ककराना गाँव के मंदिरों में सबसे प्राचीन लक्ष्मण जी का मंदिर बताते है। हालाँकि इस मंदिर की स्थापना का कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। शायद शेखावतों का उदयपुरवाटी से निकलने के बाद ही इस मंदिर का निर्माण हुआ होगा। झुंझार सिंह गुढा के पुत्र गुमान सिंह जी को ककराना, नेवरी, किशोरपुरा गाँव जागीर के रूप में मिला था। शायद उसी दौरान या उसके बाद उनके वंशजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया होगा।
मंदिर को बनाने में बढ़िया किस्म का चुना पत्थर का प्रयोग किया गया था। इस मंदिर की ऊंचाई भी इतनी अधिक की गयी कि तत्कालीन समय में नीचे बसे हुए गाँव में आसानी से इसके स्वरुप के दर्शन हो जाते थे। मंदिर ककराना के ह्रदय स्थल मुख्य बाजार में स्थापित है। मजबूत बड़े व् विस्तृत आसार, बड़ा मंडप, मंदिर में गर्भ गृह के पास भवन, तिबारे, नीचे बड़े तहखाने बने हुए है। "लक्ष्मण धणी" के गर्भ गृह के सामने ही हनुमान जी का मंदिर है। मंदिर के गर्भ गृह के चहुँ और परिक्रमा बनी हुई है। मंदिर की बनावट को देखकर उन्मुख्त भाव से मद खर्च का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
भगवन राम, राधा -कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवोँ के मंदिर तो प्रायः हर जगह दृष्टिगोचर हो जाते है। परन्तु लक्ष्मण जी जिनके बिना भगवान राम की कल्पना भी नहीं की सकती। जो कदम - कदम पर श्री राम प्रभु की परछाई बने रहे ऐसे त्यागी महापुरुष के मंदिर बहुत कम देखने को मिलेंगे। लक्ष्मण जी अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते है। प्रभु श्रीरामजी को ज्ञान और लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतिक कहा गया है। बगैर लक्ष्मण के राम का चरित्र कहीं उभरता ही नहीं। तुलसीदास ने राम की कीर्तिध्वजा का डंडा लक्ष्मण को माना है।
इस ऐतिहासिक मंदिर का उल्लेख उदयपुरवाटी के प्रमुख मंदिरो की श्रेणी में आता है ।तत्कालीन समय में किसी कवि ने इसका बखान अपने दोहे में कुछ इस प्रकार से किया है -
गोपीनाथ गुढा को ठाकर(भगवान) ,चुतुर्भुज चिराना को।
मालखेत सबको ठाकर ,लक्ष्मन जी ककराना को ।।
जागीरी के समय मंदिर के भोग व् दीपदान के लिए राजपूत जागीरदारों के द्वारा लगभग ३०० बीघा उपजाऊ भूमि प्रदान किया गया था। जैसा की रियासत काल के समय में मंदिरों के निर्माण के साथ ही मंदिर की पूजा व् देखरेख के लिए मंदिर के नाम भूमि दान की जाती थी। इसका हेतु यह था की मंदिर की पूजा अर्चना व् देखभाल उस भूमि से उपार्जित आय से भविष्य में होती रहे । मंदिर की पूजा शुरू से ही स्वामी परिवारों के अधीन रही है।
स्वामी परिवार ही इस भूमि पर काश्त करते थे व् मंदिर की पूजा बारी बारी से सँभालते रहे है ।
काफी समय से रखरखाव पर खर्च नहीं करने से मंदिर धीरे धीरे जर्जर होता जा रहा है। नीचे से दीवारें कमजोर पड़ने लग गयी है। जगह जगह से पलस्तर उखड़ने लग गयाहै ।
इतना समृद्ध होते हुए भी आज मंदिर भवन उपेक्षा का शिकार हो रहा है। वर्तमान में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति की सामर्थ्य नहीं है की इस विशाल मंदिर की मरम्मत करवा सके। इसलिए सर्वसमाज को आगे आकर व् प्रवासी बंधुओं के सहयोग से इस मंदिर का पुन: उद्दार करने के बारे में सोचने की नितांत आवशयकता है ।
लेखक : गजेंद्र सिंह ककराना
मंदिर को बनाने में बढ़िया किस्म का चुना पत्थर का प्रयोग किया गया था। इस मंदिर की ऊंचाई भी इतनी अधिक की गयी कि तत्कालीन समय में नीचे बसे हुए गाँव में आसानी से इसके स्वरुप के दर्शन हो जाते थे। मंदिर ककराना के ह्रदय स्थल मुख्य बाजार में स्थापित है। मजबूत बड़े व् विस्तृत आसार, बड़ा मंडप, मंदिर में गर्भ गृह के पास भवन, तिबारे, नीचे बड़े तहखाने बने हुए है। "लक्ष्मण धणी" के गर्भ गृह के सामने ही हनुमान जी का मंदिर है। मंदिर के गर्भ गृह के चहुँ और परिक्रमा बनी हुई है। मंदिर की बनावट को देखकर उन्मुख्त भाव से मद खर्च का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
भगवन राम, राधा -कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवोँ के मंदिर तो प्रायः हर जगह दृष्टिगोचर हो जाते है। परन्तु लक्ष्मण जी जिनके बिना भगवान राम की कल्पना भी नहीं की सकती। जो कदम - कदम पर श्री राम प्रभु की परछाई बने रहे ऐसे त्यागी महापुरुष के मंदिर बहुत कम देखने को मिलेंगे। लक्ष्मण जी अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते है। प्रभु श्रीरामजी को ज्ञान और लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतिक कहा गया है। बगैर लक्ष्मण के राम का चरित्र कहीं उभरता ही नहीं। तुलसीदास ने राम की कीर्तिध्वजा का डंडा लक्ष्मण को माना है।
इस ऐतिहासिक मंदिर का उल्लेख उदयपुरवाटी के प्रमुख मंदिरो की श्रेणी में आता है ।तत्कालीन समय में किसी कवि ने इसका बखान अपने दोहे में कुछ इस प्रकार से किया है -
मालखेत सबको ठाकर ,लक्ष्मन जी ककराना को ।।
जागीरी के समय मंदिर के भोग व् दीपदान के लिए राजपूत जागीरदारों के द्वारा लगभग ३०० बीघा उपजाऊ भूमि प्रदान किया गया था। जैसा की रियासत काल के समय में मंदिरों के निर्माण के साथ ही मंदिर की पूजा व् देखरेख के लिए मंदिर के नाम भूमि दान की जाती थी। इसका हेतु यह था की मंदिर की पूजा अर्चना व् देखभाल उस भूमि से उपार्जित आय से भविष्य में होती रहे । मंदिर की पूजा शुरू से ही स्वामी परिवारों के अधीन रही है।
स्वामी परिवार ही इस भूमि पर काश्त करते थे व् मंदिर की पूजा बारी बारी से सँभालते रहे है ।
काफी समय से रखरखाव पर खर्च नहीं करने से मंदिर धीरे धीरे जर्जर होता जा रहा है। नीचे से दीवारें कमजोर पड़ने लग गयी है। जगह जगह से पलस्तर उखड़ने लग गयाहै ।
इतना समृद्ध होते हुए भी आज मंदिर भवन उपेक्षा का शिकार हो रहा है। वर्तमान में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति की सामर्थ्य नहीं है की इस विशाल मंदिर की मरम्मत करवा सके। इसलिए सर्वसमाज को आगे आकर व् प्रवासी बंधुओं के सहयोग से इस मंदिर का पुन: उद्दार करने के बारे में सोचने की नितांत आवशयकता है ।