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एक वीर जो शादी की रस्में अधूरी छोड़ मातृभूमि के लिए शहीद हो गया

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Bhairon Singh Raotot of Bajava Village

रेवाड़ी के पास माण्डण नामक स्थान पर शाही सेनाधिकारी राव मित्रसेन अहीर कई मुस्लिम सेनापतियों के साथ विशाल शाही सेना लिए शेखावाटी प्रदेश की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए तैयार खड़ा था तो शेखावाटी-प्रदेश के शेखावत वीर भी अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षार्थ उसके सामने आ डटे| शेखावत सेना को सहयोग देने के लिए जयपुर की कछवाह सेना व भरतपुर की जाट सेना भी हथियारों से सुसज्जित होकर शाही सेना के खिलाफ आ चुकी थी|

इसी समय झुंझुनू परगने के बजावा ग्राम का निवासी एक नवयुवक भैरूंसिंह "रावत का" भुवांणा ग्राम में तंवरों के यहां विवाह करने गया हुआ था। विवाह करके लौटने पर अपने गांव की सीमा पर पहुंचते ही उसे मालूम हुआ कि उसके गांव के समस्त सक्षम-राजपूत योद्धा शाही सेना से युद्ध करने सिंघाणां जाकर शेखावत सेना में शामिल हो चुके हैं। जन्मजात शौर्य और स्वाभिमान से गर्वित वह नवयुवक युद्ध के मैदान में अपने सहजातियों से पीछे कैसे रह सकता था। वधू को बरातियों के साथ ग्राम सीमा पर ही छोड़कर दुल्हे के रूप में सजा सजाया वह वीर युद्ध में शामिल होने चल पड़ा। नव परणीता (नववधु) राजपूत बाला तंवर जी अकेली ने ही स्वसुर गृह में प्रवेश किया। विवाह के अवसर पर गृह प्रवेश के समय सम्पादन किये जाने वाले पैसारा आदि माँगलिक कार्य अधूरे ही रह गये।

6 जून, 1775 ई. शाही सेना व शेखावत सेना के मध्य भीषण युद्ध हुआ| अपने वीर साथियों की भांति भैरूंसिंह भी वीरता से लड़ता हुआ माण्डण के रणक्षेत्र में शहीद हुआ। मृत योद्धा की पाग (पगड़ी) लेकर सांडनी (ऊंटनी) सवार बजावा पहुँचा। पति के सकुशल घर लौटने की प्रतीक्षा में देवता-मनाती वीर पत्नी तंवरजी पर वज्राघात हुआ। किन्तु अपने पति की पाग के साथ चितारोहण करके क्षात्र धर्म के कठोर किन्तु महान् उच्च कर्तव्य का पालन किया। उन बलिदानी वीर बेटी और बेटियों की बदोलत ही राजस्थान का नाम भारतीय इतिहास में अमर है। तभी तो कवि ने मुक्तकण्ठ से कहा है

रजपूतां जामण दहुं रूड़ा कळू कीच मांहै न कळै।
बिजडाँ-धार लडै़ चढ़ बेटा बेटी काठाँ चढे बळै ।

माण्डण युद्ध के झुंझार भैरूसिंह की सती पत्नी के दाह स्थान पर बजावा में स्मारक के रूप में छत्री बनी हुई है। बजावा ग्राम के राजपूतों में तभी से पैसारा आदि वैवाहिक मांगलिक कृत्य जो नववधू के श्वसुर गृह प्रवेश के समय किये जाते हैं- वंर्जित हैं। विवाह करके लौटने पर वहाँ के वर-वधू सती की छत्री पर जाकर अपनी श्रृद्धा के सुमन चढ़ाते हैं।

रावतोत अथवा रावत का राजपूत कछवाहों की कुम्भावत शाखा की एक उपशाखा में हैं। आमेर (जयपुर) के राजा चन्द्रसेनजी के छोटे पुत्र कुम्भाजी से कछवाहों की कुम्भावत शाखा का उद्गम हुआ। उनका मुख्य पाटवी ठिकाना महार था। महार के राव रावतराम से कुम्भावतों की रावतोत अथवा रावत का उपशाखा का विकास हुआ। बिसाऊ के ठा. केशरीसिंह के सम्पर्क से इस खानदान के राजपूत बजावा में आ बसे थे। ऐसा भी कहा जाता है कि कुम्भाजी को रावत का खिताब था इसलिये उनके वंशज रावत का अथवा रावतोत कहलाये। जैसे कि शेखावतों में राव त्रिमल के वंशज रावजी का कहलाते हैं।

ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत द्वारा लिखित पुस्तक "माण्डण युद्ध" से साभार

mandan yuddh ke shahid, mandan yuddh

अपने विरोधी के प्रति ऐसा सद्भाव एक सामंत ही रख सकता है

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यह एक विडम्बना ही कहिये कि महाराजा बीकानेर सर गंगासिंह और व्यासजी (Jai Narayan Vyas)एक-दूसरे के जन्मजात शत्रु माने जाते थे परन्तु जब सर गंगासिंह को यह मालूम पड़ा कि व्यासजी की बम्बई में आर्थिक स्थिति अति नाजुक है और वे फिल्म लाइन में जाने की सोच रहे हैं तो उन्हें बड़ा सदमा पहुँचा। उस वक्त व्यासजी पर (1937) जोधपुर में प्रवेश करने की पाबन्दी लगी हुई थी। राज्य ने उन्हें रियासत से निष्कासित कर दिया था|

Bikaner Maharaja Ganga Singh ji ने जोधपुर के मुख्य सचिव सर डोनाल्ड फील्ड को जो पत्र (अंग्रेजी में) लिखा था उसके कतिपय महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी अनुवाद यहाँ उद्धृत है. यह पत्र प्राप्त कर आप आश्चर्य करेंगे। यह ऐसे व्यक्ति की ओर से है जो कि देशी रियासतों और उसकी जनता के शुभचिन्तकों द्वारा हमेंशा अव्यावहारिक, निरंकुश तथा बुरा बताया गया है।

ऐतिहासिक पत्र
मैं इस पत्र से एक ऐसे व्यक्ति के बारे में, जो कि देशी राजाओं के विरुद्ध जनमत तैयार करने में सबसे अधिक तेज और आग के शोले की तरह उद्दड है, अपनी राय आप तक पहुँचाने का इरादा रखता हूँ। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ जनजीवन में असहिष्णुता की पराकाष्ठा हो चुकी है। ऐसी सूरत में सम्भवत: श्री जयनारायण व्यास इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि उनके विरोधियों में भी उन जैसी देशभक्ति व लगन हो सकती है। बहुत कम राजनीतिज्ञ मेरी इस बात पर यकीन करेंगे कि जयनारायण व्यास और उनके साथियों द्वारा आमतौर से राजाशाही और खासतौर से मेरे विरुद्ध अनर्गल तथा भावावेश से प्रभावित द्वेषपूर्ण प्रचार के बाद भी मैं लगातार व्यासजी के बारे में बहुत ऊँची राय रखता हूँ।

इन लोगों ने अक्सर राजाओं को विवेकहीन, हृदयहीन, निरंकुश और दमनकारी बताते हुए बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहने की पराकाष्ठा की है। यहाँ तक कि राजाओं को जनता का खून चूसने वाला, संसार भर के अपराधियों और दोषियों में सबसे अधिक गन्दा और बेईमान बताया है। कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो कि रियासती हालचाल और यहां के वातावरण से अच्छी तरह परिचित है, वह इस तरह से घृणास्पद और अनर्गल प्रचार की सचाई में विश्वास नहीं करेगा। लेकिन वे जो संयुक्त विशाल भारत की तरक्की की ओर अपने उद्देश्यों की पूर्ति में अग्रसर होता हुआ देखना चाहते हैं, अनुभव करेंगे कि देशी रियासतों का भविष्य उन लोगों के चरित्र पर बहुत कुछ निर्भर करता हैं जो कि इस क्षेत्र के राजनीतिक जनजीवन पर आज हावी हैं।

मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि राजाशाही के ये शानदार सैलून और साम्राज्यवादी शासन की ऊँची इमारतें आज के इन जनसेवकों को खत्म नहीं कर सकेंगी बल्कि सैकड़ों साल पुरानी ये सरकारें उनके कन्धों पर आकर रुकेगी और उनसे इन्साफ की भीख माँगेंगी। साम्यवादी रूस में हाल में घटित अराजकता-पूर्ण भयानक घटनाएँ दुनिया को चेतावनी देने के लिए काफी हैं। मैं यह यकीन करता हूँ कि आप भी उन घटनाओं का देशी रियासतों में घटित होना पसन्द नहीं करेंगे। यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि रजवाड़ों का जनमत देशभक्त और समझदार व्यक्तियों से प्रभावित हो और वे आगे आकर शान्तिमय, न्यायपूर्ण वैद्य उपायों से यहाँ की जनता के हितों को अग्रसर करें। वहाँ की प्रशासनिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अभी से ऐसे व्यक्तियों का सहयोग लिया जाय। देशी राज्यों में, जैसा आप भी जानते होंगे, बहुत से अल्पस्वार्थ असन्तुष्ट और असंगत नेता भी आगे आये हैं। ऐसे तथाकथित राजनीतिज्ञ अक्सर देशी रियासतों की राजनीति को अपने हाथ में लेने की कोशिश करते हुए रियासतों से देश निकाले की सजा पाये हुए हैं अथवा जेल भी भेजे गये। और जो पूर्णतया नहीं तो खासतौर से राजाओं और उनके शासन के प्रति द्वेष भावना रखते हैं।

नि:सन्देह जयनारायण व्यास राजाशही की आलोचना करने में पीछे नहीं रहे हैं लेकिन वे पक्के ईमानदार हैं। उनको कोई भ्रष्ट नहीं कह सकता। वे अपनी राजनीतिक मान्यताओं और आत्मा के प्रति सत्यनिष्ठ हैं। हजारों धोखेबाज, चरित्रहीन और बेईमान किराये के ऐसे टट्टुओं के होते हुए, जो कि अपने आपको भले ही राजनीति विशारद कहते हों और देशी रजवाड़ों की भोली जनता को बहकाये रहते हैं, आप मुश्किल से ही किसी को व्यासजी जैसा पवित्र पायेंगे जो राजाओं के प्रति जन्मजात घृणा और दुर्भावना रखते हुए भी ईमानदार हों और देशी रियासतों का शासन ठीक तरह से चलाकर भलाई करने की क्षमता रखता हो।

मैं आशा करता हूँ कि आप मुझ से सहमत होंगे कि रियासतों की हुकुमतें, जिन की आज हम देखभाल करते हैं, अन्ततः हमारे इन दुश्मनों के हाथों में जाकर रुकेंगी| ऐसी स्थिति में हमारा यह कर्तव्य है कि हम यह ध्यान रखें कि विरोधी खेमों में से भले आदमी आगे आयें और जब हम हटें तो शासन की बागडोर वे सम्भालें। सिर्फ जयनारायण व्यास ही ऐसे आदमी हैं जो अपने हजारों साथियों पर अपने ऊच्च आदर्शों का असर रखते हैं और राजपूताने के सभी वर्गों में जिनका सम्मान है| वे हम से सहमत हों या न हों लेकिन उनमें जिम्मेदारी का निश्चय ही मादा है| जिसके ऊपर उनकी न्यायप्रियता पर भरोसा किया जा सकता है। आप और आपके दूसरे साथी मारवाड़ राज्य को खतरनाक स्थिति में डालना नहीं चाहते होंगे, महसूस करेंगे कि जयनारायण व्यास जैसे व्यक्तियों की वहाँ की जनता को सम्भालने की उस समय आवश्यकता होगी जब आप लोग प्रशासन में नहीं रहेंगे | इस वक्त तथ्यों के आधार पर मैं आप से निवेदन करता हूँ कि आप अपने बुरे से बुरे दुश्मन के प्रति न्याय भावना रखेंगे। उस दुश्मन के प्रति नहीं और न ही उसके साथियों के प्रति किन्तु जिस क्षेत्र का आज आप शासन चला रहे हैं उसकी शान्ति और सुरक्षा के लिए आप को यह करना चाहिये।

श्री जयनारायण व्यास, जैसा कि आप भी जानते होंगे, एक गरीब घर में पैदा हुए हैं और इसीलिए हमेशा आर्थिक दिक्कतों में से गुजरे हैं। अपने कई दूसरे साथियों और हमराहियों की तरह ब्लेकमेलिंग अथवा अनीति से आर्थिक लाभ उठाने में विश्वास नहीं करते। उनका दुर्भाग्य है कि उनके अच्छे मित्र भी, जिनका वे पूर्ण विश्वास कर लेते हैं, उनके साथ धोखा कर सकते हैं। वे इतने सीधे हैं कि इन धोखों को अवश्यम्भावी मान लेते हैं और राजनीतिक दांवपेच में विश्वास नहीं करते। इसीलिए उनको ऐसे लोगों से, जो उनके मित्र होने का दावा करते हैं, बहुत कष्ट उठाना पड़ा है। कई बार धोखे ने उन्हें "अखंड भारत" बंद कर देने के लिए मजबूर कर दिया है। वे सम्भवतः एक्टर की हैसियत से सिनमा में (फिल्म लाइन) जाने के लिए तैयारी में हैं। मुझे यह भी पता चला है कि वे अच्छे नृत्यकार भी हैं। मैं जब सोचता हूँ कि जयनारायण व्यास राजनीति छोड़कर सिनेमा में जाना चाहते हैं तो मेरा हृदय खून के ऑसू रोता है। वे मेरे बड़े से बड़े दुश्मन रहे हैं फिर भी मेरी मान्यता है कि वे पवित्र हैं और उनके अथक परिश्रम से किसी न किसी दिन राजपूताने के रेगिस्तानी इलाके में शान्ति और खुशहाली आयेगी। आज उनकी असफलता पर सम्भवतः हम खुश होलें लेकिन वह दिन अधिक दूर नहीं हैं जब हम यह महसूस करेंगे कि हमारे हट जाने से रिक्त हुए स्थान की पूर्ति के लिए वे ही अधिक उपयुक्त व्यक्ति हैं। मैंने अपनी आन्तरिक प्रेरणा से फलौदी के रायसहाब की मार्फत जो हम दोनों के मित्र हैं, उनसे सिनेमा में भर्ती न होने का आग्रह किया था. मैंने आर्थिक मदद भी देनी चाही, परन्तु उन्होंने दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया। मेरे पास इस वक्त आपको लिखने के सिवाय कोई चारा नहीं रहा। मेरा खयाल है कि व्यास जयनारायण जोधपुर में आकर अपने भावी कार्यक्रम से जुड़ सकते हैं, यदि उन्हें जोधपुर में प्रवेश करने दिया जाए। प्रशासकीय समस्याओं पर उनका सहयोग लिया जाए तो और भी उत्तम रहेगा। उन्होंने प्रेस और प्लेटफार्म से मेरे को बुरी-बुरी गालियाँ दी हैं.... उनसे दिल खोलकर बात करता.... काश! रेगिस्तान के उड़ते टीलों पर हम साथ बैठकर बात करते...हम असहमति के लिए असहमत होते, परन्तु जुड़ा होने वाली और विरोधी दिशा में बहने वाली दो लहरों पर खड़े होकर भी हम हमारे मस्तिष्क के भ्रम और गलतियों के बावजूद लाखों लोगों की भलाई व समाज की तरक्की के बारे में अपने दृष्टिकोण से ही सही समान भाव का अनुभव अवश्य करते... |

इस पत्र का डोनाल्ड फिल्ड पर क्या असर पड़ा यह तो ज्ञात नहीं हो सका पर यह पत्र जहाँ व्यास जी धवल चरित्र, ईमानदारी और उनकी राजनैतिक छवि प्रस्तुत करता है, वहीं महाराजा गंगासिंह जी की आजादी के पूर्व यह भांप लेना कि अन्तोत्गोत्वा राजाओं को सत्ता जननेताओं को सौंपनी पड़ेगी यह जाहिर करता है कि बेशक पटेल के पास देशी रियासतों के विलीनीकरण का कार्य हाथ में था, लेकिन यह कहना गलत है कि पटेल ने अपनी लोहपुरुष वाली छवि के बदौलत राजाओं को दबाकर यह कार्य सफल किया, बल्कि राजा लोग पहले से विश्व में हो रही तत्कालीन बदलाव की स्थिति से अवगत थे और मानसिक रूप से सत्ता लोकसेवकों को सौंपने को तैयार थे|

स्त्रोत : राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा : जयनारायण व्यास, लेखक श्री सूरजप्रकाश पापा; राजस्थान स्वर्ण जयन्ती समारोह समिति, जयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक, पृष्ठ संख्या 15,16,17,18.

पुस्तक समीक्षा : जयचंद्र गद्दार नहीं परमदेशभक्त बौद्ध था

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Book Review : Jaichandra Gaddar Nahi Param Deshbhakt Baudh Tha.

15 जनवरी 2017 को दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में सम्यक प्रकाशन दिल्ली ने बौद्धाचार्य शांति स्वरूप बौद्ध द्वारा लिखित पुस्तक "जयचंद्र गद्दार नहीं परमदेशभक्त बौद्ध था" का विमोचन किया गया| शांति स्वरूप बौद्ध 21 वर्ष केंद्र सरकार के राजपत्रित पद पर कार्य करने के बाद बौद्ध धर्म के इतिहास, सांस्कृतिक, कलात्मक और साहित्यिक-सामाजिक क्रांति हेतु समर्पित है| कन्नौज नरेश महाराज जयचंद पर अपनी पुस्तक में शांति स्वरूप बौद्ध लिखते है कि 2002 दिल्ली पुस्तक मेला में सम्यक प्रकाशन की स्टाल पर उनकी मुलाकात इतिहासकार डा. श्रीभगवानसिंह से हुई| डा. सिंह ने इतिहास पर चर्चा करते हुए उन्हें बताया कि "जयचंद गद्दार नहीं थे, संयोगिता प्रकरण भी भाण्ड-कवियों द्वारा रचित झूठ है| मैं जो कुछ बता रहूँ उसके सूत्र आपको विशुद्धानंद पाठक कृत "उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास" नामक पुस्तक में मिलेंगे|" शांति स्वरूप बौद्ध अपने लेखकीय में लिखते है कि "डा. सिंह की बात सुनकर हमारी तो मानो नींद ही हराम हो गई|" और शांति स्वरूप बौद्ध महाराज जयचंद पर पुस्तक लिखने हेतु शोध में जुट गये|

इस दिशा में लेखक ने कन्नौज का इतिहास, महाराज जयचंद की सत्य कहानी उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित और आनन्द स्वरूप मिश्र द्वारा लिखित, डा. धर्मरक्षित द्वारा लिखित पुस्तक सारनाथ का संक्षिप्त इतिहास, लामा तारानाथ की भारत में बौध धर्म का इतिहास, राहुल सांकृत्यायन की पुरातन निबंधावली तथा बौद्ध संस्कृति, डा. मोतीचंद की "काशी का इतिहास" पुस्तक, सारनाथ का इतिहास व उपलब्ध लेखों के अध्ययन के साथ इन्टरनेट भी महाराज जयचंद के बारे में पड़ताल की| इन्टरनेट पर लेखक को ज्ञान दर्पण.कॉम पर महाराज जयचंद के बारे में पहले से मौजूद लेख मिले जिनमें भी पुख्ता ऐतिहासिक तथ्यों के साथ महाराज जयचंद द्वारा देश के साथ किसी गद्दारी का खण्डन था|

पुस्तक में ज्ञान दर्पण.कॉम, जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार डा. आनंद शर्मा द्वारा जयचंद पर शोध के बाद अपनी पुस्तक "अमृत पुत्र" की भूमिका में उन्हें धर्मपरायण और देशभक्त राजा स्वीकारने के साथ कन्नौज का इतिहास, महाराज जयचंद की सत्य कहानी उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित और आनन्द स्वरूप मिश्र द्वारा लिखित, डा. धर्मरक्षित द्वारा लिखित पुस्तक सारनाथ का संक्षिप्त इतिहास, लामा तारानाथ की भारत में बौध धर्म का इतिहास, राहुल सांकृत्यायन की पुरातन निबंधावली तथा बौद्ध संस्कृति, डा. मोतीचंद की "काशी का इतिहास" पुस्तक, सारनाथ का इतिहास आदि पुस्तकों के सन्दर्भ देते हुए अपनी पुस्तक में साफ़ किया है कि महाराज जयचंद गद्दार नहीं देशभक्त राजा थे|

पुस्तक में महाराज जयचंद के जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा-दीक्षा, रण कौशल, राज्याभिषेक, विवाह, विभिन्न विजय अभियानों, सांस्कृतिक कार्यों, सभी धर्मों के प्रति उनकी धार्मिक सहिष्णुता व उनके जीवन कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी समेटी गई|
पुस्तक में जहाँ महाराज जयचंद को गद्दार ठहराने के दुष्प्रचार का पुरजोर खण्डन कर उनके देशभक्त व धर्मपरायण राजा के पक्ष में ऐतिहासिक सबूत किये गए है वहीं लेखक ने विभिन्न बौद्ध लेखकों के सन्दर्भ देते हुए महाराज जयचंद्र को बौद्ध धर्मावलम्बी ठहराया गया है| उसके लिए लेखक ने डा. धर्मरक्षित द्वारा लिखित पुस्तक सारनाथ का संक्षिप्त इतिहास, लामा तारानाथ की भारत में बौध धर्म का इतिहास, राहुल सांकृत्यायन की पुरातन निबंधावली तथा बौद्ध संस्कृति, डा. मोतीचंद की "काशी का इतिहास" पुस्तक, सारनाथ का इतिहास आदि पुस्तकों के सन्दर्भ दिए है|

पुस्तक के बारे में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि लेखक ने ज्ञान दर्पण.कॉम पर महाराज जयचंद के गद्दार खण्डन के समर्थन में ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध करवाकर उसकी पुष्टि की है| साथ ही पुस्तक पढने के बाद लेखक का सन्देश साफ़ हो जाता है कि महाराज जयचंद द्वारा बौद्ध धर्म को संरक्षण देने के चलते द्वेष भावना से ओतप्रोत होकर पंडावादी तत्वों द्वारा राक्षसराज तक उपाधि देकर उन्हें देश का गद्दार प्रचारित कर दिया गया| लेखक ने महाराज जयचंद को बौद्ध धर्म का अनुयायी बताया है और उसके पक्ष में उपरोक्त कई पुस्तकों के संदर्भ दिए है| महाराज जयचंद ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था या नहीं यह शोध का विषय है, पर हाँ यह सच है कि महाराज जयचंद धार्मिक रूप से सहिष्णु थे और उन्होंने अपने राज्य में सभी धर्मों का आदर किया और उनका संरक्षण भी किया| इतिहास के जानकारों के अनुसार महाराज जयचंद की दादी कुमार देवी बौद्ध धर्म की विदुषी थी, सो हो सकता है महाराज जयचंद पर बौद्ध धर्म का असर हो और उन्होंने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया हो, पर उनके द्वारा पूर्णरूप से बौद्ध हो जाना गले नहीं उतरता, इसके लिए बौद्ध लेखकों के प्राचीन संदर्भों के साथ गहन शोध की आवश्यकता है|

नोट : क्षत्रिय चिन्तक और इतिहास शुद्धिकरण अभियान चलाने वाले श्री देवीसिंह जी महार का इस पुस्तक के बारे में मत कि लेखक ने इस पुस्तक में 80% सही लिखा है|

उक्त पुस्तक सम्यक प्रकाशन के निम्न पते से मंगवाई जा सकती है| 32/3 Club Road Paschim Puri Near Madipur Metro Station on Green Line New Delhi, Pin : 110063
Contact No. : +91-9810249452 , +91-9818390161
Email Id : hellosamyak1965@gmail.com
Website : www.samyakprakashan.in


Book on Maharaj Jaichand of Kannauj in Hindi, by Shanti Swrup Bauddh, Samyak Prakashan Delhi, Ture History of Maharaj jaichandra of Kannauj in Hindi

शौर्य, भक्ति व कला का संगम एक सामंत

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Nagridas of Kishagarh History in Hindi, Maharaja Savant Singh Story in Hindi
शौर्य, भक्ति कला का संगम महाराजा सावंतसिंह (नागरीदास)

वि.स. 1766 (1709 ई.) का एक दिन दिल्ली में बादशाह का एक हाथी बिगड़ कर महावतों के काबू से बाहर हो रास्ते पर दौड़ता चला जा रहा था| लोग हाहाकार मचाते, चिल्लाते रास्ता छोड़कर भाग रहे थे| उसी रास्ते में एक 10 वर्षीय क्षत्रिय बालक बेकाबू हाथी की परवाह किये बिना खड़ा था| लोगों ने चिल्लाकर उसे हटने को कहा पर वह बालक एक इंच नहीं हटा| बेकाबू हाथी जैसे ही पास आया, उस 10 वर्षीय बालक ने अपनी तलवार से ऐसा वार किया कि हाथी चिंघाड़ता हुआ पलट कर भाग खड़ा हुआ| उपस्थित लोग उस बालक के साहस और शौर्य को देख चकित रह गये|

वि.स. 1771 में यही बालक दिल्ली दरबार की सभा में अपने पिता सहित, कोटा नरेश भीमसिंह, श्योपुर के राजा राजसिंह, महाराजा गोपालसिंह भदौरिया आदि कई नरेशों के साथ बैठा था कि अचानक एक विषधर सांप उस बालक के पायजामे में घुस गया| बालक ने उस विषधर का फन पकड़कर पायजामे में ही मसल दिया और चुपचाप सभा से बाहर आकर उस सांप को फैंक दिया, पास बैठे लोगों को भनक तक नहीं लगने दी| 20 वर्ष की आयु में इसी बालक ने अकेले सिंह का शिकार किया|


वि.स. 1789 (1732 ई.) में राजस्थान की आचार्यपीठ सलेमाबाद के नवनीतपुरा गांव के गोचर में एक सिंह आ गया| उस गोचर में आचार्यपीठ की गायें चरा करती थी साथ ही वहां से लकड़ियाँ एकत्र की जाती थी| उस गोचर भूमि में शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध था, गायें सिंह के हिंसक उपद्रव का शिकार हो रही थी फिर भी आचार्यपीठ के प्रमुख सिंह के शिकार की किसी को अनुमति नहीं दे रहे थे, पर सिंह से गायों की रक्षा भी चाहते थे| आखिर पीठ प्रमुख श्रीवृन्दावन देवाचार्य ने उपरोक्त बालक जो अब 23 वर्ष का युवा हो चुका था को बुलाकर सिंह के साथ द्वन्द-युद्ध कर गायों की रक्षा करने की आज्ञा दी| गुरुदेव की आज्ञा मिलते ही वह क्षत्रिय युवा प्राणों की परवाह किये बिना गौ-रक्षा हेतु उस खूंखार सिंह से भीड़ गया और उसे पछाड़ कर मार डाला|

इस तरह का अदम्य पराक्रम प्रदर्शित करने वाला वह क्षत्रिय युवक और कोई नहीं कृष्णगढ़ (किशनगढ़) के महाराजा राजसिंह के राजकुमार सावंत सिंह थे| जिनका जन्म पौष सुदी द्वादशी, वि.सं. 1756 को हुआ था| राजकुमार सावंतसिंह ने 13 वर्ष की अल्पायु में ही अकेले बूंदी के हाड़ा जैतसिंह को मार डाला था| अपने पिता के निधन के बाद बैसाख सुदी चतुर्थी, वि.सं. 1805 को पिता राजसिंह जी के द्वादशे के दिन दिल्ली में ही आपका राज्याभिषेक हुआ और आप किशनगढ़ व रूपनगर राज्य के विधिवत शासक बन गद्दी पर बैठे| उस काल में मराठा सरदार राजस्थान में उपद्रव मचाकर राजाओं से चौथ वसूलते थे| मराठा सरदार मल्हार राव और बाजी राव ने वि.सं. 1792 (1735 ई.) में महाराजा सावंतसिंह से भी मिलकर चौथ मांगी किन्तु इन्होंने कोई चौथ नहीं दी और रूपनगर से मराठा सरदार को खाली हाथ लौटाया|

आपकी अनुपस्थिति में आपके भाई बहादुरसिंह द्वारा जोधपुर के महाराजा की सहायता से राज्य पर कब्ज़ा कर लेने गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो गई| राज्य के लिए भाई के साथ छिड़ी गृहकलह से बचपन से ही कृष्ण भक्त महाराजा सावंतसिंह के मन में विरक्ति के भाव पैदा हो गए और वे सब कुछ छोड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे और भक्ति व काव्य जगत में नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। आप बहुत अच्छे कवि थे अत: अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल।।

विश्व में बणी ठणी के नाम व राजस्थान की मोनालिसा के नाम से मशहूर विष्णु-प्रिया जिससे वे असीम प्रेम करते थे आपकी उपपत्नी के रूप में वृन्दावन में आपके साथ रही| कई काव्य रचनाएँ लिखकर हिंदी काव्य क्षेत्र में आप नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनमें 73 पुस्तकें कृष्णगढ़ (किशनगढ़) में संग्रहीत हैं| आपकी भावुकता और श्रृंगारप्रियता ने कविता के रूप में कृष्ण भक्ति की जो रस धारा प्रवाहित की उसे किशनगढ़ के चित्रकारों ने जिस अंदाज व खूबसुरत शैली के साथ कूंचीबद्ध किया आज वह शैली विश्व की अन्य चित्र शैलियों की सरताज है|
इस तरह महाराजा सावंतसिंह जी के जीवन को शौर्य, भक्ति और कला का संगम कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं|

सन्दर्भ : सभी तथ्य डा. अविनाश पारीक द्वारा लिखित "किशनगढ़ का इतिहास" पुस्तक से साभार लिए गए है|

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क्रांतिवीर मोड़सिंह चौहान

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Swatantrta Senani Krantiveer Modsingh Chauhan of Kankarwa Stroy in Hindi


अगस्त 1942 के एक दिन अहमदाबाद में चारों ओर अग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लग रहे थे, नन्हें मुन्नें बालक भी ट्राफिक सिग्नल की ओर पत्थर फैंक रहे थे| तभी वहां आईबारा नाम के एक पुलिस निरीक्षक के नेतृत्व में पुलिस आई और सीधे भीड़ पर गोली चला दी| पुलिस गोली से साईकिल सवार एक युवक उमाकान्त की मृत्यु हो गई| आईबारा ने उस युवक के शव की ओर इशारा करते हुए कहा- "इस कुत्ते को उठाकर ले जाओ|" पास ही खड़ा एक क्षत्रिय युवक मोड़सिंह चौहान यह सारा दृश्य देख रहा था| पुलिस निरीक्षक का अहंकार देख उसका क्षत्रिय खून उबल पड़ा और उसने उसी वक्त अंत:प्रेरित होकर अंग्रेजों के खिलाफ चल रही क्रांति में कूद पड़ने का निर्णय लिया|

मोड़सिंह चौहान मेवाड़ के एक छोटे से गांव कांकरवा का निवासी था| बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता का देहांत हो गया था| अनाथ बालक मोड़सिंह आर्थिक तंगी के चलते शिक्षा ग्रहण नहीं कर सका और सन 1938 में वह मात्र सौलह वर्ष की आयु में अहमदाबाद रोजगार के लिए चला आया| अहमदाबाद में रोजगार के दौरान ही मोड़सिंह चौहान बसंतराव आगीस्टे के सम्पर्क में आया| कट्टर राष्ट्रवादी देशभक्त आगीस्टे अहमदाबाद में दौलतखाना और बदर के पीछे एक अखाड़ा चलाता था, जहाँ वह युवाओं को हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी देता था| मोड़सिंह भी अखाड़े जाना लगा, जहाँ उसके मन में राष्ट्रवादी विचारों का उद्भव हुआ| सन 1942 में अहमदाबाद के एक साम्प्रदायिक दंगे में मोड़सिंह ने एक दिन कुछ दंगाइयों द्वारा खाड़िया चौराहे के पास लड़कियों को छेड़ते देखा तो उसका खून खौल उठा और वह अपने साथ मारवाड़ के अर्जुनसिंह के साथ दंगाइयों से भीड़ गया और दोनों क्षत्रिय युवाओं ने उन दंगाई गुंडों के हाथों से लाठियां छीनकर उन्हें पीटते हुए खदेड़ दिया| उसके थोड़े दिन बाद खाड़िया चौराहे पर फिर दंगा भड़का और मोड़सिंह चौहान की फिर दंगाइयों से भिडन्त हो गई| इस भिडन्त में दंगाई गुण्डे दुकानों को जलाने लाये पैट्रोल के टिन छोड़कर भाग हुये| इन दोनों घटनाओं ने मोड़सिंह का हौसला और बढ़ गया और वह उमाकान्त की पुलिस द्वारा हत्या के विरोध में बसन्तराव आगीस्टे के निर्देश में जनता कर्फ्यू लागू करने वाली टोलियों में शामिल हो गया|

मोड़सिंह की राष्ट्रवादी गतिविधियों को देखते हुए उसके नियोक्ता नटवरलाल शिवशंकर भट्ट ने भी उसका पूरा समर्थन किया| जनता कर्फ्यू के दौरान मोड़सिंह ने 17-18 जाबांज युवाओं के साथ एक क्रांतिदल बना लिया, जिसका कोई नेता नहीं था| इस दल सदस्यों ने मोड़सिंह की सहायता से बोम्बे टाइल्स के कारखाने में एक बम बना लिया| मोड़सिंह इसी कारखाने में काम करता था| फास्फोरस के प्रयोग से बने इस बम के द्वारा विक्टोरिया गार्डन में स्थित विक्टोरिया की मूर्ति को उड़ाना था| मोड़सिंह ने सुरक्षा कर्मियों से बचते हुए मूर्ति के पास बम रख दिया और छुपकर उसके फटने का इंतजार करने लगा| बम के नहीं फटने पर उसे देखने गया तब पहरेदार की खाट से टकराने के बाद वह घिर गया और बचने के लिए सतर-अस्सी फिट ऊँचे से नदी में कूद गया| नदी में कूदने से उसके पांव में गंभीर चोट आई फिर भी वह कैसे तैसे कर बटवा पहुंचा और लोकल ट्रेन पकड़कर कालूपुर जा पहुंचा| उसके द्वारा लगाये बम में विस्फोट हुआ पर मूर्ति की सिर्फ छतरी ही उड़ सकी|

8 नवम्बर 1942 को मोड़सिंह ने बड़ोदा रेल्वे के खाली कम्पार्टमेंट व एक सिनेमाघर में बम रखा, पर संयोग से दोनों ही बम फटे नहीं और पुलिस द्वारा जिन्दा बम बरामद कर लिए गए| अगस्त क्रांति के दौरान हड़ताल की वजह से अहमदाबाद के कारखाने बंद थे, जो तीन माह बाद पुन: चलने लगे, जो मोड़'सिंह व साथियों को फूटी आँख भी नहीं सुहाते थे| अत: इन कारखानों को बंद करने के लिए इनकी बिजली आपूर्ति बाधित करने का निर्णय लिया गया और बिजली आपूर्ति के सातों केन्द्रों को एक साथ बम से उड़ा देने की योजना बनी| इन केन्द्रों में तीन चौथाई बिजली आपूर्ति करने केंद्र ईदगाह को उड़ाने का जिम्मा बम बनाने वाले बी.ड़ी. आचार्य और मोड़सिंह ने ली और योजनानुसार सातों केन्द्रों पर एक साथ बम लगा दिए गए| रात के आठ बजे के आस-पास जब सातों केन्द्रों में एक साथ बम धमाके हुए तो समूचा अहमदाबाद नगर अँधेरे के गर्त में डूब गया| प्रशासन भी सातों केन्द्रों के एक साथ उड़ा देने को लेकर हतप्रद था| इस बीच 25 दिसंबर को मिलों में तोड़फोड़ की योजना बनाई गई| पर बीच में ही दल के सदस्य मनहरलाल जेठाभाई रावल को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन्होंने पुलिस सख्ती में सभी सदस्यों के नाम उगल दिए| परिणामस्वरूप सभी सदस्य पकड़े गए| मनहरलाल जेठाभाई रावल सुल्तानी गवाह बन गये|

25 दिसंबर को ही मोड़सिंह चौहान को भी गिरफ्तार कर साबरमती जेल की आठ नंबर की काल कोठरी में रखा गया| इन सब के खिलाफ राजद्रोह और षड्यंत्र, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, भारतीय सुरक्षा नियम 35 के अंतर्गत सेशन जज डी.सी.व्यास की अदालत में चालान पेश किया गया| इस पर 82/1943 नंबर पर मुकदमा कायम हुआ और चौदह माह सुनवाई के बाद कोई स्वतंत्र गवाह नहीं होने के कारण सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया| मुकदमे से बरी होने के बाद इस दल ने अंग्रेज सत्ता के खिलाफ पुन: शंखनाद किया| बम बनाने के लिए गुजरात से बारूद खरीदना खतरे में समझकर मोड़सिंह ने मेवाड़ से बारूद लाने की योजना बनी| इस योजना के तहत मोड़सिंह ने भींडर से आठ मण बारूद खरीदी और अपने साथी गोविन्द के साथ रेल द्वारा अहमदाबाद के लिए रवाना हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से मारवाड़ जंक्शन पर पुलिस द्वारा पकड़े गए| गोविन्द उस समय भाग निकला और मोड़सिंह चौहान गिरफ्तार कर सोजत थाने के हवाले कर दिया गया| न्यायालय के समक्ष मोड़सिंह ने दलील दी कि वह तो मात्र कुली था, बरामद माल का असली मालिक तो भाग गया| उसकी यह दलील प्रभावी सिद्ध हुई और 17 माह की पुलिस हिरासत के बाद मोड़सिंह चौहान इस मुकदमे से बरी हुआ|

कांकरवा गांव का "मोड़सिंह चौहान राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय" आज भी उस क्रांतिवीर मोड़सिंह चौहान की याद दिलाता रहता है|

संदर्भ: सभी तथ्य पूर्व कांग्रेस विधायक मनोहर कोठारी द्वारा लिखित और राजस्थान स्वर्ण जयंती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक "भारत के स्वातंत्र्य संग्राम में राजस्थान" से लिए गए है|
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राजर्षि रणसीजी तंवर

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Rajrishi Ransi ji Tanwar History in Hindi, Rajrishi Ransiji Mandir, Naraina


नरेना रेल्वे स्टेशन से कस्बे को जो सड़क आती है उस पर सड़क से करीब एक किमी दूरी पर रणसीजी का मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर पर प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला द्वितीया को एक विशाल मेले का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के गाँवों के हजारों लोग आते हैं। मेला प्रतिवर्ष धूमधाम से लगता है। इस मन्दिर का पुजारी हमेशा से बलाई समाज का कोई व्यक्ति रहता आया है। इस मन्दिर के स्वामी पीर जी कहलाते हैं, जो नरेना गाँव में स्थित पीर जी की हवेली में रहते हैं। राजऋषि रणसीजी जिनके नाम पर यह मंदिर बना है वे नरेना के राजा थे। उन्होंने अपने नाम पर रणसीपुरा बसाया था, इसी में रणसी जी की हवेली है। इसी हवेली में पीर जी रहते हैं। यह रणसीपुरा अब नरेना कस्बे में मिल गया है व मीणों का मोहल्ला कहलाता है| यहाँ के पीर जी अपने आपको अलख नामी बताते हैं जिसका किसी सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये एक चरण के अर्थात् ब्रह्म के उपासक हैं।


तंवर वंशीय राजऋषि रणसीजी नरेना के राजा थे| उनका जन्म संवत 1273 व देहान्त 1307 में हुआ था| उनके देहांत समय दिल्ली पर शमसुद्दीन इल्तुतमिश के पोते नसीरूद्दीन महमूद (संवत 1303-1323) का शासन था जो 16 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा था| इसका मंत्री बलवन ही सारा राजकार्य चलाता था|

नरेना के राजा रणसीजी तंवर अजमेर के राजा अजयपाल चौहान के शिष्य थे| इतिहासकारों ने अजमेर के इस चौहान राजा के अलग-अलग नाम दिए हैं यथा हर्ष के शिलालेख में अजयदेव, पृथ्वीराज महाकाव्य में अजयराज, प्रबन्धकोश आल्हणदेव, हम्मीर महाकाव्य में आल्हणदेव, सुरजन चरित्र में अनलदे राजपूताना गजेटियर में अजयपाल, चौहान-कुल-कल्पद्रुम में अजयपाल, सम्र पृथ्वीराज चौहान-लेखक देवीसिंह मण्डावा ने अजयराज व अजयदेव नाम दि हैं। इतिहासकारों के अनुसार इसने लगभग सन् 1110 ये 1135 (वि.सं. 1167 से 1192) तक राज्य किया। ये बड़े प्रतापी राजा हुए। अजयपाल अपने पुत्र आनाजी (अणोंराज) को राज्य देकर पुष्कर के पहाड़ों में तपस्या करने के लिए चले गए। ये बड़े तपस्वी हुए।

अजयपाल जी भराणा व बिचून के बीच पहाड़ों में किसी स्थान पर तपस्या करते थे। यहीं पर रणसीजी, अजयपाल जी के शिष्य बने। इन्हीं पहाड़ों में एक अन्य सन्त भी तपस्या करते थे, जिनका नाम बलाई समाज के लोग समष ऋषि बताते हैं। इस सन्त का एक बणजारा कृपापात्र था। दूदू निवासी खिंवण बलाई भी इनकी सेवा करता था। इस बणजारे के पशु नरेना क्षेत्र के कृषकों की खेती को नुकसान पहुँचाते थे। रणसीजी उस समय नरेना क्षेत्र के राजा थे अत: कृषकों ने बणजारे की शिकायत की। इस बणजारे की सन्त के पास शिकायत करने रणसीजी पहुँचे। उस समय बिणजारा, अजयपालजी व खिंवणजी भी वहीं मौजूद थे। रणसीजी की शिकायत पर जब सन्त ने कोई ध्यान नहीं दिया तो रणसीजी को क्रोध आ गया| खिंवणजी ने भी रणसीजी की बात का समर्थन किया। रणसीजी ने उन सन्त से कहा कि आपकी इस पर कृपा नहीं होती तो मैं इसे चीर कर फैंक देता। तब सन्त ने कहा कि तुम दोनों (रणसीजी और खिंवण जी) भी एक रोज चीरे जाओगे। अजयपाल जी के अनुरोध पर सन्त ने कहा कि मेरा कहा हुआ सत्य होगा, लेकिन इससे इनका यश बढ़ेगा।

कालान्तर में रणसीजी की ख्याति फैल गई। ईश्वर भक्ति करने से वे एक सन्त के रूप में माने जाने लगे | इसी बीच में नरेना निवासी करमा खाती ने बादशाह के पास उसके लोगों के द्वारा यह शिकायत पहुँचाई कि रणसीजी डकैती करते है व बादशाह की खिलाफत करते है। जबकि रणसीजी एक संत थे न कि डकैत। इस शिकायत पर बादशाह ने अपने सैनिकों को रणसीजी को पकड़ने के लिए भेजा, लेकिन वे सैनिक रणसीजी की हवेली में घुस नहीं सके। उनके हाथ पैर अकड़ गए, अत: वे रणसीजी को गिरफ्तार नहीं कर सके। वे वापस बादशाह के पास पहुँचे। यह सूचना जब बादशाह के पास पहुँची तो उसने रणसीजी के लिए बुलावा भेजा लेकिन वे बादशाह के पास नहीं गए। इस पर बादशाह ने कई सन्तों को कैद कर लिया और कहा कि रणसीजी जी आएँगे तो इन्हें छोड़ दूंगा वरना इन्हें मरवा दूँगा। अपनी जनता के अनुरोध पर रणसीजी खिंवणजी के साथ बादशाह के पास पहुँचे। बादशाह ने संतों को जेल से मुक्त कर दिया और रणसीजी से कहा कि या तो तुम मुझे खुदा के दर्शन कराओ या कोई चमत्कार दिखाओ। इस पर रणसीजी ने चमत्कार दिखाने के लिए अथवा भगवान के दर्शन कराने के लिए मना कर दिया। तब बादशाह ने कहा तुम्हें इस्लाम कबूल करना पड़ेगा। अन्यथा मैं तुम्हें चिरवा दूँगा। तब रणसीजी ने कहा कि तू हमें क्या चिरवाएगा यह कहकर रणसीजी व खिंवणजी (खेमणजी) ने नीम के पेड़ से पते सहित एक सींख तोड़ी व उसको अपने सिर से लेकर धड़ तक ले गए। इसके साथ ही उन दोनों के शरीरों की दो फाड़ हो गई। उनके शरीर में से खून के स्थान पर दूध व फूल निकले।

नगर नारायण सूं रिणसी पधारिया, खिवड़े आगळ आणी।
पानां फूलों रां करोत झेलिया, दूधां री नदी हलाणी।

दोनों के शरीरों की एक-एक फाड़ (हिस्सा) आकाश में उड़ गई और दूसरी फाड़ वहीं रह गई। जो फाड़ें आसमान में उड़ी थी वे नरेना में जहाँ जाकर गिरी वहीं, रणसी जी व खिंवण जी की समाधियाँ बनी हुई हैं। रणसीजी के दिल्ची में बलिदान के सम्बन्ध में यह विख्यात है :-

दिलड़ी कोई मत जावज्यो, दिलड़ी ओघट घट्ट।
दिल्ली गया न बाहुडया, रणसी सिरसा भट्ट।

रणसीजी के बड़े पुत्र अजमाल जी ने रणसी जी के आधे शरीर को समाधि दी और उसके बगल में ही खिवणजी को भी समाधि दी। इसके बाद उन्होंने नरेणा को त्याग देने का निश्चय किया और अपने भाइयों व परिवारजनों के साथ मारवाड़ की ओर चल दिए। क्योंकि नरेणा अब उनके लिए सुरक्षित क्षेत्र नहीं था। यहाँ एक तरफ साँभर व दूसरी तरफ अजमेर मुसलमानों के केन्द्र बन चुके थे। ये लोग हिन्दूओं पर अत्याचार करते रहते थे। अजमालजी के मारवाड़ की तरफ चले जाने के बाद बादशाह की बेगम क्षमा याचना के लिए नरेना आई व खिंवणजी के पुत्र को मन्दिर बनवाने के लिए धन दिया। मन्दिर खिंवणजी के पुत्र ने बनवाया। बाद में दूदू में खिंवण जी का अलग मन्दिर बनवाया। बादशाह ने दोनों मन्दिरों के लिए 192 बीघा जमीन दी। पीर जी के साथ लवाज़मा जाएगा यह भी आदेश दिया गया। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह जी के काल में दोनों मन्दिरों के बीच कोई विवाद हुआ होगा उस सम्बन्ध में फैसले से सम्बन्धित एक पत्र हैं जिससे उपर्युक्त विवरण की पुष्टि होती है।

आश्चर्य की बात यह है कि नरेणा गद्दी के पीर की नियुक्ति किसी परम्परा से नहीं होती है। गद्दी खाली होने के बाद में कुछ ही समय में रणसी जी महाराज ही किसी व्यक्ति को प्रेरित करके भेजते हैं। और गाँव वाले उसे ही पीर मनोनीत कर देते हैं।

पीरजी प्रेमदासजी के अनुसार वे चुरू जिले के लाडनू के पास स्थित झलमल गाँव के निवासी गौड़ राजपूत थे। वे लाडनू के अस्पताल में कर्मचारी थे, उस समय उनकी उम्र 30 वर्ष थी व अविवाहित थे। उनको आवाज सुनाई देने लगी कि तुझे घर छोड़कर चलना है। कुछ रोज बाद एक दिन आवाज आई कि अभी चलना है घर छोड़कर। उसी आवाज के आदेशानुसार वे चलते हुए चार पाँच दिन बाद में नरेना के रणसीजी के मन्दिर में पहुँचे। भूखे-प्यासे रात को सौ गए, सुबह उठे तो वहाँ लोग जमा थे। उन्होंने बताया कि मैं देख रहा था लेकिन मुझे पीछे की कोई बात याद न थी व न ही वहाँ जो कुछ हो रहा था वह समझ रहा था। थोड़ी देर बाद लोगों ने मुझे चादर उढ़ाई व जय बोली तब मुझे होश आया व पीछे की घटनाएँ याद आई।

अभी तक इस गद्दी पर माली, कुम्हार, राजपूत आदि कई जातियों के लोग बैठे हैं और सभी अविवाहित रहे हैं। पीरजी की हवेली में महिलाओं का प्रवेश वर्जित हैं। पुस्तक लिखे जाने तक पीर प्रेमदासजी का स्वर्गवास हुए छ: माह हो चुके हैं किन्तु गद्दी अभी तक खाली है। रणसीजी पर डकैत होने का आरोप लगाया गया वह ठीक नहीं है। वे एक छोटे से क्षेत्र के राजा थे। अजयपाल जी के शिष्य बन जाने के बाद ईश्वर भति में लीन रहने लगे। वे अपने समय के माने हुए सन्त हो गए। वे सनातन धर्म की रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हुए।

छाजूसिंह बड़नगर द्वारा लिखित पुस्तक "महान संत राजऋषि तंवर रणसीजी" साभार

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परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-1

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History of Parmar Kshatriya Rajvansh in Hindi

परमार अग्नि वंशीय हैं। श्री राधागोविन्द सिंह शुभकरनपुरा टीकमगढ़ के अनुसार तीन गोत्र हैं-वशिष्ठ, अत्रि व शाकृति। इनकी शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारसकर, ग्रहसूत्र और वेद यजुर्वेद है। परमारों की कुलदेवी दीप देवी है। देवता महाकाल, उपदेवी सिचियाय माता है। पुरोहित मिश्र, सगरं धनुष, पीतध्वज और बजरंग चिन्ह है। उनका घोड़ा नीला, सिलहट हाथी और क्षिप्रा नदी है। नक्कारा विजयबाण, भैरव कालभैरव तथा ढोल रणभेरी और रत्न नीलम है।

परमारों का निवास आबू पर्वत बताया गया है। क्षत्रिय वंश भास्कर के अनुसार परमारों की कुलदेवी सिचियाय माता है, जिसे राजस्थान में गजानन माता कहते हैं। परमारों के गोत्र कहीं गार्ग्य, शौनक व कहीं कौडिल्य मिलते है। उत्पति- परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है। अबुलफजल ने आइने अकबरी में परमारों की उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने पर अग्निकुण्ड से होना लिखा है।

प्रश्न उठता है कि अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न पर भी विचार, मनन जरूरी है ? इतिहास बताता है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो क्षत्रिय और वैश्य भी बौद्ध धर्मावलम्बी बन गये। फलतः वैदिक परम्परा नष्ट हो गई। कुमारिल भट्ट (ई.700) व आदि शंकराचार्य के प्रयासों से वैदिक धर्म में पुनः लोगों को दीक्षित किया जाने लगा। जिनमें अनेकों क्षत्रिय भी पुनः दीक्षित किये गये। ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को पुनः वैदिक धर्म में लाने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली और चार क्षत्रिय कुलों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफल हुए। आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निवंश का स्वरूप है।

जिसमें परमार वंश अग्नि वंशी कहलाने लगा। छत्रपुर की प्राचीन वंशावली वंश भास्कर का वृतान्त, अबुलफजल का विवरण भी बौद्ध उत्पात के विरुद्ध बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः लौट आने व यज्ञ की पुष्टि करते हैं। आबू पर्वत पर यह ऐतिहासिक कार्य 6 ठी व 7 वीं सदी में हुआ था। आज भी आबूगिरी पर यज्ञ स्थान मौजूद है।

मालवा के प्रथम परमार शासक-मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है।

मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। उसके तीन पुत्रों में से शंख छोटी आयु में ही मर गया। भर्तृहरि जी गद्दी त्याग कर योगी बन गये। तब तीसरा पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। भर्तृहरि गोपीचन्द के शिष्य बन गये जिन्होंने श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे हैं। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। भर्तृहरि के राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने। राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया।
लेखक : Devisingh, Mandawa

क्रमशः.............


Parmar Rajvansh aur uski shakhaon ka itihas, parmaro ka itihas hindi me, agnivanshi parmar panwar vansh ka itihas

परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-2

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भाग-1 से आगे ..............राजस्थान का प्रथम परमार वंश -राजस्थान में ई 400 के करीब राजस्थान के नागवंशों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इन नाग वंशों के पतन पर आसिया चारण पालपोत ने लिखा है-

परमारा रुंधाविधा नाग गया पाताळ।
हमै बिचारा आसिया, किणरी झुमै चाळ।।

मालवा के परमार-मालव भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा है। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है जिसे कृष्णराज भी कहते हैं। इसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। इनके बाद बैरीसिंह मालवा के शासक बने। बैरीसिंह का दूसरा पुत्र अबरसिंह था जिसने डूंगरपुर-बांसवाडा को जीतकर अपना राज्य स्थापित किया। इसी वंश में बैरीसिंह द्वितीय हुआ जिसने गौड़ प्रदेश में बगावत के समय हूणों से मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। इसी वंश में जन्में इतिहास प्रसिद्ध राजा भोज विद्यानुरागी व विद्वान राजा थे।

अजमेर में प्रवेश-मालवा पर मुसलमानों का अधिकार होने के बाद परमारों की एक शाखा अजमेर सीमा में प्रवेश कर गई। पीसांगन से प्राप्त 1475 ईस्वी के लेख से इसका पता चलता है। राघव की राणी के इस लेख में क्रमशः हमीर हरपाल व राघव का नाम आता है। महिपाल मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सेवा में था।

आबू के परमार-आबू के परमारों की राजधानी चन्द्रावती थी जो एक समृद्ध नगरी थी। इस वंश के अधीन सिरोही के आस-पास के इलाके पालनपुर मारवाड़ दांता राज्यों के इलाके थे। आबू के परमारों के शिलालेख से व ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इनके मूल पुरुष का नाम धोमराज या धूम्रराज था। संवत 1218 के किराडू से प्राप्त शिलालेख में आरम्भ सिन्धुराज से है। आबू का सिन्धुराज मालवे के सिन्धुराज से अलग था। यह प्रतापी राजा था जो मारवाड़ में हुआ था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज किराडू छोड़कर ओसियां नामक गांव में जा बसा जहाँ सचियाय माता उस पर प्रसन्न हुई। उत्पलराज ने ओसियां माता का मंदिर बनवाया।

जालोर के परमार-राजस्थान के गुजरात से सटे जिले जालोर में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में परमारों का राज्य था। परमारों ने ही जालोर के प्रसिद्ध किलों का निर्माण कराया था। जालोर के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही शाखा थे। एक शिलालेख के अनुसार जालोर में वंश वाक्यतिराज से प्रारम्भ हुआ है। जिसका काल 950 ई. के करीब था।

किराडू के परमार-किराडू के परमार वंशीय आज भी यहाँ राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है। परमारों का वहां ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी से राज्य था। ई. 1080 के करीब सोछराज को कृष्णराज द्वितीय का पुत्र था ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। यह दानी था और गुजरात के शासक सिन्धुराज जयसिंह का सामंत था। इसके पुत्र सोमेश्वर ने वि. 1218 में राजा जज्जक को परास्त परास्त कर जैसलमेर के तनोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार प्राप्त किया।

दांता के परमार-ये अपने को मालवा के परमार राजा उद्यातिराज के पुत्र जगदेव के वंशज मानते है।
लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa

क्रमशः.............


परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-3

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भाग-2 से आगे ....Parmar Rajvansh ka itihas
जगनेर के बिजौलिया के परमार-
मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परमारों चारों ओर फैल गये। इनकी ही एक शाखा जगनेर आगरा के पास चली गई। उनके ही वंशज अशोक मेवाड़ आये। जिनको महाराणा सांगा ने बिजौलिया की जागीर दी।

जगदीशपुर और डुमराँव का पंवार वंश-भोज के एक वंशज मालवा पर मुस्लिम अधिकार के बाद परिवार सहित गयाजी पिण्डदान को गये। वापस आते समय इन्होंने शाहाबाद जिला बिहार के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया। बादशाह शाहजहाँ ने इनके वंशज नारायण मल्ल को भोजपुर जिला जागीर में दे दिया। इन्होंने जगदीशपुर को अपनी राजधानी बनाया। बाद में इन्होंने आरा जिला में डुमराँव को अपना केन्द्र बनाया। इसी वंश में 1857 की क्रांति के नायक वीर कुंवरसिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिये थे।

देवास और धार के परमार-मालवा पर मुस्लिम अधिकार के समय परमारों की एक शाखा जो जगनेर (आगरा के पास) चली गई जहाँ से मेवाड़ गये अशोक के छोटे भाई शम्भूसिंह ने पूना और अहमदनगर के पास के इलाकों पर कब्जा कर लिया किन्तु पड़ौसी शासक ने उसे धोखे से मार दिया। इन्हीं के वंशजों ने शिवाजी के पुत्र राजाराम को मराठा साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा में उल्लेखनीय योगदान दिया, जिससे प्रसन्न हो छत्रपति राजाराम ने इन्हें विश्वासराव व सेना सप्त सहस्त्रों की उच्च उपाधियाँ प्रदान की। इन्हीं के वंशज देवास व धार के स्वामी बने।

उमट परमार-इस वंश के राजगढ़ व नरसिंहगढ़ पहले एक ही संयुक्त राज्य थे। यही कारण है आजतक इन दोनों राज्यों के भाग एक दूसरे में अवस्थित है। यहाँ के शासक परमार वंश के आदि पुरुष राजा परमार के मुंगराव के वंशज है।

संखाला पंवार (परमार)-सांखला परमारों की एक शाखा है। वि.सं. 1318 के शिलालेख में शब्द शंखकुल का प्रयोग किया गया है। किराडू के परमार शासक बाहड़ का पुत्र बाघ जयचंद पड़िहार के हाथों मारा गया। बाघ के पुत्र वैरसी ने ओसियां की सचियाय माता से वर प्राप्त कर पिता की मौत का बदला लिया। नैणसी लिखते है कि माता ने उसे दर्शन दिए और शंख प्रदान किया, तभी से वैरसी के वंशज सांखला कहलाने लगे। इसने जयचंद पड़िहार के मून्धियाड़ के किले को तुड़वा कर रुण में किला बनवाया तब से ये राणा कहलाने लगे।

सोढा परमार-किराडू के शासक बाहड़ के पुत्र सोढा से परमारों की सोढा शाखा चली। सोढाजी सिंध में सूमरों के पास गये जिन्होंने सोढाजी को ऊमरकोट (पाकिस्तान) से 14 कोस दूर राताकोर दिया। सोढा के सातवें वंशधर धारवरीस के दो पुत्र आसराव और दुर्जनशाल थे। आसराव ने जोधपुर में पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल ऊमरकोट की तरफ गया। उसकी चौथी पीढ़ी के हमीर को जाम तमायची ने ऊमरकोट दिया। अंग्रेजों के समय राणा रतनसिंह सोढा ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया पर उन्हें पकड़कर फांसी पर चढ़ा दिया गया।

वराह परमार-ये मारवाड़ के प्रसिद्ध परमार शासक धरणी वराह के वंशज थे जिनका राज्य पूरे मारवाड़ और उससे भी बाहर तक फैला हुआ था। उसके नौकोट किले थे। इसीलिए मारवाड़ नौ कुटी कहलाई। मारवाड़ के बाहर उसका राज्य संभार प्रदेश, जैसलमेर तथा बीकानेर के बहुत से भूभाग पर था। वर्तमान जैसलमेर प्रदेश पर उनके वंशज वराह परमारों चुन्ना परमारों व लोदा परमारों के राज्य थे। मंगलराव भाटी ने पंजाब से आकर विक्रम 700 के करीब इनसे यह भूभाग छीन कर अपने अधीन कर लिया। वराह शाखा के परमार वर्तमान पटियाला जिले में है।
लेखक : Kunwar Devisingh, Mandawa


परमारों का विस्तार और आजादी के बाद परमार वंश

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Parmar Kshatriya Rajvansh ka Itihas hindi me

परमारों का विस्तार-उज्जैन छूटने के बाद परमारों की एक शाखा आगरा और बुलंदशहर में आई। उन्नाव के परमार मानते है कि बादशाह अकबर ने उन्हें इस प्रदेश में जागीर उनकी सेवाओं के उपलक्ष में दी। यहाँ से वे गौरखपुर में फैले। कानपुर, आजमगढ़ और गाजीपुर में परमार उज्जैनियां कहलाते हैं जो यहाँ बिहार से आये। इनके मुखिया राजा डुमराँव है। उज्जैनियां कहलाने से यह सिद्ध होता है कि वे उज्जैन से ही आये थे। ललितपुर और बांदा में भी परमार मिलते है। मध्यप्रदेश में इनके दो राज्य थे। नरसिंहगढ़ और राजगढ़। मध्यप्रदेश में परमारों की बहुसंख्या होने के कारण वह क्षेत्र बहुलता के कारण परमार पट्टी कहलाता है। गुजरात में इनका राज्य मामूली था। राजस्थान में जोधपुर (मारवाड़) तथा उदयपुर (मेवाड़) जैसलमेर, बीकानेर और धौलपुर इलाकों में हैं। उदयपुर में बिजौलिया ठिकाना सोला के उमरावों में से था। धौलपुर में ये बड़ी संख्या में है। जिन्द और रोहतक में वराह परमार हैं जो जैसलमेर पर भाटियों के अधिकार कर लेने पर पंजाब में जा बसे थे। मेरठ, फर्रुखाबाद, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, बाँदा, ललितपुर, फैजाबाद व बिहार में भी ये बड़ी संख्या में स्थित हैं।

आजादी के बाद-पंवारों में अनेकों कुशल राजनीतिज्ञ हुए हैं जिन्होंने भारत के नवनिर्माण में सहयोग प्रदान किया है। राजमाता टिहरी गढ़वाल लोकसभा की सदस्या रही। उनके पुत्र मानवेन्द्र शाह उनके बाद संसद सदस्य चुने गये। मानवेन्द्रशाह इटली में भारत के राजदूत भी रहे हैं। उनके भाई शार्दूल विक्रमशाह भी राजदूत रह चुके हैं। नरसिंहगढ़ के महाराजा भानुप्रतापसिंह लोकसभा के सदस्य व बाद में इन्दिरा गांधी के मन्त्रीमण्डल के सदस्य बने। आपके पुत्र मध्यप्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। बिजौलिया राजस्थान के राव केसरीसिंह राजस्थान विधानसभा के सन् 1952 में विधायक चुने गये।

पाकिस्तान में सोढ़ा ऊमराकोट क्षेत्र में है। ऊमरकोट के राणा चन्द्रसिंह पाकिस्तान की संसद के सदस्य चुने गये तथा भुट्टों के मन्त्रीमण्डल में एकमात्र गैर मुस्लिम मन्त्री रहे।
सन् 1971 के भारत पाक युद्ध के समय विशेषकर लक्ष्मणसिंह सोढ़ा का सहयोग विशेष उल्लेखनीय है। इनके सहयोग से ही भारतीय सेना जयपुर नरेश ले. कर्नल भवानीसिंह के नेतृत्व में घाघरापार और वीराबा क्षेत्रों में दुश्मन को परास्त कर अधिकार कर सकी।

स्पष्ट है परमार वंश में राजा भोज जैसे दानी कुंवरसिंह जैसा बहादुर योद्धा और लक्ष्मणसिंह सोढ़ा जैसे राष्ट्रधर्म के पुजारियों ने जन्म लिया। यह वीर वंश है जिसने अनेकों योद्धाओं को जन्म दिया, पाला और देश को समर्पित कर दिया। मुहणोत नैनसी के अनुसार परमारों की 35 मुख्य शाखायें मानी जाती हैं। विभिन्न विद्वानों में इस पर मतभेद भी है परन्तु वर्तमान में परमार वंश की कुल ज्ञात शाखायें 184 हैं।

लेखक : देवीसिंह, मंडावा

जन सेवक जननायक सन्याासी योगी आदित्यनाथ

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Yogi Aditynath Parichay in Hindi

आपने संन्यासियों के प्रचलित मिथक को तोड़ा। धर्मस्थल में बैठकर आराध्य की उपासना करने के स्थान पर आराध्य के द्वारा प्रतिस्थापित सत्य एवं उनकी सन्तानों के उत्थान हेतु एक योगी की भाँति गाँव-गाँव और गली-गली निकल पड़े। भक्तों की एक लम्बी कतार आपके साथ जुड़ती चली गयी। इस अभियान ने एक आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण किया और हिन्दू पुनर्जागरण का इतिहास सृजित हुआ।
अपने बेबाक बयानों के चलते हमेशा सेकुलर दलों के निशाने पर रहने वाले योगी आदित्यनाथ का जन्म स्थित देव-भूमि उत्तराखण्ड में 5 जून सन् 1972 को हुआ। आपका बचपन का नाम अजय सिंह है। आपने विज्ञान वर्ग से स्नातक तक शिक्षा ग्रहण की तथा छात्र जीवन में विभिन्न राष्ट्रवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे। छात्र जीवन से योगी को शिक्षा के साथ-साथ सनातन हिन्दू धर्म की विकृतियों एवं उस पर हो रहे प्रहार से व्यथित कर दिया। प्रारब्ध की प्राप्ति से प्रेरित होकर आपने 22 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया। नाथपंथ के विश्व प्रसिद्ध मठ श्री गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर के पावन परिसर में शिव गोरक्ष महायोगी गोरखनाथ के अनुग्रह स्वरूप 15 फरवरी सन् 1994 की शुभ तिथि पर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ ने अपने उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ का दीक्षाभिषेक सम्पन्न किया।

अपनी पीठ की परम्परा के अनुसार आपने पूर्वी उत्तर प्रदेश में व्यापक जनजागरण का अभियान चलाया। हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों, विषमताओं, भेदभाव एवं छुआछूत पर कठोर प्रहार करते हुए, इसके विरुद्ध अनवरत अभियान जारी रखा है। छुआछूत और अस्पृश्यता की भेदभावकारी रूढ़ियों को दूर करने हेतु गाँव-गाँव में सहभोज के माध्यम से ‘एक साथ बैठें-एक साथ खाएँ’ मंत्र का उद्घोष कर आपने सामाजिक समरसता का परिचय दिया। पीड़ित, गरीब, असहाय के प्रति करुणा, किसी के भी प्रति अन्याय एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध तनकर खड़ा हो जाने का निर्भीक मन, विचारधारा एवं सिद्धान्त के प्रति अटल, लाभ-हानि, मान-सम्मान की चिन्ता किये बगैर साहस के साथ किसी भी सीमा तक जाकर धर्म एवं संस्कृति की रक्षा का प्रयास ही आपकी पहचान है। योगी जी की सक्रियता के कारण आज पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपराधियों के मनोबल टूटे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में योगी जी के संघर्षों का ही प्रभाव है कि माओवादी-जेहादी आतंकवादी इस क्षेत्र में अपने पॉव नही पसार पाए। नेपाल सीमा पर राष्ट्र विरोधी शक्तियों की प्रतिरोधक शक्ति के रुप में आपकी हिन्दु युवा वाहिनी सफल रही है। वृहद् हिन्दू समाज को संगठित कर राष्ट्रवादी शक्ति के माध्यम से हजारों मतान्तरित हिन्दुओं की ससम्मान घर वापसी के साथ गोवंश का संरक्षण एवं सम्वर्धन करवाया।
अपने गुरुदेव के आदेश एवं गोरखपुर संसदीय क्षेत्र की जनता की मांग पर आपने वर्ष 1998 में लोकसभा चुनाव लड़ा और मात्र 26 वर्ष की आयु में संसद के सबसे युवा सांसद बने। जनता के बीच दैनिक उपस्थिति, संसदीय क्षेत्र का लगातार भ्रमण तथा विकास के कार्यक्रमों के कारण गोरखपुर संसदीय क्षेत्र की जनता ने आपको वर्ष 1999, 2004 और 2014 के चुनाव में निरन्तर बढ़ते हुए मतों के अन्तर से विजयी बनाकर पांच बार लोकसभा का सदस्य बनाया। उत्तरप्रदेश के हाल ही हुए विधानसभा चुनावों में आपने सबसे ज्यादा रैलियां की, आपकी रैलियों में अपार भीड़ आई और उत्तरप्रदेश की जनता ने आपके नेतृत्व के लिए भाजपा को अपार समर्थन देते हुये जीताया| प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए भाजपा आलाकमान हरियाणा की तरफ अपनी पसंद का व्यक्ति थोपना चाहता था, पर प्रदेश की जनता व विधायकों के बड़े समूह की भारी मांग के चलते भाजपा आलाकमान को अपना विचार त्यागते हुए उतरप्रदेश विधायक दल द्वारा योगीजी को अपना नेता चुनने की बात स्वीकार करणी पड़ी और आज योगीजी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले है|

संसद में सक्रिय उपस्थिति एवं संसदीय कार्य में रुचि लेने के कारण आपको केन्द्र सरकार ने खाद्य एवं प्रसंस्करण उद्योग और वितरण मंत्रालय, चीनी और खाद्य तेल वितरण, ग्रामीण विकास मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी, सड़क परिवहन, पोत, नागरिक विमानन, पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालयों के स्थायी समिति के सदस्य तथा गृह मंत्रालय की सलाहकार समिति, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ विश्वविद्यालय की समितियों में सदस्य के रूप में समय-समय पर नामित किया। व्यवहार कुशलता, दृढ़ता और कर्मठता से उपजी आपकी प्रबन्धन शैली शोध का विषय है। इसी अलौकिक प्रबन्धकीय शैली के कारण आप लगभग 36 शैक्षणिक एवं चिकित्सकीय संस्थाओं के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, मंत्री, प्रबन्धक या संयुक्त सचिव हैं। हिन्दुत्व के प्रति अगाध प्रेम तथा मन, वचन और कर्म से हिन्दुत्व के प्रहरी योगी को विश्व हिन्दु महासंघ जैसी हिन्दुओं की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा भारत इकाई के अध्यक्ष का महत्त्वपूर्ण दायित्व दिया, जिसका सफलतापूर्वक निर्वहन किया।

आपकी बहुमुखी प्रतिभा का एक आयाम लेखक का भी है। अपने दैनिक वृत्त पर विज्ञप्ति लिखने जैसे कार्य के साथ-साथ आप समय-समय पर अपने विचार को स्तम्भ के रूप में समाचार-पत्रों में भेजते रहते हैं। अत्यल्प अवधि में ही ‘यौगिक षटकर्म’, ‘हठयोगः स्वरूप एवं साधना’, ‘राजयोगः स्वरूप एवं साधना’ तथा ‘हिन्दू राष्ट्र नेपाल’ नामक पुस्तकें लिखीं। गोरखनाथ मन्दिर से प्रकाशित होने वाली वार्षिक पुस्तक ‘योगवाणी’ के आप प्रधान सम्पादक हैं तथा ‘हिन्दवी’ साप्ताहिक समाचार पत्र के प्रधान सम्पादक रहे।

योगी आदित्यनाथ जी महाराज के व्यक्तित्व में सन्त और जननेता के गुणों का अद्भुत समन्वय है। ऐसा व्यक्तित्व विरला ही होता है। यही कारण है कि एक तरफ जहॉ वे धर्म-संस्कृति के रक्षक के रूप में दिखते हैं तो दूसरी तरफ वे जनसमस्याओं के समाधान हेतु अनवरत संघर्ष करते रहते है। सड़क, बिजली, पानी, खेती आवास, दवाई और पढ़ाई आदि की समस्याओं से प्रतिदिन जुझती जनता के दर्द को सड़क से संसद तक योगी संघर्षमय स्वर प्रदान करते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि केन्द्र और प्रदेश में विपक्षी पार्टियों की सरकार होने के बावजूद गोरखपुर विकास के पथ पर अनवरत गतिमान है। आपने स्वास्थ्य, रोजगारपरक व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जैसी सुविधाएँ जन के घर तक पहुंचाई है।

षड्यंत्रों के तहत मीडिया के द्वारा आपको अक्सर क्षत्रियवादी साबित कर जातिवादी घोषित करने का प्रयास चलता रहता है, जिसे आपकी जाति-वर्ण से ऊपर हिन्दुत्त्व को प्राथमिकता देने वाली कार्यशैली परास्त कर देती है।


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महन्त बाबा दिग्विजयनाथ, गोरखनाथ मंदिर, गोरखपुर

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Mahant Yogi Digvijay Nath, Gorkhnath Mandir, Gorkhpur

योगी आदित्यनाथ के उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद गोरखपुर का गोरक्षनाथ पीठ और वहां के महंतों को जानने की हर किसी में जिज्ञासा बढ़ी है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस चर्चित, प्रसिद्ध पीठ पर मेवाड़ के महाराणा प्रताप के भाई के वंश में जन्में एक योगी भी महन्त पद पर रह चुके है और उन्हीं के द्वारा शुरू की गई कई जनहित योजनाओं को योगी आदित्यनाथ ने आगे बढाया है|
असाधारण प्रचण्ड व्यक्तित्व, ओज, तेजस्विता का सजीव श्रीविग्रह, गौर वर्ण, मोहक आकर्षक व्यक्तित्व, दक्षता और सत्यावृत्त निष्ठा के प्रतीक, लम्बा और विशाल शरीर, सुडौल तथा सुगठित अंग-प्रत्यंग वाले, योगाचार्य, धर्माचार्य, शिक्षाचार्य-आचार्यत्रय की महिमा से संपन्न सिद्ध योगपीठ के महन्त व अप्रितम लोकनायक बाबा दिग्विजयनाथ का जन्म काकरवाँ उदयपुर के राणावत परिवार में सम्वत 1951 वि. वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। उनका बचपन का नाम राणा नान्हूसिंह था। मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह के 24 भाइयों में तीसरे भाई विरमदेव के वंशज को काकरवाँ की जागीर मिली थी। उसी ठिकाने में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह से बाईसवीं पीढ़ी में ठाकुर उदयसिंह राणावत के कुल में चार पुत्रों में तीसरे पुत्र के रूप में महन्त दिग्विजयनाथजी का आविर्भाव हुआ था। उदयपुर के सन्निकट फूलनाथ नामक नाथपंथ के एक योगी रहते थे। वे गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर के तत्कालीन महन्त बलभद्रनाथ जी के शिष्य थे। ठा. उदयसिंह ने उनसे निवेदन किया- ‘‘मेरी कई संताने है। एक संतान मैंने गोरखनाथ के गोरखनाथ मंदिर में चढाने की मनौती की थी। अतः मैं अपनी एक संतान आपको भेंट करता हूँ। फूलनाथ नान्हूसिंह को लेकर गोरखपुर आये और वहां यह खबर फैला दी गई कि नान्हूसिंह गणगौर के मेले में खो गये थे। फूलनाथ ने नान्हूसिंह को गोरखनाथ मंदिर के महन्त के हाथों सौंप दिया। योगिराज बाबा गम्भीरनाथ की देख-रेख में इनका पालन-पोषण हुआ तथा शिक्षा-दीक्षा की संतोषजनक व्यवस्था की गई। दिग्विजयनाथ के प्रारंभिक जीवन काल में गोरखनाथ मंदिर के महन्त सुन्दरनाथ थे। सुन्दरनाथ के गूरुभाई योगी ब्रह्मनाथ दिग्विजयनाथ पर अपार स्नेह रखते थे।

महन्त सुन्दरनाथ के ब्रह्मलीन होने के बाद 1989 में ब्रह्मनाथ महन्त पद पर अधिष्ठित हुये। उन्होंने विधिवत यौगिक शिक्षा प्रदान कर दिग्विजयनाथ को अपना शिष्य बनाया। उनके ब्रह्मलीन होने के बाद बाबा दिग्विजयनाथ महन्त पद पर अधिष्ठित हुये और 1992 वि. से 2026 वि. की आश्विन कृष्ण तृतीया तक जीवनपर्यन्त महन्त पद का दायित्व संभालते रहे। उन्होंने प्राचीन गोरखनाथ मंदिर, गोरखपुर का पुनर्निर्माण कर उसका भव्य कायाकल्प कर दिया। साथ ही साथ वे भारतीय शिक्षा जगत के महनीय आचार्य थे। महाराणा प्रताप के स्वाभिमान से प्रेरित होकर उन्होंने महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद ट्रस्ट के अंतर्गत महाराणा प्रताप विद्यालय, गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ, महाराणा प्रताप शिशु शिक्षा विहार, महाराणा प्रताप पोलिटेक्निक, दिग्विजयनाथ स्नातकोतर महाविद्यालय आदि की स्थापना कर अपनी विशाल हृदयता, दक्षता तथा शैक्षिक पुनर्जागरण में सुरुचि का अनुभवपूर्ण परिचय दिया। गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना में भी उनकी अग्रणी भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने अखिल भारतीय अवधूत भेष बारहपंथ नाथ योगी महासभा का सन 1939 ई. में गठन कर उसका आजीवन अध्यक्ष पद भी सुशोभित किया था तथा योगियों के जीवन में अद्भुत संक्रांति विकसित की। वे सच्चे अर्थ में हिन्दू थे, हिन्दुओं के प्रति उनके हृदय में अगाध निष्ठा और श्रद्धा थी।

सन 1946 ई. में आपने योगीश्वर गोरखनाथ की तपोभूमि, गोरखपुर में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अधिवेशन का ऐतिहासिक आयोजन किया था तथा ग्वालियर में संवत 2017 वि. में संपन्न हुये अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। वे आदर्श कर्मयोगी, राष्ट्रवादिता के प्राण, आचार्य शंकर, समर्थ स्वामी रामदास, स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानंद तथा स्वामी रामतीर्थ की परम्परा के ही प्राणवान अंग थे।

महन्त दिग्विजयनाथजी ने स्पृहणीय यशस्वी जीवन जीकर संवत 2026 वि. की आश्विन कृष्ण तृतीया, 28 सितम्बर सन् 1969 ई. को सांयकाल 75 वर्ष की अवस्था में शिवैक्य प्राप्त किया। उनका नाम, उनका कालजयी कृतित्व भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

श्रीगोरखनाथ मन्दिर के पश्चिमी पृष्ठ भाग में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं शैक्षिक पुनर्जागरण के पुरोधा, हिन्दु राष्ट्र के उद्गाता, महान धर्मयोद्धा युगपुरुष, ब्रह्मलीन महन्त दिग्विजयनाथ महाराज के कृतित्व के अनुरूप श्रद्धांजलि-स्वरूप उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी वर्तमान गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवेद्यनाथ द्वारा निर्मित सैकडों वर्गफीट क्षेत्र के विस्तार से युक्त विशाल और भव्य ‘महन्त दिग्विजयनाथ स्मृति भवन’ अपने आप में नाथ योग के ऐश्वर्य और भारतीय संस्कृति की अखण्डता, राष्ट्रीयता तथा हिन्दुत्व का चिरस्थायी भव्य स्मारक है। भवन में भूतल पर सुसज्जित सभागार है। जिसमें पाँच हजार से अधिक लोग एक साथ बैठ सकते हैं। भवन की दीर्घाओं में चारों ओर भित्ति पर योग साधना तथा नाथ पंथ से सम्बन्धित महापुरुषों के चरित्र चित्र-कथाओं के माध्यम से प्रदर्शित किये गये हैं। अन्य देवी-देवताओं तथा राष्ट्रीय महापुरुषों के भी चित्र एवं उनकी मूर्तियाँ तथा सुभाषित यत्र-तत्र उत्कीर्ण है। भवन के ऊपरी तल में पुस्तकालय तथा गोरक्षनाथ प्राच्य विद्या शोध संस्थान का कार्यालय है।


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अंग्रेज संधि से क्रुद्ध इस वीर ने कप्तान लुडलो पर तलवार से किया था वार

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उस दिन जोधपुर का मेहरानगढ़ किला खाली करके अंग्रेजों को सुपुर्द करने का कार्य चल रहा था। किले के बाहर कर्नल सदरलैण्ड और कप्तान लुडलो अपने पांच-सात सौ सैनिकों के साथ किले पर अधिकार के लिए किला खाली होने का इंतजार कर रहे थ। किले के किलेदार रायपुर ठिकाने के ठाकुर माधोसिंह किला खाली करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने महाराजा मानसिंह की किले में उपस्थिति के बिना किला खाली करने से साफ इंकार कर दिया। आखिर स्वतंत्र रहने की चाहत रखने वाले किलेदार को महाराजा मानसिंह ने किले में आकर समझाया तब जाकर किलेदार किला खाली करने को सहमत हुये।

महाराजा ने स्वयं साथ जाकर अंग्रेजों के आदमियों को जगज जगह नियुक्त करने के साथ उनका अपने आदमियों से परिचय कराया। इस तरह मेहरानगढ़ किला खाली कर दिया गया। राजा व रानियाँ भी किले से बाहर रहने को चले गये। किला खाली होने की सूचना पाकर कर्नल सदरलैण्ड और कप्तान लुडलो अपने सैनिकों के साथ किले के भीतर गए। कर्नल सदरलैण्ड महाराजा के साथ वापस आ गया और कप्तान लुडलो अपने 300 सैनिकों के साथ किले की व्यवस्था व प्रबन्ध हेतु किले में रहा। इस तरह जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर जिसकी स्वतंत्रता लिए रणबंका राठौड़ों ने वर्षों अपने प्राणों का वर्षों तक बलिदान दिया, अंग्रेजों के अधीन हो गया।


लेकिन स्वतंत्रता प्रेमी लोगों को यह सब रास नहीं आया, कवियों ने अपनी रचनाओं में इस घटना पर व्यंग्यपूर्ण अभिव्यक्तियाँ की। एक कवि ने इस पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहा-

राण्या तळहट्या उतरै, राजा भुगतै रेस।
गढ़ ऊपर गौरां फिरै, सुरग गया सगतेस।।

इस दोहे का असर अन्य किसी पर हुआ हो या नहीं, परन्तु वहां उपस्थित स्वतंत्रता प्रिय करमसोत राठौड़ सरदार भोमजी पर अवश्य हुआ और उसकी प्रतिक्रिया जुबान से ना होकर तलवार के वार से अभिव्यक्त हुई। भोमसिंह ने सुरक्षा कर्मियों से घिरे पॉलिटिकल एजेन्ट मिस्टर लुडलो पर एकाएक तलवार से वार कर अपने राजपूती शौर्य और स्वतंत्रता प्रेम को प्रदर्शित किया। सुरक्षाकर्मियों के बीच में आने के कारण मिस्टर लुडलो मामूली चोट से घायल ही हुआ, पर लुडलो के सुरक्षा कर्मियों से मुठभेड़ में भोमसिंह घायल हो गया और वह चार-पांच दिन बाद वीरगति को प्राप्त हुआ। इस घटना पर महाराजा द्वारा खेद प्रकट करने पर मामला वहीं शांत हो गया। जोधपुर के स्वतंत्रता प्रिय महाराजा मानसिंह को अपने राज्य की आंतरिक परिस्थियों, उनके खिलाफ अनवरत चले षड्यंत्र, सामंत-सरदारों का पूर्ण सहयोग नहीं मिलने पाने के कारण विवश होकर वि.सं. 1860, पौष शुक्ल 9 को अंग्रेजों के साथ संधि करनी पड़ी। किन्तु शर्तों के उटपटांग होने के कारण महाराजा मानसिंह ने उस पर अपने हस्ताक्षर नहीं किये। वि.सं. 1874 पौष कृष्णा 30 को छत्रसिंह के राज्यकाल के समय पुनः अंग्रेजों के साथ संधि हुई। महाराजा मानसिंह इस संधि से संतुष्ट नहीं थे। वि. सं. 1875 में अंग्रेजों से एक और संधि हुई, किन्तु महाराजा मानसिंह ने कभी अंग्रेजों को कर नहीं चुकाया और आंतरिक शासन में अंग्रेजों के दखल को लेकर उनके हमेशा मतभेद रहे।

महाराजा को बेशक अपनी विवशता के चलते अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी, पर भोमसिंह द्वारा अंग्रेज अधिकारी पर हमला करने, ठाकुर माधोसिंह द्वारा किला खाली करने से इन्कार करना साफ जाहिर करता है कि आम राजपूत अंग्रेजों की चाल को समझता था और उसे अंग्रेजों की गुलामी पसंद नहीं थी। इससे पूर्व भी साथीणा के भाटी सरदार शक्तिदान ने अंग्रेज सत्ता के खिलाफ अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त की थी, पर उनका अजमेर में निधन के होने के बाद यह मुहीम आगे नहीं बढ़ी।

सन्दर्भ: इस घटना का जिक्र पंडित विश्वेश्वर नाथ रेऊ ने अपनी पुस्तक ‘मारवाड़ के इतिहास’ व ‘करमसोत राठौड़ों का पूर्वज और वंशज’ पुस्तक में सवाईसिंह व छाजूसिंह बड़नगर ने किया है।

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बड़गूजर बनाम राघव द्वंद्व

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Badgujar or Raghav, True History of badgujar kshtriya in Hindi

वर्तमान में लगभग 30-35 वर्षों से बड़गूजरों का एक तथाकथित शिक्षित वर्ग अपने आपको 'राघव कुल के रुप में प्रतिस्थापित करने की जटिल व्याधि से ग्रसित होता जा रहा है।
सूर्यवंशियों के किसी भी कुल के व्यक्ति द्वारा अपने आपको 'राघव' या 'रघुवंशी' कहना या लिखना अनुचित नहीं है, क्योंकि सभी सूर्यवंशी क्षत्रिय महाराज रघु के वंशधर होने के कारण रघुवंशी कहे जाते हैं। परन्तु उसके साथसाथ सबके अपने-अपने कुल भी हैं।
"पृथ्वीराज रासौ में मेवाड़पति रावल समरसिंह के लिए रघुवंशी शब्द का प्रयोग किया गया है :-
अति प्राकृम रावर सुमर, कूर्रेम नरसिंग जग्गि।
रघुवंशी अति क्रम गुर, कत्थ करन कलि लगि ।68। (भाग-2, पृ. 574)

जबहि सेन चतुरंग, साहि अरि जंग आइ जुहि।
तबही राज रघुबंश, झुकित वर खड्ग अप्पगहि ।।69। (भाग-2. पू. 575)

प्रतिहार हम्मीर के लिए भी रघुवंशी' शब्द प्रयुक्त हुआ है :-
बर रघुवंश प्रधान, राज मंड्यौ विच्चारिय।
बोलि वीर हम्मीर, भेद जाने धर सारिय। (भाग-2, पृ. 957, काँगड़ा युद्ध)

पजवन राय कछावा के लिए कूरम वंशी प्रयुक्त हुआ है:-
सोलंको सारंगा, राव कूरंम पञ्जूनं।।
लोहा लंगरिराव, खग्ग मग्गह दह गून । (भाग-4, पृ. 642)

उक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त सभी विभिन्न कुलों के राजाओं के लिए 'रघुवंशी' के साथ-साथ उनके कुलों का भी उल्लेख किया गया है। ऐसे में मात्र बड़गूजरों द्वारा अपने कुल के रूप में 'राघव' शब्द का प्रयोग करना, इतिहास को विकृत करने की कुचेष्टा ही होगी।
इसी प्रकार से मध्यप्रदेश के शाजापुर में डाडिया खेड़ी में राजौरा बड़गूजरों की जागीर रही है। यहाँ के बड़गूजर अपने-आपको 'सीसोदिया' कहते हैं।
उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर, गाजियाबाद, बदायूँ, मुरादाबाद, मेरठ आदि में बड़गूजर कुल की राजौरा खाँप के लोग बहुतायत में हैं। यहाँ के बड़गूजर भी अपने-आपको 'राघव बतलाते हैं व राजौरा बतलाने से घबराते हैं। उनको यह भय है कि हमें कोई 'नाई न समझने लग जाए क्योंकि उधर राजौरा नाई भी हैं।
मजे की बात देखिए कि बुलन्दशहर की शिकारपुर तहसील में राजौराओं के 27 गाँव हैं, जो जाट हो गए हैं, वे अपने-आपको राजौरा बड़े गर्व के साथ बतलाते हैं। बड़गूजरों में व्याप्त होती जा रही इस विकृति के विषय में जब विचार किया तो ज्ञात हुआ कि यह कोई 35-40 वर्ष पुरानी ही है। जो कुछ तथाकथित शिक्षित लोगों ने प्रविष्ट करवा दी है। इसके पीछे दो कारणों का होना प्रतीत होता है।

प्रथम- ऐसे लोगों का अपने इतिहास से अनभिज्ञ होना।
दूसरा कारण है, ऐसे वर्ग का आत्मलघुत्व की हीन मनोवृति से ग्रसित होना। 'बड़गूजर" शब्द में 'गूजर" शब्द के समाहित होने से इस कुल का यह शिक्षित वर्ग, इस भय से कि हमें गूजर व अन्य समाज के लोग गुर्जरों के भाई-बन्धु न समझने लग जाएँ, अपने आपको बड़गूजर बतलाने व लिखवाने में घबराते हैं। यह इनकी हीन मनोवृत्ति का ही परिचायक है।
जब तक हमारा समाज अनपढ़ रहा, इस प्रकार की हीन प्रवृत्ति के लिए कोई स्थान नहीं था। जैसे ही शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ने लगी, इस प्रकार की बीमारियाँ भी समाज में प्रविष्ट होने लगी।
बड़गूजर कुल के जो लोग अपने-आपको सीसोदिया मानकर बैठे हैं, स्वयं तो अंधेरे में हैं ही, साथ-साथ अपने आने वाले वंशजों को भी अंधेरे में धकेलने का कार्य कर रहे हैं क्योंकि सीसोदिया खाँप का बड़गूजर कुल में कोई इतिहास नहीं मिलेगा व गुहिलोत कुल में डाडिया खेड़ी का इतिहास मिलने के कारण इन लोगों का इतिहास नष्ट हो जायेगा। तत्पश्चात् ये क्या बन जायेंगे, हमें पता नहीं।

उसी प्रकार से जो राजौरा बड़गूजर इस भय से कि उन्हें कोई नाई या हरिजन न मान लें, वे अपनी खाँप (राजौरा) का प्रयोग नहीं करते है तो यह निश्चित है कि खाँप छोड़ने से तो अवश्य ही आने वाले समय में वे नाई मान लिए जायेंगे और राजौरा नाई बड़गूजर राजपूत मान लिए जायेंगे क्योंकि सूनी पड़ी हुई वस्तु का कोई न कोई मालिक जरूर ही बन बैठता है।
पूर्व अध्याय में हमने स्पष्ट किया है कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर जब कोई क्षत्रिय राजा बसते थे तो वे अपने पूर्व स्थान का किसी न किसी रूप में जिक्र करते रहे हैं व अब भी होता है। इसके साथ-साथ उसी स्थान से अन्य जातियों के लोग भी उन राजाओं के साथ आवश्यक कार्यों को करवाने के लिए बसाये जाते थे। जैसे राजौरगढ़ से अन्यत्र जो बड़गूजर राजौरा बड़गूजर कहलाते हैं। उसी प्रकार से ब्राह्मण, नाई, कुम्हार, भी राजौरगढ़ से गए होंगे जो राजौरा ब्राह्मण, राजौरा नाई, राजौरा व राजौरा चमार हैं। ऐसे में मात्र बड़गूजरों का अपने खाँप से घबराना ही विचित्र व हास्यास्पद है, क्योंकि दूसरे समाज के लोग इस रोग से ग्रसित नहीं हैं, जो कि क्षत्रियों के सहायक रहे हैं।

नहीं यदि तरह से यह विकृति करण जारी रहा तो बड़गूजर कुल दो वर्गों में विभक्त हो जायेगा - एक राघव व दूसरा बड़गूजर। इनमें से कौनसा रहेगा व कौनसा अन्य समाजों में मिलेगा, यह उसकी काल व परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। लेकिन यह तो निश्चित है कि क्षात्रधर्म, इतिहास, सभ्यता व संस्कृति को तिलांजलि देने के बाद कोई भी व्यक्ति क्षत्रिय बना नहीं रह सकता है, फिर चाहे वह किसी समाज में मिल जाए। मैं इतना उच्च शिक्षित व्यक्ति तो नहीं हैं, लेकिन यह तो मुझे ज्ञात हो हो गया है कि 'राघव कुल के नाम से किसी बड़वा की पोथी में, काव्यमहाकाव्य, बात-ख्यात, किसी गजेटियर में, विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरण, किसी शिलालेख, ताम्रपत्र लेख, मन्दिर या बावड़ी के लेख आदि में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। जहाँ रघुवंश या रघुवंशी शब्द का प्रयोग हुआ है, यह सभी सूर्यवंशियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, मात्र बड़गूजरों के लिए नहीं हुआ है|

इसलिए हमें जो हम नहीं है, वह नहीं बनकर के, जो हम हैं, बने रहते हुए, अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित, पोषित चिरकालीन परम्परा को बनाये खते हुए और संवर्द्धित करते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए अग्रसर करना हमारा कर्तव्य है।

- महेंद्रसिंह तलवाना की पुस्तक "बड़गूजर राजवंश" से साभार (आयुवानसिंह स्मृति संस्थान द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक, राजपूत सभा भवन, जयपुर से प्राप्त की जा सकती है)


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इतिहास के आईने में राजस्थान का नामकरण

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History of word Rajsthan's etymology

आजादी से पूर्व राजस्थान के भूभाग पर विभिन्न राजपूत राजकुलों का शासन होने के कारण राजपूताना कहलाता था। राजपुताना शब्द मुगलकाल से ही प्रचलित था। इतिहासवेत्ता डा. रघुवीरसिंह सीतामऊ ने ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखा है- भाग्य की यह अनोखी विडम्बना ही है कि जिस विधर्मी विजेता अकबर के प्रति राजस्थान में सतत विरोध उभरता रहा, ‘अजमेर सूबे’ का संगठन कर उसी ने इतिहास में प्रथम बार इस समूचे क्षेत्र को प्रादेशिक इकाई का स्वरूप दिया।’
मुगलकाल के बाद अंग्रेजों के शासनकाल में यहाँ के राजाओं के साथ संधियाँ होने के बाद अजमेर में राजपूताना एजेंसी की स्थापना हुई। इस तरह मेवाड़, मारवाड़, ढूंढाड़, शेखावाटी, हाड़ौती, मत्स्य, जांगल, बागड़, सपालदक्ष, शाकम्बरी आदि रियासतों के नाम वाला यह प्रदेश एक प्रादेशिक इकाई के रूप में राजपूताना के नाम से पहचाना जाने लगा। पर आजादी के बाद देश की सर्वोच्च जनतंत्रीय संसद ने इस प्रदेश को राजस्थान का नाम दिया।


अब प्रश्न यह उठता है कि सदियों से प्रचलित रहे राजपूताना शब्द की जगह इस प्रदेश के लिए ‘राजस्थान’ शब्द सबसे पहले किसने प्रयुक्त किया। इसके लिए इतिहास पर नजर डाली जाये तो आजादी के बाद के सभी इतिहासग्रंथों में राजस्थान प्रदेश के नामकरण का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को प्रदान किया है। इतिहासवेत्ता डा. रघुवीरसिंह सीतामऊ ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार उनका कृतित्व’ में लिखते है- ‘‘अनेकों समन्दर पार कर विदेशी गोरी सत्ता का अधिपत्य करवाने में प्रमुख अभिकर्ता, कर्नल जेम्स टॉड उस प्रदेश के वर्तमान नाम ‘राजस्थान’ का सुझाव ही नहीं दिया, परन्तु अपने अनुपम ग्रन्थ ‘टॉड राजस्थान’ के द्वारा उसकी कीर्ति-गाथा को जगत विख्यात भी किया, और जिससे वह सदैव आशंकित रहा, अंततः उसी दिल्ली ने भारतीय स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इसी राजस्थान को राजनैतिक और शासकीय इकाई के रूप में पूर्णतया सुसंगठित ही नहीं किया, अपितु उसे जनतंत्रीय स्वायत्तता भी प्रदान की।’’ डा. रघुवीरसिंहजी के समान ही अनेक इतिहासकारों ने राजस्थान नामकरण का श्रेय कर्नल टॉड को दिया है। क्योंकि कर्नल टॉड द्वारा लिखे गये राजस्थान के इतिहास ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ जो विश्व में प्रसिद्ध हुआ, के शीर्षक में ही राजस्थान नामकरण के इतिहास से सम्बधित गूढ़ तथ्य समाहित है। इसी पुस्तक के प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द आम प्रचलन में आया।

हालाँकि ऐसा नहीं कि राजस्थान शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कर्नल टॉड ने ही किया था। इससे पहले भी यह शब्द राजस्थानी भाषा में स्थान विशेष को लेकर रायथान या रायथाण के रूप में प्रयोग होता आया है। कर्नल टॉड कृत ‘राजस्थान का पुरातन एवं इतिहास’ पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार जहूर खां मेहर लिखते है- ‘‘यदि हम गहराई से राजस्थान शब्द की विभिन्न कालों में यात्रा की खोज करें तो ज्ञात होगा कि राजस्थान शब्द का अबतक का ज्ञात प्राचीनतम उल्लेख वि.सं. 682 का है जो पिण्डवाड़ा से तीन कोस की दूरी पर स्थित बसंतगढ़ में खीमल माता के मंदिर के पास शिलालेख पर उत्कीर्ण है। मुंहणोत नैणसी, जोधपुर के घड़ोई गांव के निवासी तथा महाराजा अभयसिंह (1724-1749 ई.) के आश्रित कवि वीरभांण रतनू ने अपने ग्रन्थ राजरूपक में भी राजस्थान शब्द का उल्लेख किया है, इसी प्रकार जोधपुर के महाराजा भीमसिंह ने 1793 ई. में जयपुर के महाराजा जगतसिंह को जो पत्र लिखा था, जिसमें मराठों के विरुद्ध राजपूत राज्यों की एकता का आव्हान किया गया था, राजस्थान शब्द का उल्लेख है। अनेक अन्य टॉड पूर्व के साधनों में राजस्थान शब्द विद्धमान है।’’ इसी पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासवेत्ता जहूर खां मेहर ने नैणसी, जखड़ा मुखड़ा भाटी री बात, दयालदास सिंढायच री ख्यात, कहवाट सरवहिये री वात, वीरभाण रतनू का राजरूपक, बाँकीदास द्वारा लिखित बाँकीदास ग्रंथावली में प्रयुक्त ‘राजस्थान’ शब्द वाले कई वाक्य लिखें है जैसे-

इतरै गोहिलां पिण आलोच कियौ- जो राठोड़ जोरावर सिरांणै आय राजस्थांन मांडियौ।- नैणसी
विणजारै रै सदाई हुवै छै, इसौ वहानौ करि चालतौ चालतौ गिरनार री तळहटी पाबासर माहै राजथांन छै, तठै आय पड़ियौ।- कहवाट सरवहिये री वात
सूम मिळै अन सहर में, सहर उजाड़ समान। जो जेहो- वन में मिळै, बन ही राजसथांन।- बाँकीदास ग्रंथावली
थिर ते राजस्थान महि इक छत्र मोम सांमथ। अेके आंण अखंड, खंडण मांण प्राण नव खंडं।- वीरभाण रतनू - राजरूपक

उपरोक्त तथ्यों को पढने के बाद जाहिर है टॉड की कृति ‘एनल्स एण्ड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ के पहले भी राजस्थानी साहित्य, शिलालेख व पत्र में राजस्थान शब्द का प्रयोग किया गया है। टॉड पूर्व राजस्थानी शब्द का प्रयोग दो अर्थों राजधानी अर्थात् राजा का स्थान के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। शायद टॉड ने उनमें से दूसरे अर्थ यानी राजा का स्थान को ग्रहण कर अपने ग्रन्थ का नामकरण किया हो। पर इतना तय है कि इस शब्द का प्रयोग सीमित था। टॉड द्वारा अपनी पुस्तक के शीर्षक में राजस्थान शब्द के प्रयोग और टॉड की इतिहास पुस्तक के विश्व प्रसिद्ध होने के बाद राजस्थान शब्द भी प्रसिद्धि में आया|

आजादी से पूर्व उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह ने 8 मई 1943 में ख्याति प्राप्त उद्योगपति गोविन्द राम शेखसरिया को संस्थापक अध्यक्ष नियुक्त कर बैंक ऑफ राजस्थान की स्थापना कर राजस्थान शब्द का प्रयोग किया था। बाद में बैंक ऑफ राजस्थान का आईसीआईसीआई बैंक में विलय हो गया लोगों का मानना है कि इस बैंक के ऐतिहासिक महत्व का इस बात से पता चलता है कि आजादी के बाद जब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में 14 जनवरी 1949 को आयोजित बैठक में 22 रियासतों के विलय के बाद बने राज्य राजपुताना के स्थान पर ‘राजस्थान’ नाम दिया गया, यह नाम बैंक ऑफ राजस्थान से लिया गया।

आजादी के बाद देश की जनतांत्रिक सरकार ने इस प्रदेश के नामकरण के लिए इसी नाम ‘राजस्थान’ को स्वीकार किया। जो भी हो पर इतना तय है कि जब भी राजस्थान के नामकरण के इतिहास पर चर्चा होगी कर्नल जेम्स टॉड की भूमिका को याद करते हुए उसका जिक्र अवश्य किया जायेगा।


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टॉड को राजस्थान का इतिहास लिखने की चुकानी पड़ी थी ये कीमत

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कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान का इतिहास लिखा। इसके लिए उसने अनेक प्रमाणिक संसाधन एकत्रित किये। जैसे पुराण, रामायण, महाभारत, अनेक राज्यों व राजवंशों की ख्यतें, पृथ्वीराजरासो, खुमाणरासो, हमिरारासो, रतनरासो, विजयविलास, जयविलास, सूर्यप्रकाश, हमीरकाव्य और ना जाने कितने क काव्य, नाटक, व्याकरण कोश, ज्योतिष, शिल्प, महात्म्य, जैन साधुओं द्वारा लिखित अनेक पुस्तकें, कई शिलालेखों का विवरण और राजपरिवारों के दस्तावेज। इन दस्तावेजों को समझने के लिए, उनका अनुवाद करवाने के लिए संस्कृत, प्राकृत व प्राचीन राजस्थानी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता जैन यति ज्ञानचन्दजी को उसने गुरु बनाया और उनके सानिध्य में राजस्थान के इतिहास को समझा। चूँकि कर्नल जेम्स टॉड बड़े पद पर था, राजा-महाराजाओं के सीधे सम्पर्क में था, सो उसे जो चाहिए था, मिला। फिर उसके पद के चलते उसके पास भी इन चीजों को एकत्र करने के लिए पूरे संसाधन थे। लगभग साढ़े चार साल के सेवाकाल में तब उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठाते हुए उसने राजपूतों का राजनैतिक इतिहास, उनकी संस्कृति, साहित्य आदि को अधिकाधिक जानने समझने का भरसक प्रयास किया। और जगह जगह घूमकर ऐतिहासिक तथ्य व सामग्री एकत्र की। अपनी इसी विपुल सामग्री के आधार पर उसने राजस्थान का इतिहास लिखा जो विश्व प्रसिद्ध हुआ।


एक तरफ उसने राजस्थान को उसका व्यवस्थित इतिहास उपलब्ध कराया दूसरी ओर उसने चारणों, भाटों, ब्राह्मणों, पण्डितों, बुजुर्ग व्यक्तियों से सुनी सुनाई बातें इतिहास में जोड़ कर कई गलत तथ्य पेश कर ऐतिहासिक विकृतियाँ भी पैदा कर दी। हो सकता है उसका ऐसा का कोई मकसद नहीं रहा हो। फिर भी उसके लेखन की वजह से कई विसंगतियों का जन्म हुआ जो आज विवाद का विषय बनते रहते है। एक ओर उसके इतिहास लेखन की वजह से कई आधुनिक इतिहासकारों ने उसे यशस्वी लेखक के विशेषण से आभूषित किया, वहीं बहुत से इतिहासकार उसकी ऐतिहासिक भ्रांतियां फैलाने के लिए कटु आलोचना भी करते है।

कर्नल टॉड ने जहाँ अपने इतिहास लेखन से विश्व इतिहास में प्रसिद्धि पाई, उसी इतिहास लेखन की वजह से उसे अपने सेवाकाल के अंतिम वर्षों में अपने ही अधिकारीयों व सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ी। यही नहीं उसके लिखे इतिहास को पढने के बाद उस पर भ्रष्टाचार का सन्देह भी व्यक्त किया जाने लागा। कर्नल टॉड कृत ‘राजस्थान का पुरातन एवं इतिहास’ पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार जहूरखां मेहर लिखते है- ‘‘इतिहास लेखन में राजपूतों के प्रति प्रशंसात्मक भाव रखने के कारण भारत में कार्यरत कम्पनी के उच्च-पदाधिकारी उसके सेवाकाल के अंतिम वर्षों में उससे पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं थे।’’ विशप हैबर ने सन 1824 ई. में लिखते हुए यह स्वीकार किया कि ‘‘राजपुताना के सम्पूर्ण उच्च एवं माध्यम वर्ग के लोगों में श्रीमान टॉड के प्रति सम्मान एवं स्नेह का भाव है। लेकिन उनका दुर्भाग्य रहा कि उनके द्वारा देशी राजाओं के निरंतर पक्षपात के कारण कारण कलकत्ता की सरकार को यह सन्देह हो गया कि वे भ्रष्टाचार में लिप्त चुके हैं। परिणामतः सरकार ने उनकी शक्तियों को सीमित करने के लिए उनके साथ दूसरे अधिकारी लगा दिए। सरकार के इस व्यवहार से उनका मन आक्रोश से भर उठा और उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

इस तरह कर्नल टॉड को राजस्थान के इतिहास में राजपूतों की वीरता का बखान कर उसे विश्व के सामने उजागर करने की सजा उनके जीवनकाल में ही उन्हीं की सरकार के हाथों भुगतनी पड़ी।

वीर रस से सरोबार दोहे : "हठीलो राजस्थान"

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वर्ष 1954 से 1959 तक श्री क्षत्रिय युवक संघ के संघप्रमुख रहे स्व.श्री आयुवानसिंह जी शेखावत ,हुडील एक उच्च कोटि के लेखक, कवि व विचारक थे उन्होंने समाज को राह दिखाने के लिए राजपूत और भविष्य ,ममता और कर्तव्य ,मेरी साधना और वीर रस से भरपूर दोहों का संग्रह "हठीलो राजस्थान"लिखा |
हठीलो राजस्थान नामक पुस्तक जिसमे 360 दोहों का संग्रह है का 1972 में प्रकाशन किया गया जो अप्राप्य है बाद में इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया गया | पुस्तक में लिखे सभी दोहे सरल राजस्थानी भाषा में थे इसलिए सभी के लिए इन्हें समझना थोडा मुश्किल समझ श्री आयुवान स्मृति संस्थान ने नए संस्करण में प्रत्येक दोहे के साथ उसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया |
सभी दोहों का हिंदी अनुवाद राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों व प्रसिद्ध इतिहासकारों ने जिनमे डा.नारायणसिंह जी भाटी जोधपुर, डा.शम्भूसिंह मनोहर, रघुनाथसिंह जी कालीपहाड़ी आदि सम्मिलित थे ने किया |

स्व.आयुवानसिंह जी द्वारा लिखित ये दोहे अब तक श्री क्षत्रिय युवक संघ के स्वयं-सेवको की पहुँच तक ही सिमित थे पर अब इन्हें आम जन तक पहुँचाने के उद्देश्य के तहत "हठीलो राजस्थान" नामक पुस्तक के वीर रस से सरोबार दोहों का प्रकाशन नियमित रूप से GyanDarpan.com पर हो रहा है जिन्हें पढ़कर आप भी स्व.आयुवानसिंह जी की लेखनी का रसास्वादन जरुर करें |

Hathilo Rajasthan, Veer ras ke rajasthani dohe hindi anuwad sahit, Hathilo Rajasthan by Ayuvan singh shekhawat

हठीलो राजस्थान -1

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दीधा निज गुण देवता,
रिखियां दी आसीस |
जिण दिन सिरजी मरुधरा,
सोणी नायो सीस ||१||
जिस दिन विधाता ने इस मरुधरा (राजस्थान)का सृजन किया ,उस दिन देवताओं ने उसे अपने गुण प्रदान किये तथा ऋषियों ने आशीर्वाद दिया एवं पृथ्वी ने अपना शीश झुकाया |

धरमराज दीधो धरम,
भिखम प्रण बलवान |
विष्णु खमा शिव रोस निज ,
सुरसत वाणी दान ||२||

धर्मराज युधिष्टर ने इस राजस्थान में धर्म को व भीष्म पितामह ने दृढ-प्रण-पालन को स्थापित किया | विष्णु ने क्षमा,शिव ने अपना रोष व सरस्वती ने इसे वक्तत्व की क्षमता प्रदान की |

सूरज दीधो तेज सह,
धनपत धन गुणरास |
सतियाँ मिल सतवान की,
रजरूडी रज वास ||३||
सूर्य ने इसे अपना तेज देकर तेजस्वी व धनपति धनकुबेर ने इसे धन व गुणों का भण्डार प्रदान किया | सतियाँ ने मिलकर यहाँ सत्य धर्म की स्थापना की | इन गुणों का विकास व पालन ही इस राजस्थान की परम्परा है |

अरजण दिधि वीरता,
माधव नीती मन्त्र |
पवन तनय बल आपियो ,
द्रोण दियो रण- तंत्र ||४||
अर्जुन ने इस वीर भूमि को वीरता प्रदान की तो श्री कृष्ण ने इसे नीती का मन्त्र दिया | पवन-सुत हनुमान ने इसे अतुल बल-पराक्रम प्रदान किया तो द्रोणाचार्य ने रण नीती का पाठ पढ़ाया |

दीधी करण सुदानता,
दुरजोधन निज आण |
सीतापत सूं सीखली,
कुळ मरजादा कांण ||५||
कर्ण ने इसे अपनी दानशीलता तथा दुर्योधन ने आन पर मर मिटने की शिक्षा दी | सीतापति भगवान राम से इसने अपने कुल की मर्यादा की सीमा का ज्ञान सिख लिया |

जबरन धाड़ो दौड़ता,
दिसै ना कुछ दोस |
सुरबाला रो रूप सह,
लीधो इण धर खोस ||६||
वीर धर्म के अंतर्गत बल-प्रयोग द्वारा बलवान और सम्पन्न पर डाका डालने में एक भी दोष नहीं दिखाई देता है | इसी सिधान्तानुसार इस राजस्थान ने सुर-ललनाओं के समस्त रूप को डाका डालकर छीन लिया |

दीधा न जो देवता,
लुठा पण ही लीन |
इन्दर भाग्यो आंतरै,
अब लग बिरखाहीन ||७||
देवताओं ने जो इसे नहीं दिया ,उसे यहाँ के वीरपुत्रों ने अपने भुज-बल से बलपूर्वक ले लिया | इससे भयभीत होकर देवताओं का राजा इंद्र कहीं दूर भाग गया था | यही कारण है कि इस धरती पर आज तक वर्षा क्षीण होती है |

सुरसत आवै इण धरा ,
हंस भलां असवार |
इक हाथ वीणा बाजणी,
बीजै हथ तरवार ||८||
हे सरस्वती ! आप इस धरा पर अपने वाहन हंस पर आरूढ़ होकर आयें | आपके एक हाथ में भले ही वीणा हो ,परन्तु दुसरे हाथ में तलवार अवश्य होनी चाहिए | (क्योंकि इस वीर भूमि में आपका अवतरण बिना तलवार के शोभा नहीं देगा) |

नम-नम नाऊँ माथ नित,
सुरसत दुरगा माय |
दोन्यू देव्यां मेल इत,
सोनो गंध सुहाय ||९||
मैं नित माँ शारदा और दुर्गा के बारम्बार मस्तक नवाता हूँ | यहाँ इन दोनों ही देवियों में परस्पर अटूट प्रेम रहा है ,जो मानों सोने में सुगंध के समान है | (यहाँ विद्या और वीरता का मणि -कांचन संयोग रहा है)



श्री क्षत्रिय युवक संघ के अग्रणी नेताओं में से एक स्व.आयुवान सिंह जी शेखावत ने अपनी कलम से कई पुस्तकों के साथ "हठीलो राजस्थान " नामक पुस्तक में ३६० दोहों का एक संग्रह लिखा | हालाँकि उनके दोहों की भाषा कठिन नहीं थी फिर भी आज के पढ़े लिखे लोगों के लिए राजस्थानी भाषा अपनी होते हुए भी परायी सी हो गयी अत: आयुवान सिंह समृति संस्थान ने उनके दोहों का संग्रह डा.नारायण सिंह जी भाटी,डा.शम्भूसिंह जी मनोहर,श्री रघुनाथ सिंह जी कालीपहाड़ी के सहयोग से हिंदी अनुवाद भी साथ में प्रकाशित किया |
हमारी कोशिश रहेगी राजपूत वर्ल्ड पर स्व.आयुवान सिंह जी के इन दोहों के साथ ही उनकी अन्य रचनाओं से भी आपको रूबरू करवाने की |

क्रमश:.........

हठीलो राजस्थान -2

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बहु धिन भाग वसुन्धरा,
धिन धिन इणरो तन्न |
दुरगा लिछमी सुरसती ,
तिन्युं जठै प्रसन्न ||१०||
इस वसुन्धरा(राजस्थान)का भाग्य धन्य है,और इसका शरीर भी धन्य है,क्योंकि इस पर दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती तीनों देवियाँ प्रसन्न है |(यहाँ पर वीरों की अधिकता से शौर्य की देवी दुर्गा की प्रसन्नता,धनवानों की अधिकता से धन की देवी लक्ष्मी की प्रसन्नता और विद्वानों की अधिकता के कारण विद्या की देवी सरस्वती की प्रसन्नता का भान होता है |

केसर निपजै न अठै,
नह हीरा निकलन्त |
सिर कटिया खग झालणा,
इण धरती उपजंत || ११||
यहाँ केसर नहीं निपजती,और न ही यहाँ हीरे निकलते है | वरन यहाँ तो सिर कटने के बाद भी तलवार चलाने वाले वीर उत्पन्न होते है |

सोनो निसरै नह सखी ,
नाज नहीं निपजन्त |
बटक उडावण बैरियां,
इण धरती उपजंत ||१२||
हे सखी ! यहाँ सोना नहीं निकलता;और न ही यहाँ अनाज उत्पन्न होता है | यहाँ पर तो शत्रुओं के टुकड़े-टुकड़े करने वाले वीर-पुत्र उत्पन्न होते है |

नर बंका,बंकी धरा,
बंका गढ़ , गिर नाल |
अरि बंका,सीधा करै,
ले बंकी करवाल ||१३||
राजस्थान के पुरुष वीर है,यहाँ की धरती भी वीरता से ओत-प्रोत है,दुर्ग,पहाड़ और नदी-नाले भी वीरता प्रेरक है | हाथ में बांकी तलवार धारण कर यहाँ के वीर रण-बाँकुरे शत्रुओं को भी सीधा कर देते है |

जुंझारा हर झूपड़ी,
हर घर सतियाँ आण |
हर वाटी माटी रंगी ,
हर घाटी घमसाण ||१४||
यहाँ पर प्रत्येक झोंपड़ी में झुंझार हो गए है,हर घर सतियों की आन से गौरान्वित है ,प्रत्येक भू-खंड की मिटटी बलिदान के रक्त से रंजित है ,तथा हर घाटी रण-स्थली रही है |

हर ढाणी,हर गांव में ,
बल बंका, रण बंक |
भुजां भरोसै इण धरा,
दिल्ली आज निसंक ||१५||
यहाँ हर ढाणी और हर गांव गांव में बल बांके और रण-बांके वीर निवास करते है | जिनके भुज-बल के भरोसे दिल्ली (देश की राजधानी) निस्शंक (सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त )है|

स्व.कु.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील


हठीलो राजस्थान- 3

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खल खंडण,मंडण सुजण,
परम वीर परचंड |
तो भुज -दंडा उपरे,
भारत करै घमण्ड ||१६||
दुष्टों का नाश और सज्जनों का पालन करने वाले यहाँ के वीर अत्यंत प्रचंड है ; जिनके भुज-दण्डो पर भारत को गर्व है|

भारथ कर भारत रंग्यो,
कण-कण भारत काज |
राखी भारत लाज नित,
अंजसे भारत आज ||१७||
यहाँ के वीरों ने भारत -भूमि की रक्षा के लिए प्रचंड युद्ध करके भारत-भूमि के कण-कण को रक्त-रंजित कर दिया | उन्होंने सदैव भारत की लाज रखी,जिस पर आज भी देश गर्व करता है |

मत कर मोद रिसावणों,
मत मांगे रण मोल |
तो सिर बज्जे आज लौ ,
दिल्ली हन्दा ढोल ||१८||
हे राजस्थान ! तू अपनी वीरता पर गर्व मत कर ,रुष्ट भी मत हो और न रण भूमि में लड़ने के लिए प्रतिकार के रूप में किसी प्रकार के मूल्य की ही कामना कर | क्योंकि आज तक दिल्ली की रक्षा के लिए आयोजित युद्धों के नक्कारे तेरे ही बल-बूते बजते रहे है |

हरवल रह नित भेजणा,
चुण माथा हरमाल |
बाजै नित इण देश रा,
तो माथै त्रम्बाल ||१९||
तुने सदैव युद्ध-भूमि में रहकर भगवान् शिव की मुंड-माला के लिए चुन-चुन कर शत्रुओं के शीश भेजे है | तेरे बाहू-बल के भरोसे ही इस देश के रण-वाध्य बजते आये है |

पान फूल चाढ़े जगत,
अमल धतुरा ईस |
थुं भेजे हरमाल हित,
चुण-चुण सूरां सीस ||२०||
संसार भगवान शंकर को पत्र-पुष्प तथा अफीम-धतूरे आदि की भेंट चढ़ाता है ,किन्तु हे राजस्थान ! तूं तो उनकी मुंड-माला के किये चुन-चुन कर शूरवीरों के शीश समर्पित करता है|

हिंद पीछाणों आप बल,
करो घोर घमसाण |
बिण माथै रण मांडणों ,
हरबल में रजथान ||२१||
हे भारत ! तुम अपनी शक्ति की स्वयं पहचान करो व घमासान युद्ध में जुट जाओ | तुम क्यों डरते हो ? सिर कटने पर भी भयंकर संग्राम करने वाले वीरों का देश राजस्थान आज युद्ध-भूमि में अग्रिम पंक्ति (हरावल) में जो है |

स्व.कु.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील


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