भारतीय संस्कृति के इसी महत्त्व को समझते हुए हुमायूं रानी की सहायतार्थ सेना लेकर रवाना हुआ और ग्वालियर तक पहुंचा भी. लेकिन ग्वालियर में हुमायूँ को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह तो काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है. यह पढ़ते ही हुमायूं भारतीय संस्कृति के उस महत्त्व को जिसकी वजह से उसे कभी शरण मिली, उसकी जान बची थी को भूल गया और ग्वालियर से आगे नहीं बढ़ा. काफिरों के खिलाफ जेहाद के सामने हुमायूं भाई-बहन का रिश्ता भूल गया, उसे इस्लाम के प्रसार के आगे ये पवित्र रिश्ता बौना लगने लगा और वह एक माह ग्वालियर में रुकने के बाद 4 मार्च 1533 को वापस आगरा लौट गया.
यही नहीं, जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई.
लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा. क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.
राजपूत वीरों द्वारा पुन: चितौड़ लेने का श्रेय भी कुछ दुष्प्रचारियों ने हुमायूं को दिया कि हुमायूं ने चितौड़ को वापस दिलवाया. जबकि हकीकत में हुमायूँ ने बहादुरशाह से चितौड़ के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया. बल्कि बहादुरशाह से बैर होने के बावजूद वह चितौड़ मामले में बहादुरशाह के खिलाफ नहीं उतरा.
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