उसे युद्ध क्षेत्र से बाहर खींच ले गए। रतनसिंह राठौड़ (रतलाम) ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अन्तिम चरण के युद्ध में बहादुरी से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। जसवन्तसिंह जी घायल होकर जोधपुर लौट आए। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई। औरंगजेब दिल्ली का बादशाह बन गया। आमेर के राजा जयसिंह की मध्यस्थता से औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को शाही सेवा में ले लिया। औरंगजेब ने उन्हें क्षमा कर दिया और मालवा की सूबेदारी से पहले का मनसब और तमाम परगने बहाल कर दिए। औरंगजेब के प्रारम्भिक शासन काल के बीस वर्षों के लम्बे और भाग्य निर्णायक दौर में जसवन्तसिंह की भूमिका सर्वविदित है। जसवन्तसिंह गुजरात, कोंकण क्षेत्र के सूबेदार रहे। शिवाजी के विरूद्ध अभियान में जसवन्तसिंह भी गए थे। जसवन्तसिंहजी के प्रयत्न से ही शिवाजी के पुत्र शंभाजी और मुगलों में सन्धि हुई थी।शिवाजी के विरुद्ध अभियान में सफल न होने पर महाराजा को दक्षिण से वापस बुला लिया गया व शहजादा मुअज्जम के साथ अफगानिस्तान भेज दिया गया। वि.सं. १७२८ (ई.स. १६७१) में दुबारा गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया। इसके एक वर्ष पश्चात् दुबारा अफगानिस्तान में भेज दिया गया। वि.सं. १७३१ (ई.स. १६७३) में जमरूद का थानेदार नियुक्त किया गया। यहाँ पर जसवन्तसिंहजी ने उल्लेखनीय कार्य किया | अफगान विद्रोहियों का दमन किया। औरंगजेब मन ही मन महाराजा से द्वेष रखता था। यहाँ जसवन्तसिंहजी विषाद-ग्रस्त रहते थे। क्योंकि उनके पुत्र पृथ्वीसिंह व दूसरे पुत्र अल्पायु में ही चल बसे थे। उनके कोई पुत्र जीवित नहीं था, जो उनका उत्तराधिकारी बन सके। अपने अन्तिम दिनों में उत्तराधिकारी की चिन्ता में अत्यधिक खिन्न रहने लगे। वि.सं. १७३५ पोष बदि १० को (ई.स. १६७८ नवम्बर २८) जमरूद में महाराजा जसवन्तसिंह का देहान्त हुआ। मृत्यु के समय इनकी दो रानियाँ, जो इनके साथ जमरूद में थी, गर्भवती थी । जसवन्तसिंहजी के उत्तराधिकारी अजीतसिंह हुए।
यह महाराजा उच्च कोटि के विद्वान भी थे। इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की। इनके द्वारा रचित भाषा-भूषण साहित्य का अपूव ग्रन्थ है।
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर