वर्षों पहले की बात है एक कपड़े के बड़े कारखाने में श्रमिकों को वार्षिक बोनस बांटने की तैयारी चल रही थी, प्रबंधन ने 18% बोनस देने का निर्णय लिया पर श्रमिक संगठन के नेताओं को वह मंजूर नहीं था वे चाहते थे कि श्रमिकों को १२% बोनस दिया जाय और उनका बचा 6% श्रमिक नेताओं को दे दिया जाय| प्रबंधन इस बात पर अड़ा था कि जब उसके खजाने से 18% रकम ही जानी है तो वह क्यों न श्रमिकों की जेब में ही जाये, कारखाने का मालिक मारवाड़ी सेठ भी यही चाहता था कि उसके श्रमिक खुश रहे|
आखिर प्रबंधन और श्रमिक संगठन की इसी रस्सा कस्सी में एक दिन प्रबंधन ने 18% बोनस वितरण के लिए नकदी भी मंगा ली पर तब श्रमिक नेताओं की मनसा पुरी ना होने पर उन्होंने मजदूरों को भड़काया कि यह बोनस कम है कारखाना बहुत कमाई कर रहा है इसलिए बोनस 24% होना चाहिय| श्रमिक नेताओं की यह बात श्रमिकों को भी भाई और नेताओं के कहने पर श्रमिक हड़ताल पर चले गये| कुछ दिनों की हड़ताल के बाद प्रबंधन ने श्रमिक नेताओं से समझोता कर मामले को निपटाया| आखिर प्रबंधन को तो किसी तरह अपना कारखाना चलाना ही था| पर इस समझोते में श्रमिक नेता ही फायदे में रहे| कारखाने के खजाने पर अनावश्यक भार भी पड़ा और मजदूरों की जेब भी हल्की रही|
कुछ समय बाद नई तकनीकि के आगमन पर कारखाना प्रबंधन ने निर्णय लिया कि- नई तकनीकि की मशीनें लगाकर कारखाने की उत्पादन क्षमता बढ़ा कारखाने का विस्तार करना चाहिये| और प्रबंधन ने कपड़ा छपाई की उस समय की कुछ आधुनिक मशीनें मंगवा ली जो जगह भी कम घेरती थी साथ ही उनकी उत्पादन क्षमता भी अच्छी थी| जबकि तत्कालीन उत्पादन क्षमता कम होने के चलते कारखाना अपने माल की बाजार मांग की पूर्ति नहीं कर पा रहा था|
नई मशीनों का आगमन श्रमिक नेताओं को नहीं भाया उन्होंने श्रमिकों के मन में यह डर बिठा दिया कि- यह मशीनें तुम्हारा रोजगार छीन लेगी, इसलिए इन मशीनों को संस्थापित करने का विरोध करो| नेताओं के कहने पर श्रमिकों ने विरोध किया तो श्रमिकों को समझाने व उनका रोजगार नहीं जायेगा के लिए आश्वस्त करने के लिए कारखाने का प्रबंधक श्रमिकों के बीच आया वह सीधे श्रमिकों से बात कर रहा था, श्रमिक भी प्रबंधक की जबान के बारे में जानते थे कि प्रबंधक जो कहता है पुरा करता है अत: वे भी प्रबंधक से सहमत होते दिख रहे थे जो वहां उपस्थित श्रमिक नेताओं को नागवार लगा और उन्होंने मामले में दखल देते हुए मशीनें ना लगने देने की धमकी दे साथ ही मामला बिगाड़ने के लिए श्रमिक नेताओं के कुछ बदमाशों ने पीछे से प्रबंधक के सिर पर जूता ठोक दिया|
प्रबंधक भी कम स्वाभिमानी नहीं था, अपनी जबान का पक्का, कारखाने की तरक्की के लिए प्रतिबद्ध और हर मामला निपटाना में ताऊत्व को प्राप्त था| उसने भी उसी वक्त कह दिया कि- “ये जूता तुम लोगों ने मेरे सिर पर नहीं अपने सिर पर मारा है इसलिए अब जाईये और आपको जो करना है कर लीजिए ये मशीनें यही लगेगी और लग कर रहेगी|”
श्रमिक नेता भी कम नहीं था एकदम अड़ियल, लोगों ने उसे खूब समझाया कि क्यों श्रमिकों के पेट पर लात मार रहा है अच्छा कारखाना है, अच्छे मालिक है, खरा प्रबंधक है| पर वह कहाँ झुकने वाला था? हड़ताल की घोषणा हो गई और कारखाने का उत्पादन ठप्प हो गया|
उधर कारखाना मालिक प्रबंधक को संदेश भेज रहे थे कि – “कैसे भी हो कारखाना चलाये, श्रमिक नेताओं से कोई समझोता करना पड़े तो करलें पर कारखाना चलायें|” साथ ही मालिक ने प्रबंधक को यह भी साफ़ कर दिया था कि-“इस कारखाने ने आपकी देखरेख में ही तरक्की की है, कारखाने के प्रति आपकी प्रतिबद्धता व ईमानदारी की कद्र करते हुए हम वही मानेंगे जो आप निर्णय करेंगे|” न श्रमिक नेता झुक रहे थे, न प्रबंधक झुक रहा था| प्रबंधक ने कारखाने की सुरक्षा के लिए शुरू से ही अपने प्रदेश राजस्थान के पूर्व सैनिकों को तैनात कर रखा था जो कारखाने की सुरक्षा के लिए जी-जान लगाकर रखते थे, प्रबंधक ने अपने सुरक्षा कर्मचारियों व कारखाने में तैनात स्टाफ को राजस्थान भेज बेरोजगार युवकों को बुला लिया और कारखाने के अंदर ही उनके रहने खाने की व्यवस्था कर दी साथ ही उन्हें कह दिया कि आठ घंटे ड्यूटी करें और आठ घंटे ऑवर टाइम कर सोलह घंटे काम करें| नए आये युवकों को भी मजा आ गया एक तरफ पक्का रोजगार मिला साथ ही सोलह घंटे काम के बदले अच्छी कमाई हुई और रहने खाने का खर्चा भी बचा|
साथ ही आधे के लगभग श्रमिक भी जो श्रमिक नेताओं की असलियत जानते थे और थोड़ी हिम्मत रखते थे वे भी कारखाने में काम पर आ जुटे| इस तरह श्रमिक हड़ताल के बावजूद कारखाना अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन करने में सक्षम रहा| प्रबंधक ने भी लोगों को दिखा दिया कि- “वह ताऊत्व को प्राप्त एक महाताऊ है अपनी पर आ जाये तो कुछ भी कर गुजरे|” उधर बाहर रहे श्रमिक भी हड़ताल से उकता गये जिसे देख श्रमिक नेताओं ने एक बड़ा निर्णय लिया उन्होंने शहर के अन्य श्रमिक संगठनों से वार्ता कर शहर के अन्य कारखानों के श्रमिकों को इक्कठा कर उस कारखाने को घेरना का निर्णय लिया| श्रमिक नेता चाहते थे कि मामला बिगाडकर कारखाने को आग के हवाले कर दिया जाए जिसकी गोपनीय सूचनाएँ प्रबंधक व पुलिस तक पहुँच चुकी थी अत: पुलिस ने भी श्रमिक जुलुस को कारखाने तक आने से रोकने के पुरे सुरक्षा इंतजाम किये|
आखिर उस दिन अन्य कारखानों के श्रमिक संगठनों का मिलाजुला एक बड़ा श्रमिक जुलुस उस कारखाने को घेरने चला और रास्ते में पुलिस से टकरा गया| पुलिस पर पथराव होने और स्थिति काबू से बाहर होने पर पुलिस ने हवा में गोलियाँ चलाई जिनसे आस-पास की इमारतों पर खड़े होकर नजारा देखने वाले कई बेकसूर लोग मारे गये, साथ ही भगदड़ व पुलिस की गोलीबारी में कुछ श्रमिक भी मारे गये| श्रमिक आंदोलन एक तरह से उस दिन खत्म सा हो गया कथित श्रमिक नेता भी भाग खड़े हुए|
कारखाना वापस पूर्ववत चलना शुरू हुआ| अब प्रबंधक ने अपनी ताऊगिरी के तहत कारखाने में उसके हिसाब से चलने वाला श्रमिक संगठन बनवा दिया, उसके चहेते, उसकी बात मानने वाले श्रमिक नेता बने जिन्हें प्रबंधक ने कई सुविधाएँ भी दी मसलन कारखाना कैंटीन में मुफ्त खाना-पीना, बिना श्रम किये वेतन पाना आदि आदि| इस तरह कारखाना चलता रहा| कुछ समय बाद कारखाने का प्रबंधन मालिकों की नई पीढ़ी जो विदेशों से नई नई बड़ी बड़ी पढाई की डिग्रियां हासिल कर आई थी के हाथ में आया, उन्होंने प्रबंधक को जिसे बुजुर्ग मालिक कारखाने के मालिक जैसा सम्मान देते थे, नई पीढ़ी ने जता दिया कि वो उनका नौकर है, और नौकर की तरह रहे| प्रबंधक के साथ ही नहीं, कारखाने के अन्य वरिष्ठ कर्मचारियों के साथ भी उनका व्यवहार रुखा रहता था उनके व्यवहार में वह सम्मान नहीं होता था जो उनके पूर्ववर्ती मालिक कर्मचारियों को देते थे|
नई पीढ़ी के मालिकों के इस रूखे व्यवहार से आहत कारखाने में काम करने वाले लगभग कर्मचारियों को लगा कि अब यहाँ काम करना उनके स्वाभिमान के अनुरूप नहीं रहा इसलिए वे कारखाने के प्रति प्रतिबद्धता छोड़ बेईमानी कर अपनी अपनी जेबें भरने लगे या ईमानदार व स्वाभिमानी लोग काम छोड़ अन्यत्र जाने लगे| प्रबंधक ने भी दो चार साल नई पीढ़ी के साथ झुकते हुए काम करते हुए अपना एक छोटा कारखाना लगाने लायक धन का जुगाड़ कर नौकरी छोड़ अपना कारखाना लगा लिया और उसी कारखाने का प्रतिस्पर्धी बन खड़ा हो गया| कुछ वर्षों तक कारखाना चलता रहा, श्रमिक संगठन जिसे श्रमिक दाल-फ्राई कहते थे मजबूत होते गये, श्रमिक भी कारखाने से मिली सुविधाओं के चलते आरामतलब हो गये थे आखिर श्रमिक व श्रमिक नेता कारखाने के प्रबंधन की नई पीढ़ी पर इतने हावी हो गये कि- कोई सुपरवाईजर, विभाग प्रबंधक अपने अधीन श्रमिकों को काम न होने पर डांटना तो दूर, काम बताते हुए भी डरने लगे| कारखाने में काम करवाने के लिए आने वाले बाहरी लोग श्रमिकों से मिन्नतें कर अपना फंसा काम निकलवाते और आगे माल के आदेश दिए बिना चलते बनते|
आखिर एक दिन मालिकों ने कारखाने में तालाबंदी कर दी और दूसरी जगह अपने दूसरे नए कारखाने लगा लिए, कारखाने में काम करने वाले स्टाफ के ज्यादातर सदस्य भी इधर उधर काम पाने में सफल रहे पर ज्यादातर श्रमिक बेरोजगार हो गये, कारण उस वक्त कपड़े का वह एक ही नहीं कई कारखाने बंद हो गये थे, जो चालू थे या नए लगे उन्होंने श्रमिकों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया और मालिक ठेकेदारों के साथ मिलकर श्रमिकों का शोषण करने लगे, ना कोई सुविधा, ना बोनस, ना समय पर वेतन, न वार्षिक वेतन बढोतरी, ना मेडिकल सुविधा, ना भविष्यनिधि| मतलब कुछ नहीं सिर्फ शोषण के सिवाय|
ऐसे कारखानों में अपने कार्य के चलते जाने पर अक्सर उस पुराने कारखाने के श्रमिक अब भी मुझे मिल जातें है मिलने पर अक्सर बातें शुरू हो जाती है उस पुराने कारखाने की, तब हर श्रमिक पछतावा करता, श्रमिक नेताओं को कोसता उस कारखाने में बिताये सुनहरे दिनों की बातें करता करता उन दिनों की याद करता है उस समय उसके चेहरे पर एक रौनक सी दिखती है| उसे याद आती है उस कारखाने के श्रमिकों के लिए रहने के लिए वे दो कालोनियां जो कारखाना प्रबंधन ने उनके लिए बनवाई थी, उन दोनों कालोनियों में श्रमिक बच्चों के लिए मुफ्त दो प्राथमिक विद्यालय और तीसरा सैकंडरी स्कूल जिसकी पढाई का डंका पुरे प्रदेश में बजता था और शहर के बड़े बड़े रईसजादे अपने बच्चों के प्रवेश के लिए बड़ी बड़ी सिफारिशें लेकर आते थे पर श्रमिकों के बच्चों को वहां भी मुफ्त शिक्षा थी, बच्चों को घर से स्कूल लाने ले जाने के लिए मुफ्त बस सुविधा थी| कारखाने में ईएसआई डिस्पेंसरी, पोस्ट ऑफिस, राशन की दूकान के अलावा एक ऐसा स्टोर जहाँ लागत मूल्य पर उधार घर का पूरा सामान मिलता था| वेतन खत्म हो गया तो कारखाने में कभी भी अग्रिम ले लो, लड़की शादी है या घर पर कोई और काम है तो ऋण ले लो और किस्तों में चूका दो| दो कैशियर खिड़की खोल सुबह दस बजे से पांच बजे तक भुगतान करने के लिए बैठे रहते थे जैसे बैंक में बैठे रहते है|
पर थोड़ी ही देर में बातें खत्म होते ही उसका चेहरा मायूस हो जाता है| और उनके चेहरे पर वर्तमान श्रम कानूनों की आड़ में कारखाना मालिकों द्वारा ठेकेदारों के साथ मिलकर किये जाने वाले शोषण का दर्द साफ झलकता नजर आता है|
और श्रमिकों को ही क्यों मेरे जैसे उन लोगों को भी उस कारखाने की बहुत आती है जो वहां अपनी अपनी कम्पनियों के लिए कपड़ा तैयार करवाने जाते थे, आखिर आये भी क्यों नहीं ? उस कारखाने में कोई भी उत्पाद (कपड़ा छपाई) तैयार करवाने पर जायज खर्च ही चुकाना पड़ता था, कोई बेईमानी नहीं, उत्पाद की गुणवत्ता में भी कोई कमी व बेईमानी नहीं, कोई छिपाव नहीं जो भी काम होता था एकदम पारदर्शी साथ ही कपड़ा छपाई की विभिन्न किस्मों की बड़ी उत्पादन क्षमता|
आखिर प्रबंधन और श्रमिक संगठन की इसी रस्सा कस्सी में एक दिन प्रबंधन ने 18% बोनस वितरण के लिए नकदी भी मंगा ली पर तब श्रमिक नेताओं की मनसा पुरी ना होने पर उन्होंने मजदूरों को भड़काया कि यह बोनस कम है कारखाना बहुत कमाई कर रहा है इसलिए बोनस 24% होना चाहिय| श्रमिक नेताओं की यह बात श्रमिकों को भी भाई और नेताओं के कहने पर श्रमिक हड़ताल पर चले गये| कुछ दिनों की हड़ताल के बाद प्रबंधन ने श्रमिक नेताओं से समझोता कर मामले को निपटाया| आखिर प्रबंधन को तो किसी तरह अपना कारखाना चलाना ही था| पर इस समझोते में श्रमिक नेता ही फायदे में रहे| कारखाने के खजाने पर अनावश्यक भार भी पड़ा और मजदूरों की जेब भी हल्की रही|
कुछ समय बाद नई तकनीकि के आगमन पर कारखाना प्रबंधन ने निर्णय लिया कि- नई तकनीकि की मशीनें लगाकर कारखाने की उत्पादन क्षमता बढ़ा कारखाने का विस्तार करना चाहिये| और प्रबंधन ने कपड़ा छपाई की उस समय की कुछ आधुनिक मशीनें मंगवा ली जो जगह भी कम घेरती थी साथ ही उनकी उत्पादन क्षमता भी अच्छी थी| जबकि तत्कालीन उत्पादन क्षमता कम होने के चलते कारखाना अपने माल की बाजार मांग की पूर्ति नहीं कर पा रहा था|
नई मशीनों का आगमन श्रमिक नेताओं को नहीं भाया उन्होंने श्रमिकों के मन में यह डर बिठा दिया कि- यह मशीनें तुम्हारा रोजगार छीन लेगी, इसलिए इन मशीनों को संस्थापित करने का विरोध करो| नेताओं के कहने पर श्रमिकों ने विरोध किया तो श्रमिकों को समझाने व उनका रोजगार नहीं जायेगा के लिए आश्वस्त करने के लिए कारखाने का प्रबंधक श्रमिकों के बीच आया वह सीधे श्रमिकों से बात कर रहा था, श्रमिक भी प्रबंधक की जबान के बारे में जानते थे कि प्रबंधक जो कहता है पुरा करता है अत: वे भी प्रबंधक से सहमत होते दिख रहे थे जो वहां उपस्थित श्रमिक नेताओं को नागवार लगा और उन्होंने मामले में दखल देते हुए मशीनें ना लगने देने की धमकी दे साथ ही मामला बिगाड़ने के लिए श्रमिक नेताओं के कुछ बदमाशों ने पीछे से प्रबंधक के सिर पर जूता ठोक दिया|
प्रबंधक भी कम स्वाभिमानी नहीं था, अपनी जबान का पक्का, कारखाने की तरक्की के लिए प्रतिबद्ध और हर मामला निपटाना में ताऊत्व को प्राप्त था| उसने भी उसी वक्त कह दिया कि- “ये जूता तुम लोगों ने मेरे सिर पर नहीं अपने सिर पर मारा है इसलिए अब जाईये और आपको जो करना है कर लीजिए ये मशीनें यही लगेगी और लग कर रहेगी|”
श्रमिक नेता भी कम नहीं था एकदम अड़ियल, लोगों ने उसे खूब समझाया कि क्यों श्रमिकों के पेट पर लात मार रहा है अच्छा कारखाना है, अच्छे मालिक है, खरा प्रबंधक है| पर वह कहाँ झुकने वाला था? हड़ताल की घोषणा हो गई और कारखाने का उत्पादन ठप्प हो गया|
उधर कारखाना मालिक प्रबंधक को संदेश भेज रहे थे कि – “कैसे भी हो कारखाना चलाये, श्रमिक नेताओं से कोई समझोता करना पड़े तो करलें पर कारखाना चलायें|” साथ ही मालिक ने प्रबंधक को यह भी साफ़ कर दिया था कि-“इस कारखाने ने आपकी देखरेख में ही तरक्की की है, कारखाने के प्रति आपकी प्रतिबद्धता व ईमानदारी की कद्र करते हुए हम वही मानेंगे जो आप निर्णय करेंगे|” न श्रमिक नेता झुक रहे थे, न प्रबंधक झुक रहा था| प्रबंधक ने कारखाने की सुरक्षा के लिए शुरू से ही अपने प्रदेश राजस्थान के पूर्व सैनिकों को तैनात कर रखा था जो कारखाने की सुरक्षा के लिए जी-जान लगाकर रखते थे, प्रबंधक ने अपने सुरक्षा कर्मचारियों व कारखाने में तैनात स्टाफ को राजस्थान भेज बेरोजगार युवकों को बुला लिया और कारखाने के अंदर ही उनके रहने खाने की व्यवस्था कर दी साथ ही उन्हें कह दिया कि आठ घंटे ड्यूटी करें और आठ घंटे ऑवर टाइम कर सोलह घंटे काम करें| नए आये युवकों को भी मजा आ गया एक तरफ पक्का रोजगार मिला साथ ही सोलह घंटे काम के बदले अच्छी कमाई हुई और रहने खाने का खर्चा भी बचा|
साथ ही आधे के लगभग श्रमिक भी जो श्रमिक नेताओं की असलियत जानते थे और थोड़ी हिम्मत रखते थे वे भी कारखाने में काम पर आ जुटे| इस तरह श्रमिक हड़ताल के बावजूद कारखाना अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन करने में सक्षम रहा| प्रबंधक ने भी लोगों को दिखा दिया कि- “वह ताऊत्व को प्राप्त एक महाताऊ है अपनी पर आ जाये तो कुछ भी कर गुजरे|” उधर बाहर रहे श्रमिक भी हड़ताल से उकता गये जिसे देख श्रमिक नेताओं ने एक बड़ा निर्णय लिया उन्होंने शहर के अन्य श्रमिक संगठनों से वार्ता कर शहर के अन्य कारखानों के श्रमिकों को इक्कठा कर उस कारखाने को घेरना का निर्णय लिया| श्रमिक नेता चाहते थे कि मामला बिगाडकर कारखाने को आग के हवाले कर दिया जाए जिसकी गोपनीय सूचनाएँ प्रबंधक व पुलिस तक पहुँच चुकी थी अत: पुलिस ने भी श्रमिक जुलुस को कारखाने तक आने से रोकने के पुरे सुरक्षा इंतजाम किये|
आखिर उस दिन अन्य कारखानों के श्रमिक संगठनों का मिलाजुला एक बड़ा श्रमिक जुलुस उस कारखाने को घेरने चला और रास्ते में पुलिस से टकरा गया| पुलिस पर पथराव होने और स्थिति काबू से बाहर होने पर पुलिस ने हवा में गोलियाँ चलाई जिनसे आस-पास की इमारतों पर खड़े होकर नजारा देखने वाले कई बेकसूर लोग मारे गये, साथ ही भगदड़ व पुलिस की गोलीबारी में कुछ श्रमिक भी मारे गये| श्रमिक आंदोलन एक तरह से उस दिन खत्म सा हो गया कथित श्रमिक नेता भी भाग खड़े हुए|
कारखाना वापस पूर्ववत चलना शुरू हुआ| अब प्रबंधक ने अपनी ताऊगिरी के तहत कारखाने में उसके हिसाब से चलने वाला श्रमिक संगठन बनवा दिया, उसके चहेते, उसकी बात मानने वाले श्रमिक नेता बने जिन्हें प्रबंधक ने कई सुविधाएँ भी दी मसलन कारखाना कैंटीन में मुफ्त खाना-पीना, बिना श्रम किये वेतन पाना आदि आदि| इस तरह कारखाना चलता रहा| कुछ समय बाद कारखाने का प्रबंधन मालिकों की नई पीढ़ी जो विदेशों से नई नई बड़ी बड़ी पढाई की डिग्रियां हासिल कर आई थी के हाथ में आया, उन्होंने प्रबंधक को जिसे बुजुर्ग मालिक कारखाने के मालिक जैसा सम्मान देते थे, नई पीढ़ी ने जता दिया कि वो उनका नौकर है, और नौकर की तरह रहे| प्रबंधक के साथ ही नहीं, कारखाने के अन्य वरिष्ठ कर्मचारियों के साथ भी उनका व्यवहार रुखा रहता था उनके व्यवहार में वह सम्मान नहीं होता था जो उनके पूर्ववर्ती मालिक कर्मचारियों को देते थे|
नई पीढ़ी के मालिकों के इस रूखे व्यवहार से आहत कारखाने में काम करने वाले लगभग कर्मचारियों को लगा कि अब यहाँ काम करना उनके स्वाभिमान के अनुरूप नहीं रहा इसलिए वे कारखाने के प्रति प्रतिबद्धता छोड़ बेईमानी कर अपनी अपनी जेबें भरने लगे या ईमानदार व स्वाभिमानी लोग काम छोड़ अन्यत्र जाने लगे| प्रबंधक ने भी दो चार साल नई पीढ़ी के साथ झुकते हुए काम करते हुए अपना एक छोटा कारखाना लगाने लायक धन का जुगाड़ कर नौकरी छोड़ अपना कारखाना लगा लिया और उसी कारखाने का प्रतिस्पर्धी बन खड़ा हो गया| कुछ वर्षों तक कारखाना चलता रहा, श्रमिक संगठन जिसे श्रमिक दाल-फ्राई कहते थे मजबूत होते गये, श्रमिक भी कारखाने से मिली सुविधाओं के चलते आरामतलब हो गये थे आखिर श्रमिक व श्रमिक नेता कारखाने के प्रबंधन की नई पीढ़ी पर इतने हावी हो गये कि- कोई सुपरवाईजर, विभाग प्रबंधक अपने अधीन श्रमिकों को काम न होने पर डांटना तो दूर, काम बताते हुए भी डरने लगे| कारखाने में काम करवाने के लिए आने वाले बाहरी लोग श्रमिकों से मिन्नतें कर अपना फंसा काम निकलवाते और आगे माल के आदेश दिए बिना चलते बनते|
आखिर एक दिन मालिकों ने कारखाने में तालाबंदी कर दी और दूसरी जगह अपने दूसरे नए कारखाने लगा लिए, कारखाने में काम करने वाले स्टाफ के ज्यादातर सदस्य भी इधर उधर काम पाने में सफल रहे पर ज्यादातर श्रमिक बेरोजगार हो गये, कारण उस वक्त कपड़े का वह एक ही नहीं कई कारखाने बंद हो गये थे, जो चालू थे या नए लगे उन्होंने श्रमिकों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया और मालिक ठेकेदारों के साथ मिलकर श्रमिकों का शोषण करने लगे, ना कोई सुविधा, ना बोनस, ना समय पर वेतन, न वार्षिक वेतन बढोतरी, ना मेडिकल सुविधा, ना भविष्यनिधि| मतलब कुछ नहीं सिर्फ शोषण के सिवाय|
ऐसे कारखानों में अपने कार्य के चलते जाने पर अक्सर उस पुराने कारखाने के श्रमिक अब भी मुझे मिल जातें है मिलने पर अक्सर बातें शुरू हो जाती है उस पुराने कारखाने की, तब हर श्रमिक पछतावा करता, श्रमिक नेताओं को कोसता उस कारखाने में बिताये सुनहरे दिनों की बातें करता करता उन दिनों की याद करता है उस समय उसके चेहरे पर एक रौनक सी दिखती है| उसे याद आती है उस कारखाने के श्रमिकों के लिए रहने के लिए वे दो कालोनियां जो कारखाना प्रबंधन ने उनके लिए बनवाई थी, उन दोनों कालोनियों में श्रमिक बच्चों के लिए मुफ्त दो प्राथमिक विद्यालय और तीसरा सैकंडरी स्कूल जिसकी पढाई का डंका पुरे प्रदेश में बजता था और शहर के बड़े बड़े रईसजादे अपने बच्चों के प्रवेश के लिए बड़ी बड़ी सिफारिशें लेकर आते थे पर श्रमिकों के बच्चों को वहां भी मुफ्त शिक्षा थी, बच्चों को घर से स्कूल लाने ले जाने के लिए मुफ्त बस सुविधा थी| कारखाने में ईएसआई डिस्पेंसरी, पोस्ट ऑफिस, राशन की दूकान के अलावा एक ऐसा स्टोर जहाँ लागत मूल्य पर उधार घर का पूरा सामान मिलता था| वेतन खत्म हो गया तो कारखाने में कभी भी अग्रिम ले लो, लड़की शादी है या घर पर कोई और काम है तो ऋण ले लो और किस्तों में चूका दो| दो कैशियर खिड़की खोल सुबह दस बजे से पांच बजे तक भुगतान करने के लिए बैठे रहते थे जैसे बैंक में बैठे रहते है|
पर थोड़ी ही देर में बातें खत्म होते ही उसका चेहरा मायूस हो जाता है| और उनके चेहरे पर वर्तमान श्रम कानूनों की आड़ में कारखाना मालिकों द्वारा ठेकेदारों के साथ मिलकर किये जाने वाले शोषण का दर्द साफ झलकता नजर आता है|
और श्रमिकों को ही क्यों मेरे जैसे उन लोगों को भी उस कारखाने की बहुत आती है जो वहां अपनी अपनी कम्पनियों के लिए कपड़ा तैयार करवाने जाते थे, आखिर आये भी क्यों नहीं ? उस कारखाने में कोई भी उत्पाद (कपड़ा छपाई) तैयार करवाने पर जायज खर्च ही चुकाना पड़ता था, कोई बेईमानी नहीं, उत्पाद की गुणवत्ता में भी कोई कमी व बेईमानी नहीं, कोई छिपाव नहीं जो भी काम होता था एकदम पारदर्शी साथ ही कपड़ा छपाई की विभिन्न किस्मों की बड़ी उत्पादन क्षमता|