Sant Rawal Mallinath Rathore, Malani History in Hindi
राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि पर समय समय कई वीर योद्धाओं, संतो, साहित्यकारों, भक्तों ने जन्म लिया. ऐसे ही पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल में एक ऐसे शासक ने जन्म लिया जिसने अपनी वीरता, शौर्य एवं चातुर्य गुणों का प्रदर्शन कर अपना खोया राज्य प्राप्त करने साथ मुस्लिम आक्रमणकारियों का तगड़ा प्रतिरोध कर उन्हें खदेड़ा. इस वीर नायक ने जहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों की बड़ी बड़ी सेनाओं को अपनी सैनिक रणनीति, कौशल से पराजित करने साथ अपनी राजनैतिक सुझबुझ, प्रशासनिक कुशलता के बलबूते अपने राज्य का विस्तार कर इतिहास के पन्नों में कीर्ति पाई, वहीं उससे बड़ी कीर्ति उन्होंने सिद्ध पुरुष के रूप में प्राप्त की. अपने लोकोपकारी कार्यों व चमत्कारों की कथाओं ने उस क्षेत्र के जनमानस को अत्यंत प्रभावित कर इस संत शासक ने देवत्व प्राप्त करते हुए सिद्ध पीर का पद प्राप्त किया, जिसकी पुष्टि उन पर रचित गीतों से होती है. उनकी पूजा-अर्चना हिन्दू एवं मुस्लिम समान रूप से करते है. उनकी समाधि पर रातभर जागरणों का सिलसिला यहाँ की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चूका है.
जी हाँ ! हम बात कर रहे है. पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल के संत शासक रावल मल्लीनाथ राठौड़ की. राजस्थान ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही व्यक्तित्व मिलेगा, जिसने शासक से देवत्व तक की यात्रा की हो. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने लोकहित के कार्य करके लोकप्रसिद्धि प्राप्त की हो. लेकिन ऐसा बिरला ही मिलेगा, जिसने भक्ति की धारा में बहकर स्वयं लोक-आराध्य का पद प्राप्त कर लिया हो. राजस्थान के लिए यह गौरव की बात है कि उसकी मिट्टी में पले-पल्लवित हुये महेवा के नायक माला से रावल मल्लीनाथ और रावल मल्लीनाथ से सिद्ध मल्लीनाथ के रूप में देवत्व प्राप्त कर गये. सभवत: यही कारण है कि थार के इस राज्य का नाम मालाणी उनके नाम पर पड़ा.
रावल मल्लीनाथ राजस्थान में राठौड़ साम्राज्य के संस्थापक राव सिंहा की वंश परम्परा में राव सलखा के ज्येष्ठ पुत्र थे. उनकी जन्मतिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग अलग जन्म समय लिखा है, ठाकुर नाहर सिंह, जसोल ने अपनी पुस्तक "मालाणी के संत शासक- रावल मल्लीनाथ' में विभिन्न इतिहासकारों द्वारा लिखी जन्मतिथि व रावल मल्लीनाथ के समकालीन अन्य इतिहास पुरुषों के समय का गहन अन्वेषण कर उनका जन्म वर्ष वि.सं.1378 ई.सन 1321 माना है. महेवा के राठौड़ शासक राव तीडा के निधन के पश्चात् राजवंश की प्रस्थापित ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की परम्परा का उलंघन करके ज्येष्ठ पुत्र सलखा को उत्तराधिकार से च्युत कर उनके स्थान पर राव तीडा के द्वितीय पुत्र राव कान्हड़दे को महेवा की राजगद्दी का टीका दिया गया. यह किन परिस्थितियों में हुआ स्पष्ट नहीं है पर निश्चत ही इस घटना ने राजपरिवार में पारस्परिक संशय एवं कटुता की नींव डाल दी. यह इसी कटुता का प्रमाण है कि राव कान्हड़दे द्वारा अपने भतीजे मल्लीनाथ से अथाह स्नेह रखने और उन्हें राज्य का प्रधान बनाकर सम्पूर्ण महत्त्व देने के बाद भी राव कान्हड़दे के निधन के बाद गद्दी पर बैठे उसके पुत्र राव त्रिभुवनसी पर सैन्य कार्यवाही कर मल्लीनाथ ने अपना खोया पैतृक राज्य वापस अपने अधीन कर लिया, क्योंकि कुंवर मल्लीनाथ के बाल मन से ही अपने खोये राज्य को पुन: प्राप्त करने की इच्छा की कोंपल विद्यमान थी.
अपना खोया राज्य पाने की बचपन से इच्छा की ही परिणिति थी कि मल्लीनाथ ने दिल्ली के तत्कालीन बादशाह से सैन्य सहायता प्राप्त कर, दलबल सहित महेवा पर आक्रमण कर राव त्रिभुवनसी को युद्ध में परास्त कर, 1340 ई. में महेवा की राजगद्दी हासिल कर, रावल की पदवी धारण की. इस अवसर पर उनके भाई-बिरादरी के साथ क्षेत्र के समस्त राजपूत सरदारों ने उपस्थित होकर रावल मल्लीनाथ का समर्थन कर उनके राज्य को स्थायित्व प्रदान किया.
महेवा के सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद रावल मल्लीनाथ ने अपनी सैन्य शक्ति बढाकर राज्य-विस्तार अभियान शुरू किया तथा आस-पास के शक्तिशाली राजपूत राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उनसे मधुर सम्बन्ध बनाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ की. उनकी बढती शक्ति से आस-पड़ौस की मुस्लिम शक्तियों का आशंकित होना स्वाभाविक था. अत: रावल का मुस्लिम शक्तियों के साथ कई बार युद्ध हुआ और हर युद्ध में उनकी विजय हुई. हालाँकि इतिहास में उनके साथ युद्ध करने वाले मुस्लिम शासकों के नाम नहीं मिलते लेकिन समसामयिक साहित्य में उनका मुस्लिम शक्तियों से संघर्ष और उन पर विजय का विवरण प्रचुर मात्रा में मिलता है. राजस्थानी स्त्रोतों के आधार पर रावल मल्लीनाथ को रेगिस्तानी प्रदेश में सीमा विस्तार में काफी सफलता मिली थी. उन्होंने अपनी सुगठित सेना के बल पर तुर्कों को हराकर सिवाणा को अपने राज्य का अंग बनाया, उमरकोट तक के क्षेत्र पर सैन्य कार्यवाही कर काफी धन संग्रह किया.
राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार नैणसी ने मल्लीनाथ को बाड़मेर का स्वामी माना है जो प्रमाणित करता है कि बाड़मेर रावल मल्लीनाथ के मालाणी राज्य का अंग था. महेवा की उत्तरी सीमा संभवत: सालोड़ी नामक स्थान तक थी जिस पर बनी सीमा चौकी की सुरक्षा की जिम्मेदारी राव चुंडा जो बाद में मंडोर के शासक बने के पास थी. ओसियां क्षेत्र पर अधिपत्य के अलावा सांचोर के चौहान शासक रावत मल्लीनाथ के अधिपत्य स्वीकार कर चुके थे. इस तरह जाहिर होता है कि रावल मल्लीनाथ ने अपने राज्य का विस्तार अच्छा ख़ासा कर लिया था. जिसके समुचित प्रबंधन की भी अच्छी व्यवस्था थी. चूँकि तत्कालीन समय में राज्य विस्तार भाई-बिरादरी के साझे प्रयास से संभव हो पाते थे अत: रावल मल्लीनाथ ने बुद्धिमता का परिचय देते हुए अपने आपको कुल का संप्रभु नेता दर्शाते हुए प्रशासन व राज्य की भूमि जिसका वास्तविक अधिकार शासक के पास होता था, में अपने भाई-बिरादरी को उनका हिस्सा देकर साझेदार बनाया ताकि व्यवस्था समुचित तरीके से हो सके. इसके साथ ही रावल मल्लीनाथ राज्य में सुशासन के लिए एक सलाहकार समिति से भी सलाह लेते थे जिसमें राज्य के प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल होते थे.रावल मल्लीनाथ की राणी रुपांदे अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला था. जो बाल्यकाल से ही साधू-संतों के चमत्कारों से प्रभावित थी. विवाह के उपरांत भी वह महेवा में होने वाले साधू-संतों के सत्संग में शामिल होती थी. यह उस काल के जातीय सौहार्द व समानता का ही प्रतीक है कि राणी राजधानी में धारु नामक एक व्यक्ति जो मेघवाल जाति का था के घर आने वाले साधू-संतों के सत्संग में भागीदारी करती थी. एक दलित जाति के घर पर होने वाले सत्संग व जागरण आदि में भाग लेने पर उनपर कोई रोकटोक नहीं थी. रानी रुपांदे जो भक्ति से ओतप्रोत थी से प्रेरणा लेकर रावल मल्लीनाथ जी को उन्हीं के पंथ में आनंद एवं मुक्ति का मार्ग दृष्टिगोचर हुआ और वे इस मत में शामिल हो गए. ठाकुर नाहरसिंह जसोल के अनुसार वि.सं.1439, चैत्र सुदी 2, वार शनिवार के दिन रावल मल्लीनाथ इस पंथ में सम्मिलित हुए. इस पंथ में शामिल होने के पश्चात् वे एक महान संत के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने लगे| उनके चमत्कारों की कथाएँ जनमानस में गहरी पैठने लगी. यही नहीं, इस प्रकार की चर्चाएँ दिल्ली एवं मुस्लिम शासकों तक भी पहुंची.
एक कथा के अनुसार उस समय देश में तीन-चार वर्ष तक वर्षा ना होने के चलते अकाल पड़ा तब दिल्ली के सुलतान ने राजकोष खाली होने से परेशान था. उसने सुना कि महेवा के रावल मल्लीनाथ सिद्ध पीर है जो अपने तपोबल से वर्षा करवा सकते है. तब सुल्तान ने रावल को दिल्ली आमंत्रित किया और जनता को कष्टों से मुक्ति दिलवाने की प्रार्थना की. रावल ने उत्तर दिया कि- "मालो किसो हर री देह, हर बरसावे तो बरसे मेह." अर्थात वर्षा तो ईश्वर के हाथ में है, मेरे हाथ में कुछ नहीं है.
कहा जाता है कि तब सुल्तान के अनुनय-विनय से मल्लीनाथ जी वहीं समाधि पर बैठ गए एवं परिणामत: बरसात हुई. इस प्रकार उन्होंने अपने चमत्कार से जनता के संकट दूर किये. इस तरह के लोकोपकारी व चमत्कारी कार्यों से प्रभावित जनमानस के मन में छाये विश्वास के बल पर मल्लीनाथ जी देवत्व को प्राप्त हुये. नकी आज भी सम्पूर्ण मारवाड़ के लोग संत देव रावल मल्लीनाथ व रानी रुपांदे की पूजा-अर्चना करके स्मरण करते है. राजस्थान के इतिहास में ऐसा कोई शासक नहीं हुआ जिसको समाज ने इतना उच्च स्थान प्रदान किया हो. रावल मल्लीनाथ के बाद उनके पुत्र जगमाल महेवा की राजगद्दी पर बैठे.
सन्दर्भ: ठा. नाहरसिंह, जसोल लिखित "मालाणी के संत-शासक रावल मल्लीनाथ" पुस्तक
History of Rawal Mallinath Rathore, Malani, Malani history in Hindi, Sant Mallinath history, Saint Ruler Mallinath Rathore राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि पर समय समय कई वीर योद्धाओं, संतो, साहित्यकारों, भक्तों ने जन्म लिया. ऐसे ही पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल में एक ऐसे शासक ने जन्म लिया जिसने अपनी वीरता, शौर्य एवं चातुर्य गुणों का प्रदर्शन कर अपना खोया राज्य प्राप्त करने साथ मुस्लिम आक्रमणकारियों का तगड़ा प्रतिरोध कर उन्हें खदेड़ा. इस वीर नायक ने जहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों की बड़ी बड़ी सेनाओं को अपनी सैनिक रणनीति, कौशल से पराजित करने साथ अपनी राजनैतिक सुझबुझ, प्रशासनिक कुशलता के बलबूते अपने राज्य का विस्तार कर इतिहास के पन्नों में कीर्ति पाई, वहीं उससे बड़ी कीर्ति उन्होंने सिद्ध पुरुष के रूप में प्राप्त की. अपने लोकोपकारी कार्यों व चमत्कारों की कथाओं ने उस क्षेत्र के जनमानस को अत्यंत प्रभावित कर इस संत शासक ने देवत्व प्राप्त करते हुए सिद्ध पीर का पद प्राप्त किया, जिसकी पुष्टि उन पर रचित गीतों से होती है. उनकी पूजा-अर्चना हिन्दू एवं मुस्लिम समान रूप से करते है. उनकी समाधि पर रातभर जागरणों का सिलसिला यहाँ की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चूका है.
जी हाँ ! हम बात कर रहे है. पश्चिम राजस्थान के मालाणी आँचल के संत शासक रावल मल्लीनाथ राठौड़ की. राजस्थान ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही व्यक्तित्व मिलेगा, जिसने शासक से देवत्व तक की यात्रा की हो. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने लोकहित के कार्य करके लोकप्रसिद्धि प्राप्त की हो. लेकिन ऐसा बिरला ही मिलेगा, जिसने भक्ति की धारा में बहकर स्वयं लोक-आराध्य का पद प्राप्त कर लिया हो. राजस्थान के लिए यह गौरव की बात है कि उसकी मिट्टी में पले-पल्लवित हुये महेवा के नायक माला से रावल मल्लीनाथ और रावल मल्लीनाथ से सिद्ध मल्लीनाथ के रूप में देवत्व प्राप्त कर गये. सभवत: यही कारण है कि थार के इस राज्य का नाम मालाणी उनके नाम पर पड़ा.
रावल मल्लीनाथ राजस्थान में राठौड़ साम्राज्य के संस्थापक राव सिंहा की वंश परम्परा में राव सलखा के ज्येष्ठ पुत्र थे. उनकी जन्मतिथि को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग अलग जन्म समय लिखा है, ठाकुर नाहर सिंह, जसोल ने अपनी पुस्तक "मालाणी के संत शासक- रावल मल्लीनाथ' में विभिन्न इतिहासकारों द्वारा लिखी जन्मतिथि व रावल मल्लीनाथ के समकालीन अन्य इतिहास पुरुषों के समय का गहन अन्वेषण कर उनका जन्म वर्ष वि.सं.1378 ई.सन 1321 माना है. महेवा के राठौड़ शासक राव तीडा के निधन के पश्चात् राजवंश की प्रस्थापित ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की परम्परा का उलंघन करके ज्येष्ठ पुत्र सलखा को उत्तराधिकार से च्युत कर उनके स्थान पर राव तीडा के द्वितीय पुत्र राव कान्हड़दे को महेवा की राजगद्दी का टीका दिया गया. यह किन परिस्थितियों में हुआ स्पष्ट नहीं है पर निश्चत ही इस घटना ने राजपरिवार में पारस्परिक संशय एवं कटुता की नींव डाल दी. यह इसी कटुता का प्रमाण है कि राव कान्हड़दे द्वारा अपने भतीजे मल्लीनाथ से अथाह स्नेह रखने और उन्हें राज्य का प्रधान बनाकर सम्पूर्ण महत्त्व देने के बाद भी राव कान्हड़दे के निधन के बाद गद्दी पर बैठे उसके पुत्र राव त्रिभुवनसी पर सैन्य कार्यवाही कर मल्लीनाथ ने अपना खोया पैतृक राज्य वापस अपने अधीन कर लिया, क्योंकि कुंवर मल्लीनाथ के बाल मन से ही अपने खोये राज्य को पुन: प्राप्त करने की इच्छा की कोंपल विद्यमान थी.
अपना खोया राज्य पाने की बचपन से इच्छा की ही परिणिति थी कि मल्लीनाथ ने दिल्ली के तत्कालीन बादशाह से सैन्य सहायता प्राप्त कर, दलबल सहित महेवा पर आक्रमण कर राव त्रिभुवनसी को युद्ध में परास्त कर, 1340 ई. में महेवा की राजगद्दी हासिल कर, रावल की पदवी धारण की. इस अवसर पर उनके भाई-बिरादरी के साथ क्षेत्र के समस्त राजपूत सरदारों ने उपस्थित होकर रावल मल्लीनाथ का समर्थन कर उनके राज्य को स्थायित्व प्रदान किया.
महेवा के सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद रावल मल्लीनाथ ने अपनी सैन्य शक्ति बढाकर राज्य-विस्तार अभियान शुरू किया तथा आस-पास के शक्तिशाली राजपूत राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उनसे मधुर सम्बन्ध बनाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ की. उनकी बढती शक्ति से आस-पड़ौस की मुस्लिम शक्तियों का आशंकित होना स्वाभाविक था. अत: रावल का मुस्लिम शक्तियों के साथ कई बार युद्ध हुआ और हर युद्ध में उनकी विजय हुई. हालाँकि इतिहास में उनके साथ युद्ध करने वाले मुस्लिम शासकों के नाम नहीं मिलते लेकिन समसामयिक साहित्य में उनका मुस्लिम शक्तियों से संघर्ष और उन पर विजय का विवरण प्रचुर मात्रा में मिलता है. राजस्थानी स्त्रोतों के आधार पर रावल मल्लीनाथ को रेगिस्तानी प्रदेश में सीमा विस्तार में काफी सफलता मिली थी. उन्होंने अपनी सुगठित सेना के बल पर तुर्कों को हराकर सिवाणा को अपने राज्य का अंग बनाया, उमरकोट तक के क्षेत्र पर सैन्य कार्यवाही कर काफी धन संग्रह किया.
राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार नैणसी ने मल्लीनाथ को बाड़मेर का स्वामी माना है जो प्रमाणित करता है कि बाड़मेर रावल मल्लीनाथ के मालाणी राज्य का अंग था. महेवा की उत्तरी सीमा संभवत: सालोड़ी नामक स्थान तक थी जिस पर बनी सीमा चौकी की सुरक्षा की जिम्मेदारी राव चुंडा जो बाद में मंडोर के शासक बने के पास थी. ओसियां क्षेत्र पर अधिपत्य के अलावा सांचोर के चौहान शासक रावत मल्लीनाथ के अधिपत्य स्वीकार कर चुके थे. इस तरह जाहिर होता है कि रावल मल्लीनाथ ने अपने राज्य का विस्तार अच्छा ख़ासा कर लिया था. जिसके समुचित प्रबंधन की भी अच्छी व्यवस्था थी. चूँकि तत्कालीन समय में राज्य विस्तार भाई-बिरादरी के साझे प्रयास से संभव हो पाते थे अत: रावल मल्लीनाथ ने बुद्धिमता का परिचय देते हुए अपने आपको कुल का संप्रभु नेता दर्शाते हुए प्रशासन व राज्य की भूमि जिसका वास्तविक अधिकार शासक के पास होता था, में अपने भाई-बिरादरी को उनका हिस्सा देकर साझेदार बनाया ताकि व्यवस्था समुचित तरीके से हो सके. इसके साथ ही रावल मल्लीनाथ राज्य में सुशासन के लिए एक सलाहकार समिति से भी सलाह लेते थे जिसमें राज्य के प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल होते थे.रावल मल्लीनाथ की राणी रुपांदे अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला था. जो बाल्यकाल से ही साधू-संतों के चमत्कारों से प्रभावित थी. विवाह के उपरांत भी वह महेवा में होने वाले साधू-संतों के सत्संग में शामिल होती थी. यह उस काल के जातीय सौहार्द व समानता का ही प्रतीक है कि राणी राजधानी में धारु नामक एक व्यक्ति जो मेघवाल जाति का था के घर आने वाले साधू-संतों के सत्संग में भागीदारी करती थी. एक दलित जाति के घर पर होने वाले सत्संग व जागरण आदि में भाग लेने पर उनपर कोई रोकटोक नहीं थी. रानी रुपांदे जो भक्ति से ओतप्रोत थी से प्रेरणा लेकर रावल मल्लीनाथ जी को उन्हीं के पंथ में आनंद एवं मुक्ति का मार्ग दृष्टिगोचर हुआ और वे इस मत में शामिल हो गए. ठाकुर नाहरसिंह जसोल के अनुसार वि.सं.1439, चैत्र सुदी 2, वार शनिवार के दिन रावल मल्लीनाथ इस पंथ में सम्मिलित हुए. इस पंथ में शामिल होने के पश्चात् वे एक महान संत के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने लगे| उनके चमत्कारों की कथाएँ जनमानस में गहरी पैठने लगी. यही नहीं, इस प्रकार की चर्चाएँ दिल्ली एवं मुस्लिम शासकों तक भी पहुंची.
एक कथा के अनुसार उस समय देश में तीन-चार वर्ष तक वर्षा ना होने के चलते अकाल पड़ा तब दिल्ली के सुलतान ने राजकोष खाली होने से परेशान था. उसने सुना कि महेवा के रावल मल्लीनाथ सिद्ध पीर है जो अपने तपोबल से वर्षा करवा सकते है. तब सुल्तान ने रावल को दिल्ली आमंत्रित किया और जनता को कष्टों से मुक्ति दिलवाने की प्रार्थना की. रावल ने उत्तर दिया कि- "मालो किसो हर री देह, हर बरसावे तो बरसे मेह." अर्थात वर्षा तो ईश्वर के हाथ में है, मेरे हाथ में कुछ नहीं है.
कहा जाता है कि तब सुल्तान के अनुनय-विनय से मल्लीनाथ जी वहीं समाधि पर बैठ गए एवं परिणामत: बरसात हुई. इस प्रकार उन्होंने अपने चमत्कार से जनता के संकट दूर किये. इस तरह के लोकोपकारी व चमत्कारी कार्यों से प्रभावित जनमानस के मन में छाये विश्वास के बल पर मल्लीनाथ जी देवत्व को प्राप्त हुये. नकी आज भी सम्पूर्ण मारवाड़ के लोग संत देव रावल मल्लीनाथ व रानी रुपांदे की पूजा-अर्चना करके स्मरण करते है. राजस्थान के इतिहास में ऐसा कोई शासक नहीं हुआ जिसको समाज ने इतना उच्च स्थान प्रदान किया हो. रावल मल्लीनाथ के बाद उनके पुत्र जगमाल महेवा की राजगद्दी पर बैठे.
सन्दर्भ: ठा. नाहरसिंह, जसोल लिखित "मालाणी के संत-शासक रावल मल्लीनाथ" पुस्तक