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उपेक्षा का शिकार राणा सांगा स्मारक

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अपनी अप्रत्याशित शूरवीरता और संगठन क्षमता के बल पर बाबर की तोपों का तलवारों से मुकाबला कर भारतीय इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने में कामयाब रहे मेवाड़ के महाराणा सांगा का शहादत स्थल और वहां बना उनका स्मारक रूपी चबूतरा आज उनके वंशजों की उदासीनता और सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति के चलते उपेक्षित है| यही नहीं सरकार द्वारा राणा सांगा की स्मृति स्मारक के लिए आवंटित जमीन पर भी एक असामाजिक तत्व ने कब्ज़ा कर रखा है|

दौसा जिले के बसुवा गांव में रेल की पटरियों के एकदम नजदीक राणा की याद में एक चबूतरा बना है स्थानीय निवासियों व गांव के सरपंच के अनुसार कुछ वर्ष पहले उदयपुर के एकलिंग नाथ ट्रस्ट की और से चबूतरे के लिए पत्थर आये थे पर उनके बाद किसी द्वारा ना सँभालने के चलते सभी पत्थर एक एक कर असामाजिक तत्वों द्वारा चुरा लिए गए| गांव के युवा सरपंच छोटेलाल गुर्जर ने ज्ञान दर्पण.कॉम से चर्चा करते हुए बताया कि यदि ट्रस्ट उक्त भूमि उसे पंचायत के अधीन दे देता तो आज वे यहाँ एक शानदार बगीचा लगवा देते, यदि पंचायत में आने वाला सरकारी फंड भी सरकार नहीं खर्च करने देती वे खुद ग्रामवासियों की मदद से राणा के स्मारक को एक शानदार बगीचे में बदल देते|

गांव के इस युवा सरपंच ने राणा सांगा को सम्मान देने हेतु गांव के चौराहे पर राणा सांगा की एक आदमकद प्रतिमा स्थापित करवा दी पर एक राजनैतिक दल के कतिपय लोगों ने इसकी सार्वजनिक निर्माण विभाग से शिकायत कर प्रतिमा अनावरण का काम रुकवा दिया| इन घटिया राजनैतिक सोच के लोगों के राजनैतिक षड्यंत्र की वजह से आज कई सालों से राणा सांगा की प्रतिमा चौराहे पर ढकी खड़ी अपने अनावरण का इन्तजार कर रही है| गांव की हर जाति का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि राणा सांगा की प्रतिमा का अनावरण हो, तथा उनका शानदार स्मृति स्थल बने ताकि देशभर के लोग इस वीर को श्रद्धांजली देने व नमन करने आये ताकि गांव की राष्ट्रीय पहचान बने और गांव पर्यटन के नक़्शे पर उभरे लेकिन कतिपय राजनैतिक व्यक्तियों के षड्यंत्रों व सरकारी उदासीनता के चलते राणा का यह स्मारक आज उपेक्षित हो खंडहर बनने की और अग्रसर है|

पिछले एक माह के अंतराल में दो बार क्षत्रिय वीर ज्योति व वीर शिरोमणी दल के कार्यकर्ताओं द्वारा स्मारक स्थल व प्रतिमा स्थल पर जाकर ग्रामीणों से प्रतिमा अनावरण संबंधी बातचीत करने के बाद सरकारी नोटिश मिलने के बाद उदास हुए ग्रामीणों में उत्साह की लहर दौड़ गई|

कल 13 अप्रेल को भी ज्ञान दर्पण.कॉम के साथ क्षत्रिय वीर ज्योति के कई महारथियों ने मुंबई के भवन निर्माण व्यवसाय से जुड़े सामाजिक राजपूत नेता ओमप्रकाश सिंह के साथ बसुवा जाकर राणा के स्मारक पर नमन किया और गांव के सरपंच सहित गांव के कई मौजिज लोगों से चर्चा की व राणा की प्रतिमा बनाने के लिए सरपंच छोटेलाल की भूरी भूरी प्रशंसा करते उन्हें हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित किया|

इस चर्चा में सरपंच छोटेलाल गुर्जर ने बताया कि चुनाव आचार संहिता ख़त्म होते ही वह अपने चार माह के शेष कार्यकाल में प्रतिमा अनावरण की सरकारी अनुमति लेकर इसका विधिवत भव्य अनावरण करवा देंगे| सरपंच व ग्रामीण राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के हाथों अनवारण चाहते है|
मुंबई से आये ओमप्रकाश सिंह जी ने सरपंच को आश्वस्त किया कि वे इसके लिए होने वाले कार्यक्रम में हर तरह से मदद करने को तैयार है|

देखते है अपने जीवन के अंतिम दिनों में राजनैतिक षड्यंत्रों का शिकार होने वाला राणा सांगा की प्रतिमा आज भी राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार हो यूँ ही कपड़े में ढकी रहेगी या देश की नई पीढ़ी को स्वातंत्र्य का पाठ पढ़ाने हेतु अपना अनावरण करवा पाने में सफल होगी|

नवीनीकरण के इंतजार में भाजपा की सुराज संकल्प यात्रा

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राजस्थान भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा चुनाव पूर्व प्रदेश की सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए सुराज संकल्प यात्रा निकाली जिसके माध्यम से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने प्रदेश की जनता को कांग्रेस के कुशासन से प्रदेश की जनता को मुक्ति दिलाकर सुशासन यानी सुराज स्थापित करने का वादा किया और अपने इस सुराज कायम करने के संकल्प की आम आदमी तक जानकारी पहुंचाई| इस यात्रा की जानकारी देने के उद्देश्य से भाजपा ने सोशियल मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण समझते हुए www.surajsankalpyatra.comके नाम एक वेब साईट बनाई, इस वेब साईट के माध्यम से देश विदेश में बैठे प्रवासी राजस्थानियों को राजे के सुराज संकल्प की व उनकी यात्रा की जानकारी मिला करती थी, और प्रवासी उम्मीद करते थे कि सत्ता मिलने के बाद भाजपा अपने सुराज के कार्यों व उदाहरणों को वेब साईट के माध्यम से उन तक पहुंचाएगी और वे भी सुराज में कमियों की शिकायत या सुझाव वेब साईट के माध्यम से मुख्यमंत्री तक पहुंचाते रहेंगे|

लेकिन अफ़सोस प्रदेश में भारी जीत के बाद मिली सत्ता के बाद राजे सरकार व पार्टी ने सुराज संकल्प यात्रा का काम पूरा समझ उसे भुला दिया और पिछले 15 मार्च को इस वेब साईट के डोमेन को एक्सपायर होने के बावजूद इसका नवीनीकरण नहीं कराया|

आज सुराज संकल्प की जानकारी देने वाली वेब साईट के नवीनीकरण का काम भुलाया गया है कल हो सकता है, जिस तरह से राजनीतिज्ञ अपने किये वादे भूल जाते है वैसे ही राजे सरकार सुराज संकल्प ही भूल जाये|

हो सकता है दुरूपयोग भी

वेब डोमेन एक्सपायर होने के कुछ माह बाद डोमेन रजिस्ट्रार पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किसी भी जारी कर सकते है और यह बात भाजपा का आईटी सैल भी अच्छी तरह से जानता है| कोई भी राजनैतिक विरोधी इसे पंजीकृत कराकर इसके माध्यम से भ्रांतिपूर्ण जानकारियां देकर भाजपा का नुकसान भी कर सकता है क्योंकि यह वेब साईट राजस्थान भाजपा की अधिकारिक वेब साईट रही है अत: इस पर अपडेट की गई कोई भी गलत सुचना भ्रांति फैलाने के लिए काफी है| पर अफ़सोस भाजपा के आईटी सैल में बैठे जिम्मेदार लोगों के जेहन में ये बात क्यों नहीं आई? जबकि भाजपा मोदी के नाम से बनी वेब साइट्स का दुरूपयोग देख चुकी है|

जब कानून पर भारी पड़ी ईमानदारी

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जयपुर की स्टेट चीफ कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश शीतलाप्रसाद वाजपेई का न्यायालय उस दिन खचाखच भरा था, दर्शकों की भारी भीड़ झुंझुनू के नाजिम इकराम हुसैन द्वारा बिना गवाहों के, सिर्फ पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर की रपट के आधार पर एक चोर को सुनाई सजा के खिलाफ हो रही सुनवाई को ध्यानपूर्वक सुनने में व्यस्त थी| चोर के वकील ने नाजिम इकराम हुसैन द्वारा सुनाई सजा के खिलाफ कानून की अनदेखी पर खासा प्रकाश डालते हुए चोर को बरी किये जाने की गुहार की|

लेकिन प्रधान न्यायाधीश ने वकील की एक भी दलील ना मानते हुए नाजिम इकराम हुसैन के फैसले को ज्यों का त्यों रखते हुए चोर की सजा को बरक़रार रखा| तब बचाव पक्ष के वकील ने फिर दलील दी कि - "एक पुलिस सब इंस्पेक्टर के बयान को प्रमाण मानकर सजा देना उचित नहीं है| फौजदारी कानून में ऐसा कोई प्रवधान नहीं|"

लेकिन वकील की यह दलील ठुकराते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा - "राम सिंह भाटी जैसे सत्यनिष्ठ सब इंस्पेक्टर का बयान और कथन कानून के प्रावधानों से कहीं ज्यादा वजनदार है|"

यह संत थानेदार के नाम से मशहूर थानेदार रामसिंह की सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, सदाचार, नैतिकता और कुशल व्यवहार की ख्याति का ही कमाल था कि उस समय के सभी न्यायाधीश सिर्फ उनके बयान या उनकी जाँच रिपोर्ट के आधार पर बिना ज्यादा सुनवाई किये फैसला दे दिया करते थे, क्योंकि उक्त निराला थानेदार इतना ईमानदार व सत्यनिष्ठ था कि ना किसी के लिए झूंठ बोलना ना मुफ्त का पानी का तक पीना| उसका व्यवहार इतना मृदु व प्यार भरा होता था कि चोर बिना पीटे चोरी का माल बरामद करवा दिया करते थे और आगे से चोरी छोड़ दिया करते थे तो अपराधी अपराध छोड़ भक्ति भजन में लग जाया करते थे| शरीर से दुबला-पतला वह निराला थानेदार खतरनाक डाकुओं को जिनसे पुलिस थर्राया करती थी को बिना खून खराबे के पकड़ लाया करता था|

इस निराले थानेदार का पूरा परिचय "सिंह गर्जना" पत्रिका के अगले अंक में

अश्विनी कुमार जी ! चाटुकारिता नहीं, राजाओं के व्यवहार पर लगाम भी लगाते थे चारण !

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8 जून के पंजाब केसरी के अंक में विशेष संपादकीय "चारण नहीं नेता बनो" में अश्विनी कुमार ने चारण शब्द का गलत इस्तेमाल किया| चारण समाज द्वारा इस विशेष संपादकीय में चारण शब्द के गलत इस्तेमाल पर रोष व्यक्त करने पर अश्विनी कुमार ने सफाई दी कि उन्होंने उनका चारण से मंतव्य चाटुकार व चापलूस से था किसी जाति, समुदाय या व्यवसाय से जुड़े लोगों से नहीं| साथ ही अश्विनी कुमार इस सफाई में खेद व्यक्त करते हुए लिखते है कि कुछ लोगों की जातिपरक संवेदनाओं को ठेस पहुंची है जो उनका मंतव्य नहीं|

अश्विनी कुमार जी आपने अपनी सम्पादकीय में लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए पता नहीं क्या लिखा होगा, मैंने नहीं पढ़ा, लेकिन आपने अपनी सफाई में भी अपने शब्दों का जाल बुनते हुए, खेद प्रकट करते हुए फिर पुरे चारण समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है जो फेसबुक आदि सोशियल साइट्स पर व्यक्त करते हुये चारण युवा आपके प्रति रोष प्रकट कर रहे है|

अश्विनी कुमार जी आपने तो अपनी सफाई में चारण शब्द को चाटुकारिता और चापलूसी का प्रयायवाची शब्द बना दिया क्या ये किसी भी जाति या समुदाय के लिए आहात होने के लिए कम है ?? यदि आपकी ही तरह अन्य लोग भी चापलूसी या चाटुकारिता के लिए चारण शब्द का इस्तेमाल करने लगे तो देश की नई पीढ़ी आप जैसे संपादकों की लिखी इस घटिया लेखनी को पढ़कर पुरे चारण समुदाय को चापलूस और चाटुकार ही समझेगी| और यदि ऐसा हुआ तो इसके दोषी आप जैसे लेखक होंगे जो एक ऐसी जाति या समुदाय को जो स्वाभिमानी के लिए मर मिटने के लिये, संकट के समय देश पर आई विपदा के समय सैनिकों, योद्धाओं को बलिदान देने के लिए तैयार करने के लिये, राजाओं के गलत आचरण पर उन्हें खरी-खोटी सुनाकर उनके आचरण पर अंकुश लगाने के लिये, अपनी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देने वाले समुदाय को चापलूस व चाटुकार का पर्यायवाची बनाने के आप जिम्मेदार होंगे|

अश्विनी कुमार जी राजाओं के राज में चारण कवि अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दिया करते थे, क्या आज आप आपके संस्थान के पत्रकार अभिव्यक्ति की आजादी के लिए चारण कवि उदयभानजी बारहट जो मेवाड़ राज्य के ताजिमी सरदार भी थे, ने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह को यह जानते हुए भी फाटकर दिया कि फटकार के तुरंत बाद महाराणा गुस्से में उनका सिर तोड़ सकते है| और हुआ भी यही|

अश्विनी कुमार जी क्या आपको पता है कि जिस चारण जाति को आप चापलूसी का पर्याय समझते है उसी जाति के निर्भीक कवि वीरदास चारण(रंगरेलो)ने जैसलमेर राज्य का जैसा देखा वैसा वर्णन जैसलमेर के राजा के भरे दरबार में कर दिया, अपने राज्य की कमियों के बखान पर राजा की चेतावनी भी जब कवि ने नजरअंदाज की तो उसे जेल की कोठरी में डाल दिया गया| कवि ने जेल स्वीकारी पर चापलूसी नहीं| क्या आप या आपका कोई पत्रकार सरकार के खिलाफ ऐसी हिमाकत कर सकता है ?

अश्विनी कुमार जी आपने उस जाति को चापलूस का पर्याय बनाने की कोशिश की जिस जाति में कवि नरुजी बारहठजैसे स्वाभिमानी कवि पैदा हुये, जिन्होंने उदयपुर पर आक्रमण के आई औरंगजेब की सेना का अकेले मुकाबला किया, यदि उन्हें चापलूसी ही करनी होती तो वहां मरने की बजाय किसी राजा के दरबार की शोभा बढ़ा रहे होते|

अश्विनी कुमार जी आपने चारण कवि करणीदानकी बेबाकी के बारे में नहीं जानते, जिन्होंने पुष्कर में एकत्र राजाओं की महफ़िल में जोधपुर के राजा के इस आग्रह पर - "दोनों राजा आपसे एक ऐसी कविता सुनने को उत्सुक है जो अक्षरश: सत्य हो और एक ही छंद में हम दोनों का नाम भी हो|" कवि ने अपनी ओजस्वी वाणी में दोनों राजवंशों के सत्य कृत्य पर छंद सुनाया तो दोनों नरेशों की मर्यादा तार तार हो गयी-

पत जैपर जोधांण पत, दोनों थाप उथाप|
कुरम मारयो डीकरो, कमधज मारयो बाप ||


(छंद में कुरम शब्द जयपुर राजवंश के कुशवाह वंश व कमधज जोधपुर राजघराने के राठौड़ वंश के लिए प्रयुक्त किया गया है)

अश्विनी कुमार जी चारण जाति जिसे आप और आप जैसी सोच वाले बहुत से लेखक चापलूसी और चाटुकारिता का पर्यायवाची समझती है, उन्हें चारण जाति और चारण कवियों के इतिहास के अध्ययन की जरुरत है जिस दिन आप चारण जाति या कुछेक चारण कवियों का इतिहास पढ़ लेंगे आप शायद ही ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगे| साथ ही मेरी तरह चारण जाति में जन्म ना लेने के बावजूद भी किसी द्वारा चारणों को चापलूस या चाटुकार कहने पर आपकी भावनाएं भी उतनी ही आहत होगी जितनी किसी एक चारण समुदाय में जन्में व्यक्ति की|

---------------------------------------------------------------------------------- चारण समाज द्वारा तीव्र विरोध के बाद अश्विनी कुमार ने माफ़ी मांगी, चारण समाज द्वारा दायर मुकदमें का फैसला भी होना है !!

वातानुकूलित कक्षों में बैठ चर्चा करने से नहीं बचेगा पर्यावरण

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कल “दी ओशियन ग्रुप” द्वारा आयोजित खाना, पानी और पर्यावरण के बदलाव पर दिल्ली के इंडिया हेबीबेट सेंटर में एक सेमीनार में भाग लेने का अवसर मिला| जिसमें मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुये दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर डा. श्रीकांत गुप्ता ने विश्व के बिगड़े पर्यावरण पर आंकड़े प्रस्तुत करते हुये पर्यावरण पर अंग्रेजी में एक लम्बा चौड़ा भाषण झाड़ा और बिगड़ते पर्यावरण पर चिंता जाहिर की, हालाँकि अंग्रेजी में होने के चलते उनका काफी भाषण हम जैसे हिंदी ब्लॉगर के ऊपर से उड़ गया लेकिन मोटा मोटी यही समझ आया कि प्रोफ़ेसर गुप्ता ने आंकड़े जुटाने के लिए काफी मेहनत की है वो बात अलग है कि उनके आंकड़ों व उनकी शोध से सेमिनारों में थूक उछालते हुये सिर्फ भाषण देकर बिगड़े पर्यावरण पर चिंता व्यक्त कर अपनी दुकानदारी चलाई जा सकती है या पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले देशों की किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था से ईनाम झटका जा सकता है जो खुद प्रदूषण फैलाते हुये पर्यावरण बिगाड़ने का ठीकरा विकासशील या अविकसित देशों पर फोड़ने का ड्रामा व प्रयास करते रहते है|

साथ ही जो ग्रीन हाउस गैसें ओजोन परत को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाकर पर्यावरण बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार है, ऐसी सेमीनारें वहीं होती है जहाँ के वातानुकूलित कक्ष के एयरकंडीशनर यह गैसें छोड़ने के लिये जिम्मेदार है, ऐसी दशा में वातानुकूलित गाड़ियों में चलने वाले लोगों द्वारा व वातानुकूलित कक्ष में बैठकर सेमीनार या चर्चा करने का क्या औचित्य?
यदि हमें पर्यावरण की रक्षा करनी है तो प्रकृति के साथ चलना पड़ेगा, अपनी चर्चा में उस गरीब व्यक्ति को भी शामिल करना पड़ेगा जो सबसे ज्यादा प्रकृति के साथ रहता है| और ये सेमीनारें व चर्चाएँ भी वातानुकूलित कक्ष में बैठकर करने की बजाय किसी पेड़ की छांव में करनी पड़ेगी जो पर्यावरण के अनुकूल है| साथ ही पर्यावरण को बचाना है, बचाना है पर गाल बजाने के साथ ही वो कार्य भी करके दिखाने होंगे जैसे वाटरमेन राजेन्द्र सिंह ने करके दिखाया है|

कल की सेमीनार में सुखद यही रहा कि वहां वाटरमेन राजेन्द्र सिंह ने पर्यावरण के बिगड़ने के आंकड़े बताने, चिंता जाहिर करने के बजाय वो उपाय सुझाये जिन्हें अपनाकर इस समस्या से निजात पाई जा सकती है| राजेन्द्र सिंह ने भी दर्द व्यक्त किया कि इस तरह की बहस और चर्चाओं में आम आदमी की उपेक्षा की जाती है, और कथित वैज्ञानिक, प्रोफ़ेसर व विशेषज्ञ अपने भाषण झाड़ते है लेकिन उनके पास वो तकनीक व ज्ञान नहीं है जो एक गरीब किसान, मजदुर के पास है| उन्होंने बताया कि एक गरीब किसान सीधे शब्दों में बात करता है वो नहीं जानता कि क्या ओजोन है? क्या पर्यावरण है? वो तो सिर्फ यही जानता है कि धरती को बुखार हो गया और इसी वजह से मौसमचक्र भी बिगड़ गया और इसका एक ही उपाय है धरती पर हरियाली बढ़ा दो, सुखी धरती पर पानी बहा दो, धरती का बुखार उतर जायेगा और मौसमचक्र भी सुधर जायेगा| लेकिन यह छोटी सी बात किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाई जाती, कोई वैज्ञानिक इसे नहीं जानता|

वाटरमेन ने बताया कि उन्हें एक वृद्ध किसान मांगू मीणा ने तीन दिन में धरती के बारे में इतना ज्ञान दे दिया जितना 19 साल पढ़कर पीएचडी करने वाले को कोई यूनिवर्सिटी नहीं देती|

इंस्पेक्टर ताऊ और नशे में धुत एक आधुनिक मैडम

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सब कामों में हाथ आजमाने के बाद अपने ताऊ को लगा कि क्यों ना पुलिस की इंस्पेक्टरी भी कर ली जाय| सो ताऊ लगा तैयारियों में बन गया पुलिस इंस्पेक्टर, देशी भाषा में कहें तो ताऊ थानेदार बन गया| कुछ महीनों की ट्रेनिंग लेने के बाद पुलिस ने ताऊ की समझदारी और मामले निपटाने में घाघपना देख ताऊ की ड्यूटी राजधानी में लगा दी, जहाँ ताऊ को शहर की सार्वजनिक यातायात प्रणाली की सुरक्षा व्यवस्था संभालनी थी| पुलिस भी जानती थी कि सार्वजनिक यातायात वाली परिवहन गाड़ी में कई सिरफिरे आते है जिनसे ताऊ जैसा थानेदार ही निपटने में सक्षम है| और ताऊ ने भी अपना ताऊपना दिखाते हुए अपनी ड्यूटी बड़ी शानदार तरीके से निभाई, क्योंकि ताऊ तो सिरफिरों को देखते ही भांप लेता और ताऊ के ताऊपने के आगे सिरफिरों की एक ना चलती|

लेकिन एक दिन ताऊ ने देखा सायबर पार्क के पास के सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के स्टेशन पर नशे में धुत,शरीर पर ना के बराबर कपड़े पहने एक आधुनिका तीन महिला पुलिसकर्मियों से भीड़ रही थी और अपनी आधुनिक अंग्रेजी वाली गालियां के दम पर तीनों पुलिस कर्मियों पर भारी पड़ रही थी, बेचारी तीनों महिला पुलिसकर्मी उस अधनंगी, नशे में धुत आधुनिका के आगे बेबस नजर आ रही थी, आधुनिका उन्हें अपने रसुकों का हवाला देकर नौकरी से निकलवाने की धमकी भी दिए जा रही थी|

ताऊ ये सब थोड़ी देर देखता रहा फिर सोचा क्यों ना इस आधुनिका को सबक सिखा दिया जाए ताकि आगे से इसका दिमाग दुरुस्त रहे और नशे की हालात में सार्वजानिक स्थानों पर ना आये| सो इंस्पेक्टर ताऊ आधुनिका के पास गया और हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए उसे बदतमीज, बेवकूफ के साथ ऐसी ऐसी गालियाँ देने लगा जिनसे आधुनिका का गुस्सा और भड़क गया और वो ताऊ को मारने के लिए भड़कते हुए टूट पड़ी, ताऊ ने मुस्कराते हुए, हाथ जोड़े जोड़े गालियाँ देना जारी रखते हुए पीछे हटना शुरू कर दिया और जहाँ स्टेशन के कैमरे नहीं होते वहां तक पीछे हटता रहा|

चूँकि ताऊ जानता था कि सारी हरकतें कैमरे रिकोर्ड करने लगे है सो ताऊ आधुनिका को भड़काते हुये नो कैमरा जोन में ले गया और वहां जाते ही ताऊ ने आधुनिका के थप्पड़ मारमार कर गाल लाल कर दिये, रही सही कसर उन तीनों महिला पुलिसकर्मियों ने लातें ठोक ठोक कर पूरी कर दी| इस तरह आधुनिका पीटने के बाद वापस स्टेशन पर आई और वहां कैमरों के आगे आते ही फिर ताऊ ने हाथ जोड़कर मुस्कराते हुये कहा - चली जा और इस तरह फिर यहाँ कभी मत आना वरना ऐसा ही फिर भुगतना पड़ेगा| उस वक्त तो आधुनिका ताऊ को कोसते हुए चली गई और दुसरे दिन उच्च अधिकारीयों को शिकायत कर दी|

अधिकारीयों ने ताऊ से पूछताछ की तो ताऊ ने चांटे मारने का मना करते हुये कहा कि हमने तो उसे हाथ जोड़कर अनुनय-विनय करते हुए खूब समझाया था आप लोगों को भरोसा ना हो तो वीडियो रिकोर्डिंग देख लीजिये| अधिकारीयों के एक जाँच दल ने वीडियो रिकोर्डिंग देखी जिसमें ताऊ हाथ जोड़े मुस्कराता हुआ आधुनिका को समझाता नजर आया चूँकि स्टेशनों पर होने वाली रिकोर्डिंग में आवाज तो रिकोर्ड होती नहीं, सिर्फ चित्र होते है सो चित्रों में साफ़ नजर आया कि इंस्पेक्टर ताऊ हाथ जोड़, बिना गुस्सा हुए मुस्कराते हुए आधुनिका मैडम को समझाने का प्रयास कर रहा है और मैडम ताऊ पर भड़कते हुए हमला करने को उत्सुक नजर आ रही है| सो अधिकारीयों ने मैडम की शिकायत को झूंठ करार देकर ताऊ के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया साथ ही ताऊ की प्रशंसा भी की कि कैसे एक आधुनिक मैडम के गुस्से के आगे भी ताऊ ने सदासयता दिखाई और मैडम द्वारा गाली-गलौच के बावजूद अपनी उत्तेजना पर काबू रखा|
लेकिन ताऊ का ताऊपने वाला फार्मूला भुगतने के बाद उस मैडम ने कभी स्टेशन पर दुबारा किसी नियम का उलंघन नहीं किया|


डिस्क्लेमर : पोस्ट में किसी तरह की सच्चाई तलाशने का कष्ट ना करें!

रोजगार सूचना

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गाय का मांस नहीं, दूध ज्यादा ताकतवर होता है : महात्मा लटूरसिंह

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रामपुर में महात्मा लटूर सिंह का गाय की महत्ता पर व्याख्यान चल रहा था, उनके व्याख्यानों के बारे में मुसलमानों को भी पता था कि वे क्या बोलते है? अत: उन्हें सुनने के लिये कई मुस्लिम भी आये थे, कुछ उन्हें सुनने तो कुछ उन्हें चुप कराने| जो चुप कराने आये थे उन्हें एक तकलीफ और भी थी, महात्मा लटूर सिंह मुसलमानों की शुद्धिकरण करते थे, मतलब उनका वापस धर्मान्तरण| सो उन्हें सबक सिखाने के लिए कुछ तत्व उस समय के नामी पहलवान वली मोहम्मद को साथ लेकर आये| वली मोहम्मद गामा पहलवान की जोड़ी का था और दोनों की कुश्ती बराबरी पर छुटी थी|

रामपुर में उस वक्त नबाब का राज था और पहलवान वली रामपुर नबाब का आश्रित पहलवान था|
महात्मा ने गाय की महत्ता समझाते हुये कहा- गाय का दूध, गाय के मांस से ज्यादा ताकतवर होता है अत: मुसलमानों को गौ-भक्षक की बजाय गौ-रक्षक बनाना चाहिये|

तभी वली मोहम्मद पहलवान बोल उठा - महात्मा आप गाय का दूध पीते है और मैं गाय का मांस खाता हूँ सो आपस में कुश्ती हो जाय| पता चल जायेगा कि दूध या मांस कौन ताकतवर है?

महात्मा ने सामने बैठे लोगों से पूछा - क्या कोई है जो इस पहलवान की चुनौती स्वीकार कर सकता हो?

लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आई, चारों और ख़ामोशी छा गई जिसे देख महात्मा बोले - ठीक है आप में से कोई इस पहलवान से लड़ना नहीं चाहता तो फिर हम लड़ेंगे| आखिर हमने ही यह बात कही है सो जबाब भी अब हम ही देंगे|

बस फिर क्या था? दोनों की कुश्ती तय हो गई, उस वक्त रामपुर में अंग्रेज कलेक्टर हुआ करता था, तय समय पर कुश्ती हुई और महात्मा ने पहलवान वली मोहम्मद को एक ही मिनट में चित कर दिया| महात्मा ने उसे उठाया और फैंक दिया जिसकी वजह से उसकी पसलियाँ टूट गई और तीन दिन बाद पहलवान मृत्यु को प्राप्त हुआ|
इस तरह महात्मा ने साबित कर दिया कि गाय का मांस नहीं दूध ज्यादा ताकतवर होता है|

परिचय :-महात्मा लटूर सिंह का जन्म सन 1885 में मेरठ के पास मऊ ग्राम (बारहा) के ठाकुर लख्मीसिंह के घर हुआ था| बचपन में आपने गीत गाते हुए गायें चराई और गाय के दूध व घी का खूब उपभोग किया| जिससे आपका स्वास्थ्य बहुत बढ़िया हो गया, शरीर भी पहलवानों की तरह मजबूत हो गया, यही नहीं आपकी चुश्ती-फुर्ती देख आपको उसी समय लोग पहलवान कहने लग गए थे और आपने भी कुश्ती का अभ्यास किया व 35 साल की उम्र होते होते आपकी गिनती देश के प्रसिद्ध पहलवानों में होने लगी, 50 वर्ष की आयु तक आपने पहलवानी की व कभी किसी से हारे नहीं| शास्त्रों का अध्ययन करने के साथ ही आपने चार हजार मुसलमानों का शुद्धिकरण किया| आप आर्य समाजी भी थे| आपने कई ग्रन्थ लिख साहित्य सेवा भी की| पिलखुआ ने आपने राजपूत रेजीमेंट कालेज की स्थापना कराई, जनरल करियप्पा से आपकी अच्छी मित्रता थी| गढ़मुक्तेश्वर में आपने एक धर्मशाला भी बनवाई और आखिर 27 अक्टूबर 1973 को आप इस संसार को छोड़ गये|

राष्ट्र निर्माण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ठाकुर विक्रम सिंह जी महात्मा के बारे में बताते हुये-




संदर्भ : ठाकुर विक्रम सिंह द्वारा संपादित पुस्तक : आर्य समाज के भीम महात्मा लटूर सिंह

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रेल विभाग लगा है राणा सांगा स्मारक हटाने की जुगत में

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भारत की स्वतंत्रता के लिए देश के लगभग राजाओं को एक झंडे के नीचे लाकर बाबर से लड़ने वाले राणा सांगा का स्मारक रूपी चबूतरा जहाँ राणा का अंतिम संस्कार किया गया था अब तक उपेक्षित था| स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के प्रतीक राणा के चबूतरे का रख रखाव करने में आजतक ना सरकार ने कोई कदम उठाया ना राणा के उतराधिकारियों ने अलवर जिले के बसवा गांव में रेल पटरियों के पास बने इस स्मारक की मरम्मत कराने पर ध्यान दिया|

हाँ ! यदि स्मारक के पास राणा को भवन बनाकर छोड़ जाते तो उनके वर्तमान उतराधिकारी उसकी साज सज्जा पर अवश्य ध्यान देते क्योंकि भवन हेरिटेज होटल बना कमाई का जरिया बनता, लेकिन स्मारक से कोई कमाई नहीं की जा सकती सो उतराधिकारी भी क्यों ध्यान दे?

खैर.....अब तक भले स्मारक उपेक्षित था, उसका रख रखाव नहीं हो पाया लेकिन कम से कम उस जगह स्थापित तो था लेकिन अफ़सोस अब यह स्मारक रूपी चबूतरा भी वहां से हटने की कगार है| जिस देश की सरकार किसी अनजान इंसान की कब्र तक को हटाने की हिम्मत नहीं कर पाती उसी सरकार का रेलवे विभाग रेल मार्ग चौड़ा करने के लिए राणा के चबूतरे को 15 मीटर दूर खिसकाना चाहते है| जबकि रेल मार्ग चौड़ाई दूसरी और की भूमि अधिग्रहित करके भी चौड़ी की जा सकती है, लेकिन रेल के अधिकारी दूसरी और के किसान की भूमि बचाकर राणा को विस्थापित करना चाहते है|

देखते है राष्ट्रवाद के नाम का दम भरने वाली सरकार राष्ट्रवाद के प्रतीक राणा सांगा का स्मारक बचाती है या कथित विकासवाद को राष्ट्रवाद के नाम से जोड़कर राष्ट्रवाद के प्रतीक राणा का स्मारक हटाती है?

सरकार के साथ उन उन संगठनों की भूमिका भी देखते है जो जाति के नाम पर गाल फुलाते है तो कई संगठन राष्ट्रवाद व हिन्दुत्त्व के नाम पर गाल फुलाते है या राणा सांगा के स्मारक को बचाने हेतु आगे आते है ????

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सामाजिक दशा और दिशा: निर्भर है योग्य नेतृत्व पर

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किसी भी समाज की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक दशा की कसौटी आदर्श, ईमानदार, सिद्धांतो पर चलने वाले योग्य राजनैतिक व सामाजिक नेतृत्व पर निर्भर करती है। कोई भी समाज जब पतन और उत्थान के संक्रमणकाल से गुजर रहा होता है तब सबसे पहले उसे योग्य नेतृत्व की आवश्यकता की अनुभूति होती है। हमारे समाज की वर्तमान अधोगति का मुख्य कारण नेतृत्त्व ही रहा है। स्व. आयुवान सिंह हुडील के अनुसार - “योग्य नेतृत्त्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं-सिद्ध और स्वयं निर्मित होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रुपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती है। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी अथवा रुढ़िवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक संपन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतो का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षण-भंगुर मानव का अंधानुकरण किया गया।”

समाज की वर्तमान दशा का कारण भी स्व.आयुवान सिंह जी द्वारा बताया गया उपरोक्त कारण प्रमुख है लेकिन आज भी हम नेतृत्व के मामले में रुढ़िवादी विचार रखते है, वर्षों से पालित और पोषित समाज को जिस कुसंस्कारित नेतृत्व ने वर्तमान दशा में ला पटका आज भी हम उसी रूढ़ीवाद का अनुसरण करते हुये उसी वंशानुगत नेतृत्व के पीछे भागते है। चुनावों में देश की सत्ता में भागीदारी के समय अक्सर देखा जाता है कि -हम किसी योग्य आम प्रत्याशी को छोड़ किसी बड़े राजनीतिक घराने के कुसंस्कारित प्रत्याशी के पीछे भागते है और हमारी यही कमी भांप राजनैतिक पार्टियाँ हमारी जातीय भावनाओं का वोटों के रूप में दोहन करने के लिए किसी राजनैतिक घराने या राजघराने के व्यक्ति को जिसके आचरण में कोई सिद्धांत तक नहीं होता, को टिकट देकर हमारे ऊपर थोप देती है और हम उनकी जयकार करते हुए उसके पीछे हो जाते है। और इस तरह एक सिधांतहीन और योग्य व्यक्ति को अपना नेतृत्व सौंप हम समाज को और गहरे गर्त में डाल देते है।

और जो व्यक्ति समाज को सही दिशा देने के लिए सिद्धांतो की अभिलाषा लेकर राजनीति में उतरता है वह अकेला रह जाता है। यह हमारे समाज की विडम्बना ही है कि इस तरह नेतृत्व करने के लिए आगे आने वाले युवावर्ग को समाज के स्थापित नेता कई तरह के कुत्सित षड्यंत्र रचकर आगे नहीं बढ़ने देते ताकि नया नेतृत्व खड़ा होकर उनके सिद्धांतहीन नेतृत्व को चुनौती नहीं दे सके।

साथ ही समाज में ऐसे भी व्यक्ति बहुतायत से मौजूद है जो सिद्धांतो का नाम लेकर अपनी नेतृत्व की भूख शांत करने हेतु संगठन बनाते है और चाहते है कि समाज उनका नेतृत्व स्वीकारे| अक्सर देखने को मिलता है कि चुनावों के समय कई सामाजिक संगठन सक्रीय हो जाते है और समाज के नेतृत्व का दावा करते हुये विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के साथ सौदेबाजी करते है| कई बार समाज ऐसे लोगों के झांसे में आकर उनका समर्थन भी करता है तो वे उस समर्थन का प्रयोग अपने निजी हित साधन में करते है। लेकिन जब ऐसे ही नेताओं के सिद्धांतों, विचारधारा और कुकृत्यों को समाज समझने लगता है और उनका साथ छोड़ देता है| तब वो कोई सामाजिक मुद्दा उठा फिर समाज को बरगलाने की कोशिश करते है और जब समाज उनके पीछे नहीं आता तब वे समाज को ही दोषी ठहराने लगते कि समाज साथ नहीं देता।

लेकिन ऐसे लोग यह नहीं समझते कि समाज कोई भेड़ बकरी नहीं जो जिसके पीछे चल पड़े। यह हमारे समाज का सौभाग्य भी है कि समाज अब ऐसे लोगों को समझने लगा और उन्हें बहिष्कृत करने लगा है इसलिए आजकल देखा जा रहा कि ऐसे व्यक्तियों और उनके संगठन किसी भी मुद्दे पर दस-पांच से ज्यादा व्यक्ति नहीं जुटा पाते। कई बार अक्सर देखा जाता है कि किसी मुद्दे पर विरोध जताने के लिए तीस चालीस समाज बंधू इकट्ठा हुए है और जब मीडियाकर्मी संगठन का नाम पूछता है तब वहां बीस के लगभग संगठनों की सूची बन जाती है, कहने का मतलब साफ है कि संगठन बीस और आदमी तीस से चालीस, फिर इन संगठनों में उस कार्य की श्रेय लेने की होड़ भी मच जाती है, हर संगठन अपने अपने उद्देश्यों को वरीयता देकर प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देता है| इस तरह के संगठन समाज को नई दिशा देने के बजाय उल्टा वर्तमान दशा बिगाड़ने का काम कर रहे है|

अतः समाज को चाहिये कि वह नेतृत्व के मामले में वंशानुगत, पद और आर्थिक संपन्नता व रूढिगत आधार पर चली आ रही व्यवस्था व मानसिकता से निकले और ऐसे व्यक्तियों को नेतृत्व सौंपे जिनकी विचारधारा में समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा, धर्म का पालन करते हुए सिद्धांतों पर चलने के गुण, समाज के प्रति पीड़ा, ध्येय व वचन पर दृढ़ता, अनुशासन, दया, उदारता, विनय, क्षमा के साथ सात्विक क्रोध, स्वाभिमान, संघर्षप्रियता, त्याग, निरंतर क्रियाशीलता आदि स्वाभाविक गुण मौजूद हो, ऐसे ही योग्य व्यक्ति समाज का नेतृत्व कर सही दिशा दे सकते है।

समाज का नेतृत्व कैसे लोगों के हाथों में हो का अध्ययन करने के लिए स्व.आयुवान सिंह हुडील द्वारा लिखित पुस्तक “राजपूत और भविष्य” पढनी चाहिए जिसमें वास्तविक नेतृत्व कैसा हो पर विस्तार से शोधपूर्ण लिखा गया है।

वीर दुर्गादास राठौड़ : स्वामिभक्त ही नहीं, महान कूटनीतिज्ञ भी था

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वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड़ (Durgadas Rathore) को आज की नई पीढ़ी मात्र इतना ही मानती है कि वे वीर थे, स्वामिभक्त थे, औरंगजेब का बड़ा से बड़ा लालच भी उन्हें अपने पथ से नहीं डिगा सका| ज्यादातर इतिहासकार भी दुर्गादास पर लिखते समय इन्हीं बिन्दुओं के आगे पीछे घूमते रहे, लेकिन दुर्गादास ने उस काल में राजनैतिक व कूटनीतिक तौर जो महान कार्य किया उस पर चर्चा आपको बहुत ही कम देखने को मिलेगी| उस काल जब भारत छोटे छोटे राज्यों में बंटा था| औरंगजेब जैसा धर्मांध शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठा था| इस्लाम को तलवार व कुटनीति के जरीय फैलाने का इरादा रखता था| सभी शासक येनकेन प्रकारेण अपना अपना राज्य बचाने को संघर्षरत थे|

उसी वक्त जोधपुर के शिशु महाराज (Maharaja Ajeet Singh, Jodhpur)को औरंगजेब के चुंगल से निकाला| उसका यथोचित लालन पालन करने की व्यवस्था की| मारवाड़ (Jodhpur State) की आजादी के लिए औरंगजेब की अथाह शक्ति के आगे मराठाओं की तर्ज पर छापामार युद्ध जारी रखकर उसे उलझाए रखा| औरंग द्वारा दिए बड़े बड़े प्रलोभनों को ठुकराकर स्वामिभक्ति का कहीं नहीं मिलने उदाहरण पेश किया| जो सब जानते है लेकिन मैं चर्चा करना चाहता हूँ दुर्गादास की कुटनीति, राजनैतिक समझ पर जिसे कुछ थोड़े से इतिहासकारों को छोड़कर बाकियों द्वारा आजतक विचार ही नहीं किया|

दुर्गादास राठौड़ का बचपन अभावों में, कृषि कार्य करते बीता| ऐसी हालत में उन्हें शिक्षा मिलने का तो प्रश्न ही नहीं था| दरअसल दुर्गादास की माँ एक वीर नारी थी| उनकी वीरता के चर्चे सुनकर ही जोधपुर के सामंत आसकरण ने उससे शादी की| लेकिन दुर्गादास की वीर माता अपने पति से सामंजस्य नहीं बिठा सकी| इस कारण आसकरण ने दुर्गादास व उसकी माता को गुजर बसर के लिए कुछ भूमि देकर अपने से दूर कर लिया| जहाँ माता-पुत्र अपना जीवन चला रहे थे| एक दिन दुर्गादास के खेतों में जोधपुर सेना के ऊंटों द्वारा फसल उजाड़ने को लेकर चरवाहों से मतभेद हो गया और दुर्गादास ने राज्य के चरवाहे की गर्दन काट दी| फलस्वरूप जोधपुर सैनिकों द्वारा दुर्गादास को महाराजा जसवंतसिंह के सामने पेश किया गया| दरबार में बैठे उसके पिता ने तो उस वक्त उसे अपना पुत्र मानने से भी इनकार कर दिया था| लेकिन महाराजा जसवंत सिंह ने बालक दुर्गादास की नीडरता, निर्भीकता देख उसे क्षमा ही नहीं किया वरन अपने सुरक्षा दस्ते में भी शामिल कर लिया| दुर्गादास के लिए यही टर्निंग पॉइंट साबित हुआ| उसे महाराज के पास रहने से राजनीति, कूटनीति के साथ ही साहित्य का भी व्यवहारिक ज्ञान मिला| जिसका फायदा उसने महाराजा जसवंतसिंह के निधन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों ने उठाया| दुर्गादास राठौड़ के पास ऐसा कोई पद नहीं था न ही वो मारवाड़ राज्य का बड़ा सामंत था फिर भी उस वक्त मारवाड़ में उसकी भूमिका और अहमियत सबसे बढ़कर थी|

जब सब राज्य अपने अपने मामलों में उलझे थे, दुर्गादास ने औरंगजेब के खिलाफ राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, उदयपुर के राजपूतों को एक करने का कार्य किया| यही नहीं दुर्गादास ने राजपूतों व मराठों को भी एक साथ लाने का भरसक प्रयास किया और इसमें काफी हद तक सफल रहा| मेरी नजर में राणा सांगा के बाद दुर्गादास ही एकमात्र व्यक्ति था जिसने मुगलों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि देश के अन्य राजाओं को भी एक मंच पर लाने की कोशिश की| और दुर्गादास जैसे साधारण राजपूत की बात मानकर उदयपुर, जयपुर, जोधपुर के राजपूत और मराठा संभा जी जैसे लोग औरंगजेब के खिलाफ लामबंद हुये, इस बात से दुर्गादास की राजनीतिक समझ और उसकी अहमियत समझी का सकती है|

औरंगजेब के एक बेटे अकबर को औरंगजेब के खिलाफ भड़काकर उससे विद्रोह कराना और शहजादे अकबर के विद्रोह को मराठा सहयोग के लिए संभा जी के पास तक ले जाना, दुर्गादास की कुटनीति व देश में उसके राजनैतिक संबंधों के दायरे का परिचय कराता है| इस तरह की कूटनीति मुगलों ने खूब चली लेकिन हिन्दू शासकों द्वारा इस तरह की चाल का प्रयोग कहीं नहीं पढ़ा| लेकिन दुर्गादास ने यह चाल चलकर साथ ही अकबर की पुत्री व पुत्र को अपने कब्जे में रखकर औरंगजेब को हमेशा संतापित रखा| महाराष्ट्र से शहजादा अकबर को औरंगजेब के खिलाफ यथोचित सहायता नहीं मिलने पर दुर्गादास ने अकबर को ईरान के बादशाह से सहायता लेने जल मार्ग से ईरान भेजा| जो दर्शाता है कि दुर्गादास का कार्य सिर्फ मारवाड़ तक ही सीमित नहीं था|

एक बार संभाजी की हत्या कर उसके सौतेले भाई को आरूढ़ करने की चाल चली गई| उस चाल में संभाजी के राज्य में रह रहे शहजादे अकबर को भी शामिल होने का प्रस्ताव मिला| अकबर को प्रस्ताव ठीक भी लगा क्योंकि संभाजी उसे उसके मनमाफिक सहायता नहीं कर रहे थे| लेकिन अचानक अकबर ने इस मामले में दुर्गादास से सलाह लेना मुनासिब समझा| तब दुर्गादास ने उसे सलाह दी कि इस षड्यंत्र से दूर रहे, बल्कि इस षड्यंत्र की पोल संभाजी के आगे भी खोल दें, हो सकता है संभाजी ने ही तुम्हारी निष्ठा जांचने के लिए पत्र भिजवाया हो| और अकबर ने वैसा ही किया| संभाजी की हत्या का षड्यंत्र विफल हुआ और उनके मन में अकबर के प्रति सम्मान बढ़ गया|

इस उदाहरण से साफ़ है कि दुर्गादास षड्यंत्रों से निपटने के कितना सक्षम थे| उन्होंने एक ही ध्येय रखा कभी निष्ठा मत बदलो| जो व्यक्ति बार बार निष्ठा बदलता है वही लालच में आकर षड्यंत्रों में फंस अपना नुकसान खुद करता है| राजपूती शौर्य परम्परा और भारतीय संस्कृति में निहित मूलभूत मानदंडों के प्रति दुर्गादास पूरी तरह सजग था| यही कारण था कि उसके निष्ठावान तथा वीर योद्धाओं के दल में सभी जातियों और मतों के लोग शामिल था| उसकी धार्मिक सहिष्णुता तथा गैर-हिन्दुओं के धार्मिक विश्वासों और आचरणों के प्रति उसके वास्तविक आदर-भाव का परिचय शहजादे अकबर की बेटी को इस्लामी शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करना था| जिसकी जानकारी होने पर खुद औरंगजेब भी चकित हो गया था और उसके बाद औरंग ने दुर्गादास के प्रति असीम आदरभाव प्रकट किये थे|

दुर्गादास के जीवन का अध्ययन करने के बाद कर्नल टॉड ने लिखा – राजपूती गौरव में जो निहित तत्व है, दुर्गादास उनका एक शानदार उदाहरण है|शौर्य, स्वामिभक्ति, सत्य निष्ठा के साथ साथ तमाम कठिनाइयों में उचित विवेक का पालन, किसी भी प्रलोभन के आगे ना डिगने वाले गुण देख कहा जा सकता है कि वह अमोल था|

इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते है – “उसके पच्चीस साल के अथक परिश्रम तथा उसकी बुद्धिमत्तापूर्ण युक्तियों के बिना अजीतसिंह अपने पिता का सिंहासन प्राप्त नहीं कर पाता| जब चारों से और विपत्तियों से पहाड़ टूट रहे थे, सब तरफ दुश्मनों के दल था, जब उसके साथियों का धीरज डगमगा जाता था और उनमें जब अविश्वास की भावना घर कर बैठती, तब भी उसने अपने स्वामी के पक्ष को सबल तथा विजयी बनाये रखा| मुगलों की समृद्धि ने उसे कभी नहीं ललचाया, उनकी शक्ति देखकर भी वह कभी हतोत्साहित नहीं हुआ| अटूट धैर्य और अद्वितीय उत्साह के साथ ही उसमें अनोखी कूटनीतिक कुशलता और अपूर्व संगठन शक्ति पाई जाती थी|”

“यह दुर्गादास राठौड़ की प्रतिभा थी, जिसके फलस्वरूप औरंगजेब को राजपूतों के संगठित विरोध का सामना करना पड़ा, जो कि उसके मराठा शत्रुओं की तुलना में किसी भी तरह कम भीषण नहीं था|” सरदेसाई, न्यू हिस्ट्री ऑफ़ द मराठाज|

कीटनाशक : मानव के लिए सबसे बड़ा खतरा

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गांव में बचपन से ही मोरों (Peacock)को देखा है| सुबह उठते ही मोरों की मधुर आवाज सुनाई देती थी| हवेली से बाहर निकलते ही प्रांगण में माँ सा, दादीसा या घर के अन्य बुजुर्गों द्वारा डाला दाना चुगते मोर-मोरनी नजर आते थे| मयूर (Peacock) को दाना चुगाने के लिए घर के छोटे बच्चों के हाथों में अनाज भरकर कटोरी दे मयूर के पास भेजते और जब बच्चे के हाथों मयूर दाना चुगते तो छुपकर फोटो लेने का आनंद ही कुछ और होता था| बच्चे भी अपने हाथों मोर को दाना चुगाने से बड़े खुश होते| खेतों में पंख फैलाकर नाचते मयूर को देखते ही बनता था| वर्षा ऋतू में तो मोरों की आवाजें सून बुजुर्ग वर्षा का अनुमान लगा लेते थे, यही नहीं कई बार रात में मोरों की क्रंदन आवाजें सून घर के बड़े बुजुर्ग आस-पास किसी अनहोनी की आशंका का अंदाजा लगा लिया करते थे|

मोरों द्वारा अपने पंख छोड़ने का बचपन में हम सभी साथियों को बेसब्री से इन्तजार रहता था| सुबह सुबह ही गांव के सारे बच्चे अपने अपने खेतों में मयूर पंख की तलाश में निकल जाते थे ताकि पंख एकत्र कर बेचकर पैसे कमाये जा सके| पंखों के बदले मिले पैसों से एक अलग ही आत्म संतोष मिलता था आखिर वो खुद की कमाई जो होती थी|

ऐसा नहीं है कि मयूरों से सब खुश ही रहते थे| उस वक्त हमारे यहाँ सिर्फ वर्षा ऋतू की फसलें ही होती थी| वर्षा के बाद जब फसल बोई जाती तब खेतों में मयूर बोये गए बीज को खा जाते थे| सो फसल बोने के बाद आठ-दस दिन तक सुबह सुबह सभी बच्चों की ड्यूटी खेतों में मोरों से फसल (Crop) की रखवाली के लिए लगती थी| बाद में जब फसल में अनाज के दाने पड़ते तब भी पकने तक कृषक मोरों सहित अन्य पक्षियों से फसल की रक्षा को तैनात रहते| फसलों को मोरों द्वारा नुकसान पहुंचाने के बावजूद मोर का राष्ट्रीय पक्षी वाला रुतबा व सम्मान कायम था| गांव में मोर के शिकार पर प्रतिबंध था| मोर का शिकार करने वाले को गांव में ग्रामीण दंड देते और उसे घृणा से देखते थे| गांव में सिर्फ एक बावरिया जाति का परिवार ही मोर का शिकार कर खाता था| जिसका गांव वाले पूरा ध्यान रखते थे कि वह मोर का शिकार ना कर पाये|

लेकिन अफ़सोस ! राष्ट्रीय पक्षी मोर को सरकार ही नहीं ग्रामीणों द्वारा इतना संरक्षण देने के बावजूद आज मेरे गांव में एक भी मोर मौजूद नहीं है| जिस मोर को दिखाकर गांवों में छोटे बच्चों का मन बहलाया जाता था, आज गांव में बच्चों को मोर का परिचय कराने के लिए सिर्फ मोरों के चित्र ही बचे है| मोरों को संरक्षण के साथ इतना सम्मान देने के बावजूद मोर नहीं बचे, और हमारा आधुनिक कृषि विकास मोरों को निगल गया|

दरअसल जब से किसान आधुनिक कीटनाशक (Modern Pesticides) से ट्रीटमेंट किया बीज बोने लगे वही मोरो के लिए काल साबित हुआ| कीटनाशक (Pesticides) लगा बीज खाने से गांव के सभी मोर एक के बाद बीमार होकर कालकलवित हो गए और आज गांव में एक भी मोर नहीं बचा| मोर ही नहीं तीतर जैसे पक्षी जो लोगों द्वारा शिकार कर खाने की पहली पसंद है भी इन कीटनाशक लगे बीजों को खाकर बीमार पड़ जाते है और उनका शिकार कर खाने वाले भी एक बार अस्पताल पहुँच गए थे| तब से लोग तीतर का शिकार करने से भी बचने लगे है|

जिस तरह से खेतों में किसान कीटनाशकों (Phorate, DAP, uria Pesticides)का उपयोग कर रहे है उसे देखते हुए अंदाज लगाया जा सकता है कि वो दिन दूर नहीं जब इनके साइड इफेक्ट से बीमार हुए इंसानों से अस्पताल भरे मिलेंगे| इसका उदाहरण बीकानेर के अस्पताल में व बीकानेर से भटिंडा के बीच चलने वाली रेलगाड़ी में देखा जा सकता है| इस रेलगाड़ी में आपको कैंसर मरीज, उनके तीमारदार या फिर उन मरीजों से मिलने वाले यात्री ही मिलेंगे| स्थानीय निवासियों ने तो उस रेल का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस रख दिया है| और ये सभी कैंसर मरीज पंजाब के खेतों में भारी मात्रा में इस्तेमाल किये कीटनाशकों व नहरों में पंजाब की फैक्ट्रियों से निकलने वाले रसायनयुक्त प्रदूषित पानी के मिलने से कैंसर से ग्रसित हुए होते है| जिनकी संख्या देखकर मन में आशंका उठती है कि यदि इसी प्रकार हम जहरीले कीटनाशक प्रयोग करते रहे तो वो बिना किसी महायुद्ध के ही हम मानव सभ्यता खो बैठेंगे|

फसलें ही नहीं, पशुओं का चारा घास भी इन कीटनाशकों की पूरी जद में है| आज हर किसान बीज के साथ फोरेट Phorate नामक घातक कीटनाशक बोता है| जिसका असर उस जमीन, उस फसल व वहां उगे घास में 45 दिन तक रहता है| यदि 45 दिन के भीतर कोई पशु वहां उगी घास Grass को खा ले तो फोरेट Phorate का जहर पशु के शरीर में अवश्य जाएगा और अपना साइड इफेक्ट उसे बीमार करके दिखाया| यही नहीं उस पशु का दूध भी दूषित ही होगा और वह पीने वाले को नुकसान पहुंचाएगा जिसके जहरीले परिणाम देर सवेर जरुर दिखाई देंगे|

इन कीटनाशकों के प्रयोग से ज्यादा फसल Crop लेकर मुनाफा कमाने के चक्कर में किसान तो इसका जिम्मेदार है ही, कीटनाशक बेचने वाले सबसे ज्यादा जिम्मेदार है| अक्सर अनपढ़ किसान कीटनाशक प्रयोग करने की विधि व मात्रा आदि की जानकारी दुकानदार से ही लेते है और कीटनाशक बेचने वाले दुकानदार ज्यादा बिक्री से मुनाफा कमाने के चक्कर में किसानों को अनचाहा कीटनाशक तो बेचते ही है साथ ही आवश्कता से अधिक कीटनाशक की मात्रा इस्तेमाल करने की सलाह देते है| ताकि उनकी बिक्री बढे और वे ज्यादा मुनाफा कमायें|

अत: मुनाफा कमाने के चक्कर में स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले इस खेल पर नियंत्रण की आवश्यकता है वरना वो दिन दूर नहीं जब इन कीटनाशकों के अति इस्तेमाल के चलते इनके साइड इफेक्ट से बीमार लोगों से अस्पताल भरे मिलेंगे या फिर जिस तरह मेरे गांव से मोर ख़त्म हुए वैसे कभी मानव भी ना बचे|


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शास्त्रों में वर्णित महिलाओं की चार श्रेणियां

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भारतीय शास्त्रों में रूप, गुण व आदतों के अनुसार महिलाओं को चार श्रेणियों में बांटा है| पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी व संखिणी| महिलाओं की इन चार श्रेणियों पर विभिन्न काल में विभिन्न साहित्यकारों द्वारा बहुत कुछ लिखा गया है| प्रस्तुत है इसी सम्बन्ध में किसी साहित्यकार (शायद जायसी) द्वारा लिखी इन श्रेणियों पर काव्य रचना !!

पद्मिनी पद्म गन्धा च पुष्प गन्धा च चित्रणी|
हस्तिनी मच्छ गन्धा च दुर्गन्धा भावेत्संखणी||

पद्मिनी की काया कमल की भाँती सुगन्धित होती है तो चित्रणी फूलों की महक लिये, हस्तिनी में मछली की महक आती है तो संखिणी में दुर्गन्ध आती है|

पद्मिनी स्वामिभक्त च पुत्रभक्त च चित्रणी|
हस्तिनी मातृभक्त च आत्मभक्त च संखिणी ||

पद्मिनी पतिभक्त होती है तो चित्रणी पुत्र भक्त, हस्तिनी अपनी माँ की भक्त होती है वहीं संखिणी केवल अपनी भक्त होती है|

पद्मिनी करलकेशा च लम्बकेशा च चित्रणी |
हस्तिनी उर्द्धकेशा च लठरकेशा च संखिणी ||

पद्मिनी के केश घुंघराले होते है, चित्रनी के लम्बे, हस्तिनी के खुरदरे तो संखिणी के उलझे हुए|

पद्मिनी चन्द्रवदना च सूर्यवदना च चित्रणी |
हस्तिनी पद्मवदना च शुकरवदना च संखिणी ||

पद्मिनी की काया चंद्रमा की तरह होती है वहीं चित्रणी की काया सूर्य के समान, हस्तिनी कमल के समान तो संखिणी की काया कुत्ते के समान|

पद्मिनी हंसवाणी च कोकिलावाणी च चित्रणी |
हस्तिनी काकवाणी च गर्दभवाणी च संखिणी ||

पद्मिनी की वाणी हंस के समान, चित्रणी की कोयल के समान, हस्तिनी की वाणी कौवे के समान तो संखिणी की वाणी गधे सरीखी होती है|
पद्मिनी पावाहारा च द्विपावाहारा च चित्रणी |

त्रिपदा हारा हस्तिनी ज्ञेया परं हारा च संखिणी ||

पद्मिनी की खुराक बहुत ही कम होती है, चित्रणी की उससे दुगुनी, हस्तिनी की तिगुनी तो संखिणी दूसरों का हिस्सा भी खा जाती है|
चतु वर्षे प्रसूति पद्मन्या त्रय वर्षाश्च चित्रणी |

द्वि वर्षा हस्तिनी प्रसूतं प्रति वर्ष च संखिणी ||

पद्मिनी चार वर्ष के अंतराल बाद र्भधारण कर संतान को जन्म देती है, चित्रणी तीन वर्ष में एक बार हस्तिनी दो वर्ष में वहीं संखिणी हर वर्ष गर्भधारण कर संतान को जन्म देती है|

पद्मिनी श्वेत श्रृंगारा, रक्त श्रृंगारा चित्रणी |
हस्तिनी नील श्रृंगारा, कृष्ण श्रृंगारा च संखिणी ||

पद्मिनी श्वेत वस्त्र या श्रंगार पसंद करती है, चित्रणी ला, हस्तिनी नीला तो संखिणी काला पसंद करती है|

पद्मिनी पान राचन्ति, वित्त राचन्ति चित्रणी |
हस्तिनी दान राचन्ति, कलह राचन्ति संखिणी ||

पद्मिनी पान की शौक़ीन होती है तो चित्रणी धन की, हस्तिनी दान की तो संखिणी को कलह करने का शौक होता है|

पद्मिनी प्रहन निंद्रा च, द्वि प्रहर निंद्रा च चित्रणी |
हस्तिनी प्रहर निंद्रा च, अघोर निंद्रा च संखिणी ||

पद्मिनी दिन में सिर्फ एक बार सोती है, चित्रणी दो बार, हस्तिनी तीन बार तो संखिणी को हर सोते रहने रहना चाहती है|

चक्रस्थन्यो च पद्मिन्या, समस्थनी च चित्रणी|
उद्धस्थनी च हस्तिन्या दीघस्थानी संखिणी||

पद्मिनी गोल स्तन धारण किये होती है, चित्रणी के आनुपातिक, हस्तिनी के छोटे और संखिणी के लंबे स्तन होते है|

पद्मिनी हारदंता च, समदंता च चित्रणी|
हस्तिनी दिर्घदंता च, वक्रदंता च संखिणी||

पद्मिनी के दांत माला की तरह होते है, चित्रणी के एक समान, हस्तिनी के लंबे तो संखिणी के अटपटे, टेढ़े-मेढ़े होते है|

पद्मिनी मुख सौरभ्यं, उर सौरभ्यं चित्रणी|
हस्तिनी कटि सौरभ्यं, नास्ति गंधा च संखिणी||

पद्मिनी की रौनक या कांति उसके चेहरे से झलकती है तो चित्रणी की उसके स्तनों से, हस्तिनी की कमर से तो संखिणी में किसी तरह की रौनक या कांति होती ही नहीं|

पद्मिनी पान राचन्ति, फल राचन्ति चित्रणी|
हस्तिनी मिष्ट राचन्ति, अन्न राचन्ति संखिणी||

पद्मिनी पान की शौक़ीन, चित्रणी फल की, हस्तिनी मिठाई की संखिणी अनाज की|

पद्मिनी प्रेम वांछन्ति, मान वांछन्ति चित्रणी |
हस्तिनी दान वांछन्ति, कलह वांछन्ति संखिणी ||

पद्मिनी के मन में प्रेम पाने की इच्छा रहती हैं चित्रणी को मान-सम्मान की, हस्तिनी को दान की तो संखिणी को कलह करने की|

महापुण्येन पद्मिन्या, मध्यम पुण्येन चित्रणी |
हस्तिनी च क्रियालोपे, अघोर पापेन संखिणी ||

पद्मिनी महापुण्य में विश्वास रखती है, चित्रणी साधारण पूण्य में, हस्तिनी संसार में तो संखिणी घोर पाप करने में|

जब हम पूर्ण विकसित होंगे : व्यंग्य

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मोदी (Narendra Modi) के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में विकास की बड़ी बड़ी बातें चल रही है| हर देशवासी के दिल में अब पूर्ण विकसित होने की उम्मीदें हिल्लोरें मारने लगी है| आखिर मारे भी क्यों नहीं देशवासियों को अब विकास के अमेरिकी पश्चिम मॉडल, मास्को व चीन के वामपंथी मॉडल के साथ खांटी गुजराती मॉडल जो मिल गया| आजकल देश का हर व्यक्ति, सत्ता की सीढियों पर शोर्टकट रास्ते चढने की महत्वाकांक्षा रखने वाला हर नेता गुजराती विकास मॉडल का जाप जप रहा है| मोदी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद तो गुजराती विकास मॉडल की ही नहीं, गुजराती गरबा संस्कृति की खासियत, उसकी श्रेष्ठता आदि की चर्चाएँ ही नहीं चल रही बल्कि लोग गुजरात की संस्कृति अपनाते हुए गरबा में डूबे है|

लेकिन हम हिन्दुस्तानियों (Indians)की ख़ास आदत है| हम अपनी अच्छी चीजें छोड़ दूसरों की घटिया चीजें अपनाते हुए गौरव महसूस करते है| अब जब हम जैसे विकासशील या पिछड़े देश को इतने सारे विकास मॉडल मिल गए तो हम इन सबका घालमेल कर अपना विकास जरुर करेंगे| जब हम विकास के अपने भारतीय सांस्कृतिक मॉडल को छोड़ कई तरह के मॉडलस के घालमेल वाले संस्करण से विकास करेंगे ( Fully Developed Nations)तब तो विकास कुछ इस तरह नजर आयेगा-

पाश्चात्य अमेरिकी विकास मॉडल अपनाते हुए हम शिक्षित होंगे और उनकी संस्कृति अपनायेंगे, तब हम कपड़े पहनने के झंझट से मुक्त हो जायेंगे| कपड़ों पर होने वाला खर्च बच जायेगा| जो जितना विकसित होगा उसका उतना शरीर नंगा दिखाई देगा| कपड़ों की मांग घटने से देश के कपड़ा उद्योग कपड़ा बनाते व रंगाई-छपाई करते समय जो प्रदूषण फैलाते है, वो बंद हो जायेगा| इस तरह विकसित होने के साथ साथ हम पर्यावरण की रक्षा करते हुए ओजोन परत बचाकर धरती पर बहुत बड़ा अहसान भी कर देंगे|

गुजराती विकास और सांस्कृतिक मॉडल अपनाने के बाद देश में औद्योगिक विकास (Industrial Development) तो धड़ल्ले होगा, जिसमें गरीब, किसान को कुछ मिले या नहीं, पर पूंजीपतियों की पौबारह होगी| देश में जब अमीरों के आने जाने के लिए चौड़ी चौड़ी सड़कें बनेगी, उद्योग लगेंगे तब किसानों की जमीन का सरकार उनके लिए अधिग्रहण कर, उसका मुआवजा देकर किसान को घाटे की खेती करने से निजात दिला देगी| यही नहीं किसान भी भूमि के मुआवजे से मिले धन से कुछ समय तक अमीरों की तरह एशोआराम कर उसका सुख भोग सकेगा|

आज पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP Model)से सड़कें बन रही है| जब हम ज्यादा विकास करेंगे तब शहर, गांव, कच्ची बस्ती तक की सड़कें इसी मॉडल के तहत बनवा देंगे| जिस तरह आज राजमार्गों पर चढ़ते ही टोल चुकाना पड़ता है, उसी तर्ज पर घर से निकलते ही व्यक्ति को गली की सड़क पर पैर रखने के लिए टोल चुकाना पड़ेगा| गरीब जो टोल नहीं चुका सकता वह घर से बाहर ही नहीं निकलेगा और इस तरह गरीबी घर में दुबकी बैठी रहेगी| देश में जिधर नजर पड़ेगी उधर अमीर व्यक्ति ही नजर आयेंगे, जिससे विदेशियों की नजर में हम गरीब देश नहीं अमीर देश कहलायेंगे|

अपनी स्थानीय संस्कृति छोड़, गरबा जैसी दूर से मजेदार दिखने वाली संस्कृति अपनायेंगे तो उसके पीछे का सांस्कृतिक प्रदूषण भी साथ आयेगा| उसके समर्थक नेता उस प्रदूषण के फायदे भी गिनवायेगा कि छोरी के गरबा में किसी के साथ सेटिंग कर भाग जाना घर वालों के लिए फायदे का सौदा है, उनका दहेज़ में किया जाने वाला धन बच गया|

आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर जब हम पूर्ण विकसित हो जायेंगे तब घर में बूढ़े माँ-बाप की सेवा करने को रुढ़िवादी क्रियाक्लाप समझ, माँ-बाप को घर से बाहर निकाल देंगे| उन्हें किसी धर्मार्थ संस्थान या सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में छोड़ आयेंगे| सरकारें भी हर वर्ष निर्माण किये वृद्धाश्रमों की संख्या दर्शाते हुए विकास के आंकड़े प्रचारित करेगी|

इस तरह हमारे द्वारा अपनाये गए खिचड़ी विकास मॉडल के फायदे ही फायदे होंगे, भले हम अपनी मूल संस्कृति, विकास का प्राचीन भारतीय मॉडल जिसकी बदौलत भारत दुनियां में सोने की चिड़िया हुआ करता था, को खो देंगे| जिसके लिए कभी विश्विद्यालयों में शोध होगा| कई लोग डाक्टर की उपाधियों से विभूषित भी हो जायेंगे| पर हमारा देश कभी सोने की चिड़िया बनेगा, का सपना भी नहीं ले पायेगा| यह बिंदु वामपंथी इतिहाकारों के लिए भी फायदे का सौदा साबित होगा, वे भारत कभी सोने की चिड़िया था ही नहीं, पर ढेरों किताबें लिखेंगे और शोध पत्र छापेंगे कि ये कोरी कल्पना थी कि भारत कभी सोने की चिड़िया भी था|



मरू -मान

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पील ,मीठी पीमस्यां
खोखा, सांगर, बेर |
मरु धरा सु जूझता
खींप झोझरू कैर ||

जूझ जूझ इण माटी में
बन ग्या कई झुंझार ।
सिर निचे दे सोवता
बिन खोल्यां तरवार ॥

ऊँचा रावला कोटड़याँ
सिरदारां की पोळ |
बैठ्या सामां गरजता
मिनखां की रमझोळ ॥

मरुधर का बे मानवी
कतरा करां बखाण
सर देवण रे साट में
नहीं जाबा दी आण ||

चाँदण उजली रातडली,
सोना जेड़ी रेत् |
सज्या -धज्या टीबड़ा,
ज्यूँ सामेळ जनेत ||

ऊँडो मरू को पाणी है,
उणसु ऊंडी सोच ।
साल्ल रात्यूं आपजी न
जायोडा री मोच ||

चीतल, तीतर, गोयरा
छतरी ताण्या मोर |
मोड्यां कुहकु -कुहकु बोलती
दिन उगता की ठोड़ ||

बे नाडयाँ बे खालडया
बे नदयां का तीर |
सुरग भलेही ना मिले,
बी माटी मिले शरीर ॥

लेखक : गजेन्द्रसिंह सिंह शेखावत

शोषक नहीं प्रजा पोषक थे राजा

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आजादी के बाद देश के सभी राजनैतिक दलों द्वारा सामंतवाद और देशी रियासतों के राजाओं को कोसना फैशन के समान रहा है| जिसे देखो मंच पर माइक हाथ में आते ही मुद्दे की बात छोड़ राजाओं को कोसने में थूक उछालकर अपने आपको गौरान्वित महसूस करता है| इस तरह नयी पीढ़ी के दिमाग में देशी राजाओं के प्रति इन दुष्प्रचारी नेताओं ने एक तरह की नफरत भर दी कि राजा शोषक थे, प्रजा के हितों की उन्हें कतई परवाह नहीं थी, वे अय्यास थे आदि आदि|
लेकिन क्या वाकई ऐसा था? या कांग्रेसी नेता राजाओं की जनता के मन बैठी लोकप्रियता के खौफ के मारे दुष्प्रचार कर उनका मात्र चरित्र हनन करते थे?
यदि राजा वाकई शोषक होते तो, वे जनता में इतने लोकप्रिय क्यों होते ? कांग्रेस को क्या जरुरत थी राजाओं को चुनाव लड़ने से रोकने की ? यह राजाओं की लोकप्रियता का डर ही था कि 1952 के पहले चुनावों में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने राजाओं को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए स्पष्ट चेतावनी वाला व्यक्तव्य दिया कि – यदि राजा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें अपने प्रिवीपर्स (हाथखर्च) और विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ेगा|

यह धमकी भरा व्यक्तव्य साफ़ करता है कि राजा जनमानस में लोकप्रिय थे और नेहरु को डर सता रहा था कि राजाओं के सामने उसे बुरी तरह हार का सामना करना पड़ेगा और हुआ भी यही| जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह जी ने उस चुनाव में राजस्थान के 35 स्थानों पर अपने समर्थित प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में उतारे जिनमें से 31 उम्मीदवार जीते| मारवाड़ संभाग में सिर्फ चार सीटों पर कांग्रेस जीत पाई| यह जोधपुर के महाराजा की लोकप्रियता व जनता से जुड़ाव का नतीजा ही था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास जो कथित रूप से जनप्रिय थे, जिनके नाम से आज भी जोधपुर में कई भवन, विश्वविद्यालय आदि कांग्रेस ने बनवाये, कांग्रेस की पूरी ताकत, राज्य के सभी प्रशासनिक संसाधन महाराजा के खिलाफ झोंकने के बावजूद सरदारपूरा विधानसभा क्षेत्र से बुरी तरह हारे| उस चुनाव में महाराजा के आगे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरुढ़ जयनारायण व्यास को मात्र 3159 मत मिले थे| यही नहीं व्यास जी ने डर के मारे आहोर विधानसभा क्षेत्र से भी चुनाव लड़ा, जहाँ महाराजा ने एक जागीरदार को उतारा, वहां भी व्यास जी नहीं जीत पाये| उसी वक्त लोकसभा चुनाव में भी महाराजा के आगे कांग्रेस को मात्र 38077 मत मिले जबकि महाराजा को 1,39,833 मत मिले|

उक्त चुनाव परिणाम साबित करते है कि देशी राजाओं व प्रजा के बीच कोई मतभेद नहीं था| झूंठे आरोपों के अनुरूप यदि राजा प्रजा के शोषक होते तो प्रजा के दिल में उनके प्रति इतना प्यार कदापि नहीं होता|

ऐसे में राजाओं के आलोचक एक बात कहकर अपने दिल को शांत कर सकते है कि राजाओं के पास साधन थे अत: वे चुनावों में भारी पड़े, लेकिन जो दल लोकप्रिय होता है और जनता जिसके पीछे होती है उसे चुनावों में साधनों की जरुरत नहीं होती| भैरोंसिंह जी के पास उस चुनाव में पैदल घुमने के अलावा कोई चारा नहीं था फिर भी वे बिना धन, बिना साधन विधानसभा में पहुंचे थे| केजरीवाल की पार्टी भी इसका ताजा उदाहरण है कि जनता जिसके पीछे हो उसे किसी साधन व धन की जरुरत नहीं पड़ती|

अत: साफ़ है कि राजाओं के खिलाफ शोषण का आरोप निराधार झूंठ है और मात्र उन्हें चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने का षड्यंत्र मात्र था|

नेहरु के उक्त धमकी भरे वक्तव्य का जबाब जोधपुर महाराजा ने निडरता से इस तरह दिया जो 7 दिसंबर,1951 के अंग्रेजी दैनिक “हिंदुस्तान-टाइम्स” में छपा –
“राजाओं के राजनीति में भाग लेने पर रोक टोक नहीं है| नरेशों को उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए हायतौबा करने की क्या जरुरत है? जब रियासतें ही भारत के मानचित्र से मिटा दी गई, तो थोथे विशेषाधिकार केवल बच्चों के खिलौनों सा दिखावा है| सामन्ती शासन का युग समाप्त हो जाने के बाद आज स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व नरेशों के सामने एक ही रास्ता है कि वे जनसाधारण की कोटि तक उठने की कोशिश करें| एक निरर्थक आभूषण के रूप में जीवन बिताने की अपेक्षा उनके लिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि राष्ट्र की जीवनधारा के साथ चलते हुए सच्चे अर्थ में जनसेवक और उसी आधार पर अपने बल की नींव डाले|
दिखने के यह विरोधाभास सा लग सकता है, लेकिन सत्य वास्तव में यही है कि क्या पुराने युग में और क्या वर्तमान जनतंत्र के युग में, सत्ता और शक्ति का आधार जनसाधारण ही रहा है| समय का तकाजा है कि राजा लोग ऊपर शान-बान की सूखी व निर्जीव खाल को हटायें और उसके स्थान पर जनता से सीधा सम्पर्क स्थापित करके मुर्दा खाल में प्राणों में संचार करें| उन्हें याद रखना चाहिए कि जनता में ही शक्ति का स्त्रोत निहित है, नेतृत्व और विशेषाधिकार जनता से ही प्राप्त हो सकते है| मैं अपने विषय में निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि मुझे जनसाधारण का जीवन बिताने में गर्व है|”

और अपने इस वक्तव्य में जोधपुर महाराजा ने जनता के सामने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी| वे चुनाव में उतरे, जनता को उन्होंने एक ही भरोसा दिलाया – “म्है थां सूं दूर नहीं हूँ” (मैं आप लोगों से दूर नहीं हूँ)|

इस नारे ने अपने लोकप्रिय राजा को जनता के और पास ला खड़ा किया और मारवाड़ में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ कर दिया| पर अफ़सोस चुनाव परिणाम आने से पहले ही महाराजा हनुवंत सिंह विमान दुर्घटना के शिकार हो गए और भ्रष्ट व छद्म व्यक्तित्त्व वाले नेताओं को चुनौती देने वाला नरपुंगव इस धरती से हमेशा के लिए विदा हो गया|




jodhpur Maharaja Hanuwant singh, maharaja hanuvant singh jodhpur,1952 election and maharaja hanuvant singh jodhpur

लोकतंत्र में रामराज्य दिवा-स्वप्न

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आज देश का हर नागरिक चाहता है कि देश में रामराज्य स्थापित हो। देश की सभी राजनैतिक पार्टियाँ भी हर चुनाव में जनता को रामराज्य स्थापित करने का स्वप्न दिखाती है। हर पार्टी रामराज्य स्थापित करने का वादा करती है। महात्मा गांधी ने तो आजादी के आन्दोलन में देश की जनता से रामराज्य स्थापित करने के नाम पर ही समर्थन जुटाया था। महात्मा गांधी की हर सभा व हर काम राम के नाम से शुरू होता था। गांधी का भजन रघुपति राघव राजा राम आज भी जन जन की जुबान पर है। जनता द्वारा रामराज्य की कामना और नेताओं द्वारा रामराज्य स्थापित करने की बात करने से साफ है कि शासन पद्धतियों में रामराज्य सर्वश्रेष्ठ थी और आज भी है। एक ऐसी राजतंत्र शासन पद्धति जिसमें जनता को सभी लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त हो, जनता का राजा से सीधा संवाद हो, जातिगत व्यवस्था होने के बावजूद कोई जातिगत भेदभाव नहीं हो, सभी के मूलभूत अधिकारों व सुरक्षा के लिए राजा व्यक्तिगत रूप से प्रतिबद्ध हो, राज्य के संसाधनों पर सभी नागरिकों का समान अधिकार हो, श्रेष्ठ होगी ही। रामराज्य में ये सब गुण थे, तभी तो आज लोग रामराज्य का स्वप्न देखते है।

लेकिन क्या वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में रामराज्य की स्थापना संभव है? शायद नहीं ! क्योंकि रामराज्य के लिए सबसे पहले देश में एक क्षत्रिय राजा का होना अनिवार्य है, जो वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं है। आज देश में संसदीय शासन प्रणाली है जिसमें प्रधानमंत्री सर्वेसर्वा होता है। प्रधानमंत्री से ऊपर राष्ट्रपति होता है पर असली शासनाधिकार प्रधानमंत्री के पास होते है, राष्ट्रपति के पास नहीं। अतः सीमित अधिकारों वाले राष्ट्राध्यक्ष को राजा की संज्ञा नहीं दी जा सकती। शासन के अधिकार प्रधानमंत्री के पास होते है। जनता पांच वर्ष के लिए शासन करने हेतु प्रधानमंत्री को सत्ता सौंपती है। लेकिन वह भी प्रधान मंत्री ही होता है, राजा नहीं। जब जिस देश में राजा ही नहीं, उसमें रामराज्य कैसे स्थापित हो सकता है? जबकि हमारे वेदों में भी लिखा है कि आदर्श शासन व्यवस्था एक क्षत्रिय राजा ही दे सकता है। योगीराज अरविन्द ने कहा है कि जिस देश में क्षत्रिय राजा नहीं, ब्राह्मणों को उस देश का त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि क्षत्रियविहीन राजा के बिना सुशासन स्थापित नहीं हो सकता। विश्व में राजनीति के अबतक सबसे प्रसिद्ध आचार्य चाणक्य ने भी लिखा है कि जिस देश का राजा क्षत्रिय नहीं हो, उस राजा के खिलाफ क्षत्रियों को बगावत कर राजा को बंदी बना लेना चाहिए। इससे साफ जाहिर है कि एक क्षत्रिय राजा ही सुशासन दे सकता है। प्रजा का भला क्षत्रिय राजा के राज में ही संभव है, क्योंकि राम क्षत्रियों के पूर्वज व आदर्श है, सो कोई भी क्षत्रिय राजा कैसा भी हो अपने पूर्वज व आदर्श राम का कुछ तो अनुसरण करेगा ही, और उसके द्वारा थोड़ा सा ही अनुसरण करना सीधा जनहित में होगा।

लेकिन आज देश में उपस्थिति सभी राजनैतिक दल व उनके नेता रामराज्य देने की कल्पना तो करते है, स्वप्न भी दिखाते है, लेकिन राम का अनुसरण करने के बजाय रावण का अनुसरण ज्यादा करते है। हाँ ! राम के नाम पर या राम नाम की खिलाफत कर कई राजनीतिक दल जनता की भावनाओं का दोहन कर वोट प्राप्त करने के लिए राजनीति करते है। देश में ऐसा समय भी आया है, जब राम का नाम लेकर नेता सत्ता की सीढियों पर चढ़ गए, लेकिन राम को भूल गए। मेरा मतलब राममंदिर निर्माण से नहीं, राम का अनुसरण करने से है। महात्मा गांधी ने राम का नाम लेकर लोगों को खुद से जोड़ा। आजादी के बाद लोकतांत्रिक रामराज्य का सपना दिखाया। लेकिन आजादी के बाद उन्हीं की पार्टी ने राम व उनकी शासन व्यवस्था का अनुसरण कर जनता को सुशासन देने की बात करना तो दूर, राम नाम लेने वालों को ही साम्प्रदायिक घोषित कर दिया। अदालत में लिखित हलफनामा देकर राम के अस्तित्व को ही नकार दिया। ऐसे दलों से रामराज्य स्थापना की उम्मीद कैसे की जा सकती है? आज ज्यादातर राजनैतिक दलों में तथाकथित बुद्धिजीवी धर्म के ठेकेदारों का वर्चस्व है, जिन्होंने सदियों से राम के नाम पर अपना जीवनयापन किया, अपनी धर्म की दूकान चलाई। आज वे रावण को महिमामंडित करने में लगे है। जिस उद्दण्ड परसुराम को राम ने सबक सीखा कर उसकी उद्दंडता पर अंकुश लगाया और जनता के मन में बैठे उसके आतंक का अंत किया, जो अपनी माँ की हत्या का अपराधी है, उसे भगवान के रूप में महिमामंडित किया जा रहा है। आचार्य द्रोण जैसे श्रेष्ठ योद्धा को छोड़ अश्व्थामा जैसे अनैतिक व्यक्ति का महिमामंडन किया जा रहा है। आज ऐसे लोगों की जयन्तियां मनाई जा रही है। ऐसे माहौल में रामराज्य की कल्पना भी कैसे की जा सकती है?

बाल्मीकि द्वारा लिखी रामायण के बाद धर्म के ठेकेदारों ने अपने हिसाब से कई तरह से रामायण लिखी। बाल्मीकि का लिखा गायब किया गया और नई कहानियां जोड़ी गई। रावण जो आतंक का पर्याय था, को महिमामंडित करने के लिए उसे उस वक्त का सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी व ज्ञानवान पंडित बताया गया। इनकी लेखनी का कमाल देखिये एक तरफ रावण को व्याभिचारी, आतंकी, राक्षक, लम्पट, कपटी, क्रूर, स्वेच्छाचारी, अनैतिक लिखा गया वहीं दूसरी और उसे शास्त्रों का ज्ञाता, ज्ञानवान, धर्म का मर्म समझने वाला लिखकर महिमामंडित करने की कोशिश की गई। आप ही सोचिये कोई व्यक्ति धर्म, शास्त्र आदि का ज्ञानी हो, वो ऐसा क्रूर आतंकी हो सकता है? जिसकी क्रूरता के चलते आज भी उसके पुरे खानदान को राक्षक कुल समझा जाता हो और उसे बुराई का प्रतीक। जबकि उसके कुल में विभीषण जैसा ज्ञानी और धर्मज्ञ उसका भाई था, जाहिर करता है कि रावण का खानदान राक्षक नहीं, मानव ही था, लेकिन उसकी क्रूरता ने उसे राक्षक का दर्जा दिया। ऐसे ऐसे अनैतिक लोगों का आज महिमामंडन हो रहा है, उनकी जयन्तियां मनाई जा रही है, जो भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को उनका ही अनुसरण करने की प्रेरणा देगी। जब लम्पट, क्रूर, आतंकी, उद्दण्ड, माँ के हत्यारे आने पीढ़ियों के आदर्श होंगे व उनका अनुसरण होगा, उस हाल में रामराज्य की कल्पना कैसे की जा सकती है?

आज राजनैतिक दल एक तरफ धर्मयुक्त रामराज्य की स्थापना का स्वप्न दिखाते है, दूसरी और धर्म को अफीम का नशा बताकर, या धार्मिक व्यक्ति को साम्प्रदायिक बताकर, या धर्म व जाति के आधार पर जनता को बांटकर उनके वोटों से सत्ता प्राप्त करना चाहते है, तब रामराज्य तो कतई स्थापित नहीं हो सकता। रावण राज्य जरुर स्थापित हो जायेगा। देश की शासन व्यवस्था का वर्तमान माहौल देखने पर रावण राज्य की झलक अवश्य दिखाई पड़ रही है। सरेआम बच्चियों के साथ बलात्कार, आतंकी घटनाएं, चोरियां, डाके, भ्रष्टाचार, व्याभिचार, अनैतिकता, गरीब का शोषण, जातिय उत्पीड़न, धार्मिक दंगे, बेकाबू महंगाई, नेताओं द्वारा देश की संपदा लूट कर विदेशों में ले जाना, चरित्रहीन व भ्रष्ट नेताओं का नेतृत्व रावण राज्य की, क्या झलक नहीं दिखाते?



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सरकारी योजनाओं की आड़ में वामपंथी चंदा

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आज से डेढ़ दो साल पहले फोन पर पता चला कि गांव में लड़कियों के लिए फॉर्म भरे जा रहे है, जिनके आधार पर लड़की को विवाह के समय पचास हजार रूपये मिलेंगे| ये फॉर्म भरते समय किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि ये फॉर्म किस योजना व किस विभाग में जमा कराया जा रहा है| ना भरवाने वालों ने बताने का कष्ट किया| बस आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के मार्फत दलाल सक्रीय हो गए और तीन सौ रूपये प्रति फॉर्म लेकर सम्बंधित विभाग में जमा करा दिए गए| गांव यात्रा पर जब लोगों से जानकारी ली तो पता ही नहीं चला कि कौनसे विभाग की क्या योजना थी|
हाँ ! उस वक्त गांव प्रवास पर मेरी पुत्री ने यह जरुर बताया कि - "उसने किसी का फॉर्म पढ़ा तो वो श्रमिकों के लिए था, हो सकता है गरीब श्रमिकों की बेटियों की शादी पर आर्थिक सहायता दी जावे|"

अभी इसी हफ्ते गांव यात्रा के दौरान पता चला कि उन फॉर्म की अब डायरियां (पासबूक्स) आई है और एक वर्ष पूरा हो चूका है अत: उनका नवीनीकरण होना है| मैंने एक आवेदक की डायरी देखी तब पता चला कि वे पासबुक्स "श्रम विभाग एवं भवन व अन्य संनिर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड" द्वारा जारी की गई थी| पासबुक पर सीकर कार्यालय का कोई पता नहीं था, हाँ जयपुर मुख्यालय का पता जरुर लिखा था, साथ ही पासबुक में वामपंथी श्रमिक संगठन "सीटू" का लाल स्टीकर लगा था| नवीनीकरण के इच्छुक एक आवेदक को साथ लेकर मैं शहर गया, उससे पहले गांव में कार्यालय का पता पूछा तो सबने कहा- कोर्ट के सामने मिलन रेस्टोरेंट वाली गली है| यानी जिसने भी बताया उसने माकपा कार्यालय के बारे में बताया|

माकपा (CPM)कार्यालय में जाकर पूछा तो किसी ने बताया कि डायरियां बनने का काम बेसमेंट में होता है, मुझे भी आश्चर्य हो रहा था कि सरकारी काम किसी राजनैतिक पार्टी के दफ्तर में कैसे ही रहा है ? बेसमेंट में काफी भीड़ थी, सीटू का बैनर लगा था, दो कार्यकर्त्ता लोगों को फॉर्म भरवाने में सहायता कर रहे थे, तीसरा रसीद बुक लेकर प्रत्येक फॉर्म की 120 रूपये की सीटू की रसीद काट रहा था| मुझे भी बताया गया कि फॉर्म भरकर ये रसीद कटवा लें, फिर एक ऑफिस का पता बताएँगे जहाँ जाकर फॉर्म जमा करवा दें| जिनकी रसीद कट चुकी थी, उन्हें रसीद काट कर रूपये उगाहने वाला बता रहा था कि ये रसीद जेब में रखे और फलां पते पर जाकर दुसरे कार्यालय में फॉर्म जमा करवा दें, वहां भी 60 रूपये की एक और रसीद कटेगी|

इस कार्य में माकपा कार्यकर्त्ता अनपढ़ श्रमिकों को फॉर्म भरवाने की सहायता का एक तरफ सराहनीय कार्य कर रहे थे दूसरी और उसी कार्य के बदले एक गरीब, अनपढ़ श्रमिक जो उन्हें वोट भी देता है, बेचारे से मुफ्त में 120 रूपये वसूल कर उसकी गरीब जेब पर आर्थिक बोझ डालकर एक घ्रणित कार्य भी कर रहे थे| और बेचारा गरीब श्रमिक उनके द्वारा वसूला गए धन को सरकारी योजना में अपने नवीनीकरण की एक साधारण प्रक्रिया समझ रहा था और कोमरेडों का मन से शुक्रिया भी अदा कर रहा था कि उनकी वजह से उसे आर्थिक सहायता मिल जायेगी|

इस तरह सीकर जिले में वामपंथी कार्यकर्त्ता सरकारी योजनाओं की आड़ में अपने श्रमिक संगठन की सदस्यता बढाने व चंदा एकत्र करने के घिनौने कार्य में सलंग्न है| हालाँकि किसी भी पार्टी द्वारा चंदा एकत्र करना या सदस्य बनाना गलत नहीं है लेकिन मैंने जो देखा उससे लगा कि जिसे सदस्य बना उसकी सदस्यता की फीस की रसीद काटी जा रही थी, उसे पता ही नहीं कि ये वामपंथी अपने लिए ले रहे है, यदि उसे पता चल जावे तो वो उनकी और झांके तक नहीं|

और हाँ इस तरह की शानदार सरकारी योजनाओं को जरुरतमंदों तक पहुंचाने में कांग्रेस, भाजपा (BJP)कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता देख मन में बड़ा दुःख हुआ, जबकि इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं का भी कर्तव्य बनता है कि इस तरह की योजनाओं का जरुरतमंदों को लाभ दिलावे, उनकी आवेदन फॉर्म भरने में सहायता कर वे अपने पार्टी का जनधार भी बढ़ा सकते है लेकिन अफ़सोस इस मामले में वे वामपंथी कार्यकर्ताओं से बहुत पीछे है और यही कारण है कि वामपंथी विधायकों को भाजपा बिना मोदी लहर के आजतक हरा नहीं पाई|

गादड़ी गारंटी और काला धन

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लोकसभा चुनाव पूर्व बाबा रामदेव देशभर में काले धन को वापस लाने के लिए अभियान चलाये हुए थे और वे दावा कर रहे थे कि मोदी जी प्रधानमंत्री बने और भाजपा का राज आया तो सौ दिन में काला धन विदेशी बैंकों से वापस लाया जायेगा| देशी भाषा में कहूँ तो बाबा विदेशी बैंकों में जमा भारतियों का काला धन सौ दिनों में वापस लाने की गारंटी दे रहे थे| लेकिन ख़बरें पढने को मिल रही है कि भाजपा की मोदी सरकार ने घोषणा की है कि सरकार काला धन विदेशों में जमा कराने बालों के नाम बताने नहीं जा रही| यानी सरकार काला धन वापस लाना तो दूर काला धन जमा करने वालों के नामों का खुलासा भी नहीं करना चाहती| इससे साफ़ जाहिर है कि बाबा की गारंटी के साथ केंद्र में बनी कथित राष्ट्रवादी सरकार ने भी सरकार बनाते ही सौ दिन में जो काला धन वापस लाने का वचन दिया था उससे पल्टी मार गई और जनता को दिया वचन भंग कर दिया|

इस प्रकरण को देखते हुए एक लोक कहानी याद आ गई जो बचपन से सुनते आ रहे है कि एक गीदड़ ने गीदड़ी को शहर घुमाने की झूंठी गारंटी दी और गारंटी फ़ैल हो गई| इस कहानी के साथ साथ गांवों में जब भी कोई गारंटी देने की बात करता है तो लोग मजाक में कह देते कि भाई ये तेरी गारंटी "गादड़ी गारंटी" तो साबित नहीं होगी| कहानी के अनुसार एक गीदड़ अपनी गीदड़ी के पास अक्सर डींगे हांकता कि वह शहर में जाकर नित्य फिल्म देखता है और अच्छे अच्छे पकवान खाता है, बेचारी गीदड़ी समझाती कि शहर की और मत जाया करो, शहर के कुत्ते कभी मार डालेंगे| तब गीदड़ उसे एक कागज का टुकड़ा दिखाते हुए कहता कि उसके पास गारंटी पत्र है सो कोई कुत्ता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता|

गारंटी देख गीदड़ी आश्वस्त हो गई और एक दिन गीदड़ से जिद करने लगी कि उसे भी शहर घुमाने ले चले| अब गीदड़ फंस गया पर करता क्या? सो बेमन से गीदड़ी को लेकर शहर की और चल पड़ा| दोनों शहर के पास पहुंचे ही थे कि कुत्तों को भनक गई और वे उन्हें पकड़ने को पीछे भागे| कुतों के झुण्ड को अपनी और आते देख गीदड़ जंगल की और बचने भागा तो गीदड़ी ने कहा - इनको गारंटी दिखाओं ना !
गीदड़ बोला - भाग लें ! ये कुत्ते अनपढ़ है सो गारंटी में नहीं समझते |
इस तरह गीदड़ द्वारा गारंटी को लेकर हांकी गई डींग की पोल खुल गई |

बाबा भी काले धन को लेकर जिस तरह देशवासियों को गारंटी देते घूम रहे थे, वो भी ठीक वैसे ही डींग साबित हुई जैसे गीदड़ वाली गारंटी साबित हुई थी| अत: बाबा रामदेव की गारंटी को भी "गादड़ी गारंटी" की संज्ञा दी जाए तो कोई गलत नहीं|
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