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हठीलो राजस्थान-20

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मुरछित सुभड़ भडक्कियो,
सिन्धु कान सुणीह |
जाणं उकलता तेल में,
पाणी बूंद पडिह ||१०३||

युद्ध में घावों से घायल हुआ व् अचेत योद्धा भी विरोतेजनी सिन्धु राग सुनते ही सहसा भड़क उठा,मानो खौलते तेल में पानी की बूंद पड़ गई हो |

बाजां मांगल बाजतां,
हेली हलचल काय |
कलपै जीवण कायरां,
सूरां समर सजाय ||१०४||

हे सखी ! रण के मंगल वाद्य बजते ही यह कैसी हलचल हो गई है ? स्पष्ट ही इसे सुन जहाँ कायरों का कलेजा कांप उठता है वहां शूरवीरों ने रण का साज सजा लिया है |

हेली धव हाकल सुणों,
टूट्या गढ़ तालाह |
खैंच खचाखच खग बहै,
लोही परनालाह ||१०५||

हे सखी ! मेरे वीर स्वामी की ललकार सुनों ,जिसके श्रवण मात्र से ही गढ़ के ताले टूट गए है | शत्रु दल में उनका खड्ग खचाखच चल रहा है ,जिससे रुधिर के नाले बहने लगे है |

आंथै नित आकास में,
राहू गरसै आज |
हिन्दू-रवि आंथ्यो नहीं,
तपियौ हेक समान ||१२१||

सूर्य भी प्रतिदिन आकाश में अस्त होता है व कभी कभी राहू-केतु से भी ग्रसित होता है ,लेकिन हिन्दुवा सूरज महाराणा प्रताप रूपी सूर्य कभी अस्त नहीं हुआ व जीवन पर्यंत एक समान तेजस्वी बना रहा |

घर घोड़ो, खग कामणी,
हियो हाथ निज मीत |
सेलां बाटी सेकणी,
स्याम धरम रण नीत ||१२२||

इसमें वीर पुरुष के लक्षण बताये गए है -
घोडा ही उसका घर है ,तलवार ही उसकी पत्नी है | हृदय और हाथ ही उसके मित्र है ,वह अश्वारूढ़ हुआ भालों की नोक से ही बाटी सेंकता है ,तथा स्वामी-धर्म को ही अपनी युद्ध-नीति समझता है |

जलम्यो केवल एक बर,
परणी एकज नार |
लडियो, मरियो कौल पर,
इक भड दो दो बार ||१२३ ||

उस वीर ने केवल एक ही बार जन्म लिया तथा एक ही भार्या से विवाह किया ,परन्तु अपने वचन का निर्वाह करते हुए वह वीर दो-दो बार लड़ता हुआ वीर-गति को प्राप्त हुआ |
आईये आज परिचित होते है उस बांके वीर बल्लू चंपावत से जिसने एक बार वीर गति प्राप्त करने के बावजूद भी अपने दिए वचन को निभाने के लिए युद्ध क्षेत्र में लौट आया और दुबारा लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की |
स्व.आयुवानसिंह शेखावत


ये विदेशी मुद्रा भी प्रचलन में थी कभी राजस्थान में

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साइबेरिया, अल्जीरिया, बहरीन, ईराक, जॉर्डन, कुवैत, लीबिया, Tunisia, Macedonia आदि देशों में चलने वाली मुद्रा दीनार और आर्मेनिया में चलने वाली मुद्रा द्रम्म कभी विश्व के कई देशों के साथ राजस्थान की रियासतों में भी प्रचलन में थी|

राजस्थान में उत्खनन में मुद्रा के रूप में विभिन्न आकृति व चिन्हों वाले सोने, चाँदी, तांबे के पाये गए एक अन्य संज्ञा के सिक्के जिन्हें "आदि वराह द्रम्म" भी कहा गया है, राजस्थान में प्रचालित थे| इतिहासकार ड़ा. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इनके प्रचलन का श्रेय मिहिरभोज व विनायकपाल देव को है जो कन्नौज के सम्राट थे| अल्लाउद्दीन खिलजी की दिल्ली टकसाल के अधिकारी ठक्कर फेरु ने अपनी "द्रव्य परीक्षा" नामक पुस्तक में इन शासकों के सिक्कों को "वराही द्रम्म" और "विनायक द्रम्म" कहा है|

11 वीं से 13 वीं सदी के मध्य के चौहान शासनकाल के चांदी व ताम्बे के सिक्के सांभर-अजमेर, जालौर-नाडौल से प्राप्त हुए है| चौहानों के शिलालेखों में इन सिक्कों के लिए द्रम्म, विंशोपक, रूपक, दीनार आदि नामों का प्रयोग किया गया है|
पारुथ द्र्म्मों को जिनका प्रचलन मालवा के परमारों द्वारा किया गया था, मेवाड़ में प्रचलन थे| चाँदी की यह मुद्रा आठ द्र्म्मों के बराबर मानी जाती थी| तेजसिंह (1261-1270 ई.) के काल में तांबे के द्र्म्मों का मेवाड़ में चलन था|

मारवाड़ में भी जब क्षत्रपों का प्रभाव था तब द्रम्म प्रचलन में थे| द्रम्म के साथ प्रचलन में रही दीनार मुद्रा कभी Bosnia and Herzegovina, Croatia, Republika Srpska, South Yemen, Sudan, Iran, Kingdom of Yugoslavia आदि देशों में भी प्रचलन में थी|

Dram Currency in Rajasthan

यह परम्परा ना मानना भारी पड़ा था इस नगर को

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हमारा देश विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों, पंथो व संस्कृति वाला देश है| देश के विभिन्न हिस्सों व जाति, धर्मों में विभिन्न परम्पराओं का प्रचलन है| इन परम्पराओं का कहीं कड़ाई से तो कहीं प्रतीकात्मक प्रचलन है| अपने आपको विकासशील मानने वाले कई लोग अपने समुदायों में चलने वाली परम्पराओं को रुढी, कुरीति मानते है और विभिन्न सामाजिक संगठन व सामाजिक, धार्मिक कार्यकर्त्ता इन्हें बदलने के लिए कार्यरत है| कई परम्पराएं रूढ़ियाँ समझ बंद कर दी गई तो कई समय के साथ अपनी प्रसांगिकता खोकर स्वत: बंद हो गई|

राजस्थान में रियासती काल में तलवार के साथ विवाह करने की परम्परा थी| उस काल सतत चलने वाले युद्धों में व्यस्त रहने वाले योद्धाओं, रोजगार के लिए दूर दराज गए लोग अपने स्वयं के विवाह में समय पर उपस्थित नहीं हो पाते थे| ऐसी स्थिति में दूल्हे की तलवार के साथ वधु के फेरे दिलवाकर विवाह की रस्म संपन्न करवा दी जाती थी| आजादी के बाद यह परम्परा अपनी प्रसांगिकता खोकर स्वत: बंद हो गई| हाँ कभी कभी-कभार सगाई की रस्म पर लड़के के ना पहुँचने पर तलवार के तिलक कर सगाई की रस्म संपन्न अवश्य करवा दी जाती है|

आज भले ही यह परम्परा इतिहास का अंग बन गई पर जब यह प्रचलन में थी और इसे ना मानने पर बाड़मेर नगर को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी| राजस्थान के प्रसिद्ध प्रथम इतिहासकार और तत्कालीन जोधपुर रियासत के प्रधान मुंहनोत नैंणसीं को तीसरे विवाह के लिए बाड़मेर राज्य के कामदार कमा ने अपनी पुत्री के विवाह का नारियल भेजा था (उस जमाने में सगाई के लिए नारियल भेजा जाता था जिसे स्वीकार कर लेते ही सगाई की रस्म पूरी हो जाया करती थी) पर जोधपुर राज्य के प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण नैंणसीं खुद विवाह के लिए नहीं जा पाए और प्रचलित परम्परा के अनुसार उन्होंने बारात के साथ अपनी तलवार भेजकर खांडा विवाह करने का निश्चय किया| पर दुल्हन के पिता कमा ने इसे अपमान समझा और अपनी कन्या को नहीं भेजा बल्कि कन्या के बदले मूसल भेज दिया|

कमा द्वारा इस परम्परा का निर्वाह ना करने पर जोधपुर का वह शक्तिशाली प्रशासक व सेनापति नैंणसीं अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने इसे अपना अपमान समझ उसका बदला लेने के लिए बाड़मेर पर ससैन्य चढाई कर आक्रमण कर दिया| उसने पुरे बाड़मेर नगर को तहस नहस कर खूब लूटपाट की और नगर के मुख्य द्वार के दरवाजे वहां से हटाकर जालौर दुर्ग में लगवा दिए|इस प्रकार इस खांडा विवाह परम्परा के चलते बाड़मेर की तत्कालीन प्रजा को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा|

इस तरह उस समय प्रचलित एक परम्परा का आदर ना करना बाड़मेर नगर व वहां के निवासियों को बहुत भारी पड़ा|

दहिया राजवंश

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Dahiya Rajput Rajvansh

ठाकुर बहादुरसिंह बीदासर ने लिखा है कि पहले दहिये पंजाब में सतलज नदी पर थे। ऐसा माना जाता है कि उस समय ये गणराज्य के रूप में थे। वहाँ से ये सतलज नदी के पश्चिम में भी फैले। यह माना जाता है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय ये वहीं थे। वहाँ इन्होंने एक किला बनवाया, जिसका नाम शाहिल था। जिसके कारण इनकी एक शाखा "शाहिल' कहलाई। मानते हैं कि सिकन्दर के समय में ये द्राहिक व दाभि नाम से प्रसिद्ध थे, फिर वहाँ से ये दक्षिण में गए, जैसे मालवगण, अर्जुनायनगण और यौधेयगण आदि सिकन्दर के समय के पश्चात् पंजाब से दक्षिण में आए थे। दहियों का पुराना निवास नासिक त्रिबंक के पास में बहने वाली गोदावरी नदी के निकट थालनेरगढ़ था। मुहणोत नैणसी ने दहियों की वंशावली दी है- विमलराज, सिवर था), चूहड़ मंडलीक, गुणरंग मंडलीक, देवराज-राणा, भरहराणा, रोहराणा, कीरतसिंह राणा। (वि.सं. 1056 वैशाख सुदि 3 ई. 999) के किनसरिया गाँव से मिले राणा चच के लेख में कीरतसिंह राणा का नाम मेघनाद दिया है। शिलालेख और वंशावली में इसके पुत्र का नाम वैरसिंह राणा दिया है। उसकी पत्नी दूदा से चच्च उत्पन्न हुआ। चच्च चौहान राजा सिंहराज के पुत्र दुर्लभराज का सामंत था। ऊपर वर्णित शिलालेख में अंकित तिथि को चच्च ने किनसरिया ग्राम में भवानी का मन्दिर बनवाया। (ए.इ.जि. 12 पृ. 59-61) चच्च का पुत्र उद्धरण, पर्वतसर और मारोठ का स्वामी हुआ। उसके आगे 17 नाम और दिए हैं। (नैणसी की ख्यात, पृ. 29)

दूसरा शिलालेख मारोठ के मंगलाणी ग्राम में वि.सं. 1272 (ई. 1215) जेठ बदि 11 का है। उस वंश के महामंडलेश्वर कदुवराज के पुत्र पदमसिंह के बेटे महाराज पुत्र जयन्त का है। उस समय रणथम्भौर का राजा चौहान बाल्हणदेव था। (ए.इ.जि.41 पृ. 87) |
चच के पुत्र उद्धरण के दो पुत्र टारपिंड राणा और विल्हण । विल्हण बड़ा वीर और प्रभावशाली था। यह मारोठ का स्वामी हुआ। परबतसर के टारपिंड का पुत्र जगन्धर तथा उसका दुर्जनसाल और माली, राणा की बजाय रावत कहलाया तथा मारोठ के विल्हण के वंशज राणा कहलाने लगे। परबतसर के मालो का पुत्र रावल कीर्ति और उसका रावत मांडो हुआ।

किनसरिया मन्दिर के पास के स्मारक स्तम्भ पर लेख है कि वि.सं. 1300 (ई. 1243) जेष्ठ सुदि 13 सोमवार के दिन दहिया राणा करतसिंह का पुत्र राणा विक्रम रानी नाइल देवी सहित स्वर्ग को गया। उस राणा के पुत्र जगधर ने माता-पिता के निमित यह स्मारक बनवाया |

मारवाड़ में जयमल दहिया की पत्नी उछरंगदे अपने पति से नाराज होकर खेड़ के राव आस्थान राठौड़ के पास चली गई थी। उसे आस्थान ने अपनी रानी बना लिया था। उसके साथ उसका पुत्र, जो जयमल दहिया से उत्पन्न हुआ था, वह भी था। उसका पालन-पोषण खेड़ में ही राठौड़ों के संरक्षण में हुआ। जब शत्रु ने राव आस्थान को मारा तब इसी लड़के ने आस्थान की मौत का बदला लिया। तबसे वह राठौड़ माना जाने लगा तथा राठौड़ों की तेरह साख मानी जाने लगी। वह लड़का राठौड़ों का तिलक माना गया। (बांकीदास की ख्यात)
नैणवा-बूंदी इलाके में दहियों का राज्य था। वहाँ का शासक भीम दहिया था, जिसका "वंश भास्कर में वर्णन दिया है। उसका पोता बल्लन बड़ा योद्धा था। वह बूंदी में हाड़ा राज्य के संस्थापक देवाजी से युद्ध करते समय मारा गया था।

जालौर का किला दहियों ने बनवाया था। दहियों से जालौर का यह किला आबू के परमारों ने छीन लिया था।
पृथ्वीराज चौहान द्वितीय की रानी अजयादेवी दहियाणी ने जांगलू को समृद्धिशाली बनाया। बाद में दहियों से सांखला (पंवार) रायसी ने जांगलू को छीन लिया। यह षड्यन्त्र रायसी तथा दहियों के पुरोहित की मिलीभगत से सफल हुआ।
पहले सांचोर भी, जो मारवाड़ में जालौर जिले में है- दहियों का था। वहाँ के अन्तिम दहिया शासक विजयराव से नाडोल (मारवाड़) के चौहान शासक ने सांचोर विजय कर लिया था। अजमेर जिले में सावर और घटियाली तथा मारवाड़ के हरसौर में दहियों का शासन था|

राज्यों के विलय के समय सिरोही (राजस्थान) राज्य के केर का ठिकाना तथा ग्वालियर राज्य में कनवास का ठिकाना दहियों का था तथा जालौर (राजस्थान) जिले में 48 गाँव, जो दहियावाटी कहलाते हैं, यह भू-भाग दहियों का था।
लेखक : देवीसिंह मंडावा

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औरंगजेब की धर्म विरोधी नीतियों के खिलाफ विद्रोह करने वाले राजा बहादुर सिंह खण्डेला

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Raja Bahadur Singh, Khandela

खण्डेला के राजा वरसिंहदेव के निधन के बाद वि.सं. 1720 में उनके ज्येष्ठ राजकुमार बहादुरसिंह खण्डेला की राजगद्दी पर आसीन हुए| राजा वरसिंहदेव का ज्यादातर समय शाही सेना के साथ दक्षिण में बिता था अत: उनकी अनुपस्थिति में खण्डेला राज्य का प्रबंधन राजकुमार बहादुरसिंह के ही हाथों में लंबे समय तक पहले से ही रहा था| खण्डेला की गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद राजा बहादुरसिंह दिल्ली में बादशाह औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुये| बादशाह ने उनकी राजा-पदवी को मान्यता देते हुए एक सोनेहारी साज का घोड़ा, एक हाथी और सिरोपाव के साथ भेंट आदि देकर सम्मानित किया| साथ ही उन्हें शाही सेना में सैन्यधिकारी के पद पर नियुक्त करते हुए दक्षिण में बुरहानपुर भेज दिया| अनुमानत: वि.सं. 1721 में राजा बहादुरसिंह बुरहानपुर चले गए थे| दक्षिण में रहते हुए राजा ने बादशाह के वरिष्ठ सेनापति दिलेरखां और महावतखां के साथ विभिन्न युद्धाभियानों में भाग लेकर वीरता प्रदर्शित कर ख्याति अर्जित की| राजा बहादुरसिंह को शाही सेना में 800 जात और 800 सवार का मनसब प्राप्त था|

औरंगजेब से बगावत
वि.सं. 1729 में बादशाह ने महावतखां की कार्य प्रणाली से असंतुष्ट होकर उसकी जगह बहादुरखां को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया| वि.सं. 1724 में दक्षिण में मिर्जाराजा जयसिंह आमेर के निधन के पश्चात् औरंगजेब की हिन्दू धर्म विरोधी नीति खुलकर सामने आने लगी| बहादुरखां की नियुक्ति के बाद दक्षिण में हिन्दुओं पर शाही अत्याचार बढ़ गये| राजा बहादुरसिंह जैसे अनेक राजपूत योद्धाओं को शाही सेना का यह कृत्य मंजूर नहीं था, साथ ही शाही सेना से युद्धरत महाराज शिवाजी के प्रति भी वे सहानुभूति रखते थे| जो बहादुरखां जैसे चालाक सेनापति की नजरों से छिपा नहीं रह सका और इन्हीं बातों को लेकर राजा का बहादुरखां से विवाद हुआ और वे बिना आज्ञा लिए शाही सेना छोड़कर खण्डेला आ गये| सम सामयिक रचना "केसरी सिंह समर" के अनुसार बहादुरखां राजा के बहादुरसिंह नाम से भी चिडता था| राजा बहादुरसिंह द्वारा इस तरह बिना सूचित किये व बिना आज्ञा लिए शाही सेना का साथ छोड़ना, औरंगजेब ने अपने खिलाफ बगावत समझा और राजा को दण्ड देने का निर्णय लिया|

राजपूत राजाओं की मुगल बादशाहों के साथ संधियाँ थी, लेकिन जहाँ भी राजाओं के धर्म व स्वाभिमान का सवाल सामने आता तब राजा अपने स्वधर्म व स्वाभिमान को बचाने के लिए बिना किसी भय के बादशाह से विद्रोह कर दिया करते थे| राजा बहादुरसिंह का खण्डेला बहुत छोटा सा राज्य था| उनकी सेनाएं औरंगजेब की सेना की किसी एक टुकड़ी से भी कम थी| फिर भी स्वधर्म और स्वाभिमान के लिए राजा बहादुरसिंह ने भविष्य के किसी भी परिणाम की चिंता किये बगैर बगावत का झन्डा बुलन्द कर दिया| जो साबित करता है कि राजा स्वाभिमान व धर्म के मामले में किसी भी परिणाम की परवाह नहीं करते थे|

खण्डेला पर शाही आक्रमण
राजा बहादुरसिंह संभवत: वि.सं. 1730 के अंतिम दिनों में शाही सेनापति की अवज्ञा करते हुए विद्रोही मुद्रा में खण्डेला आ गए थे| उन्हें सजा देने के उद्देश्य से बादशाह ने सिदी फौलादखां को खण्डेला पर आक्रमण के आदेश दिए| फौलादखां ने अपने भाई सिद्दी विरहामखां के नेतृत्व में एक सेना खण्डेला भेजी| जिसने खण्डेला को घेर लिया| राजा के सेनापति इन्द्रभाण ने किले से बाहर आकर शाही सेना पर आक्रमण किया और शाही सेना के अग्रिम दस्ते का संचालन कर रहे पठान योद्धा मीर मन्नू सूर को द्वंद्वयुद्ध में पछाड़कर उसे लोहे की जंजीरों में जकड़ दिया| सेनापति विरहामखां प्राण बचाकर सेना सहित भाग खड़ा हुआ| इस तरह खण्डेला के वीरों ने शाही सेना को शिकस्त दी|

8 मार्च सन 1679 ई. (वि.सं. 1736) को औरंगजेब ने खण्डेला पर आक्रमण के लिए फिर एक विशाल सेना सेनापति दराबखां के नेतृत्व में भेजी| इस सेना के साथ हाथी व तोपखाना साथ था| दराबखां को खण्डेला व आस-पास के शेखावतों को सजा देने हेतु उस क्षेत्र के मंदिर तोड़ने के भी आदेश दिए गये| नबाब कारतलखां मेवाती और सिद्दी विरहामखां जैसे अनुभवी योद्धाओं को भी दराबखां के साथ भेजा गया|
अपने सलाहकारों की सलाह पर राजा बहादुरसिंह ने खण्डेला नगर खाली करवा दिया और खुद सेना सहित छापामार युद्ध हेतु कोटसकराय के गिरी दुर्ग में चले गए ताकि वहां की पहाड़ियों में मुग़ल सेना को उलझाकर हराया जा सके| खण्डेला खाली करने की खबर शेखावाटी के कुछ योद्धाओं को रास नहीं आई और वे खण्डेला के मंदिरों को बचाने हेतु गांव गांव से खण्डेला पहुँचने लगे| इन वीरों का नेतृत्व सुजानसिंह शेखावत ने किया जो उस वक्त विवाह कर लौट रहे थे| मआसीरे आलमगिरी पृष्ठ 107 पर लिखा है कि "ऐसे 300 योद्धा थे जो सभी के सभी मर गए पर उन्होंने पीठ नहीं दिखाई|"

विशाल मुग़ल सेना का यह आक्रमण भी राजा बहादुरसिंह को झुका नहीं सका और वे वि.सं. 1740 तक मृत्यु पर्यंत औरंगजेब के विद्रोही बने रहे| वि.सं. 1740 में राजा बहादुरसिंह का निधन हो गया| उनके बाद उनके पुत्र केसरीसिंह खण्डेला की गद्दी पर बैठे| राजा केसरीसिंह ने भी औरंगजेब से विद्रोह किया और मुग़ल सेना से सीधी भिडंत कर वीरगति प्राप्त की|

सन्दर्भ पुस्तक : गिरधर वंश प्रकाश (खण्डेला का वृहद् इतिहास एवं शेखावतों की वंशावली)
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राजपूत स्त्रियों की स्थिति और उनके गुण

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Rajput Samaj Me Striyon ki sthiti evam Unke Gun

राजपूतों में स्त्रियों का बड़ा आदर होता रहा और वे वीर पत्नी और वीरमाता कहलाने में अपना गौरव मानती थी। उन वीरांगनाओं का पातिव्रत धर्म, शूरवीरता और साहस भी जगद विख्यात है। इनके अनेक उदाहरण इतिहास में पाये जाते हैं, उनमें से थोड़े से यहां उद्धृत करते हैं- वीरवर दाहिर देशपति की राणी लाडी की वीरता का वर्णन करते हुए फिरिश्ता लिखता है- 'जब अरब सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने युद्ध में सिंध के राजा दाहिर को मारकर उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया और दाहिर का एक पुत्र बिना युद्ध किये भाग निकला, उस समय उस (पुत्र) की वीरमाता लाडी कई हजार राजपूत सेना साथ ले पहले तो मुहम्मद कासिम से सरे मैदान लड़ी, फिर गढ़ सजाकर वह वीरांगना शस्त्र पकड़े शत्रु से युद्ध करती हुई स्वर्गलोक को सिधारी|"

चौहान राजा पृथ्वीराज ने जब महोबा के चंदेल राजा परमर्दिदेव पर चढ़ाई की तो उसके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि उस समय उक्त राजा के सामंत आल्हा व ऊदल वहां उपस्थित नहीं थे, वे पहले किसी बात पर स्वामी की अप्रसन्नता हो जाने के कारण कन्नौज के राजा जयचंद के पास जा रहे थे। पृथ्वीराज की सेना से अपनी प्रजा का अनिष्ट होता देख चंदेल राजा की राणी ने आल्हा ऊदल को बुलाने के लिए दूत भेजे। उन्होंने अपने साथ किये हुए पूर्व के अपमान का स्मरण कर महोबे जाना स्वीकार नहीं किया। उस समय उनकी वीर माता ने जो वचन अपने पुत्रों को सुनाये उनसे स्पष्ट है कि क्षत्रिय कुलांगना किस प्रकार स्वामी के कार्य और स्वदेश रक्षा के निमित अपने प्राणों से प्यारे पति और पुत्रों को भी सहर्ष रणांगण में भेजती थी। आल्हा ऊदल की माता अपने पुत्रों का हठ छुड़ाने के हेतु बोली- 'हे विधाता ! तूने मुझको बांझ ही क्यों न रखी। क्षत्रिय धर्म का उल्लंघन करने वाले इन कुपुत्रों से तो मेरा बांझ रहना ही अच्छा था। धिक्कार है उन क्षत्रिय पुत्रों को, जिनका स्वामी संकट में पड़ा हो और आप सुख की नींद सोवें। जो क्षत्रिय मरने-मारने से डर कर संकट के समय स्वामी की सहायता के लिए सिर देने को प्रस्तुत न हो जाय वह असल का बीज नहीं कहलाता है। हाँ ! तुमने बनाफर वंश की सब कीर्ति डुबो दी।”

महाराणा रायमल के पाटवी पुत्र पृथ्वीराज की पत्नी तारादेवी का अपने पति के साथ टोडे जाकर पठानों के साथ युद्ध में पति की सहायता करना प्रसिद्ध ही है। रायसेन का राजा सलहदी पूरबिया (तंवर) जब सुल्तान बहादुरशाह गुजराती से परास्त हो मुसलमान हो गया और सुल्तान सुरंगें लगाकर उसके गढ़ को तोड़ने लगा, तोपों की मार से दो बुर्जे भी उड़ गई, तब सलहदी ने सुलतान से कहा कि आप मेरे बाल बच्चों और स्त्रियों को न सताइये, मैं गढ़ पर जाकर लड़ाई बन्द करवा दूंगा। सुल्तान ने मलिकअली शेर नामक अफसर के साथ उसको गढ़ पर भेजा। उसकी राणी दुर्गावती ने, जो राणा सांगा की पुत्री थी, अपने पति को देखते ही धिक्कारना शुरू किया और कहा- "ऐसी निर्लजता से तो मर जाना ही अच्छा है, मैं अपने प्राण तजती हूं, यदि तुमको राजपूती का दावा हो तो हमारा वैर शत्रुओं से लेना। 'राणी के इन वचन वाणों ने सलहदी के चित्त पर इतना गहरा घाव लगाया कि वह तुरन्त अपने भाई लोकमल (लोकमणि) और 100 संबंधियों समेत खङ्ग खोलकर शत्रुओं से जूझ मरा। राणी ने भी सात सौ राजपूत रमणियों और अपने दो बच्चों सहित प्रचण्ड अग्निज्वाला में प्रवेश कर तन त्याग दिया।

मारवाड़ के महाराजा जसवन्तसिंह जब औरंगजेब से युद्ध में हारकर फतिहाबाद के रणखेत से अपनी राजधानी जोधपुर को लौटा तब उसकी पटराणी ने गढ़ के द्वार बंद कर पति को भीतर पैठने से रोका था।
इसी प्रकार शत्रु से अपने सतीत्व की रक्षा के निमित हजारों राजपूत महिलाएं निर्भयता के साथ जौहर की धधकती हुई आग में जलकर भस्मीभूत हो गई, जिनके ज्वलंत उदाहरण चित्तौड़ की राणी पद्मनी और कर्मवती,चांपानेर के पताई रावल (जयसिंह) की राणियां, जैसलमेर के रावल दूदा की रमणियां आदि अनेक हैं, जो आगे इस इतिहास में प्रसंग-प्रसंग पर बतलाये जायेंगे। परदे की रीति भी राजपूतों में पहले इतनी कड़ी नहीं थी जैसे कि आज है। धर्मोत्सव, युद्ध और शिकार के समय में भी राणियां राजा के साथ रहती थी और राज्याभिषेक आदि अवसरों पर पति के साथ आम दरबार में बैठती थी। पीछे से मुसलमानों की देखा-देखी परदे का कड़ा प्रबन्ध राजपूतों में होने लगा और उन्हीं का अनुकरण पीछे से राजकीय पुरुषों तथा धनाढय वैश्य आदि जातियों में भी होने लगा।

लेखक : रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा अपनी पुस्तक "राजपूताने का प्राचीन इतिहास" में
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चौहन वंश अग्निवंशी या सूर्यवंशी

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Chauhan Kshtriya vansh Agnivanshi or Suryavanshi

सोशियल साइट्स पर अक्सर चर्चा होती है कि चौहान अग्निवंशी है सूर्यवंशी? इतिहासकारों के अनुसार “जब वैदिक धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में आ गया और पंडावाद बढ़ गया तब बुद्ध ने इसके विरुद्ध बगावत कर नया बौद्ध धर्म चलाया तब लगभग क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म त्यागकर बौद्ध धर्मी बन गया| बौद्ध धर्म के बढ़ने पर बौद्धों और ब्राह्मणों में संघर्ष हुआ, जिसमें बौद्ध भारी पड़ने लगे क्योंकि ब्राह्मणों की रक्षा करने वाले ज्यादातर क्षत्रिय बौद्ध बन चुके थे| अत: ब्राह्मणों के सामने वैदिक धर्म की रक्षा की जटिल समस्या खड़ी हो गई| इस समस्या से निजात पाने व वैदिक धर्म की पुन: स्थापना के लिए ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने अपने अथक प्रयासों से चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने हेतु राजी कर लिया गया और कुमारिल भट्ट द्वारा ई.७०० वि. ७५७ आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया| ये प्राचीन सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी ही थे|

बौद्ध धर्म अपना चुके क्षत्रियों का वापस धर्म परिवर्तन करने व वैदिक धर्म में दीक्षित करने हेतु यज्ञ कर शुद्धिकरण करने को क्षत्रियों को यज्ञ के अग्निकुंड से उत्पन्न माना जाने की मान्यता प्रचलित हो गयी और धीरे धीरे कहानियां बन गई कि – क्षत्रिय आबू पर्वत पर अग्निकुंड से पैदा हुए थे और इन्हीं कहानियों को आधार मानकर पृथ्वीराजरासो में इन चार कुलों को अग्नि से पैदा होना मानकर अग्निवंशी लिख दिया| जबकि रासो की लोकप्रियता के पहले और यज्ञ के बाद भी चौहान अपने आपको सूर्यवंशी ही लिखते थे| लेकिन पृथ्वीराजरासो की लोकप्रियता बढ़ने के बाद चौहानों सहित ये चार कुल अपने आपको अग्निवंशी लिखने लग गए| अब यह देखना आवश्यक है कि वि.सं.की 16 वीं शताब्दी के पूर्व चौहान आदि राजवंशी अपने को अग्निवंशी मानते थे अथवा नहीं-

राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा "राजपूताने का प्राचीन इतिहास में लिखते है- "वि.सं. 813 (ई.सं. 756) से लगाकर वि.सं. 1600 (ई.सं. 1543) तक के चौहानों के बहुत से शिलालेख, दानपत्र तथा ऐतिहासिक संस्कृत पुस्तक मिली है, जिनमें से किसी में उनका अग्निवंशी होना नहीं लिखा। ‘पृथ्वीराजविजय' में जगह-जगह उनको सूर्यवंशी बतलाया है-

काकत्स्थमिक्ष्वाकुरघ च यद्दधत्पुराभवत्रिप्रवरं रघोः कुलम् ।
कलावषि प्राप्य सचाहमानतां प्ररूढतुर्यप्रवरंवभूव ततः ||२ ||७१ |
-भानो प्रतापोन्नति ।
तन्वन्गोत्रगुरोर्निजेन नृपतेर्जज्ञे सुतो जन्मना ॥७॥५० ॥
सुतोप्यपरगाङ्गेयो निन्येस्य रविसूनुना ।
उन्नति रविवंशस्य पृथ्वीराजेन पश्यता ।।८।।५४ |- पृथ्वीराजविजयमहाकाव्य'

पृथ्वीराज से पूर्व अजमेर के चौहानों में विग्रहराज (वीसलदेव चौथा) बड़ा विद्वान और वीर राजा हुआ, जिसने अजमेर में एक सरस्वती मंदिर स्थापित किया था। उसमें उसने अपना रचा हुआ "हरकेलिनाटक" तथा अपने राजकवि सोमेश्वररचित "ललितविग्रहराजनाटक" को शिलाओं पर खुदवाकर रखवाया था। वहीं से मिली हुई एक बहुत बड़ी शिला पर किसी अज्ञात कवि के बनाये हुए चौहानों के इतिहास के किसी काव्य का प्रारंभिक अंश खुदा है। इसमें भी चौहानों को सूर्यवंशी ही लिखा है।

____देवो रविः पातु वः ||३३ ।।
तस्मात्समालंव (ब) नदंडयोनिरभूज्जनस्य स्खलतः स्वमाग्र्गे ।
वंशः स दैवोढरसी नृपाणमनुदगतैनोघुणकीटरंध्रः ॥३४ ||
समुत्थितोकांदनरण्योनिरुत्पन्नपुन्नागिकदंव (ब) शाख:
आश्चर्यमंत:प्रसरत्कुशीयं वंशोर्थिनां श्रीफलतां प्रयाति ||३५ ॥
आधिव्याधिकुवृतदुर्गतिपरित्यक्तप्रजास्तत्र ते ।
सप्तद्वीपभुजो नृपाः समभवन्निक्ष्वाकुरामादयः ॥३६ ।।
तस्मिन्नथारिविजयेन विराजमानो राजानुरजितजनोजनि चाहमानः - I३७ ॥

वि.सं. 1450 (ई.सं. 1393) के आसपास ग्वालियर के तंवर राजा वीरम के दरबार में प्रतिष्ठा पाये हुए जैन-विद्वान् नयचंद्रसूरि ने 'हमीरमहाकाव्य' नामक चौहानों के इतिहास का ग्रंथ रचा, जिसमें भी चौहानों को सूर्यवंशी होना माना है। अतएव स्पष्ट है कि वि.सं.की 16 वीं शताब्दी के पूर्व चौहान अपने को अग्निवंशी नहीं मानते थे।

शक सं. 500 (वि.सं. 635 = ई.स. 578) से लगकर वि.सं. की 16 वीं शताब्दी तक सोलंकियों के अनेक दानपत्र, शिलालेख तथा कई ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथ मिले, जिनमें कहीं उनका अग्निवंशी होना नहीं लिखा, किन्तु उसके विरुद्ध उनका चंद्रवंशी और पांडवों की संतान होना जगह-जगह बतलाया है।

वि.सं. 872 (ई.सं. 815) से लगाकर वि.सं. की 14 वीं शताब्दी के पीछे तक प्रतिहारों (पड़िहारों) के जितने शिलालेख, दान-पत्रादि मिले उनमें कहीं भी उनका अग्निवंशी होना नहीं माना। वि.सं.900 (ई.स. 843) के आसपास की ग्वालियर से मिली हुई प्रतिहार राजा भोजदेव की बड़ी प्रशस्ति में प्रतिहारों को सूर्यवंशी बतलाया है। ऐसे ही वि.सं.की दसवीं शताब्दी के मध्य में होने वाले प्रसिद्ध कवि राजशेखर ने अपने नाटकों में अपने शिष्य महेन्द्रपाल (निर्भयनरेन्द्र) को, जो उक्त भोजदेव का पुत्र था, "रघुकुलतिलक' कहा है।

ऊपर उद्धृत किये हुए प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि चौहान, सोलंकी और प्रतिहार पहले अपने को अग्निवंशी नहीं मानते थे, केवल 'पृथ्वीराजरासा' बनने के पीछे उसी के आधार पर वे अपने को अग्निवंशी कहने लग गये हैं।

अब रहे परमार। मालवे के परमार राजा भुज (वाक्पतिराज, अमोघवर्ष) के समय अर्थात् वि.सं. १०२८ से १०५४ (ई.सं. ९७१ से ९९७) के आसपास होने वाले उसके दरबार के पंडित इलायुध ने 'पिंगलसूत्रवृत्ति' में मुंज को 'ब्रह्मक्षत्र" कुल का कहा है। ब्रह्मक्षत्र शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में उन राजवंशों के लिए होता रहा,जिनमें ब्रह्मत्व और क्षत्रत्व दोनों गुण विद्यमान हों|

ब्रह्मक्षत्रकुलीनः प्रलीनसामन्तचक्रनुतचरणः ।
सकलसुकृतैकपुञ्जः श्रीमान्मुञ्जश्चिरं जयति । ‘पिंगलसूत्रवृत्ति' ।"

इतिहासकारों द्वारा शोध के दिए इन तथ्यों के बाद यह निश्चित कहा जा सकता है कि चौहानों सहित उक्त क्षत्रिय जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था और कुमारिल भट्ट आदि के प्रयासों से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित हुए वे सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी क्षत्रिय ही थे, लेकिन पृथ्वीराजरासो में लिखे होने के कारण भ्रांतिपूर्वक अपने आपको अग्निवंशी मानने लग गए| जबकि इतिहासकार रासो के वर्तमान रूप को पृथ्वीराज का समकालीन व चन्द्रबरदाई द्वारा लिखा नहीं मानते| इतिहासकारों के अनुसार पृथ्वीराजरासो सोलहवीं सदी की रचना है|
Chauhan Agnivanshi hai ya suryavanshi, agnivanshi v/s suryavanshi, chauhan history in hindi, agnivansh history in hindi, what is agnivansh and suryavansh

हठीलो राजस्थान-21

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अमर धरा री रीत आ,
अमर धरा अहसान |
लीधौ चमचौ दाल रो,
सिर दीधो रण-दान ||१२४||

इस वीर भूमि की कृतज्ञता प्रकाशन की यह अमर रीत रही है कि दल के एक चम्मच के बदले में यहाँ के वीरों ने युद्ध में अपना मस्तक कटा दिया ||

नकली गढ़ दीधो नहीं ,
बिना घोर घमसाण |
सिर टूटयां बिन किम फिरै,
असली गढ़ पर आण ||१२५||

यहाँ के वीरों ने बिना घमासान युद्ध किए नकली गढ़ भी शत्रु को नहीं दिया , फिर बिना मस्तक कटाए असली गढ़ शत्रु को भला कैसे सौंप सकते है |

रण भिडयो बिडदावतां,
सूरां नीति सार |
कटियाँ पाछै सिर हंसै,
बिडदातां इक वार ||१२६||

शूरवीरों के लिए नीति का सार यही है कि वह बिरुदावली सुनकर युद्ध में भिड़ जाता है और उसका कटा हुआ सिर भी अपनी कीर्ति का बखान सुनकर प्रसन्नता से पुलकित होने लगता है |

दलबल धावो बोलियौ,
अब लग फाटक सेस |
सिर फेंक्यो भड़ काट निज ,
पहलां दुर्ग प्रवेस ||१२७ ||

वीरों के दोनों दलों ने दुर्ग पर आक्रमण किया जब एक दल के सरदार को पता चला कि दूसरा दल अब फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश करने ही वाला है तो उसने अपना खुद का सिर काट कर दुर्ग में फेंक दिया ताकि वह उस प्रतिस्पर्धी दल से पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाये |

बिंधियो जा निज आण बस,
गज माथै बण मोड़ |
सुरग दुरग परवेस सथ,
निज तन फाटक तोड़ ||१२८ ||

अपनी आन की खातिर उस वीर ने दुर्ग का फाटक तोड़ने के लिए फाटक पर लगे शूलों से अपना सीना अड़ाकर हाथी से टक्कर दिलवा अपना शरीर शूलों से बिंधवा लेता है और वीर गति को प्राप्त होता है इस प्रकार वह वीर गति को प्राप्त होने के सथ ही अपने शरीर से फाटक तोड़ने में सफल हो दुर्ग व स्वर्ग में एक साथ प्रवेश करता है |

नजर न पूगी उण जगां,
पड्यो न गोलो आय |
पावां सूं पहली घणो,
सिर पडियो गढ़ जाय ||१२९ ||

जब वीरो के एक दल ने दुर्ग का फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया परन्तु जब उनकी दृष्टि किले में पड़ी तो देखा कि किले में उनके पैर व दृष्टि पड़ने पहले ही चुण्डावत सरदार का सिर वहां पड़ा है जबकि उस वीर के सिर से पहले प्रतिस्पर्धी दल का दागा तो कोई गोला भी दुर्ग में नहीं पहुंचा था |

दोहा न.१२७,१२८,१२९ के लिए संदर्भ कथा पढने के यहाँ चटकालगाएं |
स्व.आयुवानसिंह शेखावत



ऋषि पराशर की तपोभूमि : फरीदाबाद

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फरीदाबाद की अरावली पर्वत श्रंखला में स्थित प्रसिद्ध बड़खल झीलके प्रवेश द्वार के पास ही उतर दिशा की और जाने वाली सड़क पर कुछ दूर जाते ही परसोन मंदिर का बोर्ड दिखाई देता है इस बोर्ड के पास से एक उबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्ते से लगभग १.५ की.मी. की दुरी पार करते ही पहाडियों पर झाडियों के बीच से एक गेट व छोटासा मंदिर और कुछ भवन दिखाई देते है इसी गेट में आगे बढ़ने पर पहाड़ी के दर्रे में नीचे उतरती कुछ सीढियाँ नजर आती है | चारों और सुनसान और कंटीली झाडियों से लदी पहाड़ी के बीच १०१ सीढियाँ नीचे उतरते ही दो तरफ पहाडों से घिरा खजूर ,गूगल ,पीपल शीशम ,अमलतास और विविध श्रेणी के पेड़ पौधों की हरियाली व बीच में बहती जल धारा ,शांत वातावरण और प्रकृति माँ की सुरम्य छटा लिए एक दर्रा आगन्तुक का स्वागत करता है | इसी दर्रे को ऋषि पराशर की तपोभूमिहोने का गौरव हासिल है | और इसी करण इस जगह को परसोन मंदिर के नाम से जाना जाता है | ऋषि पराशर के अलावा भी यहाँ प्रचीन समय से कई ऋषि मुनियाँ ने तपस्या की है | इस दर्रे की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है दोनों और की पहाड़ी की तलहटी में कुछ छोटे बड़े मंदिर बने है वहीँ कुछ परिवारों ने अपने पितरो की छत्रियां भी बनवाइ हुई है | 
दर्रे के बीचो बीच एक निर्मल जलधारा बह रही है जिस पर जगह जगह कुछ पानी के गहरे कुण्ड बने है इन्ही कुंडों में से एक कुण्ड जो आखिरी है में नहाने के लिए पक्का घाट बना है जहाँ वहां आने वाले श्रधालुओं के अलावा वहां रहने वाले साधू संत स्नान करते है | 

यहाँ बने मंदिरों में मुख्य परसोन मंदिरहै जिसमे दो बड़े बरामदे बने हुए है एक बरामदे में ऋषि पराशरकी मूर्ति लगी है तो दुसरे बरामदे में हवन कुण्ड बना है मंदिर में अक्सर भंडारे का आयोजन होता रहता है | इस मंदिर की देखरेख व पूजा अर्चना का जिम्मा स्वामी नारायण गिरी जी ने संभाल रखा है |दर्रे के बीचो बीच बहने वाली जलधारा के पानी की महिमा बताते हुए स्वामी नारायण गिरी जी इसकी तुलना गंगाजल से कर इसे खनिज व जडी बूटियों से उपचारित जल बताकर इसे रोगनाशक बताते है | स्वामी जी के अनुसार वहां आने वाले डा.फाल्के ने भी कुण्ड का पानी लेब में टेस्ट कराने के बाद इस जल का रोगनाशक होने की पुष्टि की है |

प्रकृति माँ द्वारा प्रदत इस सुरम्य व ऋषि मुनियों की तपस्थली इस जगह के बारे में अभी तक फरीदाबाद के भी बहुत कम लोगो को जानकारी है | इसीलिए मेरी इस रविवारीय यात्रा में मुझे यहाँ जो भी मिला वह पहली बार ही यहाँ पहुंचा था | और माँ प्रकृति की गोद में बसी इस शांत व सुरम्य जगह को देख विस्मित था |


परसोन मंदिर के स्वामी जी कहते है -पहले यहाँ आने का रास्ता बहुत विकट था तब गिने चुने लोग ही यहाँ पहुँच पाते थे लेकिन जब से बड़खल झील से यहाँ तक रास्ता कुछ ठीक बन गया है तब से यहाँ लोगो की भीड़ बढ़नी शुरू हो गयी है जो इस सुरम्य शांत वातावरण के लिए ठीक नहीं है | स्वामी जी की चिंता भी सही है आवागमन का रास्ता ठीक होने के बाद यहाँ लोगो का पिकनिक के लिए आना जाना शुरू हो गया है और उनके द्वारा छोडे जाने वाला कचरा इस सुरम्य जगह के पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है |

सिस्टम री-स्टोर : कंप्यूटर को पीछे की स्थिति में ले जाना

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अभी परसों ही भाटिया जी की पोस्ट पढ़ी " लॊ जी हम हो गये कामयाब " | दरअसल भाटिया जी फायर फॉक्स से बड़े परेशान थे और इसे ठीक करने के सारे उपाय करने के बाद जैसा कि उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा
" फ़िर अंतिम फ़ेसला कि अब लेपटाप को सारे के सारे को दोवारा इंस्टाल किया जाये यानि शनिवार इस के नाम.... बेटॆ बेमन से हां कर रहे थे, लेकिन तेयार थे, तभी मेने बच्चो से कहा कि हम एक बार लेपटाप को कुछ दिन पहले की स्तिथि मै दोवारा लाते है, ओर फ़िर बेटे ने एक सप्ताह पहले से सेट कर के लेपटाप को नया स्टार्ट किया, साथ मै दो दर्जन आगरबती जलाई समीर जी के कहने से, ओर हनुमान चालिसा का पाठ ४० बार किया... बस अब मोजा ही मोजा..."
भाटिया जीके बेटे ने लेपटोप को एक सप्ताह पीछे कर दिया और उनका लेपटोप बढ़िया काम करने लगा | आईये अब चर्चा करते है भाटिया जी के बेटे ने लेपटोप को एक सप्ताह पीछे कैसे किया और इसका क्या प्रभाव पड़ा कि कंप्यूटर पीछे होते ही सही हो गया |
जब हमें पता लगे कि अभी कुछ दिन पहले कोई वाइरस कंप्यूटर में घुसा है और वह हमें ज्यादा परेशान कर रहा है कई नए वाइरस एंटी वाइरस की पकड़ में भी नहीं आते और ना हट पाते है ऐसी दशा में लोग अक्सर अपने कंप्यूटर को फोर्मेट कर बैठते है जबकि इस समस्या का समाधान भाटिया जी की तरह कंप्यूटर को पीछे की तारीख में ले जाकर किया जा सकता है दरअसल कंप्यूटर को पीछे की तारीख की स्थिति में पहुंचाते ही कंप्यूटर में बीच के दिनों में हुए सारे बदलाव ख़त्म होकर कंप्यूटर उसी पुरानी स्थिति में जा पहुँचता है इस प्रकार यदि कोई वाइरस भी घुसा है तो वह भी अपने आप निकल जाता और उसके द्वारा ख़राब की गयी सभी फाईल्स भी ठीक हो जाती है |
कंप्यूटर को पीछे की स्थिति में कैसे ले जाए ?
कंप्यूटर को पीछे की स्थिति में ले जाने को कम्प्यूटरी भाषा में सिस्टम री-स्टोर करना करना कहते है इसके लिए निचे चित्र में दिखाए अनुसार start-- All Program -- Accessories -- System tools -- System restore में जाए |


एक विण्डो खुलेगी इसमें Next पर चटका लगायें |
चित्र के अनुसार कलेंडर वाली विण्डो खुलेगी इसमें आपको कौनसी पिछली तारीख की स्थिति में कंप्यूटर को पहुंचाना है उस तारीख को सलेक्ट कर Next पर चटका लगादे |


Next पर चटका लगा दीजिए | अब कंप्यूटर ने पिछली तारीख के हिसाब से री-स्टोर करना शुरू कर दिया है थोडी देर में यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद कंप्यूटर को री-स्टार्ट कीजिए | लो जी पहुँच गए आपके कंप्यूटर जी पिछली तारीख की स्थिति में |
कंप्यूटर को पिछली स्थिति में ले जाने का दूसरा सबसे बढ़िया तरीका है विण्डो को सेफ मोड में चलाकर सिस्टम री-स्टोर करना | इस्सके लिए कंप्यूटर स्टार्ट करते ही F8 बटन दबाना चालू करदे जिससे विण्डो को सेफ मोड में चलने का आप्शन मिल जायेगा जैसे ही आप सेफ मोड सलेक्ट करंगे एक विण्डो खुलेगी उसमे No पर चटका लगदे अब System restore का आप्शन आ जायेगा |

पेन ड्राइव को बूट एबल विण्डो एक्सपी इंस्टालेशन डिवाइस बनाना

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आजकल बाजार में सस्ते व छोटे नेट बुक कंप्यूटर आ रहे है जिन्हें यात्रा के समय लाने ले जाने में ज्यादा सुविधा रहती है इन नेट बुक लेपटोप में सी डी/ डी वी डी रोम नहीं होता अतः जब कभी इनमे ऑपरेटिंग सिस्टम दुबारा इंस्टाल करना पड़े तब बड़ी तकलीफ होती है यही नहीं जिन लेपटोप्स व डेस्कटॉप कंप्यूटर का सी डी / डी वी डी रोम ख़राब होने की स्थिति में विण्डो इंस्टाल करने में बड़ी असुविधा हो जाती है | लेकिन यदि आपके पेन ड्राइव में विण्डो सहेजी हो और पेन ड्राइव से कंप्यूटर को बूट कर यदि विण्डो इंस्टाल हो जाये तो कितनी आसानी हो | पेन ड्राइव को बूट एबल बनाना बहुत आसान है बस आपके पास 1gb का पेन ड्राइव व एक विण्डो एक्सपी की इंस्टालेशन सी डी होनी चाहिए यदि ये दोनों चीजे आपके पास है तो नीचे बताये चरण बद्ध तरीके से आप अपने पेन ड्राइव को बूट एबल विण्डो इंस्टालेशन डिवाइस बना सकते है |
* आपके पास कम से कम 1gb का पेन ड्राइव व विण्डो एक्सपी की इंस्टालेशन सी डी होनी चाहिए |
१- यहाँ चटका लगाकरएक फाइल डाउनलोड करे | इसे अनजिप करे | इस फाइल में दो फोल्डर मिलेंगे
१- Bootsect २ - USB_prep8



२- USB_Prep8 फोल्डर खोलकर उसमे usb_prep8 फाइल पर चटका लगाएं | इस फाइल पर चटका लगते ही एक console window खुलेगी |



३- आगे बढ़ने के लिए की-बोर्ड का कोई भी बटन दबाने को कहा जायेगा अतः कोई भी बटन पर चटका लगा दे | आप जैसे ही किसी बटन पर चटका लगायेंगे PeToUSB नाम की एक विण्डो खुलेगी |



४- इस समय आपका पेन ड्राइव कंप्यूटर में लगा होना चाहिए | इस विण्डो में पेन ड्राइव सलेक्ट करे और उसे फोर्मेट करने के लिए स्टार्ट पर चटका लगा दे |
५- पेन ड्राइव के फोर्मेट पूर्ण होने का सन्देश आने पर ok पर चटका लगा दे | लेकिन ध्यान रहे इस PeTOUSB विण्डो को बंद ना करे |
६- अब विण्डो के स्टार्ट मेनू के Run में जाकर cmd टाईप करें | यह टाईप करते ही एक console window खुलेगी जिसमे आपको डॉस कमांड देते हुए उस फाइल से जो सबसे पहले आपने डाउनलोड कर सहेजी थी के Bootsect फोल्डर में जाना है |
मैंने इसे My Documents से सहेज कर रखा था और निम्न कमांड देते हुए इस फोल्डर को खोला |
७- 1- cd my documents
2- cd flash drive prep
3- cd Bootsect
8- उपरोक्त टाईप करने के बाद आप bootsect.exe /nt52 g: टाईप करे | यहाँ g: आपके पेन ड्राइव का वोल्यूम नाम है यदि आपके पेन ड्राइव का वोल्यूम नाम f , g , या जो भी हो वह g: की जगह टाईप करे |
९- bootsect.exe /nt52 g: टाईप करने के बाद Bootcode update होने का सन्देश दिखाई देता है तब इस console window को बंद करदे | ( लेकिन सबसे पहले खुली console window को कदापि बंद ना करे )
१०- अब PeToUSB विण्डो को भी बंद करदे लेकिन ध्यान रहे सबसे पहले खुली कंसोल विण्डो अब भी खुली रखनी है |
११- जैसे ही PeToUSB विण्डो को बंद करेंगे पहले से खुली कंसोल विण्डो में एक लिस्ट दिखाई देगी जिसमे चुनने के लिए 8 आप्शन दिखाई देंगे |
१२- सबसे पहले इस कंसोल विण्डो में दिखाई सूचि के आप्शन से 0 सलेक्ट करने के लिए 0 टाईप कर एन्टर बटन दबाए उसके बाद 1 लिखकर फिर एन्टर बटन पर चटका लगाएं तुंरत एक विण्डो खुलेगी जिसमे सी डी /डी वी डी रोम सलेक्ट कर ok पर चटका लगाएं ( ध्यान रहे इस वक्त आपके सी डी / डी वी डी रोम में विण्डो एक्सपी की इंस्टालेशन सी डी होनी चाहिए )|

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१३- अब 2 सलेक्ट करते हुए 2 टाईप कर एन्टर पर चटका लगाये और उसके बाद एक वर्चुअल ड्राइव का नाम देने के लिए x टाईप करे |
१४- अब 3 टाईप करे व usb drive का नाम जैसे g , f ,h जो भी आपके usb drive का नाम हो उसे लिखे |
१५- अब 4 टाईप कर एन्टर बटन दबाएँ व आगे मिलने वाले निर्देशों का पालन करते जाए |






लगभग १५ से २० मिनट तक इंतजार करे बीच बीच में देखते जाए कुछ निर्देश मिलेंगे जैसे आगे बढ़ने के लिए कोई बटन दबाएँ आदि आदि | इस प्रक्रिया के पूर्ण होते ही आपका पेन ड्राइव विण्डो इंस्टालेशन के लिए तैयार हो जायेगा | इसे जांचने के लिए कंप्यूटर की बायोस सेटिंग में पहला बूट डिवाइस usb को कर दे व कंप्यूटर रिस्टार्ट करे आपका कंप्यूटर पेन ड्राइव से बूट होगा |

राम प्यारी रो रसालो

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पिछला का शेष.....
बाईजीराज चिंता में पड़ गए- "किसको ओळ में रखूं ? और किसी को ओळ में रखे बिना सिंधी मानने वाले नहीं|"
बाईजीराज के पास ही उनके छोटे पुत्र भीमसिंघजी जो उस समय मात्र छ: वर्ष के थे बैठे ये सब सुन रहे थे| उनके दूध के दांत भी नहीं टूटे थे| उन्होंने मां के गले में हाथ डालकर कहा- "मुझे ओळ में भेज दीजिये|"
भोले भाले मुंह से ये लफ्ज सुनते ही बाईजीराज की आँखों में आंसू आ गए| बेटे को सीने से लगा रामप्यारी को सौंप दिया- " ले जा इसे ओळ में सिंधियों को सौंप दे|"

रामप्यारी भीमसिंहजी को गोद में उठाकर ले गयी और सिंधियों को सौंप दिया| अर्जुनसिंह चुण्डावत भी उनके पीछे हो गए| सिंधियों ने दो वर्षों तक दोनों को अपने पास ओळ (गिरवी) में रखा| भीमसिंहजी दो वर्ष ओळ में रहकर वापस आये उसके कुछ दिनों बाद ही राणा हमीरसिंह का कम उम्र में ही निधन हो गया| अब मेवाड़ की गद्दी के हकदार भीमसिंहजी ही थे| पर बाईजीराज ने उन्हें गद्दी पर बैठाने से मना कर दिया बोले-
" मुझे राज्य नहीं चाहिए| मेरा बेटा कुशल रह जाए यही मेरे लिए राज्य है| इस राज्य के पीछे मेरे पति भरी जवानी में धोखे से मार दिए गए,मेरे पुत्र को कम उम्र में जहर देकर मार दिया गया| मुझे तो राज से नफरत हो गयी है|राज के लालच में इंसानों में इंसानियत तक नहीं रहती,रात दिन धोखा,फरेब | मैंने मेवाड़ की स्वामिनी बनकर भी कौनसा सुख देखा? दुःख ही दुःख भोगा है| मैं चाहती हूँ मेरा बेटा कुशल पूर्वक रहे| राजा के बजाय तो दुसरे व्यक्ति आराम से रहते है|"

पंचों,सरदारों,सामंतों व प्रधान ने ड्योढ़ी पर जाकर अर्ज करवाई - " आप इन्हें गद्दी पर नहीं बैठाएंगे तब भी इनकी जान को खतरा तो रहेगा ही| जो भी गद्दी पर बैठेगा वो भला गद्दी के असली हकदार को जिन्दा रहने देगा?

भीमसिंहजी साढ़े नौ बरस की उम्र में मेवाड़ की गद्दी पर बैठे| मेवाड़ राज्य की पूरी पंचायती चुण्डावतों हाथों में थी, चुण्डावतों और शक्तावतों के बीच अनबन चल रही थी सो शक्तावतों के पाटवी महाराज मोहकमसिंहजी रूठकर मिंडर जा बैठे| राज्य की पंचायती अर्जुनसिंहजी चुण्डावत के हाथ में रही| राणा भीमसिंहजी की सालगिरह आई| रामप्यारी ने मुसाहिबों को जाकर कहा- " हुजुर की सालगिरह आई है सो उसे मनाने के लिए धन का प्रबन्ध करो|"
मुसाहिब बोले- " धन का प्रबंध कहाँ से करें? खाजाना तो खाली पड़ा है|
रामप्यारी बोलने में जरा तेज थी गुस्सा होकर बोली- " धन का प्रबंध तो आपको करना पड़ेगा| प्रबंध नहीं कर सकते तो मुसाहिबी क्यों कर रहे हो? छोड़ दो इसे|
रामप्यारी की तीखी बात सुन एक मुसाहिब ने चिढ़ते हुए कहा- " हमसे तो रुपयों का प्रबंध नहीं होता,तूं करले|"
रामप्यारी बहुत बड़ी ज़बानदराज औरत थी बाईजीराज उसके कहने में ही चलते थे| झट से बोली -" आपके भरोसे मुसाहिबी नहीं पड़ी है| राज्य में काम करने वालों की कोई कमी नहीं| आप चुण्डावतों के जोर पर खा रहे हो| कह देना अर्जुनसिंहजी को हुजुर की वर्षगाँठ तो मनाई जाएगी वो धूम धाम से| रुपयों का इंतजाम तो आपको करना ही पड़ेगा| यदि आप लोगों से प्रधानी नहीं संभलती तो छोड़ दीजिये |"

जनाना ड्योढ़ी पर एक अलंकार सोमचंद गांधी रहता था उसने इस मौके का फायदा उठाने की सोची और रामप्यारी के पास जाकर बोला- " भुवाजी, अर्जुनसिंहजी को बाईजीराज बहुत काबिल समझते है| यदि प्रधानी मुझे दिलवा दें तो वर्षगाँठ मनाने में क्या है ? राज्य के सभी कार्य भली भांति सही तरीके से कर बताऊँ|"
रामप्यारी ने बाईजीराज किसी तरह मनाकर प्रधानी सोमचंद को दिलवा दी| सोमचंद ने झट से चुण्डावतों के खजांची से ही रूपये लाकर बाईजीराज के नजर किये|
सोमचंद ने राजनीती खेली| चुण्डावतों के विरोधियों को उसने अपने साथ मिला कर अपना पक्ष मजबूत कर लिया| कोटा के जालिमसिंहजी को भी अपने साथ मिला लिया| राणा जी को मिंडर साथ ले जाकर शक्तावतों के पाटवी महाराज मोहकमसिंहजी को मनाया जो वर्षों से मेवाड़ से रूठे बैठे थे| राणाजी खुद उन्हें मनाने गए तो वे राजी होकर उनके पीछे पीछे उदयपुर आ गए| अब प्रधानी मोहकमसिंह जी को सौंपी गयी| अब प्रधानी चुण्डावतों के हाथ से निकलकर सक्तावातों के हाथ में आ गयी| सोमचंद गाँधी और रामप्यारी की सलाह से राज्य कार्य चलने लगा| शक्तावतों के हाथ प्रधानी आते ही चुण्डावत अपने अपने ठिकानों पर चले गए| शक्तावतों ने चुण्डावतों को नुकसान पहुँचाने की सोची तो चुण्डावतों ने शक्तावतों को|

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राम प्यारी रो रसालो

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पिछले भाग से आगे.............
सोमचंद गाँधी होशियार था उसने सभी कार्यों पर काबू पा लिया| सोमचंद गाँधी और मोहकमसिंहजी शक्तावत ने विचार किया|
कि-" मेवाड़ के बहुत सारे परगनों को मराठों ने दबा रखा है जो अपनी इज्जत और धन दोनों के लिए घातक है| इन परगनों को वापस लेना चाहिये|"
बाईजीराज और राणा जी को भी यह बात पसंद आई| उन्होंने मराठों को राजस्थान से बाहर निकालने की तरकीब सोची| दुसरे रजवाड़ों से भी इस सम्बन्ध में विचार विमर्श किया| कोटा और जोधपुर के राजा इस हेतु सहमत हो गए| कोटा से फ़ौज लाने हेतु जालिमसिंहजी तैयार थे ही, जोधपुर के प्रधान ज्ञानमाल ने भी यह कार्य जल्द करने के लिए पत्र व्यवहार किया|

सब कार्य पुरे थे पर सोमचंद गाँधी एक विचार पर आकर अटक गया| चुण्डावत नाराज होकर अपने अपने ठिकानों में बैठे थे जब तक चुण्डावत साथ में नहीं मिले तब तक एक कदम भी आगे बढ़ना संभव नहीं,इस हेतु सोमचंद गाँधी ने चुण्डावतों को मनाने का भरसक प्रयास किया पर वे नहीं माने|
रामप्यारी बोली - "ये कार्य मुझे सौंपो| मैं जाती हूँ चुण्डावतों को मनाने| मेरा मन कहता है मैं उन्हें मनाकर उदयपुर के झंडे तले ले आवुंगी|"

रामप्यारी अपना रसाला ले चुण्डावतों के पाटवी ठिकाने सलुम्बर पहुंची और वहां उसने अपनी अक्ल का पूरा परिचय दिया| वह सलुम्बर के रावत भीमसिंहजी से मिली| चुण्डावतों की पीढ़ियों द्वारा मेवाड़ की की गयी सेवा की उन्हें याद दिलाई| चुण्डावतों की वीरता और मेवाड़ के लिए दिए उनके बलिदानों के पुरे इतिहास के पन्ने पलटे| वर्तमान में मेवाड़ की हो रही दुर्दशा का खाका खिंच कर उन्हें बताया| मराठों को राजस्थान से बाहर निकालने के बाद राजस्थान में होने वाली शांति व खुशहाली का पूरा चित्र उतार कर उनके सामने रखा| रामप्यारी ने रावत भीमसिंहजी को समझाया -
" इस वक्त आप मेवाड़ की जो सेवा करेंगे वह मेवाड़ की तवारीख में अमर रहेगी| आपके पूर्वज चुंडाजी ने ही इस राज्य (मेवाड़) को अपने हाथों सौंपा था| आप चुण्डावतों की पूरी पीढ़ियों ने अपने खून से इस मेवाड़ रूपी क्यारी को सींचा है| उस क्यारी को आज बाहर वाले रोंद रहे है तो चुंडाजी की औलाद उसे उजड़ते हुए अपनी आँखों से कैसे देख सकती है?"

रामप्यारी ने आपस की सभी गलतफहमियां दूर की| बाईजीराज की और से वादे किये और किसी तरह रामप्यारी रावत भीमसिंहजी को मनाकर उदयपुर ले आई| उनके आते ही बाकि आमेट,हमीरगढ़,भदेसर,कुराबड़ आदि के चुण्डावत सरदार भी पीछे पीछे अपने आप अपनी अपनी सैनिक टुकडियां लेकर आ गए| चुण्डावतों ने आकर किसन विलास में डेरा लगाया| उधर मोहकमसिंहजी कोटा जाकर वहां से पांच सैनिको की फ़ौज ले आये जिसने चंपा बाग़ में डेरा डाला|
कुछ नालायक लोग ऐसे भी थे जो सबका मेल देखना नहीं चाहते थे उन्होंने वापस फूट डालने हेतु चुण्डावतों को जाकर बहका दिया|
"अरे ! आप किसकी बातों में आ गए ? ये तो आपको फ़साने का चक्कर चल रहा है| शक्तावत कोटा से फ़ौज क्यों लाये है जानते हो ? धोखे से आपको मारेंगे|" साथ ही उन नालायकों ने अपनी बात सच साबित करने के लिए कितने ही सबूत व उदहारण दिए| बस फिर क्या था चुण्डावत आपे से बाहर हो गए और वापस जाने के लिए नंगारे पर चोट लगा दी| जांगड़ भी जोश में दोहे गाने लगे-

धन जा रे चूंडा धणी, भूपत भूजां मेवाड़,
करतां आटो जो करै, बड़कां हंदी वाड़ |

चुण्डावत तो उदयपुर से चल पड़े| सोमचंद को खबर लगी तो वह रामप्यारी को ले बाईजीराज की ड्योढ़ी पर गया| और अरज कराई -
"सारे किये पर पानी फिर गया है| चुण्डावतों को मनाने को अब आप खुद पधारो| माँ यदि अपने बेटों को मनाने जाए तो उसमे कोई बुरी बात नहीं |
बाईजीराज झालीजी ने उसी वक्त पीछे पीछे जाकर चुण्डावतों को रुकवाया|
रामप्यारी ने जाकर चुण्डावतों से कहा-" आपकी माँ आपके पीछे पीछे आई है| कभी माँ नाराज होवे तो बेटा माफ़ी मांग लेता है और बेटा नाराज होता है तो माँ माफ़ी मांग कर बेटे को मना लेती है| आप लोगों की माँ आई है आप उनके पास चलें| माँ बेटा मिलकर आपस में विश्वास की बाते करले| इसमें माँ की भी शोभा है और बेटों की भी|
ये सुन चुण्डावत सरदार बाईजीराज के पास आ गए| रामप्यारी बीच में थी ही बोली-" आप दूसरों की बातों में क्यों आते हो? यह गंगाजली ले एक दुसरे के मन का वहम दूर करलो|"

बाईजीराज ने गंगाजली हाथ में ले एकलिंगनाथ जी की कसम खायी कि -"आपके साथ कोई धोखा नहीं होगा|"
चुण्डावतों ने भी गंगाजली हाथ में उठा अपना धर्म निभाने की कसम खायी|
घर की फूट ख़त्म होते ही मेवाड़ी सेना ने जावर और निंबाड़े के इलाकों से मराठों को खदेड़ कर बाहर कर दिया|
ये समाचार पहुचंते ही मराठों ने भी लड़ने की तैयारी की| अहिल्याबाई ने अपनी फौजे भेजीं जो सिंधिया की सेना में आकर शामिल हुई| मंदसोर से सिवा नाना भी आकर उनके साथ मिला|
मराठों और मेवाड़ी फ़ौज के बीच जबरदस्त बरछों और तलवारों की जंग हुई| मेवाड़ ले काफी योद्धाओं ने वीरगति प्राप्त की| देलवाड़ा के राणा कल्याणसिंहजी बड़ी वीरता से लड़े| उनका पूरा शरीर घावों से भर गया| उनकी वीरता में कवियों ने बहुत दोहे लिखे जिनमे प्रसिद्ध एक दोहा है-
कल्ला हमल्ला थां किया,पोह उगंते सूर,
चढ़त हडक्या खाळ पै,नरां चढायो नूर|

प्रतिभा और गुण किसी के बाप के नहीं होते| किसी जात पर उनका कोई ठेका नहीं होता| रामप्यारी एक मामूली दासी थी पर मेवाड़ के बिगड़े हालातों में उसने अपनी समझदारी,होशियारी से बड़े बिगड़े काम बनाये| राज से रूठे कई लोगों को मनाकर रोका | मेवाड़ के इतिहास में रामप्यारी व रामप्यारी के रसाला का नाम हमेशा अमर रहेगा|



पद्म श्री डा.रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावतद्वारा राजस्थानी भाषा में लिखी कहानी का हिंदी अनुवाद|

राजा हनुवंतसिंह बिसेन, कालाकांकर

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Freedom fighter Raja Hanuwant Singh Bisen of Kalakankar


अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में कालाकांकर रियासत का भी अपना एक इतिहास है। अवध (जिला प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश) स्थित इसी रियासत में महात्मा गाँधी ने खुद विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। आजादी की लड़ाई के दौरान लोगों तक क्रांति की आवाज पहुंचाने के लिए हिन्दी अखबार ‘हिन्दोस्थान’ कालाकांकर से ही निकाला गया था। इसमें आजादी की लड़ाई और अंग्रेजों के अत्याचार से संबंधित खबरों को प्रकाशित कर लोगों को जगाने का काम शुरू हुआ। इस तरह यहां की धरती ने स्वतंत्रता की लड़ाई में पत्रकारिता के इतिहास को स्वर्णिम अक्षरों में लिखा। अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल यहाँ के राजा हनवंतसिंह बिसेन ने बजाया था।

राजा हनवंतसिंह राजा बैरिसाल की विधवा रानी द्वारा गोद लेने के बाद 1826 में कालाकांकर रियासत की गद्दी पर बैठे। राजा हनवंतसिंह ने 1844 में गंगा के किनारे किला बनवाया। 1853 में अंग्रेजों ने धारुपुर और कालाकांकर के किलों को जब्त कर उनकी रियासत के कई क्षेत्र छीनकर सीधे अपने नियंत्रण में ले लिये। लेकिन 1857 में राजा हनवंतसिंह कालाकांकर किला व अन्य संपत्तियां वापस लेने में सफल रहे। 1849 में अवध के राजा वाजिद अली शाह ने राजा हनवंतसिंह को राजा का खिताब प्रदान किया था। सन 1857 में राजा हनवंतसिंह ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष करने के लिए अपने बड़े पुत्र राजकुमार लाल साहब प्रताप सिंह के नेतृत्व में 1000 सैनिकों की एक बटालियन बनाई और इसी बटालियन का नेतृत्व करते 19 फरवरी 1858 को इतिहास प्रसिद्ध चांदा के युद्ध में कॉलिन कैम्पबेल के नेतृत्व वाली अंग्रेजी फौजों से लोहा लेते हुए राजकुमार प्रताप सिंह शहीद हो गये।

शरण में आये अंग्रेजों की सहायता
राजा हनवंतसिंह के कई क्षेत्र अंग्रेजों ने छीन लिए थे। वे अंग्रेजों से दो दो हाथ को करने के लिए सैन्य तैयारी भी कर रहे थे। तभी 1857 की क्रांति के चलते कानपुर, लखनऊ, झाँसी और इलाहाबाद आदि स्थानों पर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झन्डा बुलन्द हो चुका था। जगह जगह अंग्रेज अधिकारी क्रांतिकारियों के निशाने पर थे। अतः उस क्षेत्र के कुछ अंग्रेज अधिकारी अपने परिवारों सहित राजा हनुवंतसिंह की शरण में आये। राजा ने अतिथि धर्म का निर्वाह करते हुए उन्हें शरण दी, रहने खाने व सुरक्षा का इंतजाम किया। कुछ दिन बाद जब माहौल जब कुछ शांत हुआ तब अंग्रेज अधिकारीयों ने उन्हें इलाहाबाद तक पहुँचाने की व्यवस्था करने का आग्रह किया। राजा ने उनके लिए नावों का इंतजाम किया। नाव चलने से पहले एक अंग्रेज अधिकारी ने राजा का आभार व्यक्त करते हुए बगावत को कुचलने में सहायता की अपील की। बस फिर क्या था। राजा हनवंतसिंह को गुस्सा आ गया और वे तनकर खड़े हो बोलने लगे- ‘‘तुम लोगों ने मुसीबत में मेरे यहाँ शरण मांगी। मैंने अतिथि धर्म व शरणागत की रक्षा को क्षात्र धर्म समझते हुए तुम्हें शरण दी, तुम्हारी सुरक्षा की। यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरे क्षत्रित्व पर दाग लगता। पर याद रखो ! तुम लोगों ने मेरा राज्य छीना है, मेरे देश के नागरिकों को गुलाम बनाने की कोशिश की है। तुम इलाहाबाद पहुँचो, मैं भी अपनी सेना लेकर तुमसे रणभूमि में दो दो हाथ करने को पहुँचता हूँ. यही मेरा राजपूती धर्म है। उनके वचन सुन अंग्रेज अधिकारी हतप्रद रह गये। तभी गंगा मैया की जय बोलते हुए नाविकों ने नाव इलाहाबाद की ओर रवाना कर दी। इस प्रकार राजा हनवंतसिंह ने अंग्रेज अधिकारीयों को उच्च क्षत्रिय आदर्शों के दर्शन करवा कर उनकी आत्मा को भी शर्मिंदा कर दिया था।

राजा हनवंतसिंह ने अंग्रेजों के साथ संघर्ष जारी रखा। इस संघर्ष में उनके बड़े पुत्र के साथ उनके भाई ने भी मातृभूमि की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। ‘‘स्वतंत्रता समर के क्रांतिकारी यौद्धा’’ पुस्तक के अनुसार- ‘‘अंग्रेजों ने इनके ठिकाने को जब्त कर लिया। बाद में हनवंतसिंह सुल्तानपुर के चांदा की लड़ाई में कर्नल राबर्टसन से घमासान युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।’’ 30 जून 1881 को मातृभूमि के लिए शहीद होने के बाद राजकुमार प्रताप सिंह के पुत्र राजा रामपालसिंह कालाकांकर की गद्दी पर विराजे।

राजा हनवंतसिंह द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ शुरू की मुहीम को उनके वंशजों ने जारी रखा। आजादी के लिए जनजागरण हेतु राजा रामपाल सिंह ने ‘हिन्दोस्थान’ नामक हिन्दी अखबार निकाला। 14 नवम्बर 1929 को महात्मा गांधी कालाकांकर आये थे और उन्होंने कालाकांकर नरेश राजा अवधेश सिंह के साथ विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। विदेशी कपड़ों की होली जलाने के दूसरे दिन गांधीजी ने राजभवन पर तिरंगा फहराया था। उस स्थल पर आज भी 14 नवम्बर को मेला लगता है। राजा अवधेशसिंह के बाद राजा दिनेश सिंह ने भी आजादी के पहले व बाद में देश के नवनिर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी की लड़ाई हेतु राजा दिनेशसिंह ने ‘‘राउंड द टेबल’’ नामक अंग्रेजी अखबार निकाला था व आजादी के बाद केंद्र सरकार के कई महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों में मंत्री रहे।

हठीलो राजस्थान-22

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सिर देणों रण खेत में,
स्याम धर्म हित चाह |
सुत देणों मुख मौत में,
इण धर रुड़ी राह ||१३०||

रण-क्षेत्र में अपना मस्तक अर्पित करना,स्वामी का हमेशा हित चिंतन करना व अपने पुत्रों को भी स्वधर्म पालन के लिए मौत के मुंह में धकेल देना इस राजस्थान की पावन धरती की परम्परा रही है |

खग बावै भड एक हथ,
बिजै हथ निज माथ |
सिव धण पूछे पीव नै ,
किसो सराउं हाथ ||१३१||

योद्धा एक हाथ से तलवार बजा रहा है तथा दुसरे हाथ में उसका कटा हुआ मस्तक है | इस अदभुत दृश्य को देखकर पार्वती ने शिव से पूछा - हे प्रियतम ! कहो इनमे से किस हाथ को सराहा जाए ? |

सीस मंगायो सायाधण,
चिता चढ़ण एक साथ |
खग राखी निज हाथ में,
सिर भेज्यो चर हाथ ||१३२||

युद्ध में पति की मृत्यु सुनकर वीरांगना ने सहमरण हेतु उसका सिर मंगवाया | उधर युद्ध-क्षेत्र में पति जीवित था तथापि, अपनी वीर पत्नी का मनोरथ पूर्ण करने के हेतु उस वीर ने अपना मस्तक काट कर सेवक के साथ भेज दिया ||

फेरां सुणी पुकार जद,
धाडी धन ले जाय |
आधा फेरा इण धरा ,
आधा सुरगां खाय ||१३३ ||

उस वीर ने फेरे लेते हुए ही सुना कि दस्यु एक अबला का पशुधन बलात हरण कर ले जा रहे है | यह सुनते ही वह आधे फेरों के बीच ही उठ खड़ा हुआ और तथा पशुधन की रक्षा करते हुए वीर-गति को प्राप्त हुआ | यों उस वीर ने आधे फेरे यहाँ व शेष स्वर्ग में पूरे किये |
सन्दर्भ कथा पढने के लिएयहाँ चटकालगाएं

हेलो चंवरी सांभल्यो,
कंवरी, बात बताय |
पंवरी काटी गाँठ चट,
चढियो भंवरी आय ||१३४||

जैसे ही वह वीर (पाबूजी ) विवाह मंडप में अपने विवाह हेतु बैठा था | उसी समय उन्होंने घोड़ी की हिनहिनाहट सुनी (हेलो) हिनहिनाहट का तात्पर्य समझकर विपत्ति के विषय में वधु (कंवरी)को बताया व गठ्जोड़े की गाँठ को तलवार से काटकर युद्ध के लिए घोड़ी पर जा चढ़ा |

इण ओसर परणी नहीं ,
अजको जुंझ्यो आय |
सखी सजावो साज सह,
सुरगां परणू जाय ||१३५ ||

शत्रु जूझने के लिए चढ़ आया | अत: इस अवसर तो विवाह सम्पूर्ण नहीं हो सका | हे सखी ! तुम सती होने का सब साज सजाओ ताकि मैं स्वर्ग में जाकर अपने पति का वरण कर लूँ |
सन्दर्भ कथा पढने के लिएयहाँ चटकालगाएं

स्व.आयुवानसिंह शेखावत



हठीलो राजस्थान-23

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दो-दो लंगर पाँव में,
माथै दो दो मोड़ |
दो दो खग धारण कियां,
रण- लाडो बेजोड़ ||१३६||

यह अनूठा शूरवीर जिसके पांवों में दो दो कड़े है, सिर पर दो दो सेहरे है व अपने दोनों हाथों में खड्ग धारण कर रखे है,वह युद्ध क्षेत्रों में लड़ता हुआ अदभुत दुल्हे के समान शोभायमान हो रहा है (दो सेहरे इसलिए कि वीर विवाह मंडप से सीधा रण-क्षेत्र में जाते समय अपनी भावी पत्नी का सेहरा भी स्मृति स्वरुप साथ ले जाता है) |

सिर बांधे दो सेहरा,
करां दोय करवार |
दीधा भड नै क्यूँ कहो,
सिर एक थूं करतार ||१३७||

उपरोक्त वीर के सम्बन्ध में कवि भगवान् से कहता है कि- इसने दो सेहरे बाँध रखे है,हाथों से दो तलवारें चला रहा है ,फिर तूने इसको एक ही मस्तक क्यों दिया ? |

सर कटियाँ रिपु काटणा,
निज वचनां अनुराग |
कोर अंगरखे पूंछणी,
म्यान करन्तां खाग ||१३८||

सच्चे शूरवीर अपने वचन की रक्षा करते हुए सर कटने पर के बाद भी शत्रु को काटते चले जाते है व अपनी रक्त रंजित तलवार से शत्रु को समाप्त कर उसे म्यान में रखने से पूर्व अंगरखे से साफ़ करते है |

कटियाँ पहलां कोड सूं,
गाथ सुनी निज आय |
जिण विध कवि जतावियो,
उण विध कटियो जाय ||१३९||

वीर कल्ला रायमलोत ने युद्ध-क्षेत्र में जाने से पूर्व कवि से कहा कि -आप मेरे लिए युद्ध का पूर्व वर्णन करो ,ताकि मैं उसी अनुसार युद्ध कर सकूँ |
और उसने कवि द्वारा अपने लिए वर्णित शौर्य गाथा चाव से सुनी और जैसे कवि ने उसके लिए युद्ध कौशल का वर्णन किया था,उस शूरवीर ने उसी भाँती असि-धारा का आलिंगन करते हुए वीर-गति प्राप्त की |

पट केसरिया मोड़ सिर,
छोड़ी जीवण आस |
सधवा विधवा भेस दो ,
भेज्या निज धण पास ||१४०||

रण-भूमि में सेहरा बाँध कर केसरिया करने वाले शूरवीर ने जीवन की आशा समाप्त हो जाने के पर,अपनी पत्नी के पास भिन्न प्रकार की दो पौशाकें भिजवाई -यह कहलाते हुए कि यदि सती होना चाहो तो तो सधवा तथा जीवित रहना चाहो तो विधवा वेश धारण करो |

सखी रंगावो चुन्दडी,
श्रीफल लावो साज |
पिव लीधो रण रो बरत,
कीधो मोसर आज ||१४१||

वीरांगना कहती है ,कि हे सखी ! मेरे लिए चुन्दडी रंगवाओ तथा श्रीफल थाल में सजाकर लाओ | क्योंकि मेरे प्रियतम ने आज रण मेंशाकाकरने का व्रत लिया है | मेरे लिए यह कैसा सुअवसर उपस्थित हुआ है | अर्थात मैं जौहरव्रत लेकर स्वर्ग का वरण करुँगी |
लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत

हठीलो राजस्थान-24

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रण तज घव चांटो करै,
झेली झाटी एम ||
डाटी दे , धण सिर दियो,
काटी बेडी प्रेम ||१४२||

कायर पति रण-क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ | इस पर उसकी वीर पत्नी ने उसे घर में न घुसने देने के लिए किवाड़ बंद कर दिए तथा पहले तो पति को कायरता के लिए धिक्कारा व बाद में अपना सिर काट कर पति को दे दिया | इस प्रकार उस कायर पति के साथ जो प्रेम की बेड़ियाँ पड़ी हुई थी उनको उस वीरांगना ने हमेशा के लिए काट दिया |

रण लाडो बण भड खडो,
सह गण भेज्या ईस |
रिपु धण भेजी राखडी,
निज धण भेज्यो सीस ||१४३||

युद्ध क्षेत्र में जाने के लिए शूरवीर दुल्हे के समान सज कर खड़ा हुआ है | भगवान शिव ने अपने समस्त गणों को उसका युद्ध कौशल देखने के लिए भेजा | शत्रु की पत्नी ने उसे मोह पाश में फंसाने के उद्देश्य से मंगल सूत्र भेजा | और उसकी खुद की पत्नी ने पति को मोह पाश से मुक्त करने के लिए अपना सिर काट कर पति के पास के भिजवा दिया |

काटण मारग अरि कटक,
खाटक खडियो खेंट |
हाटक थालां रींझ धण,
भेज्यो माथो भेंट ||१४४||

शत्रु की सेना को अपनी तलवार से चीरते हुए उस वीर ने उसी के बीच अपना मार्ग बना लिया | उसकी इस अदभुत वीरता पर रींझकर वीरांगना (पत्नी) ने अपना मस्तक काटकर सोने के थाल में उसके पास भेंट स्वरुप भेज दिया |

बाँधी पाल कुल काण री,
प्रण बांध्यो ,मन टीस |
सिर बांध्यो जस सेहरो,
उर बंध्यो धण सीस ||१४५||

शूरवीर कुल मर्यादा की परम्परा को रक्षित कर ऐसे शोभायमान हो रहा था जैसे सिर पर सेहरा बाँध रखा हो | कर्तव्य पालन के लिए हृदय में उत्पन्न होने वाली पीड़ा व उसकी दृढ प्रतिज्ञा ऐसे शोभायमान हो रही थी जैसे उसने अपनी पत्नी के काट कर दिए हुए मस्तक को बाँध कर हृदय पर लटका लिया हो |

मुण्ड कट्यां भी रुण्ड लडै,
खग बावै कर रीस |
मग्ग दिखावै मोड़ सूँ,
उर बंधियो धण-सीस ||१४६||

मस्तक कट जाने के बाद भी उस वीर का कबंध क्रुद्ध होकर तलवार बजा रहा है | उसकी वीर पत्नी का कटा हुआ मस्तक ,जो उसने गले में बाँध रखा है ,उसे चाव से मार्ग दिखाता जा रहा है |

हूँ लाजूं रण भाजता,
लाजै इण धर माथ |
चूड़ो धण ,पय मात रो,
लाजै हेकण साथ ||१४७||

युद्ध क्षेत्र से भागने पर न केवल मैं लज्जित होता हूँ बल्कि इस धरती का मस्तक भी लज्जा से झुक जाता है | इतना ही नहीं ,पत्नी का चूड़ा व माता का दूध भी एक साथ लज्जित होता है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत


हठीलो राजस्थान-25

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भाज्यां भाकर लाजसी,
लाजै कुल री लाज |
सिर ऊँचौ अनमी सदा,
आबू लाजै आज ||१४८||

यदि मैं युद्ध क्षेत्र से पलायन करूँ तो गौरव से ही जो ऊँचे हुए है वे पर्वत भी लज्जित होंगे व साथ ही मेरी कुल मर्यादा भी लज्जित होगी | यही नहीं,सदा गौरव से जिसका मस्तक ऊँचा रहा है एसा आबू पर्वत भी मेरे पलायन को देखकर लज्जित होगा |

रण चालू सुत भागियौ,
घावां लथपथ थाय |
मायड़ हाँचल बाढीया,
धण चूड़ो चटकाय ||१४९||

रण-क्षेत्र से घावों से घायल होकर भाग आए अपने पुत्र को देखकर वीर-माता ने लज्जित हो अपने स्तन काट डाले ,तथा उसकी वीर पत्नी ने अपनी चूडियाँ चटक (तोड़) दी |

भाजण पूत बुलावियो,
दूध दिखावण पाण |
छोड़ी हाँचल धार इक,
भाट गयो पाखाण ||१५०||

युद्ध क्षेत्र से भागने वाले अपने पुत्र को माता ने अपने दूध का पराक्रम दिखाने के लिए बुलाया और अपने स्तनों से दूध की धार पत्थर पर छोड़ी तो वह भी फट गया |

जण मत जोड़ो जगत में,
दीन-हीन अपहाज |
जोधा भड जुंझार जण,
करज चुकावण काज ||१५१||

हे माता ! तू जगत में दीन-हीन और विकलांग संतानों को जन्म मत दे | यदि जन्म देना ही है तो वीर योद्धाओं को,सिर कटने के बाद भी लड़ने वालों को जो तेरे मातृत्व के ऋण को चूका सके |

गोरी पूजै तप करै,
वर मांगे नित बाल |
बेटो सूर सिरोमणि,
बेटी बंस उजाल ||१५२||

वीर ललना गौरी की अर्चना और तप करती हुई नित्य यही वरदान मांगती है कि उसका बेटा शूरों में शिरोमणि हो तथा उसकी पुत्री वंश को उज्जवल करने वाले हो |

नह पूछै गिरहा दशा,
पूछै नह सुत बाण |
मां पूछै ओ व्यास जी,
अडसी कद आ रांण ||१५३||

वीरांगना ज्योतिषी से न तो ग्रह-दशा के बारे में पूछती है न पुत्र की आदतों के बारे में , बल्कि वह तो यही पूछती है कि हे व्यास जी ! मेरा पुत्र रण-भूमि में शत्रुओं से कब भिड़ेगा ? |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

हठीलो राजस्थान-26

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जौहर ढिग सुत आवियो,
माँ बोली कर प्रीत |
लड़णों मरणों मारणों,
रजवट रुड़ी रीत ? ||१५४||

जौहर में जलती हुई माँ के सम्मुख जब वीर पुत्र आया तो वह बड़े प्रेम से बोली - हे पुत्र ! युद्ध में लड़ना और मरना-मारना; यही राजपूतों की अनोखी परम्परा है ; इसे निवाहना |

बैरी लख घर बारणे,
करवा तीखी मार |
सुत मांगै निज मात सूं,
न्हांनी सी तरवार ||१५५||

शत्रु को अपने घर के दरवाजे पर आया हुआ जानकार उस पर तीक्षण प्रहार करने हेतु अल्प व्यस्क वीर पुत्र भी अपनी मां से नन्ही सी तलवार मांग रहा है |

रेत रमेकड़ नह रमूं ,
दादा दो दूनाल |
मामोसा मगवाय दो ,
तीखी सी तरवार ||१५६||

वीर बालक कहता है - मैं रेत में नहीं खेलूँगा | हे दादा जी ! मुझे तो आप दो नाल वाली बन्दुक मंगवा दो और मामाजी आप ! मुझे एक तीखी सी तलवार मंगवा दो |

अरि मारण आराण में,
धायो सह परिवार |
गीगो धायो गोर सूं ,
भीगो दूधां धार ||१५७||

शत्रु को मारने के लिए समस्त परिवार युद्ध-क्षेत्र की और चल पड़ा | उसको जाता देख कर क्षत्राणी के गोद का बच्चा भी युद्ध में जाने के लिए गोद से उछल पड़ा, बालक में ऐसे शौर्य को देखकर उसकी मां के स्तनों से दूध की धारा बह चली जिससे गोद का बालक भीग गया |

हठ करतो हाँचल पकड़,
लुक छिप खातो गार |
मायड़ फूलै देख मन,
उण हाथां तरवार ||१५८||

जो बालक कभी बालोचित चपलतावश मां का आँचल पकड़ कर हठ करता था तथा छुप-छुप कर मिटटी खाता था ,आज उसी बच्चे के हाथ में तलवार देखकर मां फूले नहीं समा रही |

दरवाजै मायड़ कटी ,
बापू टूका-टूक |
तिपडै सुत तंडुकियो,
बैरी टाक बन्दूक ||१५९||

द्वार पर युद्ध करती हुई माता ने वीर गति पाई और पिता के शरीर के भी टुकड़े टुकड़े हो गए | इस पर उसका वीर पुत्र तत्काल ललकारता हुआ निकला और शत्रु को अपनी बन्दूक का निशाना बना दिया |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

हठीलो राजस्थान-27

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ठाणा लीलो ठणकियो,
सुण बैरी ललकार |
सुत धायो ले सैलड़ो,
धव खींची तरवार ||१६०||

शत्रु की ललकार सुन कर अस्तबल में बंधा हुआ घोडा भी हिनहिना उठा | उधर,वीर पुत्र अपना भाला लेकर (शत्रु पर आक्रमण करने) दौड़ा और उधर वीर-पति ने म्यान से तलवार सूंत ली |

पग चंगों लख पूत नै,
भीगौ काजल नैण |
करवालां पग काटियौ,
समझी मायड़ सैण ||१६१||

दुर्गादास राठौड़ की माता ने पुत्र के सुदृढ़ पैरों को (भागने में तेज) देखकर व्याकुल हो गई व उसकी आँखों में आंसू आ गए | यह देख वीर दुर्गादास ने तलवार से अपना पैर काट लिया | दुर्गादास ने एसा क्यों किया, माता इस इशारे को समझ गई |

गिधण डुलावै बीजणों,
समली सिर सहलाय |
पूत अच-पलो पौढियो,
पैडां थप्पी पाय ||१६२||

चंचल पुत्र युद्ध-क्षेत्र में लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त होकर निशंक हो शयन कर रहा है | युद्ध समाप्त होने के उपरांत गिद्धनी उड़कर उसके पास आती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानों वह अपने पंखों से वीर को पंखा झल रही है व सिर पर बैठी हुई चील उसके मस्तक को सहलाती प्रतीत होती है |

सुत जायो सत मासयो,
मां हरखी नह लेस |
बरस सातवें रण मुवो,
हरखी आज विसेस ||१६३||

मां के गर्भ से जब सतमासा पुत्र पैदा हुआ तो उसे रंच मात्र भी प्रसन्नता नहीं हुई किन्तु सात वर्ष का होने पर जब उसका पुत्र युद्ध क्षेत्र में युद्ध करता हुआ मारा गया तो उसे आज विशेष प्रसन्नता है |

कुण दुसमण इण देस रो,
कुण लीवी धर खोस |
नान्हों पूछै मात नै ,
बार बार कर रोस ||१६४||

नन्हां बालक क्रुद्ध होकर बार-बार मां से यही प्रश्न पूछता है कि- हे मां ! बता हमारे देश का शत्रु कौन है तथा किसने हमारी धरती छिनी है ? |

सुत छोटो खोटो घणों ,
बोलै निरभै बैण |
नाम चहै निज शत्रुवां,
कर कर राता नैण ||१६५||

यधपि पुत्र छोटा है और नटखट भी बहुत है किन्तु वह वीरों के से निर्भय वचन बोलता है | वह नित्य सरोष नेत्रों से रह-रह कर अपने बैरियों के नाम पूछता है ताकि उन्हें मारकर अपने पिता के बैर का बदला ले |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

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