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राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार, इतिहासकार ठाकुर सौभाग्य सिंह शेखावत

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राजस्थानी भाषा साहित्य और इतिहास के उन्नयन के लिए राजस्थान और राजपूत समाज अपने जिन साहित्य व इतिहास साधक सपूतों पर गर्व कर सकता है, उनमें सौभाग्यसिंह शेखावत का विशिष्ट स्थान है| आपने अनवरत जीवनभर राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति और इतिहास की मनोयोगपूर्वक मौन साधना की है| राजस्थान के पर्वतों, वनों, दुर्गों और झोंपड़ीयों के प्राकृतिक तथा ऐतिहासिक गौरव स्थानों ने शेखावत को राजस्थानी साहित्य और इतिहास का प्रेमी बनाया है|

सौभाग्यसिंह शेखावत का जन्म कछवाहा राजवंश की शेखावत शाखा की गिरधरदासोत खांप के ठाकुर कालूसिंहए भगतपुरा (खूड) के जागीरदार के यहाँ 22 जुलाई 1924 को हुआ| शेखावत का अध्ययन देशभक्त जमनालाल बजाज द्वारा अपनी जन्मभूमि काशीकाबास में स्थापित विद्यालय व सर माधव विद्यालयए सीकर में हुआ| सेठ जमनालाल बजाज की ठाकुर कालूसिंह जी से घनिष्ठता थी| बजाज की प्रेरणा से सौभाग्यसिंह ने माध्यमिक विद्यालय, लोसल में अध्यापन कार्य स्वीकार किया और वहीं नियमित रूप से साहित्य व इतिहास का अध्ययन जारी रखा| किन्तु वहां के सीमित क्षेत्र में आपका मन नहीं लगा| उन्हीं दिनों शेखावत क्षत्रिय युवक संघ के अध्यक्ष चुन लिये गये और जयपुर में राजपूत छात्रावास के व्यवस्थापक का कार्यभार संभाला| अपने जयपुर के दो वर्षों के कार्यकाल में आपने जयपुर राज्य के ठिकानों के पोथीखानों में रक्षित हस्तलिखित सामग्री का अवलोकन मनन किया|

तदन्तर आप क्षत्रिय समाज के प्रबल सुधारक, समाजसेवी ठाकुर मंगलसिंह, खूड की प्रेरणा से राजस्थान क्षत्रिय महासभा की ओर से संचालित क्षत्रिय स्वयं सैनिक संघ के संगठन कार्य में जुट गये| शिक्षा प्रचार, सामाजिक कुरीतियों का त्याग, बाढ़ पीड़ितों की सहायता, गौवंश पालन, भारतीय धर्म तथा संस्कृति का अनुवर्तन प्रचार और क्षत्रिय समाज का संगठन कार्य बड़ी निष्ठा के साथ किया| इस संगठन की सफलता के उद्देश्य से शेखावत को राजस्थान के नगरों, ग्रामों, उपग्रामों, झोंपड़ीयों और राजमहलों के द्वार द्वार तक भ्रमण करना पड़ा| फलतर: आपको राजस्थान के कीर्तिस्थलों, वीर स्मारकों, सती मंदिरों, लोक तीर्थों, साधना पीठों के दर्शनों का अलभ्य लाभ प्राप्त हुआ तथा प्राचीन काव्य के श्रवण, हस्तलेखों के पठन और दर्शन का सौभाग्य मिला| राजस्थान के अतीत कालीन गौरव से प्रभाव ग्रहण कर शेखावत ने अनेक दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक पत्रों में निबंध, कविताएँ और कहानियां छपवाई| आपने राजस्थानी संस्कृति संस्थान की स्थापना की और राजस्थान की लोकाराध्या देवी जीणमाता, राजऋषि मदनसिंह दांता, कुंवर रघुवीरसिंह जावली का जीवन वृत्त आदि पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की| सन 1957 में आपने साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर को अपनी सेवाएँ अर्पित की और राजस्थानी बातें भाग 3,4,5 और 7 का संपादन किया| राजस्थानी पडूतर पुस्तक की भूमिका में राजस्थानी साहित्य के मर्मी विद्वान रावत सारस्वत ने शेखावत के प्रति जो शब्द लिखें है, वे उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को चित्रात्मकता प्रदान करते है| शेखावत ने राजस्थानी गद्य में भी पर्याप्त लेख और कहानियां लिखी है जो मरुवाणी, संघशक्ति और संघर्ष पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित हुई|
राजस्थानी भाषा में राजस्थान का स्थानीय वातावरण और अभिवक्ति सार्थकता सौभाग्यसिंह की भाषा का विशेष गुण है| साहित्य संस्थान, उदयपुर के अपने कार्यकाल में सौभाग्यसिंह ने "ह्वाट विलास" चम्पूकाव्य का भी संपादन किया| आप संस्थान की "शोध पत्रिका" नामक त्रैमासिक पत्र के भी दो वर्ष तक सहयोगी संपादक रहे और कोई एक सौ से अधिक निबंध छपवाये| शेखावत के शोध निबंधों की सराहना अनेक विद्वानों व इतिहासकारों ने की है| शेखावत के निबंध जहाँ गहरी पैठ और नवीन ज्ञातव्यों से परिपूर्ण होते है, तथा वहां श्रम चोर लेखकों द्वारा प्रचारित भ्रांतियों के निराकरण में भी पूर्ण सक्षम होते है|

लेखक : डा.कल्याण सिंह शेखावत, जोधपुर

सौभाग्यसिंह जी शेखावत ने राजस्थानी साहित्य, इतिहास की सैकड़ों पुस्तकें लिखी है वहीं सैंकड़ों पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखी है| शेखावत राजस्थान की डिंगल पिंगल भाषा के गिने चुने विद्वानों में से एक है| असंख्य इतिहास शोधार्थी आपके पास डिंगल गीतों का अनुवाद करवाने व समझने के लिए आते रहे है| देश से ही नहीं विदेशी शोधार्थी भी अपनी शोध हेतु विभिन्न जानकारियां व मार्गदर्शन हेतु आपके पास आते रहे है| राजस्थान का ज्यादातर इतिहास चारण कवियों ने डिंगल भाषा में लिखा है अतर: इतिहास शोधार्थी डिंगल के अनुवाद हेतु आप पर काफी हद तक निर्भर रहते आये है| आपको शिलालेखों की प्राचीन भाषा को पढने में भी विशेषज्ञता हासिल है आपने अपने जीवन सैंकड़ों शिलालेख पढ़कर इतिहास शोधार्थियों के लिए शोध सामग्री उपलब्ध कराई है|

शेखावत ने साहित्य, इतिहास लेखन व समाजसेवा के साथ राजनीति में भी सक्रीय भूमिका निभाई है| राजस्थान विधानसभा के 1952 के चुनावों में आप दांता-रामगढ विधानसभा क्षेत्र से राम राज्य परिषद के उम्मीदवार थे और आपके सामने आपके ही मित्र पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरोंसिंह शेखावत जनसंघ के उम्मीदवार थे| इस चुनाव में आपका नामांकन पत्र रद्द हो गया तब आपने अपने मित्र भैरोंसिंह शेखावत के चुनाव-प्रचार की बागडोर संभाली और उन्हें विजय दिलाई| ज्ञात हो भैरोंसिंह शेखावत का भी वह पहला चुनाव था और उन्होंने सौभाग्यसिंह शेखावत के साथ ऊंट पर सवारी कर पुरे क्षेत्र में चुनाव प्रचार किया था|

आप चौपासनी शोध संस्थान के निदेशक सहित राजस्थानी भाषाए साहित्य और संस्कृति अकादमी के अध्यक्ष भी रहे है| अकादमी की अध्यक्षता के आपके कार्यकाल में अकादमी में कार्यों को आज भी राजस्थान के साहित्यकार याद करते है| भैरोंसिंह शेखावत जब देश के उपराष्ट्रपति बने तब वे आपको दिल्ली ले आये ताकि आप उपराष्ट्रपति आवास में रहते हुये इतिहास लेखन व साहित्य साधना कर सकें| वर्तमान में आप बढ़ी उम्र के चलते लिखनेए पढने, सुनने में असमर्थ है फिर भी साहित्यिक चर्चा शुरू होते ही आप अपना स्वास्थ्य भूल साहित्यिक चर्चा में मशगूल हो जाते है|
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नकली बूंदी

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केवल बीस पच्चीस घुड़सवारों को लेकर महाराणा लाखा ‘‘बूंदी’’ फतह करने को चल पड़े। सूरजपोल से निकल कर उन्होंने बूंदी पर आक्रमण कर दिया। चित्तौड़ दुर्ग की दुन्दुभियों ने विजयराग अलापा। नौबत पर विजयाभियान का डंका पड़ा और नकीबों ने चित्तौड़पति के जयघोष से आकाश गूंजा दिया।

“हर-हर महादेव” के कुल-घोष के साथ ही घोड़ों के ऐड लगा दी। टापों की रगड़ से उत्पन्न काली मिट्टी का बादल पीछे और घोड़े आगे दौड़े जा रहे थे। बाल रवि की चमकीली किरणों ने उज्ज्वल तलवारों को और भी अधिक चमका दिया। अब केवल दो सौ हाथ दूर बूंदी रह गई थी। एक, दो और तीन ही क्षण में मिट्टी की बूंदी मिट्टी में मिलाई जाने वाली थी।

‘सप’ करता हुआ एक तीर आया और महाराणा के घोड़े के ललाट में घुस गया। धवल ललाट से रक्त की पिचकारी छूट पड़ी। घोड़ा चक्कर खाकर वहीं गिर गया। महाराणा कूद कर एक ओर जा खड़े हुए। दूसरा तीर आया और एक सैनिक की छाती में घुस गया।

सैनिक वहीं गिरकर ढेर हो गया। सब घोड़े वहीं रोक दिए गए।

“हैं ! यह क्या ? ये तीर कहाँ से आ रहे हैं ? यहाँ कौन अपने शत्रु हैं ?’ महाराणा ने सम्हलते हुए पूछा। यह तीर तो बूंदी में से आ रहे हैं। एक सरदार ने शीघ्रतापूर्वक घोड़े से उतरते हुए कहा।

“बूंदी’ में से कौन तीर चला रहा है ? जाकर पता लगाओ।“ और एक सरदार घोड़े से उतरा और बूंदी की ओर चला पता लगाने के लिए, महाराणा का दूत बनकर। उसने जाकर देखा- एक युवक अपने साथियों सहित मोर्चा बाँधे खड़ा था। वह शास्त्रास्त्रों से सुसज्जित था और हवा में उड़ रहे केसरिया वस्त्र के पल्ले को धनुष पर चढ़ाए हुए तीर की पंखुड़ियों में से निकाल रहा था।
“हैं ! कुम्भाजी तुम ! यहाँ किसलिए आए?
“बूंदी की रक्षा करने के लिए।’’
“क्या ये तीर तुमने चलाए थे?’
“हाँ”
‘‘मेवाड़ का छत्र भंग करना चाहते थे ?’’
‘‘छत्र भंग करना नहीं चाहता था इसीलिए घोडे के ललाट में तीर मारा।’’
“चलो महाराणा साहब के पास ।’
“महाराणा साहब से निवेदन करो कि बूंदी विजय का विचार त्याग दें तो हाजिर होऊँ ।’’

तुम्हें मालूम है, महाराणा साहब ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक बूंदी विजय नहीं कर लूंगा तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। बूंदी यहाँ से दूर भी है और उसको सरलता से विजय भी नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर महाराणा के दृढ़-प्रण और अमूल्य प्राणों की रक्षा भी अत्यावश्यक है। इसीलिए यह नकली बूंदी बनाई गई है। इसको विजय कर महाराणा अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर अन्न-जल ग्रहण कर लेंगे। असली बूंदी फिर धीरे-धीरे तैयारी करके विजय करली जाएगी। इसीलिए तुम यहाँ से हट जाओ और महाराणा साहब को अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने दो।’
“मेरे लिए तो यह असली बूंदी से भी बढ़कर है। महाराणा साहब से निवेदन कर दो कि पाँच हाड़ों के मरने के उपरान्त ही इस ‘‘बूंदी’’ को विजय कर सकोगे।”

“कुम्भाजी ! अन्तिम निर्णय करने के पहले और सोच लो।’
और सरदार ने आकर सब वृत्तान्त महाराणा साहब से कह दिया।
“यह कुम्भा हाडा कौन है ?” महाराणा ने आश्चर्य से पूछा।
“अन्नदाता ! अपनी सेना में कुछ समय पहले कुछ हाडा आकर भर्ती हुए थे, कुम्भा उन्हीं हाडों का नायक है।‘‘
‘‘यह मेरा चाकर है ?‘‘
“हाँ अन्नदाता।’’

महाराणा ने वहीं से उच्च स्वर में कहा-कुम्भाजी ! मैं तुम्हारी वीरता और मातृभूमि के प्रेम से बहुत प्रसन्न हूँ और पाँच घोड़ों की जागीर देता हूँ। तुम शीघ्र बाहर निकल आओ और मुझे अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लेने दो।’
“यदि कोई दूसरा अवसर होता तो अन्नदाता की आज्ञा को सिर पर उठाता पर इस समय विवश हूँ।’
“तुम्हें मालूम है, यह मेरी प्रतिज्ञा का प्रश्न है।’
‘‘अन्नदाता ! यह हाडों की प्रतिष्ठा का प्रश्न है।’’
“पर यह तो नकली बूंदी है। मैं जब असली बूंदी विजय करने आऊँ तब देखँगा तुम्हारी प्रतिष्ठा।’’
“अन्नदाता ! जो नकली बूंदी के लिए नहीं मर सकता। वह असली बूंदी के लिए भी नहीं मर सकता। अन्नदाता जब असली बूंदी विजय करने पधारेंगे तब वहाँ अपनी प्रतिष्ठा रखने वाले और कई हाडा मिल जाएँगे।
‘‘कुम्भाजी, तुम नमकहरामी कर रहे हो।’’
‘‘अन्नदाता का नमक खाया है इसलिए अन्नदाता इस सिर के मालिक हैं, इज्जत के नहीं। यह प्रश्न केवल मेरी इज्जत का नहीं, हाडा वंश की इज्जत का है, इसलिए अन्नदाता मुझे क्षमा करेंगे।’

महाराणा ने सरोष नेत्रों से अपने सैनिकों की ओर देखा और वे दूसरे घोड़े पर सवार हो गए। मिट्टी की बूंदी पर वे आक्रमण करना ही चाहते थे कि कुम्भा ने पुकारा- अन्नदाता, ठहरिए ! आप कम सैनिकों के साथ आए हैं इसलिए कदाचित इस बूंदी को भी विजय नहीं कर सकेंगे। एक प्रतिज्ञा पूरी न होने पर दूसरी प्रतिज्ञा करने का अवसर कहीं न आ जाय इसलिए आप किले में से कुमुक और सैनिक मंगा लीजिये। बूंदी की भूमि इतनी निर्बल नहीं है जो आसानी से विजय की जा सके।’’
महाराणा वहीं ठहर गए।

चित्तौड़ दुर्ग के कंगूरों पर से लोग नकली बूंदी विजय देख रहे थे। उन्होंने देखा- एक घुड़सवार घोड़ा दौड़ाता हुआ दुर्ग की ओर जा रहा था। सब लोग आश्चर्यचकित थे।

एक घड़ी बाद लोगों ने फिर देखा- सैकड़ों घोड़े और हाथी सजधज कर नकली बूंदी की ओर जा रहे थे। नकली बूंदी से कुछ ही दूर एक पूरी सेना एकत्रित हो गई थी। उस सेना ने नकली बूंदी का घेरा दिया। फिर हाथियों को बूंदी विध्वंस करने के लिए छोड़ा। पीछे से घुड़सवारों ने आक्रमण किया। ‘हर-हर महादेव’ का जयघोष चित्तौड़ दुर्ग तक सुनाई दे रहा था। लोग अब भी आश्चर्यचकित थे- नकली बूंदी में यह लड़ाई कैसी ? कोई उसे वास्वतिक युद्ध समझ रहा था और कोई युद्ध का केवल अभिनय।
घड़ी भर घमासान संग्राम हुआ। अन्त में महाराणा की प्रतिज्ञा और हाड़ों की प्रतिष्ठा की रक्षा हुईय पर कुम्भा और उसके साथी तिल-तिल कट कर गिर चुके थे।

लेखक : स्व. आयुवान सिंह शेखावत


क्षमा दान : पृथ्वीराज द्वारा गौरी को माफ़ी का वर्णन

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कीर्ति-स्तम्भ (कुतुबमीनार) के ठीक सामने जहाँ आजकल दर्शकों के विश्राम के लिये हरी दूब की क्यारियाँ बनी हुई हैं, वहाँ आज से लगभग पौन आठ सौ वर्ष पहले तक सुन्दर संगमरमर का छोटा सा मन्दिर बना हुआ था। उस मन्दिर के निर्माण का इतिहास भी बड़ा मनोरंजक और विचित्र है।
दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के कुछ ही समय पश्चात् सम्राट पृथ्वीराज बसन्त के एक सुनहले प्रभात में कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे थे। वे घोड़े पर चढ़ने ही वाले थे कि उन्होंनें एक तान्त्रिक को अपनी ओर तेजी से आते देखा। विचित्र आकृति, विचित्र वेश-भूषा, विचित्र स्वभाव और विचित्र उपहार सहित वह सम्राट के सामने उपस्थित हुआ बगल में लटकती हुई लम्बी झोली में से उसने एक कांस्य-प्रतिमा निकाली और उसे सम्राट के हाथ में देते हुए कहने लगा -

“यह तन्त्रोक्त मन्त्रों द्वारा प्राण-प्रतिष्ठित तुम्हारी कुल-देवी की प्रतिमा है। यह तुम्हारे भावी मंगल और अमंगल की सूचना देती रहेगी; तुम्हारा पथ निर्देशन करती रहेगी प्रत्येक बड़े कार्य के पहले और पश्चात् इसके दर्शन कर लिया करो।’’

इतना कह कर वह लौट पड़ा। न अभिवादन स्वीकार किया, न इधर-उधर कुछ देखा और न किसी से कुछ बोला ही। सब लोग मंत्रमुग्ध से खड़े-खड़े देखते रहे। न किसी का कुछ पूछने का साहस हुआ और न किसी से उसे रोकने का ही प्रयत्न किया। सम्राट स्वयं ने जब तक अपने व्यवहार को निश्चित किया तब तक वह दुर्ग की सीमा से बाहर निकल कर यमुना के वन में अंतरध्यान हो चुका था। उसे देखा सभी ने पर खोजने पर वह मिला किसी को भी नहीं। सम्राट पृथ्वीराज ने संगमरमर का एक छोटा सा मन्दिर बनवाया और उसमें उस प्रतिमा की स्थापना कर दी| वही मन्दिर आज से लगभग पौने आठ सौ वर्ष पहले कुतुबमीनार के सामने वाले दूब के मैदान पर बन चुका था। सम्राट पृथ्वीराज प्रत्येक महान् कार्य के पहले उसी कांस्य-प्रतिमा से मौन आदेश प्राप्त करते थे। प्रत्येक युद्धाभियान के पहले और बाद में उस मूर्ति की भावभंगी से शकुन देख कर आगे का कार्य निश्चित करते थे। आबू, अन्हिलवाड़ा, महोबा, कन्नौज, तराइन आदि के युद्धों के लिये प्रयाण करते समय जब वे प्रतिमा-दर्शन को उपस्थित हुए तब उन्होंने प्रतिमा के मुख पर लालिमामिश्रित मुस्कान का भाव परिलक्षित किया। विजयोपरान्त वही भावभंगी शान्त, स्नेहमयी सौम्याकृति के रूप में दिखाई पड़ती।

तराई के दूसरे युद्ध के उपरान्त विजयलाभ करके वे जब लौटे तब न मालूम क्यों उन्हें मूर्ति की भावभंगी कुछ खिन्न और उदास सी जान पड़ी इसलिए उस दिन जब वे मन्त्रणा-कक्ष में आए तो कुछ चिन्तित और उदास से बैठे थे। उनके मन्त्रणा कक्ष में प्रवेश करते ही आचार्य, अमात्य, मन्त्री, सेनापति, सामन्त आदि सभी उठ खड़े हुए। उन सब ने झुक कर अभिवादन किया और सम्राट के आसन ग्रहण करने के उपरान्त वे अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए। दुर्ग का यह कक्ष राज्य व्यवस्था, नीति, युद्ध, सन्धि, विग्रह आदि पर मन्त्रणा करने के लिये सुरक्षित था। प्रत्येक बड़े कार्य और महती घोषणा के पहले सम्राट इसी कक्ष में राज्य के मुख्य अधिकारियों से मन्त्रणा करते थे। उसी परम्परा के अनुसार उस दिन भी मन्त्रणा होने वाली थी- विचारणीय विषय था, “बन्दी सुलतान के साथ क्या व्यवहार किया जाए। “ जो कुछ यहाँ निर्णय होने वाला था उसी की आम दरबार में घोषणा होने वाली थी।

“बन्दी सुलतान के साथ कैसा बर्ताव किया जाय ?’
सम्राट ने गम्भीरतापूर्वक अधिकारपूर्ण दृष्टि से सब की ओर देखते हुए पूछा।
आचार्य- राजन्! नीति-शास्त्र का आदेश है कि यदि शत्रु, अग्नि और विष निर्बल और अल्प मात्रा में भी हो तो भी सदैव उनसे सतर्क रह कर निरन्तर उनके नाश का उपाय करते रहना चाहिए। यह सुल्तान आज अनाथ और निर्बल अवश्य है पर इसने अनेकों बार पवित्र आर्य-भूमि पर आक्रमण किया है, -इसका उद्देश्य पवित्र आर्य-भूमि पर इस्लामी राज्य स्थापित करना है। अतएव आततायी होने के कारण भी हमारा शत्रु है और हमारे राज्य का विसर्जन करने का मन्तव्य रखने के कारण भी यह राज्य का शत्रु है। इस प्रकार के शत्रु को प्राण-दण्ड देना शास्त्र-विहित कर्म है।

“हूँ।' कह कर सम्राट ने अमात्य की ओर प्रश्नभरी मुद्रा में देखा।

अमात्य- महाराज ! पराजित और शरणागत शत्रु के प्रति क्षात्र-परम्परा अत्यन्त ही उदार और दयालु है। महाराज ने अपने प्रबल पराक्रम से चालुक्य राजा भीमदेव के अभिमान को धूलि में मिला दिया, अनेक बार चन्देल नरेश परमर्दिदेव को परास्त किया और कन्नौजपति की चक्रवतीं सम्राट बनने की आशा पर पानी फेर दिया। परास्त होने पर इन सब शत्रुओं के साथ महाराज ने उदारता का क्षत्रियोचित व्यवहार किया। इन सब के साथ महाराज का यह सद्भावपूर्ण व्यवहार समयोचित और आर्य-संस्कृति के अनुकूल ही था क्योंकि ये सभी नरेश आर्य-परम्परा के ही प्रतिनिधि हैं :- पर सुल्तान इनसे सर्वथा विपरीत और विजातीय परम्परा के प्रतिनिधि हैं ; - वे एक ऐसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें शत्रुओं और विशेषतः विजातीय शत्रुओं के प्रति क्षमा और उदारता पापपूर्ण दुर्गुण समझे जाते हैं। अतएव मेरी तुच्छ सम्मति में सुल्तान के प्रति बरती गई उदारता कुचले हुए साँप को दूध पिला कर छोड़ देने के समान अनिष्ट-फलदायी ही सिद्ध होगी।

‘‘आज से क्षात्र-परम्परा जाति और विजाति का भेदभाव करना ही सीख गई है ? हा-हा-हा | ''

सम्राट के इस व्यंग्यपूर्ण अट्टहास से सब लोग स्तब्द होकर एक दूसरे का मुंह देखने लगे|

“चन्द, तुम्हारी क्या सम्मति है ?” सम्राट ने मंत्री और राजकवि चन्द की ओर देखते हुए कहा था|

चन्द- “महाराज! यह सुल्तान भी सुल्तान महमूद गजनवी की परम्परा से ही है, जिसने भारत के सैंकड़ों देव-मंदिरों को तोड़कर देव-प्रतिमाओं को भ्रष्ट, खंडित और अपमानित किया था। हमने सुना है, इस सुल्तान ने भी मुल्तान को तुड़वा दिया है। इसके राज्य में आर्य प्रजा पर दिन-रात अत्याचार की चक्की चलती रहती है। यह चौहान राज्य को जीत कर यहाँ पर भी उन्हीं कार्यों की पुनरावृत्ति करना चाहता है इस सुल्तान से आर्यावर्त की स्वतंत्रता को पूर्ण भय है और स्वतंत्रता के साथ -साथ धर्म, संस्कृति, मर्यादा और प्रजा को भी पूर्ण भय है। अतएव इस तुच्छ सेवक का तो मत है कि इसका सिरोच्छेदन करके इसके राज्य पर तुरन्त आक्रमण कर देना चाहिए और आर्यावर्त पर किए जाने वाले आक्रमणों की मूल शक्ति को ही नष्ट कर देना चाहिए|'' सम्राट ने अपनी दृष्टि चन्द पर से हटाई और उसे सेनापति के मुँह पर गाड़ दी। सेनापति की तेजस्वी आँखों की पलके झुक गई।

“अन्नदाता ! गुप्तचरों की सूचना है कि वह महादेवी संयोगि----॥“

“हाँ, यह सब मुझे मालूम है, पर राजा न केवल राज्य का ही रक्षक होता है- वह धर्म, संस्कृति, परम्परा आदि का भी रक्षक होता है। क्या आर्य-परम्परा में पराजित शत्रु पर हाथ उठाना वर्जित नहीं है ? क्या निर्बल, शरणागत और पराजित को भी अभयदान देना महान् दैवी गुण नहीं है ? क्या आर्य-परम्परा में सदैव से ही ऐसा होता नहीं आया है ? राज्य-रक्षा से भी अमूल्य परम्परा की रक्षा है और फिर पृथ्वीराज के राज्य की ओर कुदृष्टि डालने वालों की आँखें निकालने की शक्ति अमी मेरे योद्धाओं की भुजाओं से निःशेष नहीं हुई है।

आचार्य - राजन् ! मैं आपकी उदारता का सदैव से ही प्रशंसक रहा हूँ पर धर्म, मर्यादा, संस्कृति, परम्परा आदि की रक्षा का आधार-स्तम्भ राज्य ही होता है। राज्यविसर्जन के साथ ही साथ इन सब का विसर्जन भी अवश्यम्भावी होता है। अतएव राज्य के शत्रु को धर्म, मर्यादा, संस्कृति और परम्परा का भी शत्रु समझना चाहिए। यही कारण है कि क्षत्रिय के लिए राज्य-रक्षा का विधान सर्वोपरि माना गया है क्योंकि क्षात्र-धर्म के पालन का मूर्त और व्यावहारिक साधन केवल मात्र राज्य ही होता है और यदि गहराई के विचार करें तो - ।

‘‘तो कया ?’’
“राज्य-विसर्जन के साथ स्वतंत्रता भी समाप्त होती है और स्वतंत्रता की समाप्ति के साथ ही साथ धर्म, मर्यादा, संस्कृति, परम्परा आदि की समाप्ति भी अवश्यम्भावी होती है । फिर यह सुल्तान तो निश्चित रूप से आर्य-धर्म और संस्कृति का भी शत्रु है। एक बार आर्यावर्त में इस्लामी राज्य स्थापित होने पर आर्य-धर्म और संस्कृति की क्या दशा होगी ? राजन् पराजित शत्रु को क्षमा करके आप क्षात्र परम्परा का पालन अवश्य करेंगे, पर इस एक बार की क्षमा और उदारता से हो सकता है कि सदैव के लिए आर्य-धर्म और परम्परा के नाश का बीजारोपण हो जाय। अतएव आपको सब दृष्टियों से विचार कर कार्य करना चाहिए।

पृथ्वीराज - मैं एक बार अपने सिद्धान्तों से पतित हो जाता हूँ तो दूसरी, तीसरी और प्रत्येक बार सिद्धांतों से पतित होकर कर्त्तव्यच्युत होने का मार्ग खुल जाता है; अतएव हमें प्रत्येक सिद्धांत का हठ पूर्वक पालन करना चाहिए । सिद्धान्तों के आधार पर समझौता करना उचित नहीं हो सकता। आचार्य - राजन ! यह प्रश्न सिद्धान्त और व्यावहारिक राजनीति दोनों का है। कभी सिद्धान्त पर आग्रह करना चाहिए और कभी व्यावहारिक राजनीति पर चलना चाहिए|

पृथ्वीराज - आचार्यवर ! मैं आज शक्ति -सम्पन्न हूँ और सुल्तान निर्बल है। क्षात्रपरम्परा में शक्ति और क्षमा का मणि-काँचन योग है। यदि मैं शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी निर्बल को क्षमा नहीं करूँगा तो मेरे अधीनस्थ सब सामन्त और कर्मचारी भी मेरा अनुकरण कर निर्बलों के अपराधों को क्षमा करना छोड़ देंगे। दया और उदारता समाप्त हो जाएगी। तब क्षत्रिय-परम्परा में आसुरी भाव का जन्म हो जायेगा और तमोगुण के वशीभूत होकर वह स्वयं अपने आप मर जाएगी। अब आप ही बतलाइये कि मैं भविष्य के लिए इस प्रकार की गलत परम्परा का निर्माण कैसे कर सकता हूँ।

आचार्य - राजन् ! आपके विचार स्तुत्य हैं पर सुल्तान केवल निर्बल हीं नहीं; वह निर्बल शत्रु है। और वास्तव में वह निर्बल शत्रु भी नहीं है पर एक सबल और पराक्रमी शत्रु है, क्योंकि उसका राज्य और सैनिक शक्ति के सभी मूल स्त्रोत अभी वैसे के वैसे सुरक्षित हैं| वह फिर आक्रमण करेगा। आप रक्षात्मक नीति द्वारा कब तक रक्षा करते रहेंगे ? क्षमा से दुष्ट का हृदय-परिवर्तन नहीं होता बल्कि उसकी प्रतिशोध की भावना और भी सक्रिय और प्रबल होती है। वह आपकी क्षमा को अपना अपमान समझेगा। इस देश के आपके शत्रु सुल्तान की इस मानसिक प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर फिर उसे आपके विरूद्ध खड़ा होने में सहयोग देंगे। साँप को कुचल कर छोड़ देना उचित नहीं। या तो उसे मार देना चाहिए या सर्वथा विष-हीन बना देना चाहिए। इस समय आप दोनों ही कार्य करने में समर्थ हैं।

पृथ्वीराज - किसी अज्ञात भावी खतरे की आशंका के कारण मैं अपने सिद्धान्त कैसे छोड़ दूँ ? क्षात्र-परम्परा लाभ और हानि के तराजू में नहीं तोली जा सकती; सफलता और असफलता की डोरी से उसे नापा नहीं जा सकता।
अमात्य - महाराज ! यह आपका व्यक्तिगत शत्रु ही नहीं अपितु राज्य, धर्म और मर्यादा का भी तो शत्रु है।
पृथ्वीराज - क्या पृथ्वीराज पराजित शत्रु पर हाथ उठाएगा ?
अमात्य - उठाना होगा महाराज, नहीं तो आपकी इस दया और क्षमा-जनित निर्बलता से आतताइयों और दुष्टों को सदैव प्रोत्साहन मिलता रहेगा। पृथ्वीराज - शक्तिशाली की क्षमा को निर्बलता की संज्ञा देना उचित नहीं अमात्य।
अमात्य - यह एक राजनैतिक अदूरदर्शिता और ऐतिहासिक भूल होगी महाराज। “पृथ्वीराज की तलवार उस भूल को सुधारने और अदूरदर्शिता को दूर करने में फिर समर्थ होगी। ‘‘ यह ठीक है न सेनापति ?
‘‘हाँ महाराज ! आपकी तलवार सब काम करने में समर्थ है। ‘‘
“मैंनें आप लोगों से आवश्यक मन्त्रणा की। आपके विचार मनन योग्य हैं। सुल्तान का भविष्य उसके स्वयं के व्यवहार पर निर्भर रहेगा। “ यह कहते हुए सम्राट दरबार में जाने के लिये उठ खड़े हुए।

उस दिन दिल्ली नगर विशेष रूप से सजाया गया था। विजयोल्लास के मद में उन्मत्त प्रत्येक नागरिक, सूर, सामन्त, योद्धा सज-धज कर दरबार की ओर जा रहा था। चौहान- दिल्ली अब तक कई विजय-महोत्सव मना चुकी थी। प्रचण्ड पराक्रमी पृथ्वीराज की प्रत्येक युद्ध-यात्रा विजय-यात्रा होती थी। पर उस दिन की विजय का कुछ विशेष महत्व था। इस बार तराई के युद्ध में राजपूत सेना ने खुरासान, लाहौर, सिन्ध, जम्मू और मुल्तान के विजेता सुल्तान मुहम्मद शाहबुद्दीन गौरी की असंख्य सेना को परास्त किया था। आर्यावर्त की स्वतंत्रता, समृद्धि और संस्कृति का विनाश करने वाले विधर्मी दस्युओं को गाजर-मूली की भाँति काट कर सुल्तान मुहम्मद गौरी को बन्दी बनाया था। उस दिन की विजय अपूर्व विजय थी और उस दिन का विजयोत्सव अद्वितीय समारोह था। इसीलिए सब लोग आतुरता और जिज्ञासा, प्रसन्नता और उल्लास के मिश्रित भावों से प्रेरित होकर दरबार की ओर आ रहे थे। उस दिन सुल्तान मुहम्मद को बन्दी रूप से दिल्लीपति सम्राट पृथ्वीराज के सम्मुख आम दरबार में उपस्थित होना था। विभिन्न लोग सुल्तान के प्रति सम्राट के व्यवहार की विभिन्न प्रकार से कल्पना कर रहे थे।

अत्यन्त ही भव्य, सुसज्जित और विशाल मण्डप में इस दरबार का आयोजन किया गया था। चारों वर्णो के नागरिक, सामन्त, सेनापति अनेक देशों के राजा, राव, भूपति, मण्डलेश्वर, भूस्वामी, साधु-सन्त, कवि आदि समय से पूर्व ही आकर अपने-अपने स्थानों पर बैठने लग गए थे। दिल्ली उस दिन अमरावती से प्रतिस्पर्धा कर रही थी और पृथ्वीराज का दरबार सुरराज के दरबार की शोभा और प्रताप को फीका कर रहा था। विजय-रूपी मेघ-माला ने आनन्द के मोती बरसाये थे ; सभी लोग उन्हें अपनी शक्ति, सामथ्र्य और भावना के अनुसार बटोरने में तन्मय थे।

यथासमय सम्राट ने दरबार-मण्डप में प्रवेश किया। परम भट्टारक महाराजाधिराज सम्राट पृथ्वीराज की जय घोष से आकाश गूंज उठा। नगाड़े गड़गड़ा उठे, नौबत पर डंके पड़े, शहनाइयाँ सजीव हो उठी और शंख, मृदंग, ढोल, तुरई, के मिश्रित नाद से दिशायें कम्पित हो उठी। चारण और भाट उच्च स्वर से विरूदावली बखान करने लगे। ब्राह्मण शास्त्रोक्त मन्त्रों द्वारा आशीर्वाद देने लगे राजाओं ने पृथ्वी को दोनों हाथों से छूकर अभिवादन किया, सामन्तों ने तलवारें नीचे रख दी और नागरिकों ने तुमुल जयघोष से पृथ्वी को प्रकम्पित कर दिया।

सामने ही श्वेत-चौकी पर रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन रखा हुआ था जिस पर श्वेत छत्र और मोतियों की झालर लगी हुई थी। लम्बा कद, विशाल वक्षःस्थल, आजानु बाहु, उन्नत ललाट, गौर वर्ण और अधिकार-व्यंजक मूंछों वाले पृथ्वीराज ने आकर सिंहासन ग्रहण किया। उनके सिर पर केसरिया पाग, दाहिने हाथ में शत्रु-मर्दिनी तलवार और कन्धों पर विशाल धनुष और तरकस शोभायमान हो रहे थे। अपूर्व दृश्य था; अनोखी शोभा थी - शील, भक्ति, सौन्दर्य और बड़प्पन का अनुपम सामंजस्य था। सभा में एकदम नि:स्तब्धता छा गई।

दूसरे ही क्षण सबकी दृष्टि सम्राट पर से हट कर सभा-मण्डप के मुख्य द्वार पर जा लगी। विचित्र वेश-भूषा और आकृति वाले कुछ लोगों ने सभा-मण्डप में प्रवेश किया। उनकी संख्या आठ थी। उनके आगे मखमल का चौगा पहने और जरी का ऑटेदार साफा बाँधे एक दृढकाय व्यक्ति था। उसकी काली दाढ़ी नीचे से नुकीली होकर सीने से स्पर्श कर रही थी। आँखों की पलकें झुकी हुई, चेहरे पर लज्जा के भाव, फिर भी दृढता और तेज था। वही व्यक्ति बन्दी रूप में सुल्तान मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी था। उसके पीछे उसके छ: उमराव थे जो दो-दो की पंक्ति में चल रहे थे| एक व्यक्ति सबके पीछे चल रहा था जिसके चेहरे पर न पश्चाताप के भाव थे और न खेद के लक्षण। वह निर्लज्जतापूर्वक इधर -उधर देख रहा था। उसकी वेश-भूषा परिचित-सी जान पड़ रही थी। वह जम्मू के हिन्दू नरेश का सेनापति था जो पृथ्वीराज के विरूद्ध गौरी को सहायता देने भेजा गया था और इस युद्ध में गौरी के साथ बन्दी बना लिया गया था। इनके दाँये-बॉये सशस्त्र राजपूत सैनिक चल रहे थे।
सुल्तान को पृथ्वीराज के सिंहासन के सामने लाकर खड़ा किया गया। उसने अपने अमीरों सहित झुककर इस्लामी ढंग से अभिवादन किया और अपनी दृष्टि को अपने पैरों की अंगुलियों पर लगा दी। सम्राट ने सुल्तान के अभिवादन के उत्तर में कहा -
“घबराने की आवश्यकता नहीं है सुल्तान। आर्य-परम्परा सबके लिये कल्याणकारी है, वह शत्रु और दुष्टों के प्रति भी दया का व्यवहार करना जानती है।”
थोडी देर के लिए सभा में फिर सन्नाटा छा गया। सम्राट पृथ्वीराज ने गर्वोन्मत्त होकर एक बार समस्त सभा-मण्डप पर दृष्टि डाली, फिर अपनी बलिष्ठ भुजाओं को देखा और तत्पश्चात् सुल्तान के नीचे झुके हुए मुँह पर दृष्टि डालते हुए उन्होंनें पूछा -
‘‘अब आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाए ?’’

सुल्तान ने न सिर ऊँचा किया और न वह कुछ बोला। अपने दोनों हाथों की उंगलियों में उंगलियाँ डाल कर हाथ आगे लटकाये और नीचे दृष्टि डाले वह खड़ा ही रहा। इतने में उसका एक अमीर आगे आया। उसने झुक कर फिर सम्राट का अभिवादन किया; इधर-उधर अपनी दृष्टि दौड़ाई और विचित्र भाषा में उच्च स्वर से कुछ कहने लगा। किसी ने नहीं समझा कि वह क्या कह रहा था। दर्शकों का कौतूहल बढ़ गया। उसके बोलने के उपरान्त जम्मू नरेश का वह बन्दी सेनापति आगे आया और उस विचित्र भाषा का देशी भाषा में अनुवाद कर कहने लगा-
“सुल्तान अनुभव करता है कि उसने आप पर आक्रमण करके गलती की है। वह आपसे क्षमा माँगता है। सरहिंद तक पंचनद प्रदेश आपके समर्पण करता है। दस हजार स्वर्ण-मुद्रायें, एक हजार हीरे, पाँच हजार काबुली और पाँच हजार अरबी घोड़े और सौ मखमल के थान आपको भेंट करता है। इन्हें आप कृपा करके स्वीकार करें।’
सभा में फिर सन्नाटा छा गया। सबकी दृष्टि सम्राट के ऊपर लग गई। सम्राट कुछ मुस्कराये और फिर इधर-उधर देख कर बोलें - “हम तुम्हें अभय दान देते हैं, फिर हमसे लड़ने के लिये आना।’
दुभाषिये ने सम्राट की घोषणा सुल्तान को सुनाई। सुल्तान ने अपनी पगड़ी का एक अमूल्य हीरा खोला और आगे बढ़ कर उसे सम्राट के चरणों पर रख दिया। सम्राट खड़े हुए और उन्होंने अपने दोनों हाथ सुल्तान के कन्धों पर रख दिये। परम भट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वीराज की जय-घोष से फिर सभा-मण्डप गूंज उठा।

दूसरे ही क्षण सम्राट अपने मुख्य राज्याधिकारियों सहित कुलदेवी के मन्दिर में पहुँच गए। सब ने भय, आशंका, कौतूहल और उत्तेजनापूर्ण दृष्टि से प्रतिमा के चेहरे को देखा- उसके मुँह पर कालिमा की छाया थी; आँखे निष्प्राण और मुख-मुद्रा विकृत और विद्रूप हो चुकी थी । भावी अमंगल और अपशकुन का स्पष्ट संकेत था वह।

सम्राट ने आचार्य के मुँह की ओर देखा और आचार्य ने सामन्तों की ओर दृष्टि दौडाई। वीरवर गोविन्दराय का हाथ तलवार की मूंठ पर गया
“यदि आज्ञा हो तो सुल्तान गोरी को फिर बन्दी.......... |'' “नहीं, दिया हुआ दान और वचन वापिस लेना क्षात्र-परम्परा के अनुकूल नहीं है।’’
यह कहते हुए सम्राट महलों की ओर चल पड़े।


फौज देवरे आई

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बारात चल पड़ी है। गाँव समीप आ गया है इसलिए घुड़सवार घोड़ों को दौड़ाने लगे हैं। ऊँट दौड़ कर रथ से आगे निकल गए हैं । गाँव में ढोल और नक्कारे बज रहे हैं -
दुल्हा-दुल्हिन एक विमान पर बैठे हैं । दुल्हे के हाथ में दुल्हिन का हाथ है । हाथका गुदगुदा स्पर्श अत्यन्त ही मधुर है। दासी पूछ रही है -सुहागरात के लिए सेज किस महल में सजाऊँ? इतने में विमान ऊपर उड़ पड़ा।।'

विमान के ऊपर उड़ने से एक झटका-सा अनुभव हुआ और सुजाणसिंह की नीद खुल गई । मधुर स्वप्न भंग हुआ । उसने लेटे ही लेटे देखा, पास में रथ ज्यों का त्यों खड़ा था । ऊँट एक ओर बैठे जुगाली कर रहे थे । कुछ आदमी सो रहे थे

और कुछ बैठे हुए हुक्का पी रहे थे । अभी धूप काफी थी । बड़ के पत्तों से छन-छन कर आ रही धूप से अपना मुँह बचाने के लिए उसने करवट बदली ।
‘‘आज रात को तो चार-पाँच कोस पर ही ठहर जायेंगे । कल प्रात:काल गाँव पहुँचेंगे । संध्या समय बरात का गाँव में जाना ठीक भी नहीं है ।'
लेटे ही लेटे सुजाणसिंह ने सोचा और फिर करवट बदली । इस समय रथ सामने था । दासी जल की झारी अन्दर दे रही थी । सुजाणसिंह ने अनुमान लगाया -
‘‘वह सो नहीं रही है, अवश्य ही मेरी ओर देख रही होगी ।'

दुल्हिन का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने बनावटी ढंग से खाँसा । उसने देखा - रथ की बाहरी झालर के नीचे फटे हुए कपड़े में से दो भाव-पूर्ण नैन उस ओर टकटकी लगाए देख रहे थे । उनमें संदेश, निमंत्रण, जिज्ञासा, कौतूहल और सरलता सब कुछ को उसने एक साथ ही अनुभव कर लिया । उसका उन नेत्रों में नेत्र गड़ाने का साहस न हुआ । दूसरी ओर करवट बदल कर वह फिर सोने का उपक्रम करने लगा । लम्बी यात्रा की थकावट और पिछली रातों की अपूर्ण निद्रा के कारण उसकी फिर आँख लगी अवश्य, पर दिन को एक बार निद्रा भंग हो जाने पर दूसरी बार वह गहरी नहीं आती । इसलिए सुजाणसिंह की कभी आँख लग जाती और कभी खुल जाती । अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध स्वप्न और अर्द्ध जागृति की अवस्था थी वह । निद्रा उसके साथ ऑख-मिचौनी सी खेल रही

थी । इस बार वह जगा ही था कि उसे सुनाई दिया
कुल मे है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।'
राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और किस देवरे पर आईहै ?''
सहसा सुजाणसिंह के मन में यह प्रश्न उठ खड़े हुए । वह उठना ही चाहता था कि उसे फिर सुनाई पड़ा -
‘‘झिरमिर झिरमिर मेवा बरसै, मोरां छतरी छाई।’’
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।
‘‘यहाँ हल्ला मत करो ? भाग जाओ यहाँ से ?‘‘ एक सरदार को हाथ में घोड़े की चाबुक लेकर ग्वालों के पीछे दौड़ते हुए उन्हें फटकारते हुए सुजाणसिंह ने देखा ।
ठहरों जी ठहरो । ये ग्वाले क्या कह रहे हैं ? इन्हें वापिस मेरे पास बुलाओ ।सुजाणसिंह ने कहा -
कुछ नहीं महाराज ! लड़के हैं,यों ही बकते हैं । ... ने हल्ला मचा कर नीद खराब कर दी |'' ...... एक लच्छेदार गाली ग्वालों को सरदार ने दे डाली ।
नहीं ! मैं उनकी बात सुनना चाहता हूँ ।
महाराज ! बच्चे हैं वे तो । उनकी क्या बात सुनोगे ?’
उन्होंने जो गीत गाया, उसका अर्थ पूछना चाहता हूँ ।
गंवार छोकरे हैं । यों ही कुछ बक दिया है। आप तो घड़ी भर विश्राम कर लीजिए फिर रवाना होंगे ।’’
पहले मैं उस गीत का अर्थ समझुंगा और फिर यहाँ से चलना होगा ।
‘‘उस गीत का अर्थ. ।’’ कहते हुए सरदार ने गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर वह रुक गया |
"हाँ हाँ कहों, रुकते क्यों हो बाबाजी?"

पहले बरात को घर पहुँचने दो फिर

इसका अर्थ बताऊँगा ।।'
मैं अभी जानना चाहता हूँ ।
‘‘आप अभी बच्चे हैं । विवाह के मांगलिक कार्य में कहीं विघ्न पड़ जायगा ।’’

मैं किसी भी विघ्न से नहीं डरता ।

आप तो मुझे उसका अर्थ…... I'
कौनसा मन्दिर ?'
खण्डेले का मोहनजी का मन्दिर ।
‘‘मन्दिर की रक्षा के लिए कौन तैयार हो रहे हैं ?’
‘‘कोई नहीं।’’ ‘‘क्यों?’
‘‘किसमें इतना साहस है जो पातशाह की फौज से टक्कर ले सके । हरिद्वार, काशी, वृन्दावन, मथुरा आदि के हजारों मन्दिर तुड़वा दिए हैं, किसी ने चूँ तक नहीं की‘‘
पर यहाँ तो राजपूत बसते हैं।’’
मौत के मुँह में हाथ देने का किसी में साहस नहीं है ।
मुझ में साहस है । मैं मौत के मुँह में हाथ दूँगा । सुजाणसिंह के जीते जी तुर्क की मन्दिर पर छाया भी नहीं पड़ सकती । भूमि निर्बीज नहीं हुई, भारत माता की पवित्र गोद से क्षत्रियत्व कभी भी निःशेष नहीं हो सकता । यदि गौ, ब्राह्मण और मन्दिरों की रक्षाके लिए यह शरीर काम आ जाय तो इससे बढ़कर सौभाग्य होगा ही क्या ? शीघ्र घोड़ों पर जीन किए जाएँ ?’ कहते हुए सुजाणसिंह उठ खड़ा हुआ ।
परन्तु आपके तो अभी काँकण डोरे (विवाह-कंगन) भी नहीं खुले हैं ।
कंकण-डोरडे अब मोहनजी कचरणों में ही खुलेंगे ।।'

बात की बात में पचास घोड़े सजकर तैयार हो गए । एक बरात का कार्य पूरा हुआ,अब दूसरी बरात की तैयारी होने लगी
। सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए रथ कीओर देखा - कोई मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ रथ से बाहर निकाल कर अपना चूड़ा बतला रहा था । सुजाणसिंह मन ही मन उस मूक भाषा को समझ गया।
अन्य लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाओ ।' कहते हुए सुजाणसिंह ने घोड़े का मुँह खण्डेला की ओर किया और एड़ लगा दी । वन के मोरों ने पीऊ-पीऊ पुकार कर विदाई दी ।

मार्ग के गाँवों ने देखा कोई बरात जा रही थी । गुलाबी रंग का पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी
लगाए हुए दूल्हा सबसे आगे था और पीछे केसरिया-कसूमल पार्गे बाँधे पचास सवार थे । सबके हाथों में तलवारें और भाले थे । बड़ी ही विचित्र बरात थी वह । घोड़ों को तेजी से दौड़ाये जा रहे थे, न किसी के पास कुछ सामान था और न अवकास । 

दूसरे गाँव वालों ने दूर से ही देखा - कोई बरात आ रही थी । मारू नगाड़ा बज रहा था; खन्मायच राग गाई जा रही थी, केसरिया-कसूमल बाने चमक रहे थे, घोड़े पसीने से तर और सवार उन्मत्त थे । मतवाले होकर झूम रहे थे ।

खण्डेले के समीप पथरीली भूमि पर बड़गड़ बड़गड़ घोड़ों की टापें सुनाई दीं । नगर निवासी भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे । औरते घरों में जा छिपी । पुरूषोंने अन्दर से किंवाड़ बन्द कर लिए । बाजार की दुकानें बन्द हो गई । जिधर देखो उधर भगदड़ ही भगदड़ थी ।

तुर्क आ गये, तुर्क आ गयेकी आवाज नगर के एक कोने से उठी और बात की बात में दूसरे कोने तक पहुँच गई । पानी लाती हुई पनिहारी, दुकान बन्द करता हुआमहाजन और दौड़ते हुए बच्चों के मुँह से केवल यही आवाज निकल रही थी-तुर्क आ गये हैं, तुर्क आ गये हैंमोहनजी के पुजारी नेमन्दिर के पट बन्द कर लिए । हाथ में माला लेकर वह नारायण कवच का जाप करने लगा, तुर्क को भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा ।

इतने में नगर में एक ओर से पचास घुड़सवार घुसे । घोड़े पसीने से तर और सवार मतवाले थे । लोगों ने सोचा -
‘‘यह तो किसी की बरात है, अभी चली जाएगी ।'
घोड़े नगर का चक्कर काट कर मोहनजी के मन्दिर के सामने आकर रुक गए । दूल्हा ने घोड़े से उतर कर भगवान की मोहिनी मूर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारी से पूछा -
तुर्क कब आ रहे हैं ?’
कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है ।'
अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा । नगर में सूचना कर दो कि छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है; उसके जीते जी मन्दिर की ओर कोई ऑख उठा कर भी नहीं देख सकता । डरने-घबराने की कोई बात नहीं है ।'

पुजारी ने कृतज्ञतापूर्ण वाणी से आशीर्वाद दिया । बात की बात में नगर में यह बात फैल गई कि छापोली ठाकुर सुजाणसिंह जी मन्दिर की रक्षा करने आ गए हैं । लोगों की वहाँ भीड़ लग गई । सबने आकर देखा, एक बीस-बाईस वर्षीय दूल्हा और छोटी सी बरात वहाँ खड़ी थी । उनके चेहरों पर झलक रही तेजस्विता,दृढ़ता और वीरता को देख कर किसी को यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि वे मुट्टी भर लोग मन्दिर की रक्षा किस प्रकार कर सकेंगे । लोग भयमुक्त हुए । भक्त लोग इसे भगवान मोहनजी का चमत्कार बता कर लोगों को समझाने लगे -


इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए है । छापोली ठाकुर तो यहाँ हैं भी नहीं- वे तो बहुत

दूर ब्याहने के लिए गए है,- जन्माष्टमी का तो विवाह ही था, इतने जल्दी थोड़े ही आ सकते हैं ।
यह बात भी नगर में हवा के साथ ही फैल गई । किसी ने यदि शंका की तो उत्तर मिल गया -
‘‘मोती बाबा कह रहे थे ।’’
मोती बाबा का नाम सुन कर सब लोग चुप हो जाते ।
मोती बाबा वास्तव में पहुँचे हुए महात्मा हैं । वे रोज ही भगवान का दर्शन करते हैं, उनके साथ खेलते, खाते-पीते लोहागिरी के जंगलों में रास किया करते हैं । मोती बाबा ने पहचान की है तो बिल्कुल सच है ।फिर क्या था, भीड़ साक्षात् मोहनजी के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी । भजन मण्डलियाँ आ गई । भजन-गायन प्रारम्भ हो गया । स्त्रियाँ भगवान का दर्शन कर अपने को कृतकृत्य समझने लगी । सुजाणसिंह और उनके साथियों ने इस भीड़ के आने के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा । वे यही सोचते रहे कि सब लोग भगवान की मूर्ति के दर्शन करने ही आए हैं । रात भर जागरण होता रहा, भजन गाये जाते रहे और सुजाणसिंह भी घोड़ों पर जीन कसे ही रख कर उसी वेश में 
रात भर श्रवण-कीर्तन में योग देते रहे ।

प्रात:काल होते-होते तुर्क की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर को घेर लिया । सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़ कर खड़ा हो गया । सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर अधिकारपूर्ण ढंग से पूछा -
तुम कौन हो और क्यों यहाँ खड़े हो?’
तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ?’
जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ।
तुम भी जानते नहीं, मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ ।

‘‘ज्यादा गाल मत बजाओ और रास्ते से

हट जाओ नहीं तो अभी. ''
तुम भी थूक मत उछालो और चुपचाप यहाँ से लौट जाओ नहीं तो अभी ....।
तुम्हें भी मालूम है, तुम किसके सामने खड़े हो?’

शंहशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने और इस मन्दिर की बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-उदूली का नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है। तुम्हारी छोटी उम्र देख करे

मुझे रहम आता है, लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ कि यहाँ से हट जाओ ।।'
मुझे शहंशाह के शहंशाह मोहनजी ने तुकों को सजा देने के लिए यहाँ भेजा है पर तुम्हारी बिखरी हुई बकरानुमा दाढ़ी और अजीब सूरत को देख कर मुझे दया आती है, इसलिए मैं एक बार तुम्हें फिर चेतावनी देता हूँ कि यहाँ से लौट जाओ।
इस बार सिपहसालार ने कुछ नम्रता से पूछा -तुम्हारा नाम क्या है ?’
मेरा नाम सुजाणसिंह शेखावत है ।

मैं तुम्हारी बहादूरी से खुश हूँ।

मैं सिर्फ मन्दिर के चबूतरे का एक कोना तोड़ कर ही यहाँ से हट जाऊँगा । मन्दिर और बुत के हाथ भी न लगाऊँगा । तुम रास्ते से हट जाओ ।’’
मन्दिर का कोना टूटने से पहले मेरा सिर टूटेगा और मेरा सिर टूटने से पहले कई तुकों के सिर टूटेंगे ।
सिपहसालार ने घोड़े को आगे बढ़ाते हुए नारा लगाया -
‘‘अल्ला हो। अकबर |'' 
जय जय भवानी ।कह कर सुजाणसिंह अपने साथियों सहित तुकों पर टूट पड़ा |

लोगों ने देखा उसकी काली दाढ़ी का प्रत्येक बाल कुशांकुर की भाँति खड़ा हो गया।तुर्रा -कलंगी के सामने से शीघ्रतापूर्वक
घूम रही रक्तरंजित तलवार की छटा अत्यन्त ही मनोहारी दिखाई से रही थी|  बात की बात में उस अकेले ने बत्तीस कब्रे खोद दीथी ।

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रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब ऊँटों पर सामान लाद कर और रथ में बैलों को जोत कर बराती छापोली की ओर रवाना होने

लगे कि दासी ने आकर कहा -
बाईसा ने कहलाया है कि बिना दुल्हा के दुल्हिन को घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए ।।'
तो क्या करें ?’ एक वृद्ध सरदार ने उत्तर दिया ।
वे कहती हैं, मैं भी अभी खण्डेला जाऊँगी ।
खण्डेला जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो मारकाट मच रही होगी ।
वे कहती हैं कि आपको मारकाट से डर लगता है क्या ?’
मुझे तो डर नहीं लगता पर औरत को मैं आग के बीच कैसे ले जाऊँ ।
वे कहती हैं कि औरतें तो आग में खेलने से ही राजी होती हैं ।
मन ही मन -‘‘दोनों ही कितने हठी हैं ।
प्रकट में -मुझे ठाकुर साहब का हुक्म छापोली ले जाने का है ।
बाईसा कहती हैं कि मैं आपसे खण्डेला ले जाने के लिए प्रार्थना करती हूँ ।
‘‘अच्छा तो बाईं जैसी इनकी इच्छा ।।' और रथ का मुँह खण्डेला की ओर कर दिया । बराती सब रथ के पीछे हो गए । रथ के आगे का पद हटा दिया गया । 

खण्डेला जब एक कोस रह गया तब वृक्षों की झुरमुट में से एक घोड़ी आती हुई दिखाई दी ।
यह तो उनकी घोड़ी है ।दुल्हिन ने मन में कहा । इतने में पिण्डलियों के ऊपर हवा से फहराता हुआ केसरिया बाना भी दिखाई पड़ा ।
ओह! वे तो स्वयं आ रहे हैं । क्या लड़ाई में जीत हो गई? पर दूसरे साथी कहाँ हैं ? कहीं भाग कर तो नहीं आ रहे हैं ?'
इतने में घोड़ी के दोनों ओर और पीछे दौड़ते हुए बालक और खेतों के किसान भीदिखाई दिए ।
‘‘यह हल्ला किसका है ? ये गंवार लोग इनके पीछे क्यों दौड़ते हैं ? भाग कर आने के कारण इनको कहीं चिढ़ा तो नहीं रहे हैं ?’
दुल्हिन ने फिर रथ में बैठे ही नीचे झुक कर देखा, वृक्षों के झुरमुट में से दाहिने हाथ में रक्त-रंजित तलवार दिखाई दी ।
जरूर जीत कर आ रहे हैं, इसीलिए खुशी में तलवार म्यान करना भी भूल गए । घोड़ी की धीमी चाल भी यही बतला रही है ।’’
इतने में रथ से लगभग एक सौ हाथ दूर एक छोटे से टीले पर घोड़ी चढ़ी । वृक्षावली यहाँ आते-आते समाप्त हो गई थी । दुल्हिन ने उन्हें ध्यान से देखा । क्षण भर में उसके मुख-मण्डल पर अद्भुत भावभंगी छा गई और वह सबके सामने रथ से कूद कर मार्ग के बीच में जा खड़ी हुई । अब न उसके मुख पर घूंघट था और न लज्जा और विस्मय का कोई भाव ।
नाथ ! आप कितने भोले हो, कोई अपना सिर भी इस प्रकार रणभूमि में भूलकर आता है ।’’ कहते हुए उसने आगे बढ़ कर अपने मेंहदी लगे हाथ से कमध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली ।

और उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ अंकित हैं । वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक वाणी में यह कहानी सुनाती है और न मालूम भविष्य में भी कब तक सुनाती रहेगी ।



भारत के रत्न डॉ. हरि सिंह गौड़

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एक बहुत बड़ी विडंबना है कि जिन डॉ. हरीसिंह गौड़ (Dr.Hari Singh Gaur) पर राजपूत समाज को गर्व होना चाहिये उनके बारे में अधिकांश लोग अनभिज्ञ है। यह कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि डॉ. हरीसिंह गौड़ ब्रिटिश भारत के सबसे अधिक शिक्षित एवँ ज्ञानवान व्यक्तित्व थे। उनकी उपलब्धियां असाधारण हैं। संविधान सभा में शामिल लोगों में डॉ. गौड़ ही एकमात्र राजपूत थे। डॉ. हरीसिंह गौड़ एक प्रख्यात वकील, न्यायविद, शिक्षाविद, समाज सुधारक एवं एक उत्कृष्ट कवि एवं उपन्यासकार थे। यह कम ही लोगों को विदित है कि देश की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रथम कुलपति डॉ. गौड़ ही थे। इसके अलावा डॉ. गौड़ दो बार 1928 एवं 1936 में नागपुर विश्वविधालय के कुलपति रहे तथा सागर विश्वविधालय जो अब डॉ. हरीसिंह गौड़ विश्वविधालय कहलाता है, के संस्थापक कुलपति थे। डॉ. हरीसिंह गौड़ को उनकी असाधारण प्रतिभा के कारण अंग्रेजों ने सर की उपाधि से विभूषित किया था। हमारे लिए ये अत्यंत गर्व की बात है कि इतना अधिक शिक्षित एवं ज्ञानवान व्यक्ति क्षत्रिय समाज में पैदा हुआ जिसकी बराबरी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का कोई व्यक्ति नहीं कर सकता । डॉ गौड़ देश के अनमोल रत्न थे जिन्हें भारत रत्न दिया जाना चाहिये।

बाल्यकाल
डॉ. हरीसिंह गौड़ का जन्म 26 नवम्बर 1870 को मध्य प्रदेश के सागर जिले में हुआ था। इनके दादा मान सिंह एक सैनिक थे जो अवध प्राँत से सागर आये थे। उनके रंग रुप के कारण उन्हेँ भूरासिंह भी कहा जाता था। उन्होने बुंदेला विद्रोह के समय मुगलों से लड़ाइयां लड़ी थीं। वृद्धावस्था में सैनिक वृति त्याग कर ये खेती करने लगे। इनके पिता पुलिस में थे। डॉ. गौड़ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राइमरी के बाद इन्होनें दो वर्ष मेँ ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण इन्हेँ सरकार से 2रुपये की छात्र वृति मिली जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन मैट्रिक में ये फेल हो गये जिसका कारण था एक अनावश्यक मुकदमा। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया। डॉ. गौड़ फिर मैट्रिक की परीक्षा में बैठे और इस बार ना केवल स्कूल मेँ बल्कि पूरे प्रान्त में प्रथम आये। इन्हें 50 रुपये नगद एक चांदी की घड़ी एवं बीस रूपये की छात्रवृति मिली। आगे की शिक्षा के लिये वे हिलसप कॉलेज मेँ भर्ती हुये। पूरे कॉलेज में अंग्रेजी एव इतिहास मेँ ऑनर्स करने वाले ये एकमात्र छात्र थे।

इंग्लैंड में
बेरिस्ट्री करने के लिये इनके भाई ने इन्हें इंग्लैंड की केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी भेजा। गणित इनका प्रिय विषय था और ये अक्सर गणित प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे|
लेकिन कभी भी किसी प्रतियोगिता का परिणाम घोषित नहीं हुआ। बहुत समय बाद जब ये डी लिट् कर रहे थे तब एक भोज में शामिल हुये जहाँ इन्हें पता चला की ये सभी प्रतियोगिताओँ मेँ अव्वल आते थे और अंग्रेजों को किसी अश्वेत भरतीय को विजेता घोषित करना अपमानजनक लगता था। इसी प्रकार इन्होनें कुलपति पुरस्कार के लिये अपनी कविता भेजी जो सर्वश्रेष्ठ थी अतरू इसका भी परीणाम घोषित नहीं किया गया यधपि बाद मेँ इन्हेँ रॉयल सोसायटी का सदस्य चुना गया। 1891 में ऑक्सफोर्ड विश्वविधालय ने कैंब्रिज मेँ एक प्रतिनिधि मंडल भेजा और दोनों विश्वविधालयों के सभी वक्ताओं मेँ डॉ. गौड को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया। इसी समय इंग्लैंड में आम चुनाव भी चल रहे थे। उदार दल के जॉन मार्ले ने नगर मेँ धन्यवाद प्रस्ताव के लिये डॉ. गौड़ को चुना जहाँ इन्होनें एक ओजस्वी भाषण दिया। इंग्लैंड के अखबारों ने लिखा डॉ. गौड जेसे वक्ता शासको के लिये उपहार हैं एक अखबार ने उन्हें अपना केम्ब्रिज संवाददाता नियुक्त किया। उदार दल के दादा भाई नेरोजी भी इस भाषण से काफी प्रभावित हुये और डॉ. गौड़ को दादा भाई नेरोजी ने अपने चुनाव प्रचार के लिये आमन्त्रित किया

दादा भाई नेरोजी चाहते थे डॉ. गौड चुनाव भी लडें पर कम उम्र होने की वजह से वे चुनाव नहीं लड़ सके लेकिन उन्होनें दादा भाई नेरोजी के प्रचार मेँ बहुत मेहनत की। 1891 में उन्होंने दर्शन और अर्थशास्त्र मेँ ऑनर्स की उपाधि ली और 1892 में कानून की उपाधि अर्जित की। 1905 में उन्होंने ट्रिनिटी कोलेज से ओर बाद मेँ डब्लिन कॉलेज से डी लिट् की उपाधि प्राप्त की।

वकील के रुप में
इंग्लैंड से आने पर उन्हें जबलपुर में स्थानीय न्यायलय में राजस्व अधिकारी का पद उन्हेँ सोपा गया जहां उन्होनें एक वर्ष मेँ काफी समय से उलझे 300 मुकदमे निबटा दिये जिससे उनको बहुत ख्याति प्राप्त हुई। उनकी ख्याति सुनकर हत्या के अभियोग मेँ बन्द चार अभियुक्तों की माँ ने उनसे संपर्क किया और उन्हें 2000 रुपये पेशगी प्रस्तुत की। 2000 रुपये नगद और इतने ही केस जीतने के बाद। उस समय डॉ. गौड़ को पैसों की सख्त आवश्यकता थी इसलिए उन्होंने अपनी 229 रुपये मासिक की सरकारी नौकरी छोड़ दी। यह मुकदमा वो जीत गये। इससे उनके उत्साह में वृद्धि हुई। विल्क्षण प्रतिभा के धनी डॉ हरी सिंह गौड़ ने रायपुर , नागपुर , कलकत्ता लाहौर एवं रंगून आदि में भी वकालत की तथा आशातीत सफलता पाई। उन्होंने इंग्लैंड के प्रिवी काउन्सिल मेँ भी 4 साल वकालत की। अपने केस को वह बेहद तल्लीनता एवं गहनता से लड़ते थे। 1902 में एक जमींदार का दीवानी का मुकदमा लड़ने के लिये उन्होंने सम्बंधित विषय का इतना गहन अध्य्यन किया की श्लॉ ऑफ प्रॉपर्टी ट्रांसफर एक्ट नामक पुस्तक दी जिसके बाद उन्हें कानून का पंडित कहा जाने लगा जल्द ही वकील के तौर पर देश के अधिकांश राजाओं एवम बड़े जमींदारो की पहली पसन्द डॉ. गौड थे|

1909 में उनकी भारतीय दंड संहिता की तुलनात्मक विवेचना प्रकाशित हुई जो 3000 पृष्ठ की दो भागों में विभाजित पुस्तक थी। अंग्रेजी भाषा में इस विषय पर लिखी ये सर्वप्रथम पुस्तक आज भी नवयुवक वकीलों के लिये कारगर है। 1919 में उन्होंने हिन्दू लॉ पर एक पुस्तक लिखी। इसके लिए उन्होंने तीन साल तक हिन्दु लॉ का गहन अध्ययन किया। उन्होंने लगभग 15000 पुस्तकें एवं 7000 केसों का अध्ययन किया। डॉ. गौड़ चाहते थे की ये पुस्तक वकीलों, न्यायधीशों,कानून के छात्रों एवम शिक्षकोँ सभी के लिये उपयोगी हो। भारतीय विधि शास्त्रों में आज भी ये पुस्तक एक विशेष स्थान रखती है।

साहित्यकार
साहित्यकार के रुप में भी डॉ. हरीसिंह गौड़ की उपलब्धियॉं अद्वितीय हैँ। वह एक कुशल उपन्यासकार, कवि निबंधकार आत्मकथाकार थे तथा उन्होंने साहित्य की हर विधा में महारत हासिल की उन्होंने तीन उपन्यास लिखे जिनमें श्हिज ओनली लव श् विशिष्ट है। बौद्ध दर्शन पर उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक श्स्पिरिट ऑफ बौद्धिज्मश् लिखी जिसको बौद्ध देशों में बहुत पसन्द किया गया। डॉ. गोड़ का जापान बुलाकर एक धर्मगुरु के तौर पर ही स्वागत भी किया गया। उन्होंने श्रेण्डम राइम्सश् के नाम से एक कविता संग्रह भी प्रकाशित किया। उन्होंने अनेक निबंध एवं सँस्मरण भी लिखे। उनकी अंतिम रचना उनकी आत्मकथा थी।

शिक्षाविद
1921 में जब दिल्ली विश्वविधालय की स्थापना हुई तो डॉ. गौड इसके प्रथम कुलपति बने 1924 तक वो इस पद पर रहे। 1928 एवं 1936 में वह नागपुर विश्वविधालय के कुलपति रहे। इंग्लैंड में ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले 27 विश्वविधालयों का महाधिवेशन भी उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। 1946 में उन्होंने बिना सरकारी सहायता के अपने बीस लाख रुपयों से सागर विश्वविधालय की नींव रखी। डॉ. गौड़ सागर विश्वविधालय के संस्थापक कुलपति बने। डॉ. गौड़ एक सच्चे दानवीर थे उन्होने अपनी सम्पति का दो तिहाइ जो लगभग 2 करोड़ था को सागर विश्वविधालय को सुचारू रुप से चलाने के लिये दान कर दिया।

राजनीतिज्ञ
डॉ हरीसिंह गौड़ 1920 से 1935 तक विधान परिषद के सदस्य रहे उनके पास किये हुये कई बिल कानून बने। 1921 के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन मेँ मतभेदों के कारण उन्होने कांग्रेस को छोड़ दिया। उस समय स्टाम्प और टिकिट इंग्लैन्ड से छपकर आती थीं उन्होंने योजना बनाकर नासिक में एक प्रेस शुरु करवाई। दक्षिण में प्रचलित देवदासी प्रथा जिसमे कम उम्र कि लड़कियों को मन्दिर मेँ देवदासी बनाकर रखा जाता था एवं उनका शोषण किया जाता था का डॉ. गौड़ ने विरोध किया एवं इसे बन्द करवाया। उनके ही कारण इस प्रथा को धारा 372 एवं 373 के तहत अवैध एवं दंडनीय घोषित किया गया। भारतीय महिलाओं को वकालत करने का अधिकार भी उन्हीं के प्रयासों से मिला। इसके अलावा चिल्ड्रन प्रोटेक्शन एक्ट भी उन्होने ही कानून बनवाया। छुआछूत के खिलाफ पहला बिल 1921 में डॉ. हरी सिंह गौड़ ने ही पेश किया था, 1946 में गठित संविधान सभा के भी डॉ. गौड एक प्रमुख सदस्य थे। 26 नवम्बर 1976 को भारतीय डाक विभाग ने डॉ गोड़ पर एक डाक टिकट जारी किया डॉ गौड़ का विवाह डॉ. कमिलिनी चैहान से हुआ था जो की देश की कुछ सर्वप्रथम महिला डॉक्टर्स में से एक थीं

डा. विवेकानंद जैन उप ग़्रंथालयी, केन्द्रीय ग़्रंथालय, काशी हिंदू विश्व विद्यालय के अनुसार डॉ॰ “हरिसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, महान शिक्षाशास्त्री, ख्यातिप्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। डा. गौर दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय तथा सागर वि.वि. के कुलपति रहे। डा. गौर भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेलो भी रहे थे। सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, कुलपति आजीवन इसके विकास व सहेजने के प्रति संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करें। इस वि.वि. को सागर में एक पहाड़ी पर स्थापित किया गया। जहां का वातावरण प्रदूषण रहित बहुत ही सुंदर, रमणीय है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल है।

डॉ॰ सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्व स्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान स्वरूप की गई थी। उन्होने शिक्षा के द्वारा सामाजिक उत्थान का कार्य किया। सागर तथा पूरे बुंदेलखण्ड के विकास पर सागर वि.वि. की छाप पड़ी। उनके इस महान कार्य का लाभ हम सभी को मिला। हम सब उनके ऋणी हैं। आज हम उन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं।

महान राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने इस महान व्यक्तित्व के बारे में लिखा है
सरस्वती लक्ष्मी दोनों ने दिया तुम्हें सादर जयपत्र
साक्षी है हरीसिंह! तुम्हारे ज्ञानदान का अक्षयसत्र

लेखक : सचिन सिंह

ठा. नवल सिंह द्वारा एक वैश्य कन्या का मायरा (भात) भरना

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राजस्थान के शेखावाटी आँचल के ठिकाने नवलगढ़ (वर्तमान झुंझनु जिले में) के शासक (सेकुलर गैंग की भाषा में सामंत) ठाकुर नवल सिंह शेखावत (Thakur Nawal Singh Shekhawat : 1742—1780)अपने खिराज (मामले) के साठ हजार रुपयों की बकाया पेटे बाईस हजार रूपये की हुण्डी लेकर दिल्ली जा रहे थे| उनका लवाजमा जैसे ही हरियाणा प्रान्त के दादरी कस्बे से गुजरा तो उन पर एक वैश्य महिला की नजर पड़ी| महाजन (वैश्य) महिला के घर उसकी पुत्री का विवाह था, वह शेखावाटी के कस्बे बगड़ सलामपुर की थी और उसके पीहर के सारे कुटुम्बी जन मर चुके थे। पीछे कोई बाकी नहीं बचा था। दादरी वाला महाजन यद्यपि अच्छा धनाढ्य व्यक्ति था। ठा. नवलसिंह उधर से निकले, उसी दिन उस महाजन कन्या का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न होने वाला था।

महाजन की पत्नी ने ठाकुर की शेखावाटी की वेशभूषा और लवाजमा देखकर जान लिया कि वे उसी की मातृभूमि के रहने वाले हैं। उन्हें देखते ही उसका हृदय भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। अपने भाग्य को कोसने लगी कि यदि आज उसके पीहरवालों में से एक भी बचा हुआ होता, तो वह इसी वेषभूषा में उसकी पुत्री का मायरा (भात) भरने आता। यही एक ऐसा दिन होता है जब स्त्री अपने पीहर वालों को याद करती है।

उसे रोती देखकर ठाकुर साहब ने पूछा कि क्यों रोती है ?
और उन्हें जब सारी बात का पता लगा तो उन्होंने उस महाजन पत्नी को कहलाया-
“मैं ही तुम्हारा भाई हूँ और समय पर तुम्हारे घर मायरा भरने आऊँगा।'
जब अपने घर वालों को उसने यह बात कही तो किसी को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और कुटुम्ब की दूसरी औरतें, उसके भोलेपन पर हँसने लगी।

किन्तु ठा. नवलसिंह शेखावत ने जब अपना इरादा उक्त महाजन को कहला भेजा, तो वे सभी आश्चर्य चकित रह गये। अपनी जातीय पंचायत बुलाकर ठाकुर साहब का स्वागत करने की तैयारी की। “ठा. नवलसिंह ने बाईस हजार रुपयों की हुण्डी, जो उस समय उनके पास थी, उस लड़की के मायरे में भेंट कर दी। और वे वापिस झुंझुनू लौट गये।“ (वाल्टर-कृत-राजपुत्र हितकारिणी सभा की रिपोर्ट पृष्ठ 31, 42)
। इस तरह ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने जो धन दिल्ली के सरकारी खजाने में जमा कराना था, वो एक महिला के भाई बनकर उसकी पुत्री के विवाह में भात (मायरा) भरने में खर्च दिया|

इस घटना से उस समय के शासकों की संवेदना को समझा जा सकता है| ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने अपने क्षेत्र की महिला को अपनी बहन माना और उसके परिवार में किसी के न होने पर उसे जो दुःख हो रहा था वह दूर करने के लिए भाई मायरा भरने की परम्परा निभाते हुये वह धन खर्च कर डाला जो उन्हें राजकीय कोष में जमा कराना था| राजकीय कोष में उन्हें साठ हजार रूपये जमा कराने थे पर वे सिर्फ बाईस हजार रूपये की हुण्डी लेकर जमा कराने जा रहे थे, जो जाहिर करता है कि उनके राजकोष की आर्थिक दशा ठीक भी नहीं थी| साथ ही दिल्ली सल्तनत में समय पर खिराज (मामले) जमा नहीं कराने पर सीधे सैनिक कार्यवाही का सामना करना पड़ता था|

लेकिन ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने दिल्ली सल्तनत की तरफ से संभावित किसी भी सैन्य कार्यवाही के परिणाम की चिंता किये बगैर उक्त महिला का भाई बनकर उसकी पुत्री के विवाह में मायरा भरते हुए बाईस हजार रूपये भेंट कर दिए| जो उनकी संवेदनशीलता प्रदर्शित करता है| अफ़सोस इसी तरह के संवेदनशील शासकों को आजादी के बाद कथित भ्रष्ट नेताओं ने सामंतवाद के खिलाफ शोषण, अत्याचार की मनघडंत कहानियां रचकर दुष्प्रचार कर बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी|


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ममता और कर्तव्य : भाग-1

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विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था ।

ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।
“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।

‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |''

गोरा ने मुड़ कर देखा - पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।

थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।

गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।

अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।

कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।

कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |

इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।

वृद्धा ने मन ही मन कहा - ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी - ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

क्रमशः................

लेखक : कुंवर आयुवानसिंह शेखावत, हुडील


ममता और कर्तव्य : भाग-2

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भाग-१ से आगे............

पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई ।
“कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।

गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|

तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया ।
उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा - “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।

गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।

“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।

मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।

माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली - ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ..... | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है ।

क्रमश:...............

लेखक : कुंवर आयुवानसिंह शेखावत




ममता और कर्तव्य : भाग-3

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भाग-२ से आगे............

इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी - माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा -

“गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि -
’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’

अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया । “शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।

वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।

गोरा ने कहा - ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा -

’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।'

गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा -
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा - ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“
उसने कहा - ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।'
“यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |'' “पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।

“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी -

“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’ परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।

इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली -

“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’

गोरा ने सोचा - “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा -

क्रमश:..............

लेखक : कुंवर आयुवानसिंह शेखावत

ममता और कर्तव्य : भाग-4

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भाग-३ से आगे...............
पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।" बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली-
“नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।”
गोरा मन्त्र मुग्ध सा -
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।
“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।
“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’
“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।'
गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका ।
इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|

गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।

वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा - “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’

इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।
गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा - ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।

“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।' कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।

उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा -
“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’ वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा-
“चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ',
’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?

ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, - “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।

वह फिर साहस बटोर कर उठा - अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा -
“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी' चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।
गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।
गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया -
“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’

अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

समाप्त

लेखक : कुंवर आयुवानसिंह शेखावत

रानी अवंतीबाई

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भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आन्दोलन सन 1857 में प्रचण्ड रूप से हुआ था. देश के बहुत सारे राजा, महाराजा, बादशाह, सामंत, जागीरदार इस संघर्ष में शामिल थे| देश में प्रचलित रुढ़िवादी रीति-रिवाजों, परम्पराओं के कारण भारतीय सवतंत्रता संग्राम में भारतीय महिलाएं समुचित स्थान पाने में हालाँकि वंचित रही, फिर भी स्वतंत्रता संग्राम रूपी इस यज्ञ में कई महिलाओं ने सक्रीय आहुति देकर देश की स्वतंत्रता के लिए शुरू की गई जंग में निर्णायक भूमिका निभाई| रानी लक्ष्मीबाई, बैजाबाई, चौहान रानी, भीमाबाई, आलिया बेगम आदि कई नाम है जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ बढ़-चढ़ कर सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया और युद्ध में में अपनी वीरता, साहस, शौर्य के बलबूते अंग्रेजों को नाकों चने चबाने को मजबूर किया|

सन 1850 में रामगढ़ राज्य (वर्तमान मंडला जिले का गढ़) के अंतिम राजा लक्ष्मण सिंह (Raja Laxman Singh, Lodh Rajput) के निधन के पश्चात् उनका उतराधिकारी विक्रमजीत गद्दी पर बैठा| विक्रमजीत का विवाह मनकेड़ी के जागीर के राव गुलजार सिंह की पुत्री अवंतीबाई Avanti Bai के साथ हुआ था| विक्रमजीत गद्दी पर बैठे उस वक्त मानसिक रूप से अस्वस्थ थे अत: उन्हें राज्य की गद्दी से उतार दिया गया| राज्य के शासन का पूरा भार रानी अवंतीबाई Rani Avanti Bai के कन्धों पर आ गया| अंग्रेज स्थानीय शासन में दखलंदाजी करने के लिए ऐसे ही मौकों की हर समय तलाश में रहते थे| इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण है जब अंग्रेजों ने राज्य की विरासत को लेकर खूब राजनैतिक खेल खेलें है| विक्रमजीत की मानसिक अस्वथता का लाभ उठाते हुए रामगढ राज्य में भी अंग्रेजों ने प्रशासनिक कार्यों में दखलंदाजी शुरू कर दी| अपनी इस नीति के अनुसार अंग्रेजों ने बिना रानी की सहमति के रामगढ में तहसीलदार नियुक्त कर दिया. जिसका रानी ने कड़ा विरोध करते हुए तहसीलदार को हटा दिया और राज्य के शासन की पूरी बागडोर अपने हाथ में ले ली| राज्य की सत्ता पर आधिपत्य ज़माने के बाद रानी ने राज्य की अंग्रेजों से सुरक्षा के लिए अपनी सैनिक शक्ति बढ़ानी शुरू कर उसे सुदृढ़ किया| इन्हीं दिनों अंग्रेजों ने मंडला राज्य पर अपना राजनैतिक प्रभुत्त्व जमा कर आधिपत्य स्थापित कर लिया था, उससे खिन्न होकर मंडला के राजकुमार ने पत्र लिखकर रानी से अंग्रेजों के खिलाफ सहायता मांगी साथ ही आजादी के लिए होने वाली संभावित जंग का नेतृत्व करने का आग्रह किया|


मंडला Mandla के राजकुमार के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए रानी अवंतीबाई ने मंडला राज्य को अंग्रेजों के प्रभुत्व से मुक्त कराने का संकल्प लिया और अंग्रेजों के खिलाफ रामगढ और मंडला राज्यों की सेनाओं का नेतृत्व करते हुए स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी सुलगा दी जो चारों और फ़ैल गई| मध्य भारत में 1857 की क्रांति की लहर शुरू होते ही रानी को भी इशारा मिल गया था और वह देश की आजादी के लिए आहूत युद्ध रूपी में यज्ञ में आहुति देने अपनी सेना सहित चल पड़ी| उस वक्त अंग्रेजों का देश में देशी रियासतों को बर्बरता पूर्वक अपने राज्य में मिलाने का कुचक्र चल रहा था, इसी कुचक्र को तोड़ने, उसका अंग्रेजों का बदला लेने के लिए रानी अवंतीबाई ने मंडला नगर की सीमा पर खेरी नामक गांव में अपना मोर्चा जमाया और अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारा| अंग्रेजों ने अपने एक सेनापति वार्टन को रानी से मुकाबले को सेना सहित भेजा| दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ, तोप, बंदूकें, तलवारें खूब चली| एक तरफ वार्टन के नेतृत्व में भाड़े के सैनिक अंग्रेजों के लिए लड़ रहे थे, दूसरी और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए भारत माता के वीर सैनिक सपूत रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में मरने मारने को उतारू होकर युद्ध में अपने हाथ दिखा रहे थे| आखिर रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में मातृभूमि के लिए बलिदान देने का संकल्प लिए लड़ने वाले शूरवीरों के शौर्य के आगे अंग्रेजों के वेतनभोगी सैनिक भाग खड़े हुए और कैप्टन वार्टन को अपने हथियार फैंक रानी के चरणों में गिर कर प्राणों की भीख मांगनी पड़ी|

रानी अवंतीबाई ने भी भारतीय संस्कृति व क्षात्र धर्म का पालन करते हुये चरणों में गिर कर प्राणों की भीख मांग रहे राष्ट्र के दुश्मन कैप्टन वार्टन को दया दिखाते हुए माफ़ कर जीवन दान दे दिया| इस तरह रानी ने अपने राज्य के साथ मंडला पर अंग्रेज आधिपत्य ख़त्म कर अधिकार कर लिया और अपने पति की अस्वस्थता के चलते उनकी जगह लेकर अपने राज्य की स्वतंत्रता, संप्रभुता को कायम रखा और शक्तिशाली अंग्रेजों को युद्ध में हराकर अपनी बहादुरी, साहस, शौर्य, नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया|


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बिना सिर लड़ण वाळा अद्भुत वीर तोगोजी राठौड़

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मारवाड़ का इतिहास वीरों की गाथाओं से भरा पड़ा है। वीरता किसी कि बपौती नहीं रही। इतिहास गवाह है कि आम राजपूत से लेकर खास तक ने अप सरजमीं के लिए सर कटा दिया। लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि इतिहास में ज्यादातर उन्हीं वीरों की स्थान मिल पाया जो किसी न किसी रूप में खास थे | आम व्यक्ति की वीरता इतिहास के पन्नों पर बेहद कम आईं। आई भी तो कुछ शब्दों तक सीमित| कुछ भी कहा जाए, लेकिन इन वीरों ने नाम के लिए वीरता नहीं दिखाई। ऐसा ही एक बेहतरीन उदाहरण दिया है मारवाड़ के आम राजपूत तोगाजी राठौड़ Togaji Rathore ने, जिसने शाहजहां को महज यह यकीन दिलाने के लिए अपना सिर कटवा दिया कि राजपूत अप आन-बान के लिए बिना सिर भी वीरता पूर्वक युद्ध लड़ सकता है और उसकी पत्नी सती हो जाती है। आज का राजपूत या और कोई भले ही इसे महज कपोल-कल्पना समझे, लेकिन राजपूतों का यही इतिहास रहा है कि वे सच्चाई के लिए मृत्यु को वरण करना ही अपना धर्म समझते थे |

वर्ष 1656 के आसपास का समय था | दिल्ली पर बादशाह शाहजहां व जोधपुर Jodhpur पर राजा गजसिंह प्रथम Maharaja Gaj Singh 1st का शासन था। एक दिन शाहजहां Shajahan का दरबार लगा हुआ था। सभी अमीर उमराव और खान अपनी अपनी जगह पर विराजित थे| उसी समय शाहजहां जे कहा कि अपने दरबार में खान 60 व उमराव 62 क्यों है? उन्होंने दरबारियों से कहा कि इसका जवाब तत्काल चाहिए | सभा में सन्नाटा पसर गया | सभी एक दूसरे को ताकने लगे। सबने अपना जवाब दिया, लेकिन बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ । आखिरकार दक्षिण का सुबेदार मीरखां खड़ा हुआ और उसने कहा कि खानों से दो बातों में उमराव आगे है इस कारण दरबार में उनकी संख्या अधिक है। पहला, सिर कटने के बावजूद युद्ध करना और दूसरा युद्धभूमि में पति के वीरगति को प्राप्त होने पर पत्नी का सति होना। शाहजहां यह जवाब सुनने के बाद कुछ समय के लिए मौन रहा | अगले ही पल उसने कहा कि ये दोनों नजारे वह अपनी आंखों से देखना चाहता है | इसके लिए उसने छह माह का समय निर्धारित किया । साथ ही उसने यह भी आदेश दिया कि दोनों बातें छह माह के भीतर साबित नहीं हुई तो मीरखां का कत्ल करवा दिया जाएगा और उमराव की संख्या कम कर दी जाएगी। इस समय दरबार में मौजूद जोधपुर के महाराजा गजसिंह जी को यह बात अखर गई| उन्होंने मीरखां से इस काम के लिए मदद करने का आश्वासन दिया |

मीरखां चार महीने तक ररजवाड़ों में घूमे, लेकिन ऐसा वीर सामने नहीं आया जो बिना किसी युद्ध महज शाहजहां के सामने सिर कटने के बाद भी लड़े और उसकी पत्नी सति हो। आखिरकार मीरखां जोधपुर महाराजा गजसिंह जी से आ कर मिले । महाराजा ने तत्काल उमरावों की सभा बुलाई| महाराजा ने जब शाहजहां की बात बताई तो सभा में सन्नाटा छा गया । महाराजा की इस बात पर कोई आगे नहीं आया । इस पर महाराजा गजसिंह जी की आंखें लाल हो गई और भुजाएं फड़कजे लगी। उन्होंने गरजना के साथ कहा कि आज मेरे वीरों में कायरता आ गई है। उन्होंने कहा कि आप में से कोई तैयार नहीं है तो यह काम में स्वयं करूँगा। महाराजा इससे आगे कुछ बोलते कि उससे पहले 18 साल का एक जवान उठकर खड़ा हुआ। उसने महाराजा को खम्माघणी करते हुए कहा कि हुकुम मेरे रहते आपकी बारी कैसे आएगी| बोलता-बोलता रुका तो महाराज ने इसका कारण पूछ लिया| उस जवान युवक ने कहा कि अन्नदाता हुकुम सिर कटने के बाद भी लड़ तो लूँगा, लेकिन पीछे सति होने वाली कोई नहीं है अर्थात उसकी शादी नहीं हो रखी है| यह वीरता दिखाने वाला था तोगा राठौड़| महाराजा इस विचार में डूब गए कि लड़ने वाला तो तैयार हो गया, लेकिन सति होने की परीक्षा कौन दे | महाराजा ने सभा में दूसरा बेड़ा घुमाया कि कोई राजपूत इस युवक से अप बेटी का विवाह सति होने के लिए करे| तभी एक भाटी सिरदार इसके लिए राजी हो गए।

भाटी कुल री रीत, आ आजाद सूं आवती ।
करण काज कुल कीत, भटियाणी होवे सती।


महाराजा जे अच्छा मुहूर्त दिखवा कर तोगा राठौड़ का विवाह करवाया । विवाह के बाद तोगाजी ने अपनी पत्नी के डेरे में जाने से इनकार कर दिया | वे बोले कि उनसे तो स्वर्ग में ही मिलाप करूँगा । उधर, मीरखां भी इस वीर जोड़े की वीरता के दिवाने हो गये | उन्होंने तोगा राठौड़ का वंश बढ़ाने की सोच कर शाहजहां से छह माह की मोहलत बढ़वाने का विचार किया। ज्योंहि यह बात नव दुल्हन को पता चली तो उसने अपने पति तोगोजी की सूचना भिजवाई कि जिस उद्देश्य को लेकर दोनों का विवाह हुआ है वह पूरा किये बिना वे ढंग से श्वास भी नहीं ले पाएंगे| इस कारण शीघ्र ही शाहजहाँ के सामने जाने की तैयारी की जाए| महाराजा गजसिंह व मीरखां ने शाहजहाँ को सूचना भिजवा दी|

समाचार मिलते ही शाहजहां जे अपने दो बहादूर जवाजों को तोणोजी से लड़ने के लिए तेयार किया । शाहजहां ने अपने दोनों जवानों को सिखाया कि तोगा व उसके साथियों की पहले दिन भोज दिया जायेगा | जब वे लोग भोजन करने बैठेंगे उस वक्त तोगे का सिर काट देना ताकि वह खड़ा ही नहीं हो सके। उधर, तोगाजी राठौड़ आगरा पहुंच गए। बादशाह ने उन्हें दावत का न्योता भिजवाया। तोगाजी अपने साथियों के साथ किले पहुँच गए। वहां उनका सम्मान किया गया। मान-मनुहारें हुई। बादशाह की रणनीति के तहत एक जवान तोगाजी राठौड़ के ईद-गीर्द चक्कर लगाने लगा । तोगोजी को धोखा होने का संदेह ही गया। उन्होंने अपने पास बैठे एक राजपूत सरदार से कहा कि उन्हें कुछ गड़बड़ लग रही है इस कारण उनके आसपास घूम रहे व्यक्ति को आप संभाल लेना ओर उनका भी सिर काट देना। उसके बाद वह अपना काम कर देगा । दूसरी तरफ, तोगोजी की पत्नी भी सती होने के लिए सजधज कर तैयार हो गई । इतने में दरीखाने से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी कि तोगाजी ने एक व्यक्ति को मार दिया ओर पास में खड़े किसी व्यक्ति ने तोगाजी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तोगाजी बिना सिर तलवार लेकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। तोगाजी के इस करतब पर ढोल-नणाड़े बजने लगे। चारणों ने वीर रस के दूहे शुरू किए। ढोली व ढाढ़ी सोरठिया दूहा बोलने लगे। तोगोजी की तलवार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बादशाह के दरीखाने में हाहाकार मच गया। बादशाह दौड़ते हुए रणक्षेत्र में पहुंचे। दरबार में खड़े राजपूत सिरदारों ने तोगोजी ओर भटियाणी जी की जयकारों से आसमाज गूंजा दिया तोगोजी की वरीता देखकर बादशाह जे महाराजा गजसिंह जी के पास माफीनामा भिजवाया और इस वीर को रोकने की तरकीब पूछी। कहते हैं कि ब्राह्मण से तोगोजी के शरीर पर गुली का छिंटा फिंकवाया तब जाकर तोगोजी की तलवार शांत हुई और धड़ नीचे गिरा। उधर, भटियाणी सोलह श्रृंगार कर तैयार बैठी थी। जमना जदी के किनारे चंदन कि चिता चुनवाई गई। तोगाजी का धड़ व सिर गोदी में लेकर भटियाणीजी राम का नाम लेते हुए चिता मेंप्रवेश कर गई|

साभार : जाहरसिंह जसोल द्वारा रचित राजस्थान री बांता पुस्तक से लेकर घम्माघणी पत्रिका द्वारा हिंदी में अनुवादित


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जब नेट्वर्किंग का होगा जमाना

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तकनीकि जिस तेजी से उन्नत हो रही है उसे देखते हुए वो दिन दूर नहीं लग रहा जब सभी बैंक, दुकानें,व्यापारिक संस्थान, शैक्षणिक संस्थान, अस्पताल, थाने, कोर्ट, सभी सरकारी दफ्तर यानि सभी कुछ एक नेटवर्क के द्वारा आपस में जुड़े होंगे, हर नागरिक के पास आधार कार्ड के रूप में एक स्मार्ट कार्ड होगा| आधार कार्ड के माध्यम से व्यक्ति की सारी जानकारी एक जगह एकत्र की जा रही है| जिस तरह सरकार विभिन्न विभागों में व सरकारी योजनाओं को आधार कार्ड से जोड़ रही है, उसे देखते हुए वो दिन दूर नहीं होगा जब किसी भी व्यक्ति सम्पूर्ण जानकारी चाहे वह आर्थिक हो, व्यवसायिक हो, स्वास्थ्य सम्बन्धी हो, आपराधिक हो यानि किसी भी जानकारी के लिए कंप्युटर में उस व्यक्ति का आधार कार्ड नंबर डालते ही सारी जानकारी एक क्लिक पर कंप्युटर स्क्रीन पर होगी | तब कोई भी व्यक्ति अपने बारे में कुछ भी छुपाने में असमर्थ होगा |

आज भी देशभर में कई लोग देश के अलग अलग कोनों में कई गैस कनेक्शन लेकर सरकारी सब्सिडी का फायदा ले रहे है पर जब से सरकार ने गैस कनेक्शन को आधार कार्ड से जोड़ा है, ऐसे लोगों की सब्सिडी का फायदा उठाने पर रोक लगने लगी. गांवों में कई आयकर दाता गरीबों के लिए आने वाला राशन का सस्ता अनाज लेकर सरकार को सब्सिडी का चुना लगा रहे थे, लेकिन अब सरकार राशन की दुकानों पर आधार कार्ड अपडेट करने लगी, जिसकी मदद से आयकर देने वाली की सूचना आसानी से मिल जाएगी और उसका सस्ता राशन स्वत; बंद हो जायेगा|

इस तरह हो सकता है धीरे धीरे आधार कार्ड को ही सरकार सब जगह लागू कर दे और उसके माध्यम से व्यक्ति की सभी सूचनाएं एक जगह एकत्र हो जाये, हालाँकि आधार कार्ड का मामला अभी माननीय न्यायालय में विचाराधीन है|
इस उन्नत तकनीक के हो सकता है बहुत फायदे हों लेकिन तब व्यक्ति की निजता खोने का उसे कितना नुकसान उठाना होगा, इसका अंदाजा आप दैनिक भास्कर में वर्ष 2009 में छपे इस लेख में, जिसमे एक ग्राहक व पिज्जा सेंटर कर्मी के बीच हो रही बातचीत पढ़कर लगा सकते है |
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चौहान वंश की कुलदेवी आशापुरा माता

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Ashapura Mataji, Ashapurna Mata, Chauhan Vnash ki kuldevi Ashapura mata
नाडोल शहर (जिला पाली,राजस्थान) का नगर रक्षक लक्ष्मण हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित गश्त पर था। नगर की परिक्रमा करते करते लक्ष्मण प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली भारमली नदी के तट पर जा पहुंचा। पानी पीने के बाद नदी किनारे बसी चरवाहों की बस्ती पर जैसे लक्ष्मण ने अपनी सतर्क नजर डाली, तब एक झोंपड़ी पर हीरों के चमकते प्रकाश ने आकर्षित किया। वह तुरंत झोंपड़ी के पास पहुंचा और वहां रह रहे चरवाहे को बुला प्रकाशित हीरों का राज पूछा। चरवाह भी प्रकाश देख अचंभित हुआ और झोंपड़ी पर रखा वस्त्र उतारा। वस्त्र में हीरे चिपके देख चरवाह के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, उसे समझ ही नहीं आया कि जिस वस्त्र को उसने झोपड़ी पर डाला था, उस पर तो जौ के दाने चिपके थे।

लक्ष्मण द्वारा पूछने पर चरवाहे ने बताया कि वह पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की गाय चराता है। आज उस महिला ने गाय चराने की मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे। जिसे वह बनिये को दे आया, कुछ इसके चिपक गए, जो हीरे बन गये। लक्ष्मण उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए हीरे बरामद वापस ग्वाले को दे दिये। लक्ष्मण इस चमत्कार से विस्मृत था अतः उसने ग्वाले से कहा- अभी तो तुम जाओ, लेकिन कल सुबह ही मुझे उस कन्दरा का रास्ता बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है।

दुसरे दिन लक्ष्मण जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में गया, कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी। उसने बिना देखे लक्ष्मण को पुकारा- “लक्ष्मण, राव लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ।”
आवाज सुनते ही लक्ष्मण आश्चर्यचकित हो गया और उसका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा। उसे तुरंत आभास हो गया कि यह वृद्ध महिला कोई और नहीं, उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है। और लक्ष्मण सीधा माँ के चरणों में गिरने लगा, तभी आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा? बोलो मेरे लिए क्या लाये हो?
लक्ष्मण को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं लगी और उसने तुरंत साथ आये ग्वाला का सिर काट माँ के चरणों में अर्पित कर दिया।
लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा। लक्ष्मण ने माँ से कहा- माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है, अतः मुझे राव (शासक) बना दो ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर प्रजा का पालन करूँ, मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन कर सकूं और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा करें। वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो गई। जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ सुदी 2 का दिन था। इसके बाद लक्ष्मण नाडोल शहर की सुरक्षा में तन्मयता से लगा रहा।

उस जमाने में नाडोल एक संपन्न शहर था। अतः मेदों की लूटपाट से त्रस्त था। लक्ष्मण के आने के बाद मेदों को तकड़ी चुनौती मिलने लगी। नगरवासी अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन मेदों ने संगठित होकर लक्ष्मण पर हमला किया। भयंकर युद्ध हुआ। मेद भाग गए, लक्ष्मण ने उनका पहाड़ों में पीछा किया और मेदों को सबक सिखाने के साथ ही खुद घायल होकर अर्धविक्षिप्त हो गया। मूर्छा टूटने पर लक्ष्मण ने माँ को याद किया। माँ को याद करते ही लक्ष्मण का शरीर तरोताजा हो गया, सामने माँ खड़ी थी बोली- बेटा ! निराश मत हो, शीघ्र ही मालव देश से असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे। तुम उन पर केसरमिश्रित जल छिड़क देना। घोड़ों का प्राकृतिक रंग बदल जायेगा। उनसे अजेय सेना तैयार करो और अपना राज्य स्थापित करो।

अगले दिन माँ का कहा हुआ सच हुआ। असंख्य घोड़े आये। लक्ष्मण ने केसर मिश्रित जल छिड़का, घोड़ों का रंग बदल गया। लक्ष्मण ने उन घोड़ों की बदौलत सेना संगठित की। इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा इन घोड़ों की संख्या 12000 हजार बताते है तो मुंहता नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या 13000 लिखी है। अपनी नई सेना के बल पर लक्ष्मण ने लुटरे मेदों का सफाया किया। जिससे नाडोल की जनता प्रसन्न हुई और उसका अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण को सिंहासन पर आरूढ कर पुरस्कृत किया।

इस प्रकार लक्ष्मण माँ शाकम्भरी के आशीर्वाद और अपने पुरुषार्थ के बल पर नाडोल का शासक बना। मेदों के साथ घायल अवस्था में लक्ष्मण ने जहाँ पानी पिया और माँ के दुबारा दर्शन किये जहाँ माँ शाकम्भरी ने उसकी सम्पूर्ण आशाएं पूर्ण की वहां राव लक्ष्मण ने अपनी कुलदेवी माँ शाकम्भरी को “आशापुरा माँ” के नाम से अभिहित कर मंदिर की स्थापना की तथा उस कच्ची बावड़ी जिसका पानी पिया था को पक्का बनवाया। यह बावड़ी आज भी अपने निर्माता वीरवर राव लक्ष्मण की याद को जीवंत बनाये हुए है। आज भी नाडोल में आशापुरा माँ का मंदिर लक्ष्मण के चौहान वंश के साथ कई जातियों व वंशों के कुलदेवी के मंदिर के रूप में ख्याति प्राप्त कर उस घटना की याद दिलाता है। आशापुरा माँ को कई लोग आज आशापूर्णा माँ भी कहते है और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है।

कौन था लक्ष्मण ?

लक्ष्मण शाकम्भर (वर्तमान नमक के लिए प्रसिद्ध सांभर, राजस्थान) के चौहान राजा वाक्प्तिराज का छोटा पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद लक्ष्मण के बड़े भाई को सांभर की गद्दी और लक्ष्मण को छोटी सी जागीर मिली थी। पर पराक्रमी, पुरुषार्थ पर भरोसा रखने वाले लक्ष्मण की लालसा एक छोटी सी जागीर कैसे पूरी कर सकती थी? अतः लक्ष्मण ने पुरुषार्थ के बल पर राज्य स्थापित करने की लालसा मन में ले जागीर का त्याग कर सांभर छोड़ दिया। उस वक्त लक्ष्मण अपनी पत्नी व एक सेवक के साथ सांभर छोड़ पुष्कर पहुंचा और पुष्कर में स्नान आदि कर पाली की और चल दिया। उबड़ खाबड़ पहाड़ियों को पार करते हुए थकावट व रात्री के चलते लक्ष्मण नाडोल के पास नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ आराम करने के लिए रुका। थकावट के कारण तीनों वहीं गहरी नींद में सो गये। सुबह मंदिर के पुजारी ने उन्हें सोये देखा। पुजारी सोते हुए लक्ष्मण के चेहरे के तेज से समझ गया कि यह किसी राजपरिवार का सदस्य है। अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे उठाया। परिचय व उधर आने प्रयोजन जानकार पुजारी ने लक्ष्मण से आग्रह किया कि वो नाडोल शहर की सुरक्षा व्यवस्था संभाले। पुजारी ने नगर के महामात्य संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का मुख्य नगर रक्षक नियुक्त करवा दिया। जहाँ लक्ष्मण ने अपनी वीरता, कर्तव्यपरायणता, शौर्य के बल पर गठीले शरीर, गजब की फुर्ती वाले मेद जाति के लुटेरों से नाडोल नगर की सुरक्षा की। और जनता का दिल जीता। उस काल नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य व्यापारिक नगर था। व्यापार के चलते नगर की संपन्नता लुटेरों व चोरों के आकर्षण का मुख्य केंद्र थी। पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने नाडोल नगर को धन-धान्य से पाट डाला था। हालाँकि नगर सुरक्षा के लिहाज से एक मजबूत प्राचीर से घिरा था, पर सामंतसिंह चावड़ा जो गुजरातियों का सामंत था। अयोग्य और विलासी शासक था। अतः जनता में उसके प्रति रोष था, जो लक्ष्मण के लिए वरदान स्वरूप काम आया।

चौहान वंश की कुलदेवी शुरू से ही शाकम्भरी माता रही है, हालाँकि कब से है का कोई ब्यौरा नहीं मिलता। लेकिन चौहान राजवंश की स्थापना से ही शाकम्भरी को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता रहा है। चौहान वंश का राज्य शाकम्भर (सांभर) में स्थापित हुआ तब से ही चौहानों ने माँ आद्ध्यशक्ति को शाकम्भरी के रूप में शक्तिरूपा की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी।

माँ आशापुरा मंदिर तथा नाडोल राजवंश पुस्तक के लेखक डॉ. विन्ध्यराज चौहान के अनुसार- ज्ञात इतिहास के सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में नगर (ठी.उनियारा) जनपद से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति सवार्धिक प्राचीन है। 1945 में अंग्रेज पुरातत्वशास्त्री कार्लाइल ने नगर के टीलों का सर्वेक्षण किया। 1949 में श्रीकृष्णदेव के निर्देशन में खनन किया गया तो महिषासुरमर्दिनी के कई फलक भी प्राप्त हुए जो आमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।

नाडोल में भी राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता के रूप में ही आराधना की थी, लेकिन माँ के आशीर्वाद स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित किया। जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम “आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता के नाम से कुलदेवी मानने लगे।

भारतवर्ष के जैन धर्म के सुदृढ. स्तम्भ तथा उद्योगजगत के मेरुदंड भण्डारी जो मूलतः चौहान राजवंश की ही शाखा है, भी माँ आशापुरा को कुलदेवी के रूप में मानते है। गुजरात के जड.ेचा भी माँ आशापुरा की कुलदेवी के रूप में ही पूजा अर्चना करते है।

माँ आशपुरा के दर्शन लाभ हेतु अजमेर-अहमदाबाद रेल मार्ग पर स्थित रानी रेल स्टेशन पर उतरकर बस व टैक्सी के माध्यम से नाडोल जाया जा सकता है। मंदिर में पशुबलि निषेध है।



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क्रांतिवीर : बलजी-भूरजी

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Krantiveer Balji-Bhurji, Balji-Bhurji freedom fighter of Shekhawati Rajasthan, Shekhawati's Freedom Fighter Balji-Bhurji, bal singh shekhawat, bhoor singh shekhawat, balji-bhurji patoda wale
राजस्थान में शेखावाटी राज्य की जागीर बठोठ-पटोदा के ठाकुर बलजी शेखावत दिनभर अपनी जागीर के कार्य निपटाते,लगान की वसूली करते,लोगों के झगड़े निपटाकर न्याय करते,किसी गरीब की जरुरत के हिसाब से आर्थिक सहायता करते हुए अपने बठोठ के किले में शान से रहते ,पर रात को सोते हुए उन्हें नींद नहीं आती,बिस्तर पर पड़े पड़े वे फिरंगियों के बारे में सोचते कि कैसे वे व्यापार करने के बहाने यहाँ आये और पुरे देश को उन्होंने गुलाम बना डाला | ज्यादा दुःख तो उन्हें इस बात का होता कि जिन गरीब किसानों से वे लगान की रकम वसूल कर सीकर के राजा को भेजते है उसका थोड़ा हिस्सा अंग्रेजों के खजाने में भी जाता | रह रह कर उन्हें फिरंगियों पर गुस्सा आता और साथ में उन राजाओं पर भी जिन्होंने अंग्रेजों की दासता स्वीकार करली थी | पर वे अपना दुःख किसे सुनाये,अकेले अंग्रेजों का मुकाबला भी कैसे करें सभी राजा तो अंग्रेजों की गोद में जा बैठे थे |
उन्हें अपने पूर्वज डूंगरसीं व जवाहरसीं Dungji Jawahar ji की याद भी आती जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ा था और जोधपुर के राजा ने उन्हें विश्वासघात से पकड़ कर अंग्रेजों के हवाले कर दिया था,अपने पूर्वज डूंगरसींके साथ जोधपुर महाराजा द्वारा किये गए विश्वासघात की बात याद आते ही उनका खून खोल उठता था वे सोचते कि कैसे जोधपुर रियासत से उस बात का बदला लिया जाय |
आज भी बलजी को नींद नहीं आ रही थी वे आधी रात तक इन्ही फिरंगियों व राजस्थान के सेठ साहूकारों द्वारा गरीबों से सूद वसूली पर सोचते हुए चिंतित थे तभी उन्हें अपने छोटे भाई भूरजी की आवाज सुनाई दी |
भूरजी अति साहसी व तेज मिजाज रोबीले व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे उनके रोबीले व्यक्तित्व को देखकर अंग्रेजों ने भारतीय सेना की आउट आर्म्स राइफल्स में उन्हें सीधे सूबेदार के पद पर भर्ती कर लिया था| एक अच्छे निशानेबाज व बुलंद हौसले वाले फौजी होने के साथ भूरजी में स्वाभिमान कूट कूटकर भरा था | अंग्रेज अफसर अक्सर भारतीय सैनिकों के साथ दुर्व्यवहार करते थे ये भेदभाव भूरजी को बर्दास्त नहीं होता था सो एक दिन वे इसी तरह के विवाद पर एक अंग्रेज अफसर की हत्या कर सेना से फरार हो गए | सभी राज्यों की पुलिस भूरजी को गिरफ्तार करने हेतु उनके पीछे पड़ी हुई थी और वे बचते बचते इधर उधर भाग रहे थे |
आज आधी रात में बलजी को उनकी (भूरजी) आवाज सुनाई दी तो वे चौंके,तुरंत दरवाजा खोल भूरजी को किले के अन्दर ले गले लगाया,दोनों भाइयों ने कुछ क्षण आपसी विचार विमर्श किया और तुरंत ऊँटों पर सवार हो अपने हथियार ले बागी जिन्दगी जीने के लिए किले से बाहर निकल गए उनके साथ बलजी का वफादार नौकर गणेश नाई भी साथ हो लिया |
अब दोनों भाई जोधपुर व अन्य अंग्रेज शासित राज्यों में डाके डालने लगे ,जोधपुर रियासत में तो डाके डालने की श्रंखला ही बना डाली | जोधपुर रियासत के प्रति उनके मन में पहले से ही काफी विरोध था |धनी व्यक्ति व सेठ साहूकारों को लुट लेते और लुटा हुआ धन शेखावाटी में लाकर जरुरत मंदों के बीच बाँट देते |
लूटे गए धन से किसी गरीब की बेटी की शादी करवाते तो किसी गरीब बहन के भाई बनकर उसके बच्चों की शादी में भात भरने जाते | हर जरुरत मंद की वे सहायता करते जोधपुर,आगरा, बीकानेर,मालवा,अजमेर,पटियाला,जयपुर रियासतों में उनके नाम से धनी व सेठ साहूकार कांपने लग गए थे | साहूकारों के यहाँ डाके डालते वक्त सबसे पहले बलजी-भूरजी उनकी बहियाँ जला डालते थे ताकि वे गरीबों को दिए कर्ज का तकादा नहीं कर सके |
गरीब,जरुरत मंद व असहाय लोगों की मदद करने के चलते स्थानीय जनता ने उन्हें मान सम्मान दिया और बलसिंह -भूरसिंह के स्थान पर लोग उन्हें बाबा बलजी-भूरजी Balji Bhurji कहने लगे | और यही कारण था कि पुरे राजस्थान की पुलिस उनके पीछे होने के बावजूद वे शेखावाटी में स्वछन्द एक स्थान से दुसरे स्थान पर घूमते रहे | लोग उनके दल को अपने घरों में आश्रय देते,खाना खिलाते ,उनका सम्मान करते | वे भी जो रुखी सुखी रोटी मिल जाती खाकर अपना पेट भर लेते कभी किसी गांव में तो कभी रेत के टीलों पर सो कर रात गुजार देते |गांव के लोगों से जब भी वे मिलते ग्रामीणों को फिरंगियों के मंसूबों से अवगत कराते,राजाओं की कमजोरी के बारे में उन्हें सचेत करते,कैसे सेठ साहूकार गरीबों का शोषण करते है के बारे में बताते |
कई लोग उनके नाम से भी वारदात करने लगे ,पता चलने पर बलजी-भूरजी उन्हें पकड़कर दंड देते और आगे से हिदायत भी देते कि उनके नाम से कभी किसी ने किसी गरीब को लुटा या सताया तो उसकी खैर नहीं होगी | उनके दल में काफी लोग शामिल हो गए थे पर जो लोग उनके दल के लिए बनाये कठोर नियमों का पालन नहीं करते बलजी उन्हें निकाल देते थे | उनके नियम थे -किसी गरीब को नहीं सताना,किसी औरत पर कुदृष्टि नहीं डालना,डाका डालते वक्त भी उस घर की औरतों को पूरा सम्मान देना आदि व डाके में मिला धन गरीबों व जरुरत मंदों के बीच बाँट देना |
20 वर्ष तक इन बागियों को रियासतों की पुलिस द्वारा नहीं पकड़पाने के चलते अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे और डीडवाना के पास मुटभेड में जोधपुर रियासत के इन्स्पेक्टर गुलाबसिंह की हत्या के बाद तो जोधपुर रियासत की पुलिस ने इन्हें पकड़ने का अभियान ही चला दिया | अंग्रेज अधिकारीयों ने जोधपुर पुलिस को सीकर व अन्य राज्यों की सीमाओं में घुसकर कार्यवाही करने की छुट दे दी |
जोधपुर रियासत ने बलजी-भूरजी को पकड़ने हेतु अपने एक जांबाज पुलिस अधिकारी पुलिस सुपरिडेंट बख्तावरसिंह के नेतृत्व में तीन सौ सिपाहियों का एक विशेष दल बनाया | बख्तावरसिंह ने अपने दल के कुछ सदस्यों को उन इलाकों में ग्रामीण वेशभूषा में तैनात किया जिन इलाकों में बलजी-भूरजी घुमा करते थे इस तरह उनका पीछा करते हुए बख्तावरसिंह को तीन साल लग गए,तीन साल बाद 29 अक्तूबर 1926 को कालूखां नामक एक मुखबिर ने बख्तावरसिंह को बलजी-भूरजी के रामगढ सेठान Ramgarh Shekhawati के पास बैरास गांव में होने की सुचना दी | कालूखां भी पहले बलजी-भूरजी के दल में था पर किसी विवाद के चलते वह उनका दल छोड़ गया था |
सुचना मिलते ही बख्तावरसिंह अपने हथियारों से सुसज्जित विशेष दल के तीन सौ सिपाहियों सहित ऊँटों व घोड़ों पर सवार हो बैरास गांव की और चल दिया | बख्तावरसिंह के आने की खबर ग्रामीणों से मिलते ही बलजी-भूरजी ने भी मौर्चा संभालने की तैयारी कर ली | उन्होंने बैरास गांव को छोड़ने का निश्चय किया क्योंकि बैरास गांव की भूमि कभी उनके पुरखों ने चारणों को दान में दी थी इसलिए वे दान में दी गयी भूमि पर रक्तपात करना उचित नहीं समझ रहे थे अत : वे बैरास गांव छोड़कर उसी दिशा में सहनुसर गांव की भूमि की और बढे जिधर से बख्तावर भी अपनी फ़ोर्स के साथ आ रहा था | रात्री का समय था बलजी-भूरजी ने एक बड़े रेतीले टीले पर मोर्चा जमा लिया उधर बख्तावर की फ़ोर्स ने भी उन्हें तीन और से घेर लिया | बलजी ने अपने सभी साथियों को जान बचाकर भाग जाने की छुट दे दी थी सो उनके दल के सभी सदस्य भाग चुके थे ,अब दोनों भाइयों के साथ सिर्फ उनका स्वामिभक्त नौकर गणेश ही शेष रह गया था |
30 अक्तूबर 1926 की सुबह चार बजे आसपास के गांव वालों को गोलियां चलने की आवाजें सुनाई दी | दोनों और से कड़ा मुकबला हुआ ,भूरजी ने बख्तावरसिंह के ऊंट को गोली मार दी जिससे बख्तावरसिंह पैदल हो गया और उसने एक पेड़ का सहारा ले भूरजी का मुकाबला किया ,उधर कुछ सिपाही टीले के पीछे पहुँच गए थे जिन्होंने पीछे से वार कर बलजी को गोलियों से छलनी कर दिया |
भूरजी के पास भी कारतूस ख़त्म हो चुके थे तभी गणेश रेंगता हुआ बलजी की मृत देह के पास गया और उनके पास रखी बन्दुक व कारतूस लेकर भूरजी की और बढ़ने लगा तभी उसको भी गोली लग गयी पर मरते मरते उसने हथियार भूरजी तक पहुंचा दिए | भूरजी ने कोई डेढ़ घंटे तक मुकाबला किया | बख्तावर सिंह की फ़ोर्स के कई सिपाहियों को उसने मौत के घाट उतार दिया और उसे कब गोली लगी और कब वह मृत्यु को प्राप्त हो गया किसी को पता ही नहीं चला ,जब भूरजी की और से गोलियां चलनी बंद हो गयी तब भी बख्तावरसिंह को भरोसा नहीं था कि भूरजी मारा गया है कई घंटो तक उसकी देह के पास जाने की किसी की हिम्मत तक नहीं हुई |
आखिर बख्तावर ने दूरबीन से देखकर भूरजी के मरने की पुष्टि की जब उनके शव के पास जाया गया |
बख्तावरसिंह ने बलजी-भूरजी के मारे जाने की खबर जोधपुर जयपुर तार द्वारा भेजी व लाशों को एक जगह रख वहीँ पहरे पर बैठ गया तीसरे दिन जोधपुर के आई.जी.पी.साहब आये उन्होंने लाशों की फोटो आदि खिंचवाई व उनके सिर काटकर जोधपुर ले जाने की तैयारी की पर वहां आस पास के ग्रामीण इकठ्ठा हो चुके थे पास ही के महनसर व बिसाऊ के जागीरदार भी पहुँच चुके थे उन्होंने मिलकर उनके सिर काटने का विरोध किया | आखिर जन समुदाय के आगे अंग्रेज समर्थित पुलिस को झुकना पड़ा और शव सौपने पड़े | जन श्रुतियों के अनुसार बख्तावरसिंह को बलजी-भूरजी के मारे जाने पर इतनी आत्म ग्लानी हुई कि उसने तीन दिन तक खाना तक नहीं खाया |
उनके दाह संस्कार के लिए सहनुसर गांव के ग्रामीण तीन पीपे घी के लाये,उसी गांव के गोमजी माली व मोहनजी सहारण (जाट) अपने खेतों से चिता के लिए लकड़ी लेकर आये और तीनों का उसी स्थान पर दाह संस्कार किया गया जहाँ वे शहीद हुए थे | उनकी चिता को मुखाग्नि बिसाऊ के जागीरदार ठाकुर बिशनसिंह जी ने दी | अस्थि संचय व बाकी के क्रियाक्रम उनके पुत्रों ने आकर किया | आस पास के गांव वालों ने उनके दाह संस्कार के स्थान पर ईंटों का कच्चा चबूतरा बनवा दिया | सीकर के राजा कल्याणसिंघजी ने बलजी-भूरजी के नाम पर दाह संस्कार स्थान की ४० बीघा भूमि गोचर के रूप में आवंटित की | जिसमे से ३० बीघा भूमि तो पंचायतों ने बाद में भूमिहीनों को आवंटित कर दी अब शेष बची १० बीघा भूमि को "बलजी-भूरजी स्मृति संस्थान" ने सुरक्षित रखने का जिम्मा अपने हाथ में ले लिया ये भूमि बलजी-भूरजी की बणी के रूप में जानी जाती है | कच्चे चबूतरे की जगह अब उनके स्मारक के रूप में छतरियां बना दी गयी है ,जहाँ उनकी पुण्य तिथि पर हजारों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने इकट्ठा होते है |
जो बलजी-भूरजी अंग्रेज सरकार व जोधपुर रियासत के लिए सिरदर्द बने हुए थे मृत्यु के बाद लोग उन्हें भोमियाजी(लोकदेवता) मानकर उनकी पूजा करने लगे | आज भी आस-पास के लोग अपनी शादी के बाद गठ्जोड़े की जात देने उनके स्मारक पर शीश नवाते है,अपने बच्चों का जडुला (मुंडन संस्कार) चढाते है | रोगी अपने रोग ठीक होने के लिए मन्नत मांगते है तो कोई अपनी मन्नत पूरी होने पर वहां रतजगा करने आता है | भोपों ने उनकी वीरता के लिए गीत गाये तो कवियों ने उनकी वीरता,साहस व जन कल्याण के कार्यों पर कविताएँ ,दोहे रचे |
जोधपुर रियासत में उनके द्वारा डाले गए धाड़ों पर एक कवि ने यूँ कहा -
बीस बरस धाड़न में बीती ,
मारवाड़ नै करदी रीति |

राजाओं द्वारा अंग्रेजों की दासता स्वीकार करने से दुखी बलजी अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किया करते -
रजपूती डूबी जणां, आयो राज फिरंग |
रजवाड़ा भिसळया अठै ,चढ्यो गुलामी रंग |

राजपूतों के रजपूती गुण खोने (डूबने) के कारण ही ये फिरंगी राज पनपा है | राजपुताना के रजवाड़ों ने अपना कर्तव्य मार्ग खो दिया है और उनके ऊपर गुलामी का रंग चढ़ गया है |
रजपूती ढीली हुयां,बिगडया सारा खेल |
आजादी नै कायरां,दई अडानै मेल ||

राजपूतों में रजपूती गुणों की कमी के चलते ही सारा खेल बिगड़ गया है | कायरों ने आजादी को गिरवी रख दिया है |
डाकू या क्रांतिवीर :
बलजी-भूरजी को यधपि लोग "धाड़ायति" (डाकू) ही कहते आये है कारण अंग्रेजी राज में जिसने भी बगावत की उसे कानूनद्रोही या डाकू कह दिया गया | जबकि बलजी-भूरजी डाके में लुटी रकम गरीबों में बाँट दिया करते थे उन्हें तो सिर्फ अपने ऊँटो को घी पिलाने जितने ही रुपयों की जरुरत पड़ती थी |
बलजी बठोठ-पटोदा के जागीरदार थे, बठोठ में उनका अपना गढ़ था ,उनके आय की कोई कमी नहीं थी वे अपनी जागीर से होने वाली आय से अपना गुजर बसर आसानी से कर सकते थे और कर भी रहे थे ,जबकि बागी जीवन में उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था उनका जीवन दुरूह हो गया था ,उन्हें अक्सर रेगिस्तान के गर्म रेत के टीलों के बीच पेड़ों की छाँव में जिन्दगी बितानी पड़ती थी ,खाना भी जब जैसा मिल गया खाना होता था | महलों में सोने वाले बलजी को बिना बिछोने के रेत के टीलों पर रातें गुजारने पड़ती थी | इसलिए आसानी से समझा जा सकता था कि बागी बनकर डाके डालकर धन कमाने का उनका कोई उदेश्य नहीं था |
भूरजी भी भारतीय सेना में सीधे सूबेदार के पद पर पहुँच गया था यदि उसके मन में भी अंग्रेजों के प्रति नफरत नहीं होती तो वो भी आसानी से सेना में तरक्की पाकर बागी जीवन जीने की अपेक्षा आसानी से अपना जीवन यापन कर सकता था पर दोनों भाइयों के मन में अंग्रेज सरकार के विरोध के अंकुर बचपन में ही प्रस्फुटित हो गए थे और उनकी परिणित हुई कि वे अपना विलासितापूर्ण जीवन छोड़कर बागी बन गए |

बेशक जोधपुर स्टेट में उन्हें कानूनद्रोही माना पर शेखावाटी व उन स्थानों की जनता ने जिनके बीच वे गए क्रांतिवीर व जन-हितेषी ही माना |
Balji Bhurji The Shekhawati's Fanous Freedom Fighter known as daket balji bhurji, dhadayati balji bhurji
अब लगे हाथ इन दोनों वीरों की जीवन गाथा भी सुन लीजिये
Part-1


Part-2


Part-3


राणा कुम्भा

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Maharana Kumbha History in hindi, Rana Kumbha of Chittorgarh, Maharna Kumbha of Mewar

राणा सांगा से वीर थे, कुम्भा का विजय स्तम्भ देख।
टूटे हुए इन खण्डहरों में सोती हुई कहानियाँ ।


राणा मोकल के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र कुम्भकर्ण (कुम्भा Rana Kumbha) वि.सं. १४९० (ई.सं. १४३३) में चित्तौड़ के राज्य सिंहासन पर बैठा। कुम्भा राजाओं का शिरोमणि, विद्वान, दानी और महाप्रतापी था। राणा कुम्भा ने गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने का निश्चय किया। राणा मोकल की हत्या चाचा, मेरा और महपा परमार ने की थी। वे तीनों दुर्गम पहाड़ों में जा छिपे। इनको दण्डित करने के लिए रणमल राठौड़ (मण्डर) को भेजा। रणमल ने इन विद्रोहियों पर आक्रमण किया। रणमल ने चाचा और मेरा को मार दिया, किन्तु महपा चकमा देकर भाग गया। चाचा का पुत्र और महपा ने भागकर माण्डू (मालवा) के सुलतान के यहाँ शरण ली। राणा ने अपने विद्रोहियों को सुपुर्द करने के लिए सुल्तान के पास सन्देश भेजा। सुल्तान ने उत्तर दिया कि मैं अपने शरणागत को किसी भी तरह नहीं छोड़ सकता। अतः दोनों में युद्ध की सम्भावना हो गई।
वि.सं. १४९४ (ई.स. १४३७) में सारंगपुर के पास मालवा सुल्तान महमूद खिलजी पर राणा कुम्भा ने आक्रमण किया। सुल्तान हारकर भाग गया और माण्डू के किले में शरण ली। कुम्भा ने माण्डू पर आक्रमण किया। अन्त में सुल्तान पराजित हुआ और उसे बन्दी बनाकर चित्तौड़ ले आए। उसे कुछ समय कैद में रख कर क्षमा कर दिया। इस विजय के उपलक्ष में राणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग में कीर्ति स्तम्भ बनवाया ।

राणा कुम्भा दयालु था, क्योंकि महपा परमार और चाचा के पुत्र एका ने राणा की शरण में आकर क्षमा माँगी तो कुम्भा ने उन्हें क्षमा कर दिया। कुम्भा जैसा वीर और युद्ध कुशल था, वैसा ही पूर्ण विद्यानुरागी, स्वयं बड़ा विद्वान था। मेवाड़ में ८४ किलों में से कुम्भा ने कुम्भलगढ़ सहित ३२ किलों का निर्माण करवाया। अनेक मन्दिरं, जलाशय और एकलिंग जी मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। राणा कुम्भा ने राज्य विस्तार किया। आबू को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। बूंदी को जीता, सारा हाड़ौती प्रदेश जीतकर अपने राज्य में मिलाया। इस तरह से राणा कुम्भा ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया। राणा कुम्भा ने दिल्ली, मालवा और गुजरात के सुल्तानों की संयुक्त सेना को परास्त किया। दिल्ली व गुजरात के सुल्तानों ने छत्र भेंट कर कुम्भा को हिन्दूसुरत्राण' का विरुद प्रदान किया। मालवा के सुल्तान महमूदशाह खिलजी ने राणा कुम्भा पर पाँच बार आक्रमण किए लेकिन हर बार उसे पराजय ही मिली। इसके पश्चात् मालवा और गुजरात के सुल्तानों ने आपसी मेल करके चित्तौड़ पर आक्रमण किया, लेकिन वे परास्त हुए।
कुम्भा की मृत्यु कुम्भलगढ़ में नामादेव मन्दिर (कुम्भस्वामी) के निकट वि.सं. १५२५ (ई.स. १४६८) में हुई।


लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर
सन्दर्भ झंकार के

दूध की लाज

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A Hindi Story on Veer Shiromanhi Durgadas Rathore By lt.Kr.Ayuvan Singh Shekhawat, Hudeel

“शायद आश्विन के नौरात्र थे वे । पिताजी घर के सामने के कच्चे चबूतरे पर शस्त्रों को फैला कर बैठे हुए थे । उनके हाथ में चाँदी के मूठ की एक तलवार थी जिस पर वे घी मल रहे थे । माताजी पास में ही बैठी उन्हें पंखा झुला रही थी । दिन का तीसरा प्रहर था वह । सामने के नीम के पेड़ के नीचे हम सब बालक खेल रहे थे । बालकों की उस टोली में मेरे से छोटे कम और बड़े अधिक थे । उस दिन बहुत से खेल खेले गए और प्रत्येक खेल में मैं ही विजयी रहा । मेरे साथी बालक मेरी शारीरिक शक्ति, चपलता और तीव्र गति से मन ही मन मेरे से कुढ़ते थे और मैं अपने इन गुणों पर एक विजयी योद्धा की भाँति सदैव गर्व करता था । दो साँड़ों की अचानक लड़ाई से हमारे खेल का तारतम्य टूट गया । साँड़ लड़ते-लड़ते उधर ही आ निकले थे इसलिए सब बच्चे उनके भय से अपने-अपने घर दौड़ गए । मैंनें उन लड़ते हुए साँड़ों के कान पकड़ लिए । न मालूम क्यों उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया । उनमें से एक साँड़ मुझे मारने ही वाला ही था कि मैं उसका कान छोड़ कर पूरी गति दौड़ पड़ा । वह साँड़ भी मेरे पीछे दौड़ पड़ा पर उसे कई हाथ पीछे छोड़ता हुआ मैं कूद कर माताजी की गोद में जा बैठा।.......’

“... मैंने अनुभव किया कि गर्म जल की एक बूंद मेरे गालों को छूती हुई नीचे जा गिरी । मैंनें उनपर देखा तो माताजी की ऑखे सजल थी ।’’ मैंने पूछा -“आप क्यों रो रही हैं ?’
उन्होंने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया - ‘‘यों ही ।’
मैंने भूमि पर पैरों को मचलते हुए कहा - “सच बताओ ।’
वे मेरी हठी प्रवृत्ति को जानती थी । इसलिए बोली -“तुम्हें देख कर ऐसी ही भावना हो गई ।’
मैंने पूछा- क्यों?
उन्होंने उत्तर दिया - ‘‘तेरी चपलता और तेज दौड़ को देख कर ‘‘

मैंने कहा -“इसी के कारण तो मैं सभी खेलों में जीता हूँ, इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए ।’ उन्होंने कहा -“तेरी इस चपलता को देख कर मुझे डर होने लगा है कि कहीं तू मेरे दूध को न लजा दे ।’ मैंने पूछा -‘‘मैं आपके दूध को कैसे लजा दूँगा ?’ वे बोली - “डर कर यदि तू कभी युद्ध से भाग गया और कायर की भाँति कहीं मर गया तो दोनों पक्षों को लज्जित होना पड़ेगा । मेरे दूध पर कायर पुत्र की माता होने के कारण कलंक का अमिट धब्बा लग जाएगा । तेरी चपलता और गति को देख कर मुझे सन्देह होने लगा है कि कहीं तू इसी भाँति रणभूमि से न दौड़ जाए।”

“... मैं लज्जा और क्रोध से तिलमिला उठा । अब तक अपनी जिस विशेषता को मैं गुण समझ रहा था, वह अभिशाप सिद्ध हुई । मैं माताजी के सन्देह को उसी समय मिटाना चाहता था । मैंनें तत्काल निर्णय किया और माताजी की गोद से उठ कर पास में पड़ी हुई एक तलवार को उठा कर अपने पैर पर दे मारा । मैं दूसरा वार करने ही वाला था कि पिताजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और डांट कर पूछा- यह क्या कर रहा है ?’

मैंनें कहा -“ अपने पैर को काट कर माताजी का सन्देह मिटा रहा हूँ. एक पैर कट जाने पर मैं युद्ध-भूमि से भाग नहीं सकँगा|“
पैर से खून बह चला । पिताजी ने कहा - ‘‘यह लड़का बड़ा उद्दण्ड होगा । माताजी ने सगर्व नेत्रों से मेरे पैर के घाव को दोनों हाथों से ढक दिया।’



‘धर्मदासजी, यह घटना सत्तर वर्ष पुरानी है, पर लगता है जैसे कल ही घटित हुई ।“ यह कहते हुए वृद्ध सरदार ने अपनी आँखें खोली ।
“सन्निपात का जोर कुछ कम हुआ है, गुरूजी ?’ चरणदास ने कुटिया में प्रवेश करते हुए पूछा।
“यह सन्निपात नहीं है बेटा ! तुम शीघ्र जाकर खरल में रखी हुई औषधि का काढा तैयार कर ले आआो ।’’

रात्रि के सुनसान में धर्मदास जी की कुटिया धीमे प्रकाश में जगमगा उठी । नदी में जल पीने को जाता हुआ सुअरों का एक झुण्ड उस प्रकाश से चौकन्ना होकर डर्र-डर्र करता हुआ तेजी से दूर भाग गया । चरणदास ने धूनी में और लकडियाँ डालते हुए सुअरों को दूर भगाने के लिए जोर से किलकारी मारी । कुटिया के सामने बँधा हुआ घोडा अपनी टाप से भूमि खोदता हुआ हिनहिनाया । उस हिनहिनाहट की ध्वनि से नि:स्तब्ध वन में चारों ओर ध्वनि का विस्तार हो गया । सैकड़ों पशु-पक्षियों ने उस ध्वनि का अपनी-अपनी भाषा में प्रत्युत्तर दिया । थोड़े समय के लिए उस नीरव वन में एक कोलाहल सा मच गया । धर्मदास जी भी इस कोलाहल से प्रभावित होकर बाहर आए, देखा - चरणदास आग में पूँके मार रहा था ।

“शीघ्रता करो बेटा !’ कहते हुए उन्होंने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा । पश्चिमी क्षितिज पर मार्गशीर्ष की शुक्ला दशमी का चन्द्रमा अन्तिम दम तोड़ रहा था । और फिर वे तत्काल ही कुटिया के भीतर चले गए ।

क्षिप्रा नदी के प्रवाह द्वारा तीन ओर से कट जाने के कारण एक ऊँचा और उन्नत टीला अन्तद्वीपाकर बन गया था । उसके पूर्व में विस्तृत और सघन वन था । लगभग तीस वर्ष पहले इसी स्थान पर क्षिप्रा के सहवास में धर्मदास जी ने तपस्या के लिए अपना आश्रम बनाया, धर्मदासजी के परिश्रम के कारण आश्रम एक सुन्दर तपोवन में परिवर्तित हो गया। था । तीन वर्ष पहले एक धनाढ्य युवक ने आकर उनसे दीक्षा ली थी । यही युवक चरणदास के नाम से उनका शिष्य होकर विद्याध्ययन और गुरू-सेवा करने लगा । धर्मदास जी शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित, आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता, तपस्वी और सात्विक प्रवृति-सम्पन्न महात्मा थे । उनके ज्ञान और तपोबल से आश्रम में सदैव शान्ति का वातावरण रहता था । एक कुटिया, कमण्डल, मिट्टी के कुछ पात्र, चिमटा, पत्थर की एक खरल, कुछ पोथियाँ और थोड़े से मोटे-मोटे ऊनी और सूती वस्त्र- बस यही उनकी सम्पति थी । वन के कन्द, मूल, फल और कभी-कभी चरणदास द्वारा प्राप्त भिक्षान्न द्वारा उनका निर्वाह सरलता से हो जाता था |

धर्मदास जी के इसी आश्रम पर दस दिन पूर्व संध्या समय वीर-भेष में एक वयोवृद्ध सरदार अतिथि के रूप में आए । उनका घोड़ा उन्नत, बलिष्ठ और तेजस्वी था । सरदार की वेश-भूषा, आकार-आकृति और व्यवहार में स्पष्ट रूप से सौम्यता, सरलता और अधिकार की व्यंजना होती थी । वे एक असाधारण व्यक्तित्व -सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय उन्हें हल्का ज्वर था । धर्मदासजी ने अतिथि का यथायोग्य सत्कार किया । वे प्रात:काल उठ कर जाना चाहते थे पर उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देख कर धर्मदासजी ने आग्रह करके उन्हें वहीं रोक लिया । वे दस दिनों से सावधानीपूर्वक उनकी चिकित्सा कर रहे थे पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला जा रहा था । उस रात को धर्मदासजी को विश्वास हो गया था कि अब सरदार का अन्तिम समय आ पहुँचा है ।

“मैं आज निर्धन और असहाय हूँ, धर्मदासजी इसीलिए आपसे सेवा कराने के लिए विवश हूँ ।’
सरदार ने अपनी घास की शय्या पर हाथ फेरते हुए कहा । ‘‘कयों मेरी सेवा से क्या आपति है महाराज?‘‘
‘‘आप महात्मा हैं और मैं . |''
‘ऐसे मत कहो दुर्गादासजी, आप महात्माओं के भी पूजनीय हैं ।“ आपकी त्याग और तपस्या के सामने हमारी तपस्या है ही कितनी ?’
‘‘पर आप ब्राह्मण जो हैं ।’’
“आप भी तो हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सेवा से बढ़ कर पुण्य लाभ और क्या हो। सकता है ? और फिर आप जैसे अतिथि तो किसी भाग्यवान को ही मिलते हैं।’’
इतने में चरणदास काढा लेकर आ गया । धर्मदासजी ने दुर्गादास जी की नाड़ी देखते हुए उन्हें काढा पिला दिया । फिर उन्होंने पूछा - ‘गीता सुनाऊँ दुर्गादासजी ?
“नहीं धर्मदासजी, अब गीता सुनने का समय नहीं। अब उसे क्रियान्वित करने का समय है ।’’
काढा पीने से उनके शरीर में कुछ गर्मी आई । हाथ के संकेत से धर्मदासजी को अपने पास बुलाते हुए उन्होंने कहा - ‘मुझे सहारा देकर बैठा दो ।”
धर्मदास जी ने घास का गट्ठर उनके सिरहाने रखते हुए उन्हें गट्टर के सहारे बैठा दिया ।
‘धर्मदास जी सत्तर वर्ष पुरानी वह घटना अब ज्यों की त्यों याद आ रही है । मेरे इस शरीर में छोटे-बड़े अनेकों घाव हैं, पर न मालूम क्यों पैर वाले उस छोटे से घाव में आज पीड़ा अनुभव हो रही है । मुझे ऐसा लग रहा है कि वह माताजी के सामने किए गए संकल्प की मुझे याद दिला रहा है। यह कह कर उन्होंने बाँई पिण्डली के उस घाव पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया ।

“कभी-कभी अन्य लोकों में पहुँच जाने के उपरान्त भी हमारी शुभचिन्तक आत्माएँ हमारा परोक्ष रूप से मार्गदर्शन करती और हमें अपने कर्त्तव्य का स्मरण दिलाती रहती हैं ।’’
“हाँ, धर्मदासजी ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि जैसे माताजी का सन्देश कोई मेरे कानों में कह रहा है ।‘‘
इतना कह कर उन्होंने अपनी गर्दन के नीचे किसी सहारे के लिए संकेत किया । धर्मदासजी ने अपना ऊनी कम्बल उनकी गर्दन के नीचे रख दिया ।

“पर धर्मदासजी, मैं कभी डर कर युद्ध-भूमि से भागा नहीं। काबुल की बफॉली घाटियों में सैकड़ों पठानों को हम दो-तीन आदमी अपने वश में कर लेते थे । वे भीमजी कितने बहादुर थे । वे थे तो हमसे बड़े पर अफीम खाने के कारण हम उन्हें अमलीबाबा ही कह कर पुकारते थे । बड़े दरबार भी उन्हें अमलीबाबा ही कहा करते थे ।’

“..... हाँ तो एक दिन मीर के एक पठान पहलवान ने आकर कहा कि राठौड़ी लश्कर में मुझसे लड़ने वाला कौन है ? इतना सुनना था कि अमलीबाबा तलवार लेकर सामने आ खड़े हुए । उनके दुबले-पतले शरीर को देख कर पठान पहलवान खूब हँसा । मैंनें तलवार की मूंठ पर हाथ रखा पर दरबार ने इशारे से मुझे बैठा दिया । बात की बात में पहलवान ने अमली बाबा को अपने भाले की नोंक से पिरो कर उलटा लटका दिया और खड़ा कर दिया । दरबार का लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। । इतने में कोई गूंज उठा ‘‘रण बंका राठौड़ सब लश्कर ने एक साथ दोहराया “रण बंका राठौड़’ इतना सुनना था कि अमलीबाबा ने अपने पेट का एक जोरदार धक्का नीचे की ओर दिया । भाला उनके शरीर को चीरता हुआ ऊपर निकलता गया और अमलीबाबा नीचे की ओर सिरकने लगे । ज्योंही पहलवान के सिर से एक हाथ ऊपर रहे तलवार का एक ऐसा हाथ मारा कि उस पठान का सिर भुट्टे की तरह कट कर दूर जा गिरा ।”

‘अब थोड़ा विश्राम कीजिए दुर्गादासजी ॥“
“मैंनें जीवन में कभी विश्राम नहीं किया धर्मदासजी । अब महाविश्राम करने जा रहा हूँ, इसलिए इस क्षणिक विश्राम की आवश्यकता ही क्या है ?’
‘‘दिल्ली में रूपसिंह राठौड़ की हवेली में अपने स्वामी की राणियों को जौहर-स्नान करा कर मैं शाही लश्कर को काटता हुआ निकल गया । सैकड़ों बार मैं शाही लश्कर को काटता हुआ इधर से उधर निकल गया पर डर कर एक बार भी नहीं भागा । मैंनें माताजी के दूध को कभी नहीं लजाया धर्मदासजी ।’

“.................मैंने सदैव औरंगजेब के प्रलोभनों को ठुकराया, घाटी की लड़ाई में औरंगजेब की बेगम गुलनार को कैद करके उसके साथ भी सम्मान का व्यवहार किया, अकबर के बाल-बच्चों को अपने ही बच्चों की भाँति लाड़-प्यार से रखा - पराजित शत्रु पर कभी वार नहीं किया । मैंनें स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी |''

“..... मैंनें अपने स्वामी के द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को भली-भाँति पूरा किया । तीस वर्षों के निरन्तर संघर्ष के उपरान्त मरूधरा आज स्वतंत्र हुई । मेरे स्वर्गीय स्वामी महाराज जसवन्तसिंहजी के आत्मज जोधपुर की गद्दी पर विराजमान हैं । चामुण्डा माता उनका कल्याण करें । अजीतसिंह जी जन्मे ही नहीं थे उसके पहले ही मैंनें उनकी सुरक्षा का वचन अपने स्वामी को दिया था । आज वे पूर्ण युवावस्था में जोधपुर की गद्दी पर आसीन हैं - मेरे कर्त्तव्य की इतिश्री हुई । मैंनें स्वामी-सेवक धर्म का भली-भाँति पालन किया है धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

“.... मैंनें शत्रु को कभी विश्राम नहीं करने दिया और न कभी मैं विश्राम से सोया। नींद मैंनें घोड़े की पीठ पर ही ली, बाटी मैंनें भाले से घोड़े की ही पीठ पर से सेकी और खाई उसे घोड़े की ही पीठ पर । मैंनें राजस्थान के प्रत्येक वन, पहाड़, नदी, नाले, पर्वत और घाटी को छान डाला पर कर्त्तव्य की भावना को कभी ओझल नहीं होने दिया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

इतना कह कर दुर्गादासजी ने तीन बार हरि ओम तत्सत् का उच्चारण किया और एक जंभाई ली । धर्मदास जी ने कहा -“आप मारवाड़ के ही नहीं भारत के सपूत हैं दुर्गादासजी । वह जननी बड़ी भाग्यशालिनी है जिसने आप जैसे नर-रत्न को जन्म दिया है |''
“पर अब मैं उसके दूध को लजा रहा हूँ धर्मदासजी ॥“
“हैं ! यह आप क्या कह रहे हैं दुर्गादासजी ? आपका कोई कार्य ऐसा नहीं है जो शास्त्र, धर्म, मयदिा और कर्त्तव्य के विरूद्ध हो ।’
“हैं धर्मदासजी ! माताजी मुझे भीष्मजी की कहानी सुनाया करती थी और कहा करती थीं कि आदर्श क्षत्रिय वही है जिसे भीष्मजी की सी मृत्यु प्राप्त होने का सौभाग्य हो । वे शैया की मृत्यु को कायर की मृत्यु कहा करती थी और आज मैं तृण-शैया पर कायर की भाँति प्राण त्याग रहा हूँ । क्या यह उनके दूध को लजाने के लिए पर्याप्त नहीं है धर्मदास जी ?'

“शास्त्रों में इस प्रकार की मृत्यु .. ॥“
“शास्त्रों के नहीं, वर्तमान अवसर के अनुसार यह मृत्यु वीरोचित नहीं है ।’

अन्तिम शब्द दुर्गादास जी ने कुछ ऊँचे स्वर से कहे थे। अपने स्वामी का स्वर सुन कर कुटिया के सामने बँधा हुआ घोड़ा जोर से हिनहिना उठा । स्वामी की रूग्णावस्था का अनुमान लगा कर उस मूक पशु ने तीन दिन से दाना-पानी और घास बिल्कुल छोड़ दिया था । निरन्तर उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे । उसकी हिनहिनाहट सुन कर दुर्गादासजी को उसकी स्वामी-भक्ति और कृतज्ञता का स्मरण हो उठा । उनके विशाल नेत्रों में से भी कृतज्ञता का स्त्रोत फूट पड़ा और उनकी श्वेत दाढ़ी में मोतियों का रूप धारण कर उलझ गया । दोनों की आत्मा का अन्तर दूर हो गया । दोनों ने मूक रहते हुए ही एक दूसरे की भावना और विवशता को समझ लिया ।

“धर्मदासजी मेरे घोड़े पर जीन कराइए। मैं आज मृत्यु से युद्ध करूँगा । इस शैया पर आकर वह मुझे दबोच नहीं सकती ।’

यह कहते हुए दुर्गादासजी एक बालक की-सी स्फूर्ति से उठे और कवच तथा अस्त्रशस्त्र बाँधने लगे । चरणदास ने गुरू की आज्ञा पाकर तत्काल ही घोड़ा तैयार कर दिया । दुर्गादासजी ने धर्मदासजी के चरणों पर श्रद्धा सहित प्रणाम किया और वे उसी स्फूर्ति सहित घोड़े पर जा सवार हुए । धर्मदास जी भली भाँति जानते थे कि दुर्गादासजी अब इस संसार में कुछ ही घड़ियों के मेहमान हैं पर उस समय उनके मुख मण्डल पर व्याप्त अद्भुत तेजस, प्रकाश और लालिमा को देख कर उनको रोकने का उन्हें साहस न हुआ। “बुझने के पहले दीपक की लौ की भभक है यह ।“ उन्होंने मन ही मन गुनगुनाया ।

इधर प्राची में भगवान मार्तण्ड अपने सहस्त्रों करों द्वारा उदयाचल पर आरूढ़ हुए, उधर जोधपुर दुर्ग में नक्कारे और शहनाइयाँ बज उठी । सुरा, सुन्दरी और सुगन्धि की उपस्थिति विगत रात्रि के महोत्सव की सूचना दे रही थी । मारवाड़ के उद्धार की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष में आयोजित महोत्सव-श्रृंखला में उस रात का महोत्सव सर्वोत्तम था । मारवाड़ के स्वातन्त्र्य संग्राम में लड़ने वाले योद्धाओं को जी खोल कर इनाम, जागीरें और ताजीमें दी गई और उसी समय क्षिप्रा नदी के किनारे राठौड़ वंश का उद्धारक, मारवाड़ राज्य का पुनर्सस्थापक निर्धन, निर्जन और असहाय अवस्था में जननी जन्म-भूमि से सैंकड़ों कोस दूर निर्वासित होकर मृत्यु से अन्तिम युद्ध की तैयारी में तल्लीन था । न उसके मुख पर क्लेश था, न पश्चाताप और न शोक । सुदूर प्राची में आकाश का सूर्य उदय हो। रहा था और दूसरी ओर जोधपुर से सैकड़ों कोस दूर निर्जन एकान्त में राठौड़ वंश का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो रहा था । अपने जीवन में उस दिन कृतघ्नता सबसे अधिक हँसी, खेली और कूदी, जिसके पाद प्रतिघातों से आक्रान्त होकर उन्नत-लहर क्षिप्रा शरदकालीन शान्त प्रवाह में अपने गौरवशाली अस्तित्व को परिव्याप्त करते हुए सदैव के लिए व्याप्त हो गई ।


प्रातःकाल वालों ने देखा कि भूमि में भाला गाड़े हुए समाधिस्थ योगी की भाँति घोड़े की पीठ पर एक वृद्ध योद्धा बैठा था, न वह हिलता था और न किसी प्रकार की चेष्टा ही करता था । घोड़े की निस्तेज आँखों में से निरन्तर टप-टप आँसू टपक रहे थे, पर हिलता वह भी नहीं था। धर्मदासजी की कुटिया पर यह संवाद पहुँचते ही तत्काल वे वहाँ पर पहुँच गए, देखा –
घोड़े की पीठ पर से बाटी सेकने वाला और उसी पर निद्रा लेने वाला आज उसी की पीठ पर बैठ कर महानिद्रा की गोद में सो गया है। उनके मुँह से इतना ही निकल पड़ा –
“धन्य है दूध की लाज’ और दूसरे ही क्षण वे बच्चों की भाँति फूटकर रो पड़े।

लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील



Gurgasdas Rathore Story in hindi,

आओ कॉपी-पेस्ट जैसी महान तकनीकि के सहारे ब्लॉग, किताब लिखें और नोट कमायें

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जब से इंटरनेट आया है, आसानी से हिंदी लिखने के औजार उपलब्ध हुए है, ब्लॉग लिखने के लिए मुफ्त के प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध हुए है, लेखकों को अपनी लेखनी ब्लॉगस पर प्रकाशित कर अपनी लेखन हुड़क मिटाने का तगड़ा मौका मिला है| इतना ही नहीं सोने पे सुहागा ये कि अब हिंदी ब्लॉगस पर गूगल ने विज्ञापन देना शुरू कर लेखकों को डालर कमाने का शानदार मौका और दे दिया|

तो आईये ब्लॉग लिखें और धन कमायें|
चूँकि ब्लॉग लिखना बहुत आसान है, लिखो और प्रकाशित कर दो| खुद ही संपादक, खुद लेखक, खुद प्रकाशक| अब बात आती है कि ब्लॉग पर लिखा क्या जाय? तो इसके लिए आपको ज्यादा दिमाग खपाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इंटरनेट पर इतना लिखा पड़ा है कि पसंद आई सामग्री कॉपी करो और अपने ब्लॉग पर पेस्ट कर दो| उसके बाद उसका लिंक फेसबुक पर शेयर कर वाह वाही लूटो| क्योंकि आपकी मित्र मण्डली को क्या पता कि आपने कॉपी पेस्ट जैसी महान तकनीकि का इस्तेमाल किया है| इस महान तकनीकि को मैंने फेसबुक व ब्लॉगस पर बहुत जगह देखा है कि बन्दे को एक शब्द लिखने की फुर्सत ना मिले लेकिन इधर उधर से कॉपी मारकर खूब वाह वाही लुटता है| तो आप भी क्यों ना इस महान कॉपी पेस्ट तकनीकि का फायदा उठा बतौर लेखक अपना नाम रोशन करें| वैसे भी आजकल काम करने का स्मार्ट तरीका काम लिया जाता है| मेहनत करने वाले तो गधे कहे जाते है, सो क्यों खाम खां की बोर्ड खटखटाया जाय, जब इतनी महान तकनीकि उपलब्ध है|

इस महान तकनीकि से सिर्फ ब्लॉग लेखक बन वाह वाही ही नहीं, पुस्तक लेखक बनकर भी बिना मेहनत किये वाह-वाही लुटने के साथ धन भी कमाया जा सकता है| इसके लिए पहले फेसबुक पर प्रचार शुरू कर दो कि मैं पुस्तक लेखन के लिए आजकल बहुत बड़ा शोध कर रहा हूँ और उसमें इतना व्यस्त हूँ कि सिर्फ फेसबुक स्टेटस लिखने के लिए ही समय निकाल पाता हूँ| बस इतना करने भर से ही आपको वाह-वाही मिलने लगेगी, कई मित्र आपके इस कार्य को महान कार्य बताते हुए लाइक के साथ टिप्पणी भी कर जायेंगे| सिर्फ लाइक और टिप्पणियाँ ही क्यों? हो सकता है फेसबुक पर मौजूद आपके समाज का कोई धनी व्यक्ति भी आपके इस कार्य को पुनीत कार्य समझ आपके खाते में आपकी मनचाही रकम जमा करा दे| इस तरह नाम, वाह-वाही के साथ धन का भी तगड़ा जुगाड़|
जब कोई धन की व्यवस्था हो जाए तब आपको इतना ही शोध करना है कि कौनसी सामग्री किस ब्लॉग से उड़ानी है, यानी आपको वे ब्लॉग तलाशने है जिन पर आपकी जरुरत की सामग्री भरी पड़ी है| इस तरह के ब्लॉग तलाशने को भी आप शोध का दर्जा दे सकते है आखिर उनको तलाशना भी तो किसी शोध से कम नहीं| इस तरह कॉपी पेस्ट जैसी महान तकनीकि के सहारे आप एक छोटी-मोटी पुस्तक के लायक सामग्री कबाड़ लीजिये| यदि आपको कोई विषय नहीं सूझे तो सबसे बड़ा विषय है अपने ही समाज से संबंधित पुस्तक| आप प्रचारित कर सकते है कि आपके समाज का आजतक जिन लेखकों ने इतिहास लिखा था उन्होंने आपके समाज के प्रति दुर्भावनाओं व पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर गलत लिखा और अब आप उसे ठीक व सही तरीके से लिखने का महान कार्य कर समाज का खोया गौरव लौटाने की कोशिश कर रहे है|

आपके इस तरह के डायलोग पढने के बाद समाज के कई संगठन आपके सहयोग के लिए आगे आ जायेंगे क्योंकि वे भी अपनी समाज सेवा में अक्सर ऐसा वादा करते रहते है पर वादा पूरा नहीं कर पाते, सो उन्हें भी आपके रूप में तारणहार मिल जायेगा| आपकी पुस्तक के बहाने आपसे जुड़े संगठन भी आपकी पुस्तक को अपनी महान उपलब्धि बताते हुए उसका प्रचार-प्रसार कर देंगे| इस तरह आपको सामाजिक भावनाओं का दोहन कर अपनी पुस्तक की धाक ज़माने में बड़ी आसानी होगी|

तो फिर इस महान तकनीकि को अपनाकर हो जाईये शुरू और बन जाईये ब्लॉग व पुस्तक लेखक, साथ कमाईये मोटा धन और सामाजिक प्रतिष्ठा|

राणा संग्रामसिंह (साँगा)

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Rana Sangram Singh, Rana Sanga of Mewar, Rana Sanga History in hindi

देख खानवा यहाँ चढ़ी थी राजपूत की त्यौरियाँ ।
मतवालों की शमसीरों से निकली थी चिनगारियाँ ।


राणा संग्रामसिंह इतिहास में राणा साँगा के नाम से प्रसिद्ध है। राणा साँगा राणा कुम्भा का पोत्र व राणा रायमल का पुत्र था। इनका जन्म वि.सं. १५३९ वैशाख बदी नवमी (ई.स. १४८२ अप्रेल २२) को हुआ था। मेवाड़ के ही नहीं, सम्पूर्ण भारत के इतिहास में राणा साँगा का विशिष्ट स्थान है। इसके राज्यकाल में मेवाड़ अपने गौरव और वैभव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा। कुंवर पदे में इनका अपने बड़े भाई पृथ्वीराज (उड़णा राजकुमार) से विवाद हो गया था। उसी विवाद में इनकी एक आँख फूट गई थी, इस आपसी झगड़े के समय विश्वस्त सरदारों ने राणा साँगा को बचा लिया। प्रारम्भिक काल में (अपने पिता के समय) काफी दिनों तक अज्ञात वास में रहे। अपने दोनों बड़े भाइयों की कुंवर पदे ही मृत्यु होने के बाद वह मेवाड़ में पिता के पास आए। पिता की मृत्यु के पश्चात् वि.सं. १५६६ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी (ई.स. १५०९) को राज्यभिषेक हुआ।

राणा साँगा मेवाड़ के राणाओं में सबसे अधिक प्रतापी था। उस समय का सबसे प्रबल क्षत्रिय राजा था, जिसकी सेवा में अनेक अन्य राजा रहते थे और कई राजा, सरदार तथा मुसलमान अमीर, शहजादे आदि उसकी शरण लेते थे उस समय दिल्ली में लोदी वंश का सुलतान सिकन्दर लोदी, गुजरात में महमूदशाह (बेगड़ा) और मालवा में नासिरशाह खिलजी का राज्य था। राणा साँगा ने अपने बाहुबल पर विशाल साम्राज्य स्थापित किया। ग्वालियर, अजमेर, चन्देरी, बूंदी, गागरौन, रामपुरा और आबू के राजा उनके सामन्त थे। इसके अलावा राजपूताने के और भी राजा, राणा साँगा की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। राणा साँगा का पूरा जीवन, बचपन से लेकर मृत्युपर्यन्त युद्धों में बीता। गुजरात के सुलतान ने इंडर के स्वामी रायमल राठौड़ को हटाकर ईडर पर कब्जा कर लिया। राणा साँगा रायमल की सहायता के लिए गया। सुलतान निजामुल्मुल्क को युद्ध में हराया। ईडर पर रायमल का अधिकार करवा दिया। सुल्तान ईडर से भागकर अहमदनगर चला गया। मुसलमानों ने किले के दरवाजे बन्द कर लिए। सीसोदिया सेना ने दुर्ग को घेर लिया हाथी की टक्कर दिलाकर दुर्ग के कपाट तोड़ दिए गए। दोनों सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ। मुस्लिम सेना की हार हुई, सुलतान पीछे के दरवाजे से निकलकर भाग गया | दिल्ली के सुलतान इब्राहिम लोदी ने वि.सं. १५७४ में (ई.स. १५१७) मेवाड़ पर चढ़ाई की। सुलतान विशाल सेना लेकर खातोली (हाड़ौती क्षेत्र) नामक स्थान पर आया। यहाँ दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। सुलतान इब्राहिम लोदी की पराजय हुई। सुलतान अपनी सेना सहित भाग निकला और उसका एक शहजादा कैद हुआ, जिसे कुछ समय बाद राणा ने दण्ड लेकर छोड़ दिया।


माण्डू के सुल्तान महमूद ने वि.सं. १५७६ (ई. स. १५१९) में गागरौन पर चढ़ाई की, इस युद्ध में राणा साँगा अपनी सेना के साथ गागरौन के राजा की सहायता हेतु आया। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुस्लिम सेना पराजित हुई। सुल्तान स्वयं घायल हो गया, राणा ने उसे अपने तम्बू में पहुँचवाया और उसके घावों का इलाज करवाया। उसे चित्तौड़ में तीन महीने कैद रखा और फौज खर्च लेकर उसे क्षमा कर दिया। सुल्तान ने अधीनता चिह्न स्वरूप राणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की रत्न जड़ित कमर पेटी भेंट की। राणा साँगा ने दिल्ली, गुजरात के मुहम्मद बेगड़ा और मालवा के नासीरुद्दीन की सम्मिलित सेना से युद्ध किया, फिर भी जीत राणा की हुई।

बाबर ने पानीपत के मैदान में दिल्ली के लोदी सुल्तान को परास्त करके दिल्ली पर मुगल सल्तनत की स्थापना कर ली थी। उसके पड़ोस में मेवाड़ एक शक्तिशाली साम्राज्य था अतः दोनों के मध्य युद्ध होना आवश्यक हो गया। दोनों सेनाएँ खानवा (फतेहपुर सीकरी) स्थान पर युद्ध के लिए रवाना हुई। राणा साँगा की राज्य सीमा बयाना तक थी। बाबर ने बयाना पर आक्रमण कर, उसे अपने अधिकार में कर लिया। राणा अपनी सेना लेकर बयाना की तरफ बढ़ा, बयाना पर आसानी से कब्जा कर लिया। दोनों के मध्य कई छोटी-मोटी लड़ाइयाँ हुई, जिनमें राणा साँगा की विजय हुई। बाबर की बराबर हार हो रही थी, वह बड़ा निराश था। उसने निर्णायक युद्ध के लिए फतेहपुर सीकरी के पास खानवा नामक स्थान पर अपनी सेना का पड़ाव डाला। राणा साँगा की सेना में राजपूताने के सभी राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सम्मिलित थे। राणा साँगा के साथ महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का पुत्र), राव गाँगा जोधपुर, पृथ्वीराज कछावा आमेर, भारमल ईंडर, वीरमदेव मेड़तिया, रावळ उदयसिंह डूंगरपुर, नरबद हाड़ा बूंदी, मेदनीराय चन्देरी, रावत बाघसिंह देवळिया, कुं, कल्याणमल बीकानेर, (राव जैतसी का पुत्र) हसन खाँ मेवाती अपनी-अपनी सेनाओं के साथ थे।

वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि ११ (ई.स. १५२७ मार्च) को दोनों सेनाएँ आमनेसामने हुई। प्रारम्भिक लड़ाइयों में बाबर की पराजय हुई। मुस्लिम सेना में घोर निराशा फैल गई। बाबर ने अपनी सेना में जोश लाने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। अपनी सेना की रणनीति बनाई। बाबर के पास बड़ी-बड़ी तोपें थी, उनकी मोचबिन्दी की। वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि १४ को (ई.स. १५२७ मार्च १७) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। बाबर ने तोपखाने का प्रयोग किया। इससे पहले भारत में तोपों का प्रयोग नहीं होता था। तोपों से बहुत से राजपूत मारे गए, लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मुगल सेना का पलड़ा हल्का था, वे हार रहे थे। मुगल सेना भी पूरे जोश से युद्ध कर रही थी। इतने में एक तीर राणा साँगा के सिर में लगा, जिससे वे मुर्छित हो गए और कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध क्षेत्र के बाहर सुरक्षित जगह पर ले गए। राणा के हटते ही झाला अञ्जा ने राजचिह्न धारण करके राणा साँगा के हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । झाला अज्रा की अध्यक्षता में सेना लड़ने लगी। लेकिन राणा साँगा की अनुपस्थिति में सेना में निराशा छा गई। राजपूत पक्ष अब भी मजबूत था। तोपखाने ने भयंकर तबाही मचाई, इसी समय बाबर के सुरक्षित दस्ते ने पूरे जोश के साथ में पराजय हुई। राणा साँगा को बसवा नामक स्थान पर लाया गया।
जब उसे होश आया तो वह दुबारा युद्ध करना चाहता था। बसवा से राणा साँगा रणथम्भौर चला गया। वह बाबर से दुबारा युद्ध करना चाहता था। इसी बीच किसी सरदार ने उन्हें विष दे दिया जिससे राणा साँगा का ४६ वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया। राणा साँगा का माघ सुदि नवमी वि.सं. १५८४ (ई.स. १५२८ जनवरी ३०) को कालपी के पास एरिच में स्वर्गवास हुआ और माण्डलगढ़ में दाह संस्कार हुआ (अमर काव्य)। वीर विनोद में बसवा स्थान बताया गया है। बसवा में एक प्राचीन चबूतरा बना हुआ है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि यह चबूतरा राणा साँगा का स्मारक है। मेवाड़ वाले भी इसे ही राणा साँगा का स्मारक मानते हैं। अमर काव्य राणा साँगा की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद की रचना है। अत: यही सम्भव है कि राणा साँगा का दाह संस्कार बसवा में ही हुआ होगा। इस पराजय से राजपूतों का वह प्रताप, जो राणा कुम्भा के समय में बहुत बढ़ा और इस समय अपने शिखर पर पहुँच चुका था, वह एकदम कम हो गया। इस युद्ध में राजस्थान के सभी राजपरिवारों के कोई-न-कोई प्रसिद्ध व्यक्ति काम आए। भारत पर मुगल सत्ता स्थापित हो गई, राजपूतों की एकता टूट गई। राजस्थान की सदियों पुरानी स्वतन्त्रता तथा उसकी प्राचीन संस्कृति को सफलतापूर्वक अक्षुण्ण बनाए रखने वाला अब कोई भी नहीं रहा।

‘‘राणा साँगा के साथ ही साथ भारत के राजनीतिक रंगमंच पर हिन्दू साम्राज्य का अन्तिम दृश्य भी पूर्ण हो गया।’ इतिहास उसे भारतीय अन्तिम हिन्दू
सम्राट के रूप में स्मरण करता है।

बाबर तेरे प्याले टूटे बता कितने ?
पर सरहद्दी का अफसोस लिए फिरते हैं।


सरहदी :- सरहदी तेंवर राणा साँगा का दामाद था। कई इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि ऐन लड़ाई के वक्त तेंवर सरहदी, जो राणा साँगा के हरावल में था, राजपूतों को धोखा देकर अपने सारे सैन्य सहित बाबर से जा मिला। यह तथ्य गलत है। खानवा युद्ध से पहले बाबर की सेनाएँ लगातार हार रही थी अतः बाबर ने राणा साँगा के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा, जिसे राणा साँगा ने स्वीकार कर लिया था। राणा साँगा ने सरहदी को सन्धि की शर्ते लिखकर दी। बाबर ने उन सारी शतों को स्वीकार कर लिया क्योंकि युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी चल रहा था |
खानवा युद्ध से पहले युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी था अतः राणा साँगा ने सन्धि करने से इन्कार कर दिया। इससे सरहदी की स्थिति असमंजसपूर्ण हो। गई। उसने राणा साँगा को समझाने के बहुत प्रयत्न किए लेकिन साँगा ने सन्धि स्वीकार नहीं की। इस घटनाक्रम से सरहदी ने अपने आप को अपमानित अनुभव किया तथा वह अपनी सेना के साथ वापस अपने प्रदेश में चला गया।


लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर
सन्दर्भ झंकार के

बप्पा रावल : मेवाड़ के सिसोदिया राज्य के संस्थापक

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बापा ने बम बम्ब कहा संकेत रहे कर सांगाजी ।
ललकार रहा प्रताप खड़ा पीछे न हटी मरने पर भी ॥


मेवाड़ के इतिहास में बापा रावळ Bappa Rawal ही पहला प्रसिद्ध राजा हुआ। बचपन में बापा विपतिकाल में नागद्रह (नागदा Nagda) में अज्ञात रूप से एक ब्राह्मण की गाय चराता था। वहाँ बप्पा ने हारीत ऋषि (लकुलीश सम्प्रदाय-शैव) की सेवा की। बहुत दिनों तक ऋषि की सेवा की, ऋषि ने बप्पा की सेवा से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि अमुक स्थान पर सोने की मुद्राएँ गड़ी हुई हैं, उन्हें तुम निकाल लेना और चित्तौड़ पर अधिकार कर लेना। चित्तौड़ पर तेरे वंशजों का हमेशा राज रहेगा। इतना वर देकर ऋषि स्वर्ग पयान कर गए।

बप्पा ने गुप्त खजाने से सोने की मुहरें निकाल ली और एक सेना का गठन किया। नागदा के पास चितौड़ में मान मोरी (परमार वंश) का राजा था। बप्पा ने मान मोरी पर वि.सं. ७९१ (ई.स. ७३४) के लगभग आक्रमण किया। बप्पा ने चित्तौड़ मान मोरी से ले लिया। बप्पा ने एकलिंग जी का मन्दिर बनवाया था। मेवाड़ के महाराणा अपने आपको एकलिंग जी के दीवाण मानते हैं, राज्य के मालिक भगवान एकलिंग जी ही माने जाते हैं। बप्पा रावल की राजधानी नागदा थी।

बप्पा रावळ के समय यवन सेना मेवाड़ में आ गई थी। मुस्लिम सेनापति मुहम्मद को बप्पा ने युद्ध में परास्त किया। मुस्लिम सेना हार कर भाग गई। बप्पा ने उसका बहुत दूर तक पीछा किया। ख्यातों में वर्णन है कि बप्पा उस सेना के पीछे-पीछे खुरासाण तक गए, वहाँ के बादशाह को हराया।
कई वर्षों तक बप्पा ने शासन किया फिर वि.सं. ८१० में अपने पुत्र को राज देकर संन्यास ग्रहण किया। बप्पा का स्वर्गवास नागदा में हुआ। बप्पा की समाधि एकलिंगजी से एक मील दूर है। बप्पा के बाद सीसोदियों की राजधानी चित्तौड़ रही।


लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर
संदर्भ झंकार के
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