भारत वर्ष के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को उनकी जयंती पर समर्पित खोज परक लेखों की एक विशेष श्रंखला जिसका उद्देश्य पृथ्वीराज चौहान के विराट और महान व्यक्तित्व को सही ढंग से प्रस्तुत करना है। पृथ्वीराज चौहान भारतीय इतिहास का एक ऐसा चेहरा है जिसके साथ वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने सबसे ज्यादा ज्यादती की है।
पृथ्वीराज जैसे महान, निर्भीक योद्धा, स्वाभिमानी युगपुरुष, अंतिम हिन्दू सम्राट, तत्कालीन भारतवर्ष के सबसे शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा को इतिहासकारों ने इतिहास में बमुश्किल आधा पन्ना दिया है और उसमें भी मोहम्मद गौरी के हाथों हुयी उसकी हार को ज्यादा प्रमुखता दी गयी है।
विसंगतियों से भरे पड़े भारतीय इतिहास में विदेशी, विधर्मी, आततायी, मलेच्छ अकबर महान हो गया और पृथ्वीराज गौण हो गया। विडंबना देखिये आज पृथ्वीराज पर एक भी प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध नहीं है। महान पृथ्वीराज का इतिहास आज किंवदंतियों से भरा पड़ा है। जितने मुँह उतनी बात। जितने लेखक उतने प्रसंग। तमाम लेखकों ने सुनी सुनाई बातों या पुराने लेखकों को पढ़कर बिना किसी सटीक शोध के पृथ्वीराज चौहान पर पुस्तकें लिखी हैं। जन सामान्य में पृथ्वीराज चौहान के बारे में उपलब्ध अधिकांश जानकारी या तो भ्रामक है या गलत। आधी अधूरी जानकारी के साथ ही हम पृथ्वीराज चौहान जैसे विशाल व्यक्तित्व, अंतिम हिन्दू सम्राट, पिछले 1000 साल के सबसे प्रभावशाली, विस्तारवादी, महत्वकांक्षी, महान राजपूत योद्धा का आंकलन करते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।
पृथ्वीराज चौहान के जन्म से लेकर मरण तक इतिहास में कुछ भी प्रमाणित नहीं मिलता। विराट भारत वर्ष के विराट इतिहास का पृथ्वीराज एक अकेला ऐसा महानायक, जिसके जीवन की हर छोटी बड़ी गाथा के साथ तमाम सच्ची झूंठी किंवदन्तिया और कहानियां जुड़ी हुयी हैं। इस नायक की जन्म तिथि 1149 से लेकर 65, 66, 69 तक मिलती है। इसी तरह मरने को लेकर भी तमाम कपोल कल्पित कल्पनायें हैं। कोई कहता है कि अजमेर में मृत्यु हुयी तो कोई कहता है अफगानिस्तान में, कोई कहता है मरने से पहले पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को मार दिया था तो कोई कहता है गौरी पृथ्वीराज के बाद भी लम्बे समय तक जीवित रहा। पृथ्वीराज और मोहम्मद गौरी के युद्धों की संख्या से लेकर उनके युद्धों के परिणामों तक, पृथ्वीराज को दिल्ली की गद्दी मिलने से लेकर अनंगपाल तोमर या तोमरों से उसके रिश्तों तक सब जगह भ्रान्ति है। यही नहीं पृथ्वीराज और जयचंद के संबंधों की बात करें या पृथ्वीराज-संयोगिता प्रकरण की कहीं भी कुछ भी प्रामाणिक नहीं। पृथ्वीराज के विवाह से लेकर उसकी पत्नियों तथा प्रेम प्रसंगों तक, हर विषय पर दुविधा और भ्रान्ति मिलती है। पृथ्वीराज से जुड़े तमाम किस्से कहानियां जो आज अत्यंत प्रासंगिक और सत्य लगते हैं, इतिहास की कसौटी पर कसने और शोध करने पर उनकी प्रमाणिकता ही खतरे में पड़ जाती है। इनमें सबसे प्रमुख है पृथ्वीराज और जयचंद के सम्बन्ध। इतिहास में इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते कि गौरी को जयचंद ने बुलाया था या उसने पृथ्वीराज के खिलाफ गौरी का साथ दिया था, क्योंकि किंवदंतियों तथा चारणों के इतिहास में इस बात की प्रमुख वजह पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता का बलात् हरण करना बताया गया है। जबकि इतिहास में कहीं भी प्रामाणिक तौर पर संयोगिता का जिक्र ही नहीं मिलता। जब संयोगिता ही संदिग्ध है तो संयोगिता की वजह से दुश्मनी कैसे हो सकती है? लेकिन हाँ ! इतना तय है कि पृथ्वीराज और जयचंद के सम्बन्ध मधुर नहीं थे और शायद अत्यंत कटु थे। लेकिन इसकी वजह उनकी आपसी प्रतिस्पृधा तथा महत्वाकांक्षाओं का टकराव था। यह बात दीगर है कि पृथ्वीराज चौहान उस समय का सबसे शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी राजा था। जिस तेजी से वो सबको कुचलता हुआ, हराता हुआ साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, वो तत्कालीन भारतवर्ष के प्रत्येक राजवंश के लिये खतरे की घंण्टी थी। पृथ्वीराज तत्कालीन उत्तर और पश्चिम भारत के सभी छोटे बड़े राजाओं सहित गुजरात के भीमदेव सोलंकी तथा उत्त्तर प्रदेश के महोबा के चंदेल राजा परिमर्दिदेव को हरा चूका था, जिसके पास बनाफर वंश के आल्हा उदल जैसे प्रख्यात सेनापति थे। मोहम्मद गौरी के कई आक्रमणों को उसके सामंत निष्फल कर चुके थे।
ये पृथ्वीराज चौहान ही था जिसके घोषित राज्य से बड़ा उसका अघोषित राज्य था। जिसका प्रभाव आधे से ज्यादा हिंदुस्तान में था और जिसकी धमक फारस की खाड़ी से लेकर ईरान तक थी। जो 12 वीं शताब्दी के अंतिम पड़ाव के भारत वर्ष का सबसे शक्तिशाली सम्राट और प्रख्यात योद्धा था। जो जम्मू और पंजाब को भी जीत चुका था। गुजरात के सोलंकियों, उज्जैन के परमारों तथा महोबा के चन्देलों को हराने के बाद बड़े राजाओं तथा राजवंशों में सिर्फ कन्नौज के गहड़वाल ही बचे थे, जिन्हें चौहान को हराना था। उस समय की परिस्थितियों का अवलोकन करने तथा पृथ्वीराज के शौर्य का अवलोकन करने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पृथ्वीराज चौहान, जयचंद गहड़वाल को आसानी से हरा देता।
राजपूत काल के प्रारम्भ (7 वीं सदी ) से राजतन्त्र की समाप्ति तक (1947) पूरे राजपूत इतिहास में कोई भी राजपूत राजा पृथ्वीराज के समक्ष शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी नहीं दिखता है। एक भी राजा ऐसा पैदा नहीं हुआ जिसने इतनी महत्वाकांक्षा दिखायी हो, इतना सामर्थ दिखाया हो जो आगे बढ़कर किसी इस्लामिक आक्रांता को ललकार सका हो, चुनौती दे सका हो, जिसने कभी दिल्ली के शासन पर बैठने की इच्छा रखी हो (अपवाद स्वरूप राणा सांगा का नाम ले सकते हैं)।
यदि पृथ्वीराज चौहान को युगपुरुष कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पृथ्वीराज दो युगों के बीच का अहम केंद्र बिंदु है। हम इतिहास को दो भागों में बाँट सकते हैं एक पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु से पहले का एक उसकी मृत्यु के बाद का। सन 712 (प्रथम मुस्लिम आक्रमण ) से लेकर 1192 (पृथ्वीराज की हार) तक का युग है राजपूतों के मुस्लिमों से संघर्ष का उन्हें हराने का उनसे जमकर मुकाबला करने का उनके प्रत्येक हमले को विफल बनाने का। जबकि 1192 में पृथ्वीराज की हार के बाद का युग है राजपूतों का मुसलमानों के मातहत उनका सामंत बनकर अपना राज्य बचाने तथा उनको देश की सत्ता सौंप उन्हें भारत का भाग्य विधाता बनाने का। पृथ्वीराज चौहान की हार सिर्फ पृथ्वीराज की हार नहीं थी बल्कि पूरे राजपूत समाज की, राजपूत स्वाभिमान की, सम्पूर्ण सनातन धर्म की, विश्व गुरु भारत वर्ष की तथा भारतीयता की हार थी। इस एक हार ने हमारा इतिहास सदा सदा के लिये बदल दिया। 800 साल में एक राजा पैदा ना हुआ जिसने विदेशी-विधर्मियों को देश से बाहर खदेड़ने का प्रयास किया हो। जिसने सम्पूर्ण भारत की सत्ता का केंद्र बनने तथा उसे अपने हाथ में लेने का प्रयास किया हो।
राजपूत काल के प्रारम्भ (7 वीं सदी ) से राजतन्त्र की समाप्ति तक (1947) पूरे राजपूत इतिहास में कोई भी राजपूत राजा पृथ्वीराज के समक्ष शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी नहीं दिखता है। एक भी राजा ऐसा पैदा नहीं हुआ जिसने इतनी महत्वाकांक्षा दिखायी हो, इतना सामर्थ दिखाया हो जो आगे बढ़कर किसी इस्लामिक आक्रांता को ललकार सका हो, चुनौती दे सका हो, जिसने कभी दिल्ली के शासन पर बैठने की इच्छा रखी हो (अपवाद स्वरूप राणा सांगा का नाम ले सकते हैं)।
यदि पृथ्वीराज चौहान को युगपुरुष कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पृथ्वीराज दो युगों के बीच का अहम केंद्र बिंदु है। हम इतिहास को दो भागों में बाँट सकते हैं एक पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु से पहले का एक उसकी मृत्यु के बाद का। सन 712 (प्रथम मुस्लिम आक्रमण ) से लेकर 1192 (पृथ्वीराज की हार) तक का युग है राजपूतों के मुस्लिमों से संघर्ष का उन्हें हराने का उनसे जमकर मुकाबला करने का उनके प्रत्येक हमले को विफल बनाने का। जबकि 1192 में पृथ्वीराज की हार के बाद का युग है राजपूतों का मुसलमानों के मातहत उनका सामंत बनकर अपना राज्य बचाने तथा उनको देश की सत्ता सौंप उन्हें भारत का भाग्य विधाता बनाने का। पृथ्वीराज चौहान की हार सिर्फ पृथ्वीराज की हार नहीं थी बल्कि पूरे राजपूत समाज की, राजपूत स्वाभिमान की, सम्पूर्ण सनातन धर्म की, विश्व गुरु भारत वर्ष की तथा भारतीयता की हार थी। इस एक हार ने हमारा इतिहास सदा सदा के लिये बदल दिया। 800 साल में एक राजा पैदा ना हुआ जिसने विदेशी-विधर्मियों को देश से बाहर खदेड़ने का प्रयास किया हो। जिसने सम्पूर्ण भारत की सत्ता का केंद्र बनने तथा उसे अपने हाथ में लेने का प्रयास किया हो।
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