जोधपुर के राजा मानसिंह को इतिहास में शासक के रूप में कठोर, निर्दयी, अत्यंत क्रूर और कूटनीतिज्ञ माना जाता है पर साथ ही उनके व्यक्तित्त्व का एक दूसरा रूप भी था वे भक्त, कवि, कलाकार, उच्च कोटि के साहित्यकार, कला पारखी व कलाकारों, साहित्यकारों, कवियों को संरक्षण देने वाले दानी व दयालु व्यक्ति भी थे|
उनके व्यवहार, प्रकृति और स्वभाव के बारे में उनके शासकीय जीवन की कई घटनाएँ इतिहास में पढने के बाद उनके उच्चकोटि के कवि, भक्त और कला संरक्षण, दानी व दयालु होने के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता पर उनके व्यवहार व स्वभाव में ये विरोधाभास स्पष्ट था | उनके दरबार में उनके सबसे अच्छे मित्रों में कवियों की सबसे ज्यादा भरमार थी|
वे कुछ मित्र कवियों और साहित्यकारों से सिर्फ साहित्य व काव्य चर्चा ही नहीं करते थे बल्कि मित्रता के नाते अपने व्यक्तिगत जीवन में भी सलाह मशविरा करते थे|
जन श्रुति है कि एक बार महाराजा मानसिंह की एक सुन्दर प्रेयसी किसी बात (ईगो) को लेकर अकड़ कर रूठ बैठी, अब वह आसानी से मान जाये तो यह उसके मान-सम्मान (ईगो) का सवाल था सो राजा मानसिंह की लाख कोशिशों के बावजूद वह प्रेयसी अपनी जिद नहीं छोड़ रही थी|
आखिर राजा मानसिंह ने अपनी व्यथा अपने तीन मित्र कवियों बांकिदास, उत्तमचंद और गुमानसिंह को बताई तो तय हुआ कि तीनों कवि राजा के साथ प्रेयसी को मनाने जायेंगे और सभी उसे मान (ईगो) त्यागने के लिए एक एक पंक्ति के काव्य रूपी में वाक्य में आग्रह करेंगे|
इस तरह योजना बनाकर तीनों कवि राजा के साथ प्रेयसी के कक्ष में गए और एक एक काव्य पंक्ति में अपने मनोभाव यूँ व्यक्त किये-
बांकिदास :- बांक तजो बातां करो
उत्तमचंद :- उत्तम चित गति आण
गुमान सिंह :- तज गुमान ऐ सुन्दरी
मानसिंह : मान कहे री मान
और चारों की काव्य पंक्तियाँ सुनते ही राजा की सुन्दरी प्रेयसी को हंसी आ गयी और उसने अपना हठ छोड़ दिया|
उनके व्यवहार, प्रकृति और स्वभाव के बारे में उनके शासकीय जीवन की कई घटनाएँ इतिहास में पढने के बाद उनके उच्चकोटि के कवि, भक्त और कला संरक्षण, दानी व दयालु होने के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता पर उनके व्यवहार व स्वभाव में ये विरोधाभास स्पष्ट था | उनके दरबार में उनके सबसे अच्छे मित्रों में कवियों की सबसे ज्यादा भरमार थी|
वे कुछ मित्र कवियों और साहित्यकारों से सिर्फ साहित्य व काव्य चर्चा ही नहीं करते थे बल्कि मित्रता के नाते अपने व्यक्तिगत जीवन में भी सलाह मशविरा करते थे|
जन श्रुति है कि एक बार महाराजा मानसिंह की एक सुन्दर प्रेयसी किसी बात (ईगो) को लेकर अकड़ कर रूठ बैठी, अब वह आसानी से मान जाये तो यह उसके मान-सम्मान (ईगो) का सवाल था सो राजा मानसिंह की लाख कोशिशों के बावजूद वह प्रेयसी अपनी जिद नहीं छोड़ रही थी|
आखिर राजा मानसिंह ने अपनी व्यथा अपने तीन मित्र कवियों बांकिदास, उत्तमचंद और गुमानसिंह को बताई तो तय हुआ कि तीनों कवि राजा के साथ प्रेयसी को मनाने जायेंगे और सभी उसे मान (ईगो) त्यागने के लिए एक एक पंक्ति के काव्य रूपी में वाक्य में आग्रह करेंगे|
इस तरह योजना बनाकर तीनों कवि राजा के साथ प्रेयसी के कक्ष में गए और एक एक काव्य पंक्ति में अपने मनोभाव यूँ व्यक्त किये-
बांकिदास :- बांक तजो बातां करो
उत्तमचंद :- उत्तम चित गति आण
गुमान सिंह :- तज गुमान ऐ सुन्दरी
मानसिंह : मान कहे री मान
और चारों की काव्य पंक्तियाँ सुनते ही राजा की सुन्दरी प्रेयसी को हंसी आ गयी और उसने अपना हठ छोड़ दिया|