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Channel: ज्ञान दर्पण
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प्रदूषण का बढ़ता दायरा और भोजन में घुलता जहर

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बढ़ते प्रदूषण की चर्चा चलते ही औद्योगिक नगरों के बड़े बड़े कारखानों में लगी चिमनियों से निकलता काला धुंवा और आस-पास के क्षेत्र में उस धुंए से निकलती जहरीली गैसें व घरों पर बरसती बारीख राख, कारखानों के नालों से निकलता रसायन युक्त जहरीला प्रदूषित जल, जहरीले सीवरेज के बदबूदार नाले, सड़कों पर गाड़ी, मोटरों के पों पों हार्न व धड़धड़ाते इंजन की कान फाड़ती आवाजें और उनके साइलेंसर से निकलती जहरीली गैसें, कच्ची बस्तियों में सड़ांध मारती नालियाँ और जगह जगह पोलीथिन युक्त लगे कूड़े के ढेरों वाले प्रदूषित महानगरों का दृश्य आँखों के आगे घुमने लगता है|

वहीँ दूसरी और जब हमारी नजर गावों के कोलाहल से दूर शांत वातावरण पर जाती है तो हम सोचते है कि कम से कम गांव तो प्रदूषण से मुक्त है क्योंकि वहां सड़ांध मारती न तो नालियां है और ना ही धुंए उगलते कारखाने| पर जब हमें इन शांत व प्रत्यक्ष प्रदूषण से मुक्त दिखाई देने वाले गावों की असलियत पता चलती है तो हम सोचने को मजबूर हो जाते कि यदि यही हाल रहा तो देश के नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करना भी भविष्य में मुश्किल हो जायेगा|

आखिर ऐसा क्या हो रहा है गांवों में जो प्रदूषण मुक्त दीखते हुए भी अप्रत्यक्ष तौर पर बीमारियाँ फ़ैलाने में लगे है---

आज गांवों में किसान फसल की अच्छी उपज लेने के लिए यूरिया, डीएपी आदि के साथ बड़ी मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग कर रहें है जो जाने अनजाने में खाद्य सामग्रियों में धीमा जहर फैला रहे है| साथ ही इन कीटनाशकों के अँधाधुन प्रयोग से पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है| आज मैं अपने गांव की ही बात करूँ तो कुछ वर्षों पहले गांव में मोरों (मयूर) की अच्छी तादात हुआ करती थी पर आज मोर (मयूर) देखने को भी नहीं मिलते, कारण किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग और रसायन युक्त बोये गए बीजों को खाकर मोर बीमार होकर मर गये| गांव के खेतों में बरसात के दिनों में पहले मतीरे खूब हुआ करते है पर अब यूरिया के इस्तेमाल के बाद प्रदूषित हुई भूमि पर मतिरा अपने आप गलने लगता है|

आज इन कीटनाशकों का असर मोरों व अन्य पक्षियों व जीवों पर हुआ है कल को यही असर मानव पर होगा और होगा ही नहीं, हो ही रहा है पिछले माह राजस्थान पत्रिका में किसानों द्वारा यूरिया व कीटनाशकों के बहुतायत से इस्तेमाल व नहरों में आने वाले रसायन युक्त प्रदूषित पानी की सिंचाई पर छपी एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के श्री गंगानगर और हनुमानगढ़ क्षेत्र के साथ ही लगते पंजाब के कई जिलों में फसलों व सब्जियों में इन कीटनाशकों व यूरिया आदि के इस्तेमाल का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब के अबोहर भटिंडा से बीकानेर के बीच चलने वाली बीकानेर एक्सप्रेस संख्या 54504-5 रेलगाड़ी में प्रतिदिन औसतन 600 कैंसर रोगी बीकानेर के अस्पताल में ईलाज के लिए यात्रा करते है| इस रेलगाड़ी के यात्रियों में सबसे ज्यादा यात्री आपको कैसर रोगी या कैंसर रोगियों से मिलने आने जाने वाले उनके परिजन, रिश्तेदार आदि ही मिलेंगे, इसी वजह से इस रेलगाड़ी का स्थानीय नाम ही कैंसर एक्सप्रेस पड़ गया| स्थानीय लोग इस रेलगाड़ी को कैंसर एक्सप्रेस के नाम से ही पुकारते है|

राजस्थान पत्रिका के अनुसार श्री गंगानगर जिले की सादुलशहर तहसील के एक गांव “मुन्नीवाली” में कैंसर के इतने रोगी है कि उस गांव में हर माह एक दो कैंसर रोगी की मौत होती है| यह गांव आज कैंसर गांव के नाम से ही जाना जाता है और इस गांव में कैंसर फैलने का मुख्य कारण वहां आने वाली नहर में पंजाब के औद्योगिक कारखानों से निकलने वाला रासायनिक प्रदूषित जल मिला होता है जिसे पीने व उसकी सिंचाई से उपजी सब्जियां खाने से आम आदमी अनजाने में कैंसर के रोग की चपेट में आ रहा है|

आज ज्यादातर शहरों के आस-पास के गांवों में कारखानों व सीवरेज से निकले प्रदूषित जल के नालों से सिंचाई कर सब्जियां उगाई जाती है जो लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है| प्रदूषित पानी से सब्जियों की खेती करने वालों को भी पता होता है कि ये बीमारियाँ फैलाएगी अत: वे खुद इन सब्जियां का उपभोग नहीं करते पर थोड़ा सा धन कमाने के लालच में दूसरों को मौत के मुंह में धकेल रहे है| उसका एक बहुत पुराना उदाहरण मुझे याद आ रहा है-

बात लगभग 1992-93 के की है जोधपुर के बासनी औद्योगिक क्षेत्र के कपड़ा छपाई कारखानों से निकला प्रदूषित जल जोजरी नदी में जाता था जिसका स्थानीय किसान अक्सर विरोध करते थे पर उस वक्त कोई दो तीन वर्ष से किसानों का प्रदूषित पानी को लेकर कोई विरोध नहीं हो रहा था, इस बीच खबर मिली कि आजकल किसान इस प्रदूषित पानी से अपने अपने खेतों में सिंचाई के लिए आपस में लड़ते है| यह खबर मिलने पर जोधपुर के एक केमिस्ट लोढ़ा जी को लेकर कुछ कपड़ा कारखाना मालिक जोजरी नदी के किनारे खेतों में गए तो देखा खेतों में प्रदूषित पानी से गेंहू की फसल लहलहा रही थी| केमिस्ट लोढ़ा ने पानी का पीएच टेस्ट किया तो वह न्यूटल मिला जिसे देख केमिस्ट लोढ़ा को समझते देर नहीं लगी कि ये प्रदूषित पानी न्यूटल क्यों है, दरअसल कपड़ा छपाई से निकले कारखानों के पानी में सोडियम सिलीकेट की मात्रा अधिक होने से पानी का पीएच एल्कलाइन मीडियम होता है| उस काल में जोधपुर में स्टील के कारखाने भी बहुत लगे थे जिनसे निकलने वाले जल का मीडियम एसीटिक होता है जब एसीटिक व अल्क्लाइन मिलते है तो पीएच न्यूटल हो जाता है|

हालाँकि प्रदूषित जल न्यूटल तो था पर उसमें मिले रसायन तो उसमें मौजूद रहते ही है और उनका असर जमीन सहित फसल में जरुर पहुँचता है| पर फसल में रसायनों के असर के बावजूद वहां के किसान बेख़ौफ़ उस प्रदूषित जल से सिंचाई कर फसलें पैदा कर रहे थे| केमिस्ट लोढ़ा ने किसानों से बात की तो किसान बताने लगे कि-“वे इस प्रदूषित जल से उपजी फसल खुद नहीं खाते बल्कि इसे वे मंडी में बेच आते है|

मतलब साफ कि भले कोई मरता है तो मरे हमें तो अपने मुनाफे से मतलब है| और यही हो रहा है दूध बेचने वाला भैंस को इंजेक्शन लगा ज्यादा दूध निकाल मुनाफा कमाने में लगा है, सब्जियां बेचने वाला वही इंजेक्शन सब्जियां में लगा ज्यादा उपज लेकर मुनाफा कमाने में लगा है और खाने वाले इन सबसे अनजान या मज़बूरी में ये सब खाद्य पदार्थ धीमें जहर के रूप में खाते हुए रोगग्रस्त हुए जा रहे है|


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