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राष्ट्रीय नायक महाराणा प्रताप

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National Hero Maharana Pratap History in Hindi

पच्चीस वर्ष कष्टों के, प्रताप ने वन में सहे थे।
स्वतन्त्रता के दीवानों, का भी यही था तराना।

वीर शिरोमणि प्रातः स्मरणीय राणा प्रताप का जन्म वि.सं. 1596 जेष्ठ सुदी तृतीया (ई.स. 1540 मई 9) को हुआ था। प्रताप की माता अखैराज सोनगरा की पुत्री थी। राणा उदयसिंह की मृत्य वि.सं. 1629 (ई.स. 1572) को गोगुन्दा में हुई। उदयसिंह ने अपनी भटियाणी रानी के प्रभाव में आकर छोटे पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी चुना था, यह बात आम लोगों में प्रकट नहीं हुई थी। जब उदयसिंह के दाह संस्कार में जगमाल दिखाई नहीं दिया तो लोगों में कानाफूसी हुई। रामशाह तंवर ने जगमाल के भाई सगर से पूछा तो उसने कहा कि “आप क्या नहीं जानते? बैकुण्ठवासी महाराणा ने उनको राज्य का मालिक बनाया है।’’ मेवाड़ के सरदारों की मन्त्रणा हुई। मुख्य सरदारों का मत यह था कि बादशाह अकबर जैसा दुश्मन सिर पर लगा हुआ है, चित्तौड़ छूट गया, मेवाड़ उजड़ रहा है, अब यह घर का बखेड़ा भी उठा तो इस राज्य की बरबादी में कोई संदेह नहीं रहेगा? आखिर में मेवाड़ के मुख्य सरदारों ने निर्णय करके प्रताप को उत्तराधिकारी घोषित किया। गोगुन्दा में प्रताप का राजतिलक कर दिया गया, विधिवत राज्याभिषेक समारोह कुम्भलगढ़ ने मनाया गया।

राणा प्रताप के पिता उदयसिंह के समय अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था। तब उदयसिंह ने निर्णय किया कि शत्रु बलशाली है। हम सुरक्षात्मक युद्ध करते हैं। किलों में बन्द होकर शत्रु से मुकाबला करते हैं दुश्मन घेरा डाल-कर रसद सामग्री, साजो सामान की आपूर्ति काट देता है। हम कुछ समय तक किले में रहते हुए युद्ध करते हैं आखिरकार रसद सामग्री समाप्त हो जाती है और हम अन्तिम विकल्प के रूप में निर्णायक युद्ध करते हैं। सैनिक शाका करते हैं और स्त्रियाँ जौहर करती हैं। इससे बहुत बड़ी जन धन की हानि होती है। कब तक इस तरह की क्षति उठाते रहेंगे। इससे बेहतर है सुरक्षित पहाड़ी क्षेत्रों में छापामार युद्ध किया जाए। उन्होंने उदयपुर नया नगर बसाया जो पहाड़ों के बीच सुरक्षित था जहाँ अपनी राजधानी बनाई। इसी छापामार पद्धति को राणा प्रताप ने अपनाया था।

अकबर ने अपनी शक्ति और कूटनीति से सम्पूर्ण भारत के राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। अकबर साधन सम्पन्न और बलवान शासक था। वह राणा प्रताप को अपने अधीन करना चाहता था लेकिन प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। आमेर का राजा भगवन्तदास व कुं. मानसिंह कछावा गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए जा रहे थे तब उदयपुर में राणा प्रताप ने भोजन के लिए आमन्त्रित किया व खुद भोजन पर नहीं आये, गुजरात से वापस लौटते समय मानसिंह को मार्ग में रोक लिया व दोनों की सेनाओं में युद्ध हुआ तब दोनों में मनमुटाव हो गया। अकबर मेवाड़ को अधीन करना चाहता था। अकबर ने अपने दूत राणा प्रताप के पास भेजे थे, लेकिन राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने मानसिंह के नेतृत्व में एक विशाल सेना राणा प्रताप के विरूद्ध युद्ध करने के लिए भेजी। खमनौर के पास दोनों सेनाएँ आमने-सामने हुई। वि.सं. 1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया (ई.स. 1576 जून 18) को दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ, जो इतिहास में हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। राणा प्रताप की सेना में राम शाह तंवर, भामाशाह, झाला मानसिंह (देलवाड़ा), झाला बीदा (मानसिंह सादडी), सोनगरा मानसिंह, हकीम खाँ सूर, रावत कृष्णदास, राठौड़ रामदास, राणा पूँजा (मेर) आदि प्रसिद्ध योद्धा थे। राणा की सेना ने पहाड़ी घाटी से निकल कर मुगल सेना के हरावल पर हमला किया। मुगल सेना के हरावल में भगदड़ मच गई। मेवाड़ी सेना ने युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाया कि मुगल सेना में भगदड़ मच गई। शाही फौज पहले हमले भागने लगी। इसी समय मिहत्तर खान अपनी सहायक सेना सहित चन्दावल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाते हुए आक्रमण किया, उसकी इस कार्यवाही से भागती हुई सेना में आशा का संचार हुआ, जिससे उसके पैर टिके। दोपहर हो गई थी, युद्ध पूर्ण तीव्रता के साथ हो रहा था। मेवाड़ के प्रसिद्ध वीर एक-एक करके वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। राणा प्रताप चारों ओर से शत्रु सेना से घिर गये। इस विपति काल में झाला बीदा (मानसिंह-सादडी) ने प्रताप का राजकीय छत्र उतार कर स्वयं अपने ऊपर लगा लिया और शत्रुओं को ललकारा।
उसकी यह चतुरता काम आई। मुगल सैनिक जो स्वयं राणा को पकड़ने के लिए उत्सुक थे। वे सब झाला मान के पीछे भागे व राणा प्रताप को युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित निकालने का मौका मिल गया। इस युद्ध में विजय मुगलों की हुई परन्तु उनका राणा प्रताप को पकड़ने अथवा मारने का मनोरथ पूर्ण नहीं हो सका। इस युद्ध में झाला बीदा (मानसिंह सादड़ी), झाला मानसिंह देलवाड़ा, तेंवर रामशाह अपने तीनों पुत्रों (शालिवाहन, भवानीसिंह, तथा प्रतापसिंह) सहित, रावत नेतसी, राठौड़ रामदास, डोडिया भीम, राठौड़ शंकर दास, सोनगरा मानसिंह आदि राणा के कई सरदार काम आये।

राणा प्रताप पहाड़ों में रहकर छापामार युद्ध लड़ने लगे। अकबर को बारबार सेना भेजनी पड़ी लेकिन वह अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सका। राणा ने स्वतन्त्रता के लिए अनेक कष्ट सहे, लेकिन मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की। चावण्ड को नई राजधानी बनाई। राणा प्रताप ने धीरे-धीरे चितौड़ और माण्डलगढ़ को छोड़ कर पूरे राज्य पर अपना दुबारा अधिकार कर लिया था। प्रातः स्मरणीय हिन्दवा सूरज वीर शिरोमणि राणा प्रताप का नाम राजपूताने के इतिहास में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और गौरवशाली है। स्वदेश प्रेम, स्वतन्त्रता उसके मूलमन्त्र थे। वह केवल वीर और रणकुशल ही नहीं, बल्कि धर्म को समझने वाले सच्चा क्षत्रिय थे। शिकार करता हुआ मानसिंह प्रताप के शिविर के समीप पहुँच गया था, लेकिन प्रताप ने उस पर आक्रमण नहीं किया। अमरसिंह द्वार पकड़ी गई बेगमों को सम्मानपूर्वक शाही शिविर में पहुँचाकर राणा ने विशाल-हृदयता का परिचय दिया। अमरसिंह को इस कार्यवाही के लिए फटकार लगाई कि स्त्रियों के प्रति ऐसा व्यवहार करना क्षत्रिय का धर्म नहीं है। राणा प्रताप की इस उदारता के फलस्वरूप रहीम खानखाना अमरसिंह का हितैषी बन गया था। कर्नल टॉड ने कहा है कि आल्पस पर्वत के समान अरावली में ऐसी कोई घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपली और दिवेर मेवाड़ का मेराथन है। ई.स. 1597 जनवरी 19 को चावण्ड में 57 वर्ष की आयु में राणा प्रताप का स्वर्गवास हुआ। प्रताप के समकालीन चारण कवियों ने डिंगल में काव्य रचना की थी, जिसमें सभी ने राणा प्रताप की प्रशंसा की थी।

माई ऐहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप।
पृथ्वीराज राठौड़
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर


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