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सम्राट हर्षवर्धन

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Samrat Harshvardhan History In Hindi, Read Raja Harshvardhan history in Hindi
हर्षवर्धन अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद वि.सं. ६६३ (ई.स. ६०६) में १६ वर्ष की आयु में थानेश्वर की गद्दी पर बैठे। यह वैस वंश का क्षत्रिय थे। हर्ष की बहिन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के शासक गृहवर्मन (मौखरी वंश) के साथ हुआ था। मालवा के देव गुप्त और गौड़राज शशांक ने मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर गृहवर्मन की हत्या कर दी थी तथा राज्यश्री को कारागार में डाल दिया। यह सुनकर राज्यवर्धन ने राजधानी की रक्षा का भार अपने अनुज हर्ष को सौंपकर, कन्नौज की रक्षा करने तथा शत्रु से बदला लेने के लिए सेना लेकर कन्नौज रवाना हुये। मालवराज देवगुप्त को परास्त कर उन्होंने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। किन्तु ज्योंही वह शशांक के विरुद्ध बढे, वह शशांक के जाल में फँस गये। शशांक ने राज्यवर्धन को अपनी कन्यार्पण कर उनसे मैत्री-सम्बन्ध स्थापित करने का बहाना बनाकर अपने शिविर में बुलया। राज्यवर्धन शशांक के शिविर में नि:शस्त्र अकेले चले गए थे, वहाँ धोखे से मारे गये।

भाई की मृत्यु और बहिन राज्यश्री की कैद का समाचार सुनकर हर्ष ससैन्य कन्नौज गये। उन्हें समाचार मिला कि राज्यश्री कैद से निकलकर विंध्य वन की तरफ चली गई है। वहाँ से हर्ष अपनी बहिन को खोजकर ले आये। हर्ष ने शशांक पर आक्रमण किया, शशांक भाग कर कामरूप (आसाम) के राजा कुमार भास्कर वर्मन के यहाँ चला गया। वहाँ दोनों में युद्ध हुआ और अन्त में भास्कर वर्मन ने हर्ष से सन्धि कर ली। राज्यश्री के पुत्र नहीं था अतः कन्नौज की व्यवस्था का भार भी हर्ष के ऊपर आ गया। हर्ष ने कन्नौज को अपनी नई राजधानी बनाई और यहीं से राज्य का संचालन करने लगे।

हर्ष सम्पूर्ण उत्तर भारत के एक छत्र राजा बन गये| उन्होंने अनेक राज्यों को जीता। हर्ष ने वि.सं. ६६३ से ६७० (ई.स. ६०६ से ६१३) तक उत्तर भारत के राज्यों को जीता। इन विजयों से हर्ष का राज्य उत्तरी भारत में फैल गया। हर्ष ने वल्लभी के राजा ध्रुवसेन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। यह समृद्धशाली राज्य थे। यह कन्नौज तथा दक्षिण के चालुक्यु राज्य के मध्य में स्थित होने के कारण यह प्रदेश सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यहाँ के राजा के साथ हर्ष ने मैत्री सम्बन्ध बना कर राज्य का अधिकार उसी को दे दिया। हर्ष ने और भी बहुत से राजाओं को युद्ध में हराया था। जीत के बाद उनसे सन्धि करके राज्य संचालन का अधिकार पूर्व राजाओं को ही दे देते थे, बदले में उनसे कर व अन्य सैनिक सहायता प्राप्त करते थे। इन सन्धियों के परिणामस्वरूप हर्ष ने समस्त उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य फैलाया था।

उत्तर भारत विजय के बाद हर्ष दक्षिण भारत में भी अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता थे लेकिन वह सफल नहीं हो सके। क्योंकि दक्षिण में पुलकेशिन द्वितीय शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने हर्ष की विजय यात्रा रोक दी। वि.सं. 8 & S. (ई.स. ६१२) में विशाल सेना के साथ पुलकेशिन (चालुक्य) पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया। पुलकेशिन महान योद्धा थे। उन्होंने इससे पूर्व ही अनेक राजाओं को परास्त कर दक्षिण सम्राट की उपाधि धारण कर ली थी। नर्मदा तट पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष पराजित हुये। इस युद्ध में हर्ष की सेना का बहुत अधिक संहार हुआ। इस युद्ध के परिणामस्वरूप हर्ष दक्षिण की तरफ नहीं बढ सके। उसका राज्य उत्तर भारत में ही सीमित रह गया।

हर्ष के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में नर्मदा और महेन्द्र पर्वत (उड़ीसा) तक और पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर आसाम तक था। हर्ष भारत का अन्तिम साम्राज्य-निर्माता था और उसकी मृत्यु के साथ ही उत्तरी भारत में एक केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो गई। सम्राट हर्ष का शासन वि.सं. (909 (ई.स. ६५०) तक रहा।

हर्ष एक कुशल योद्धा ही न था बल्कि एक न्यायप्रिय, परोपकारी राजा थे। हर्ष ने सम्राट अशोक की भाँति अपने सम्पूर्ण राज्य में पशु वध बन्द करा दिया था। जनता की भलाई के लिए सड़कें, धर्मशालाएँ, जलाशय बनवाए। शिक्षा के क्षेत्र में भी हर्ष का महान योगदान था। उनके राज्य में तक्षशिला, उजैन, काशी, नालन्दा, भद्रविहार (कन्नौज) विख्यात विश्वविद्यालय थे, जिनमें भारत के ही नहीं बल्कि विदेशी छात्र भी विद्याध्ययन के लिए आते थे। इन शिक्षा केन्द्रों को हर्ष बहुत सा दान देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय के संरक्षक स्वयं हर्ष ही थे। हर्ष विद्वानों के आश्रयदाता थे। हर पाँचवे वर्ष प्रयाग में हर्ष विद्वानों का सम्मेलन बुलाते थे। सम्मेलन में शास्त्रार्थ होता था, जिसमें हर्ष विद्वानों को दान देते थे। ऐसा ही एक विद्वानों का सम्मेलन कन्नौज में करवाया था। इस उत्सव में १८ राजाओ, तीन हजार बौद्ध विद्वानों और एक हजार ब्राह्मणों ने भाग लिया था, जो अट्ठारह दिन तक चला। दूसरा विशाल सम्मेलन प्रयाग में बुलाया गया, जो तीस दिन तक चला। जिसमें हर्ष ने खूब-दान पुण्य किया। अनाथ, दीन-दु:खीजनों को भी खूब दान दिया गया और यहाँ तक दिया गया कि राजकोष रिक्त हो गया । अन्त में सम्राट ने अपने शरीर के आभूषण, मुकुटमणि और वस्त्र तक दे डाले। बहिन राज्यश्री का उतारा हुआ वस्त्र पहना।हर्ष स्वयं भी विद्वान थे, उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान बाण उनका राजकवि था, जिसने कादम्बरी की रचना की। हर्ष का राज्यकाल कला, साहित्य, सुव्यवस्था का चर्मोत्कर्ष काल था। लूटपाट करने वालों को दण्डित किया जाता था। प्रजा सम्पन्न व सुखी थी। प्रसिद्ध चीनी बौद्ध विद्वान हेनसांग हर्ष के समय भारत आया था। वह यहाँ कई वर्षों तक रहा, उसने हर्ष के शासन का बहुत अच्छा वर्णन किया है। जिससे पता चलता है कि हर्ष के राज्यकाल में प्रजा सुखी थी, देश हर क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर था। हर्ष के नाम से हर्ष सम्वत् भी चला था। सम्राट हर्ष प्राचीन भारत के एक आदर्श शासक माने जाते है। उन्हें एक महान् विजेता, कुशल शासन-प्रबन्धक, स्वयं विद्वान, साहित्यकार तथा विद्वानों का संरक्षक एवं भारतीय सभ्यता का सच्चा सेवक होने का श्रेय प्राप्त है। हर्ष देश के अन्तिम क्षत्रिय सम्राट थे जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को एकता के सूत्र में बाँधा । हर्ष की मृत्यु अनुमानतः वि.सं. ७०७ (ई.स. ६५०) के लगभग हुई।
लेखक : छाजू सिंह बड़नगर


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